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तज दो तज दो!

ग़यास अहमद गद्दी

तज दो तज दो!

ग़यास अहमद गद्दी

MORE BYग़यास अहमद गद्दी

    ये अल्फ़ा*...

    बार-बार उसकी समाअत के तआक़ुब में ये अल्फ़ाज़ आते रहे। जब वो सोने के लिए बिस्तर पर दराज़ होता और ख़ामोश, सुनसान कमरे और उसकी दीवारों को तकते तकते थक जाता तो आँखें बंद कर लेता, फिर बंद आँखों में जाने कितनी सदियों की दरमियान फैल जातीं, अफ़्सुर्दगी का तसल्लुत हो जाता उसके बाद आहिस्ता-आहिस्ता उसके होंट हिलते, जहां से गोयाई हौले से सर उठाती और कुछ ऐसे अलफ़ाज़ अदा होते जिनको सुनने के लिए उसकी समाअत तैयार होती, वो कान बंदकर लेता और आँखें उस वक़्त आप ही आप खुल जातीं। कमरा वैसे ही वीरान होता। तन्हा तन्हा, फिर कहीं से ग़ुबार उठता जिसको दबाए दबाए उसका कलेजा फट जाता। ज़ब्त, ज़ब्त उसे के इख़्तियार से बाहर की चीज़ साबित होता वो आँखें मीचता, तब उसकी आँखों से आँसू के दो गर्म क़तरे आहिस्ता से ढलक आते।

    जिस दफ़्तर में वो काम करता था उसके सदर दरवाज़े से ऐन बीस गज़ के फ़ासिले पर एक दुम कटा कुत्ता हमदर्दी की राह तकता। ये सिलसिला बहुत दिनों से नहीं अभी चंद रोज़ से शुरू हुआ था। यही कोई पाँच छः महीने से! तो वो दुम कटा कुत्ता, चिल्ड्रेन पार्क का जो मोड़ दाहिनी तरफ़ मुड़ता था वहीं से उसके साथ हो लेता और ठीक उससे दो इंच के फ़ासले पर, उसके पीछे पीछे चला करता। यूं कि कुत्ते का थूथना, उसके पतलून की मोहरी से कभी-कभार छू भी जाता। पहले दिन तो उसने कुत्ते की हरकत पर उसे डाँटा, झिड़कियां दीं मगर कुत्ते ने कोई नोटिस लिया। यूं ही गर्दन झुकाए चुपचाप चलता रहा गोया ये उसका अपना पालतू कुत्ता हो और उसकी मुहाफ़िज़त में हो। दूसरे दिन उसने उसको लात रसीद की, धुत्कारा, मारने के लिए पत्थर उठाया जब भी वो बदस्तूर ज़मीन सूँघता चला गया। फिर एक दिन उसने सड़क पर पड़ी एक बेद से उसकी ख़ूब मरम्मत की और मारते मारते एक दम उसे निढाल कर दिया, इतना मारा कि वो औंधा हो कर फ़र्श पर गिर पड़ा। कुछ दूर जा कर पलट कर देखा तो वो उसी तरह फ़र्श पर औंधा पड़ा कें कें कर रहा है।

    वो आगे बढ़ गया और सौ दो सौ क़दम चलता रहा मगर उस दुम कटे कुत्ते का पता नहीं था। तब उसने गोया इत्मिनान का सांस लिया। ये क्या तुक थी, कम्बख़्त कुत्ते भी अजीब होते हैं। थोड़ी दूर तक चलने के बाद पलट कर देखा जब भी कुत्ता पलट कर नहीं आया तो उसे और भी इत्मिनान हो गया।

    उस दिन कुछ अजीब बात हुई, उसी चिल्ड्रेन पार्क में एक बहुत बड़ा मज्मा था। बेशुमार आदमियों की भीड़ थी आख़िरी सिरे पर कोई आदमी कफ़ दहिंदा ज़ोर ज़ोर से तक़रीर कर रहा था। बीच बीच में जब वो रुकता तो आदमियों के घने जंगल से तालियों की आवाज़ उठती तड़ातड़, तड़ातड़... तड़ातड़!

    वो कुछ देर तक ख़ामोशी से मज्मे को तकता रहा। दिलचस्पी से उसकी आँखें और कान दोनों लुत्फ़ अंदोज़ हो रहे थे, जब ही उसकी निगाहें उसके दस गज़ के फ़ासले वाले दरख़्त पर गईं। बड़ा घना सा इमली का पेड़ था। इमली का था... हाँ यक़ीनन इम्ली ही का था। जिसकी एक शाख़ पर एक बेहद गंदा, बेहद कराहियत पैदा करने वाला परिंदा बैठा था। उस वक़्त वो परिंदे और दरख़्त पर ध्यान भी नहीं देता मगर जैसे ही मज्मे में से तालियों की बेपनाह आवाज़ गूँजी पेड़ पर से कीं इं... की एक लंबी और घिनौनी आवाज़ सुनाई दी, ऐसी कि उसके बदन के रौंगटे खड़े हो गए। जब ही उसकी निगाहें उस दरख़्त की तरफ़ परिंदे पर उठीं वो सर से पांव तक सहम गया। उसे अजीब सा तजस्सुस हुआ, ऐसा क्यों हुआ? हो सकता है उसकी समाअत और बसारत दोनों ने मिलकर साज़िश की हो और उसे धोका दिया हो। चुनांचे जब दूसरी बार तालियाँ बजने लगीं तो वो कीं की आवाज़ सुनते ही परिंदे की तरफ़ मुड़ गया। उसने देखा जब तक तालियाँ बजती रहीं वो मनहूस परिंदा कीं कीं करता रहा, गर्दन को ऊपर से नीचे गिराता उठाता है। उस वक़्त परिंदे के बशरे से यूं ज़ाहिर हो रहा था गोया वो ज़ोर ज़ोर से हंस रहा हो, कीं कीं की मकरूह क्या थी यक़ीनन उसकी हंसी की आवाज़ थी। उसने सोचा ठीक है गोया परिंदे ने क़हक़हा लगाया हो।

    ऐसा क्यों हो रहा है? उसने मज्मे की तरफ़ देखा, उस लच्छेदार तक़रीर करने वाले की सिम्त देखा फिर अपने आपसे सवाल किया, ऐसा क्यों हो रहा है। ये नई बात, तक़रीरें यहां बराबर होती हैं तालियाँ भी बजती हैं। मगर इस से पहले ये अजीब सूरत-ए-हाल दरपेश होती थी।

    जहां तक उसकी यादाशत का ताल्लुक़ है, कभी ऐसा नहीं हुआ। उसने अपने आप को समझाने की कोशिश की, ये सब महज़ इत्तिफ़ाक़ है। ये परिंदा यहां जो बैठा है ये भी इत्तिफ़ाक़ है और ये भी कि वो गर्दन नीचे ऊपर करता है और ये भी ऐन इत्तिफ़ाक़ है कि उसी वक़्त तालियाँ बजती हैं, या फिर ये संजोग की बात है कि जब तालियाँ बजती हैं जब ही परिंदे के गले से आवाज़ निकलती है। या यूं कि उसने अपने आपको एक दाना आदमी की तरह समझाने की कोशिश में हर जानिब से तसल्ली करनी चाही कि मुम्किन है तालियों की आवाज़ सुनकर ही परिंदे की आँखें खुलती हैं और इस आवाज़ के सदमे से उसके गले से कीं कीं सदा फूटती है। हाँ, ये ठीक है। पिछले चंद महीनों जो वो बीमार रहा है बस इसी सबब वो बहुत ज़्यादा सोचने लगा है और कुछ औल फौल भी सोचने लगा है और ज़रूरत से कुछ ज़्यादा भी। वर्ना बात फ़क़त इतनी सी है कि तालियों के शोर से परिंदे की आँखें खुलती हैं और गले से आवाज़ भी निकलती है, इसमें कोई तअज्जुब ख़ेज़ पहलू भी कहाँ? बस बस इतनी सी ही बात है जब ही उसकी तवज्जो मिनटों में मज्मे की तरफ़ मुंतक़िल हो गई।

    वो तक़रीर करने वाला महापुरुष कोई अहम नुक्ते पर बोल रहा था। उसके दोनों हाथ फ़िज़ा में ज़ोर ज़ोर से तलवारें चला रहे थे और सुनने वाला मज्मा बेहद ध्यान से सांस रोके खड़ा था। तक़रीर की आवाज़ तो उस तक नहीं रही थी। मगर बात ज़रूर अहम थी, उसने अंदाज़ा लगाया जब ही लोग बुत बने... अभी वो ये ही सोच रहा था कि मज्मे ने फिर ज़ोर ज़ोर से तालियाँ बजाईं...

    तज दो... तज दो...

    अरे ये क्या, उसने पलट कर देखा, ये आवाज़ कहाँ से आई मगर... मगर... फिर आवाज़ आई तज दो...

    तो गोया ये आवाज़ परिंदे ही के हलक़ से आई थी। उसे बेहद ताज्जुब हुआ, शायद उसकी समाअत ने ख़ता की हो, ये दो अलफ़ाज़ तज दो, तज दो एक परिंदा इन्सानों की ज़बान कैसे बोल सकता है। तोता होता तो और बात थी। कहीं से रटे रटाए अलफ़ाज़ बोलता रहता। ये सिफ़त सिर्फ़ तोता और मैना ही को वदीअत हुई है कि इन्सानों की नक़्क़ाली में उनकी ज़बान आदमियों के चंद अलफ़ाज़ अदा कर सकती है मगर यह परिंदा तोता है मैना, ये कोई और परिंदा है, ये इस तरह नहीं बोल सकता, बोल ही नहीं सकता। उसने सोचा ये उसकी अपनी लंगड़ी समाअत का क़ुसूर है।

    इतने में तक़रीर ख़त्म हो गई। लोग तितर-बितर होने लगे। चंद जोशीले आदमियों ने मेज़ पर खड़े तक़रीर करने वाले साहब को कंधों पर उठाया और चीख़ते चिल्लाते सड़क की तरफ़ रवाना हुए। बड़ा जोशीला और बदन में लहू की रफ़्तार को तेज़ कर देने वाला मंज़र था। वो मह्वियत से चुप-चाप खड़े खड़े उस हयात अफ़रोज़ मंज़र को तकता रहा। ख़ुशी से उसकी बाछें खिल उठीं क्योंकि देर से उसकी रगों में मुंजमिद ख़ून रवां हो गया था, ये सब उसे बहुत अच्छा लगा।

    ज़रा देर में मज्मा छट गया। नारा लगाते लगाते कुछ लोग महापुरुष को कार तक ले गए। ऐन उसी वक़्त फड़ फड़ करते परिंदे ने पूरे मज्मे के ऊपर से चक्कर लगाया और ऊपर ही ऊपर मशरिक़ी उफ़ुक़ की तरफ़ हो लिया। उसने हैरत से देखा और ग़ौर किया तो उस वक़्त भी जब परिंदा लोगों के समुंदर पर चक्कर लगा रहा था, तज दो, तज दो, की आवाज़ सुनाई दे रही थी, ज़ोर ज़ोर से और जल्दी जल्दी... तज दो... तज दो...

    क्या ये, यही अलफ़ाज़ थे? या और थे। हो सकता है तज दो की बजाय, कोई और अलफ़ाज़ हों मिलते-जुलते, जैसे हम-शक्ल आदमी होते हैं। जिनमें इस दर्जा मुशाबहत होती है कि बिल्कुल एक से लगते हैं। फिर भी ग़ौर से देखने में दोनों में फ़र्क़ रहता है। ऐसे ही दो अलफ़ाज़ मिलते-जुलते हों, जिनके बाइस उसके ज़ह्न ने एक मफ़हूम पैदा कर लिया हो... ये सब बेकार बातें हैं, वो चंद दिनों से बहुत सोचने लगा है, इतना ज़्यादा कि सोच के बोझ तले उसका ज़ह्न कुचला जाता है।

    वो ख़ामोशी से सर झुकाए धीरे धीरे अपने घर की तरफ़ रवाना हुआ, उसने पान की दूकान से एक पैकेट सिगरेट ख़रीदी पैसे दिये और सिनेमा हाल की सरबलंद इमारत की तरफ़ हो लिया। जहां नई फ़िल्म का एक ख़ूबसूरत पोस्टर आवेज़ां था। पोस्टर बहुत ख़ूबसूरत था, एक नीम उर्यां हसीना समुंदर के किनारे रेत पर लेटी हुई थी। ऐसी कशिश थी कि आदमी दुनिया और माफ़ीहा दोनों को फ़रामोश कर जाये जब ही लोगों का ठट का ठट टूटा पड़ रहा था। उसने देखा उनमें से ज़्यादातर वही लोग थे जो अभी सियासी जलसे में ज़ोर ज़ोर से तालियाँ बजा रहे थे। उसी वक़्त उसने महसूस किया कि उसके पैरों के पास कोई चीज़ मुतहर्रिक है। उसका ज़ह्न दफ़्अतन बहुत सी बातें फ़क़त एक लम्हा में सोच गया, मगर वो सब कुछ नहीं था, जो कुछ उसने सोचा था। ये तो वही दुम कटा कुत्ता था।

    ये फिर गया, उसने सोचा ये कैसे इतनी दूर तक उसे ढूंढता ढांडता चला आया। कुत्ते की शामा के मुतअल्लिक़ उसने सुन रखा था कि वो बहुत तेज़ होती है चुनांचे ये दुम कटा कुत्ता उसके पीछे पीछे यहां तक चला आया।

    अब हर रोज़ का मामूल हो गया था, कुत्ता उसे चिल्ड्रेन पार्क के मोड़ पर मिलता, उसके लाख धुतकारने के बावजूद पीछे पीछे चलता उसके घर के दरवाज़े तक आता फिर वो दरवाज़ा बंद कर लेता। ज़रा देर तक वो कुत्ता दहलीज़ के आस-पास टहलता, फिर उसके बाद नामालूम सिम्त चला जाता, चंद मिनटों के बाद वो दरवाज़ा खोल कर देखता। कुत्ता जा चुका होता तब वो इत्मिनान का सांस लेता और अपनी बीवी से बातें करता चाय पीता, हँसता-बोलता।

    उसकी बीवी ने एक दिन टोक दिया, ये आप कमरे में आते ही दरवाज़ा बंद क्यूँ कर लेते हैं?

    दरवाज़ा बंद कर लेता हूँ।

    हाँ और कुछ देर बाद दरवाज़ा खोल कर देखते भी हैं। गोया कोई आदमी आपका पीछा कर रहा हो।

    कोई आदमी पीछा कर रहा हो? ये तुम क्या कह रही हो? मेरा कौन पीछा कर सकता है।

    उसकी बीवी ने बशाशत से कहा, ना कर रहा हो, मगर आपके चेहरे पर कुछ ऐसे ही तअस्सुरात नज़र आते हैं। उस वक़्त ऐसा ही लगता है।

    वो चौंक गया, ये बात सच्च हो सकती है, उसने सोचा अपनी बीवी को वो सब कुछ बता देगा। मगर अपने दिल ही दिल में अपने आपको समझाने लगा। इसमें बताने की बात ही क्या है। नीलू हँसने लगेगी। आख़िर इतनी ही सी बात है। इतनी सी बात पर वो घबराना छोड़ देगा, हमेशा की तरह ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम रहेगा। वो कुत्ता कोई गज़ंद तो नहीं पहुँचाता मामूली बात है। बेहद मामूली बात है।

    अब आप सोचने क्या लगे, इस तरह... उसकी बीवी नीलू ने चाय की प्याली बढ़ाते हुए कहा, बुक़रात मत बनिए टूटू की चिट्ठी आई है उसका नानी के पास जी नहीं लगता, मगर गोया उसने दूसरी बात सुनी नहीं। फ़ौरन जवाब दिया, क्या मैं बहुत सोचने लगा हूँ, ठीक ठीक...

    अजीब आदमी हैं। नीलू ने ताज्जुब से कहा, मैं टूटू की बात कर रही हूँ, आप...

    उस रोज़ उसने सोते वक़्त अह्द किया कि वो अब यूं एक छोटी सी बेहद ग़ैर अहम बात के लिए परेशान होगा और इस में जो ज़रा ला-ताल्लुक़ी पैदा होने लगी है हर चीज़ से, जो वो ग़लत तौर पर कटा कटा रहने लगा है। उसको रोक देगा। ये उसकी शायराना बेपर्वाई है मगर एक बीमार आदमी के से सोचने की आदत ठीक नहीं, ये कोई बात नहीं है। चुनांचे दूसरे दिन वो दफ़्तर में ख़ुशी ख़ुशी काम करता रहा। हल्का फुलका सा। उसके दोनों शाने जो इधर कई दिनों से भारी भारी लगते थे, आज सुबुक थे, बेफ़िकरी की एक कैफ़ियत थी जो उसके अंदर और बाहर दोनों अतराफ़ में मुसल्लत थी।

    शाम को जब दफ़्तर बंद होने का वक़्त आया, चीफ़ एडिटर ने उसे अपने कमरे में बुलाया, वो जा कर ख़ामोशी से एक कुर्सी पर बैठ गया। कमरे में उस के इलावा चंद एक और लोग भी थे। दो अस्सिस्टेंट एडिटर और छः कालम नवीस, सभों के चेहरे बश्शाश थे और आँखें चमक रही थीं।

    जब चाय का दौर चल चुका तो गोया एक ग़ैर रस्मी मीटिंग का इफ़्तिताह हुआ। सिर्फ़ चंद जुमलों में बहुत सी बातें चीफ़ एडिटर ने बताईं, वो ये कि पंद्रह-बीस दिन पहले ये अख़बार बिक चुका है। इसे मलिक के बहुत बड़े सेठ फ़ुलां ने इतनी कसीर रक़म के इवज़ ले लिया है। अख़बार ख़रीदने वाला सेठ बहुत नेक दिल इंसान है। उसने तमाम मुलाज़मीन की तनख़्वाह में इज़ाफ़ा कर दिया है और दूसरी सहूलतें भी मुहय्या कर दी हैं... और उसके बदले में...।

    चीफ़ एडिटर ख़ामोश हो गया। ज़रा ठहर कर बशाशत और वक़ार से कहा, और इसके बदले में वो कुछ भी नहीं चाहते, हत्ता के पालिसी में भी कोई पैसा बराबर तब्दीली नहीं चाहते! चीफ़ एडिटर यहां ख़ामोश हो गया और जब ही तड़तड़ करके तालियाँ बजीं... हत्ता के पालिसी...तड़, तड़तड़... तालियाँ...तालियाँ...

    दफ़्अतन वो चौंक उठा, जब ज़ोर ज़ोर से तालियाँ बज रही थीं, जब ही उसके कान बजे। वो दो अलफ़ाज़ की गूंज सुनाई दी, उसने जल्दी से गर्दन उठा कर देखा कहीं कुछ नहीं था। वो मनहूस परिंदा, कहीं नहीं था, उसकी आँखें फिरते फ़िराते दूर रौशनदान पर टिक गईं वो परिंदा नहीं था, मगर... मगर... कुछ था ज़रूर। रौशनदान के शीशे के पीछे कोई साया था उस वक़्त फिर उसके साथियों ने एडिटर की किसी बात पर, जिसे वो सुना चुका था तालियाँ बजाईं। उसी वक़्त रौशनदान के ज़र्द रंग के शीशे के पीछे कोई साया काँपा, कुछ आवाज़ भी आई फिर उसकी समाअत ने सुना... तज दो... तज दो... तज... अजीब सी सरासीमगी के ज़ेर-ए-असर उसने पास के खड़े अपने एक साथी को बाज़ू से पकड़ कर एहतियात से पूछा, तुमने कुछ सुना?

    क्या? उसके साथी ने तअज्जुब से पूछा।

    उधर देखो तो रौशनदान की तरफ़... उसके साथी ने रौशनदान की तरफ़ मुड़ कर देखा। क्या? कुछ भी तो नहीं है, तुम इतने डर क्यों रहे हो, क्या हो गया है तुम्हें?

    बात ये है। उसने सँभाला लिया, क्या तुमने ऐसे कोई अलफ़ाज़ नहीं सुने, जैसे कोई कह रहा हो...तज दो, तज दो!

    वो आदमी हँसने लगा, तुम पागल हो गए हो, जो अलफ़ाज़ तुम सुन रहे हो वो तो मैं भी सुन रहा हूँ, यहां सब ही लोग सुन रहे हैं।

    क्या है।

    ये ही जो चीफ़ एडिटर साहब...

    फिर ज़ोर ज़ोर से तालियाँ बजीं और मीटिंग बरख़ास्त हो गई।

    वो कुछ ज़्यादा बदहवास था, दिन भर जो उसने अपने आपको ख़ुशी ख़ुशी काम में मस्रफ़ रखा था, उस की सारी ख़ुशीयां मिट्टी में मिल गई थीं। उस का रंग क़दरे ज़र्द हो गया। जब उसने दफ़्तर की सीढ़ियाँ पार कर के तेज़ तेज़ क़दमों से चिल्ड्रेन पार्क का फ़ासिला तय किया...ऐन उसी वक़्त वो दुम कटा कुत्ता उसके पीछे लग गया।

    उसने आज कुत्ते को कुछ नहीं कहा, डाँटा, धुत्कारा मारा पीटा कुछ नहीं, बल्कि... बल्कि उसे अच्छा लगा, यूं महसूस हुआ कि शहर की इस भीड़ में जो वो चंद दिनों से अपने आपको तन्हा तन्हा महसूस कर रहा है, ख़ुसूसन दफ़्तर से घर आते वक़्त उसको सारे चेहरे अजनबी लगते हैं वहां ये कुत्ता गोया उसका सूरत आश्ना निकल आया है।

    अजनबी और सूरत आश्ना की बात निकली तो एक दिन बड़ा दिलचस्प वाक़िया हुआ, उस दिन जब दफ़्तर से घर पहुंचा तो उसकी बीवी कुछ नाराज़ थी, क्यों? क्यों उसने तो ऐसी कोई बात नहीं की थी जिससे नीलू को नाराज़गी होती। फिर नीलू तो उससे नाराज़ होती भी नहीं थी। आज क्या बात हुई बहुत मनाने समझाने पूछने पर वो रो पड़ी।

    कल डैडी आए थे, कह रहे थे कल बाज़ार में तुमने उनको देखकर आँखें फेर लीं, बात तक नहीं की।

    मैंने कब? कहाँ? कल तो मैंने उन्हें देखा भी नहीं।

    वो तुम्हें पुकारते रहे, तुमने उनकी तरफ़ देखा भी बल्कि चंद सेकंड तक देखते रहे मगर उनकी बात का जवाब नहीं दिया और अजनबियों की तरह चल दिये।

    उसने घंटों अपने ज़ह्न पर ज़ोर दिया मगर कुछ याद नहीं आया। कहाँ नीलू के डैडी उसे मिले थे, कब मिले थे? नीलू कहती है उनकी तरफ़ तकते रहे और आगे बढ़ गए। इस दिन उसमान ने भी राह चलते उसे रोक लिया था, कि सामने देखकर भी आगे बढ़ जाते हो।

    नहीं यार... उसने लजाजत से जवाब दिया, माफ़ करना देखा नहीं।

    ये देखो बेशर्मी, साले देखा क्या, देखते रहे, मिनटों और आगे बढ़ गए हो, हरामज़ादे चश्मपोशी करते हो?

    उसने नीलू को मिन-ओ-अन ये वाक़िया सुना डाला। क्यों नीलू ऐसा क्यों होता है?

    सोचते रहते होंगे हर दम। नीलू हंसी, पड़ गया होगा किसी उल्लू का साया...

    उल्लू के नाम पर वो चौंक गया। उल्लू, हाँ, वो परिंदा, वो मनहूस परिंदे की शक्ल भी उल्लू ही से मुशाबेह थी। अब उसे याद आया। वैसा ही गंदा ग़लीज़ मकरूह, वैसी ही बड़ी बड़ी गोल गोल आँखें और इस तरह क़ीं... करते वक़्त उसकी बाछें खिल जाती हैं। यक़ीनन वो परिंदा उल्लू ही होगा। उल्लू को कभी उसने देखा नहीं। मगर उसकी हय्यत का उसे पता था, वो परिंदा यक़ीनन उल्लू ही होगा, उल्लू ही... उल्लू ही।

    अच्छा नीलू, ज़रा ये बताओ तो उल्लू होता कैसा है? उसने कमाल संजीदगी से ये सवाल अपनी बीवी से किया। जब वो उस के पहलू में लेटी उस का बोसा लेने के लिए झुक रही थी, उसने उंगलियां बढ़ा कर उन्हें रोक दिया था। नीलू रुक गई। उसके दोनों जाँ-ब-लब होंट थरथरा कर रह गए।

    क्यों नीलू कैसा होता है?

    फिर उसकी बीवी झल्ला गई, वो उठ खड़ी हुई तौहीन के असरात से वो बेहद बदमज़ा हुई ज़रा देर बाद वो ज़ोर ज़ोर से चलती हुई वापस आई तो उसके हाथ में आईना था, ऐसा होता है। उसने उसके चेहरे के सामने कर के कहा और आईने को पलंग पर पटक दिया।

    फिर वो उठ खड़ा हुआ। आईने को अलमारी में रखा और पास खड़ी बीवी की कमर में बाँहें डाल कर उसे मनाने लगा ज़रा देर में वो मान गई। उसकी बीवी ने उदासी से कहा कि वो आजकल कुछ बुझा बुझा रहने लगा है, शायद उसकी तबीयत ठीक नहीं रहती। नीलू ने बताया कि उसमें वो तपाक वो गर्मजोशी भी नहीं रही। लगता है वो उस वक़्त वहां होता ही नहीं। किसी और दुनिया की सैर...

    क्या बात है, उसमें इतनी बहुत सारी तब्दीलियां क्यों आती जा रही हैं। कहाँ से आती जा रही हैं। ये भी सच्च है कि कल के मुक़ाबले में आज वो सोचने बहुत लगा है। क्या सोचता रहता है वो... ख़ुद उसे पता नहीं। क्यों सोचता है वो। उसे किस बात की कमी है?

    बहुत सारे सवाल उसके ज़ह्न में गूँजते रहते और वो ख़ामोशी से पलंग पर लेटा रहता। उसे किस बात की कमी है, ख़ूबसूरत प्यार करने वाली बीवी, फूल सा बच्चा, मुल्क के सबसे अहम अख़बार में मुलाज़मत, अच्छी तनख़्वाह, बल्कि इधर तनख़्वाह में इज़ाफ़ा भी...

    कभी कभी उसे महसूस होता कि असल मसला तनख़्वाह में इज़ाफे़ का ही है। जिस दिन से उसकी तनख़्वाह में इज़ाफ़ा हुआ है, या इज़ाफ़ा होने की प्लैनिंग हुई होगी, उसी दिन से चंद नई नई बातें उसकी ज़िंदगी में ज़हूर पज़ीर होने लगी हैं। उसी दिन से वो दुम कटा कुत्ता उसके पीछे लग गया है और उसके चंद दिनों बाद ही वो परिंदा नज़र आया... वो मगर वो परिंदा, वो उल्लू, हाँ उल्लू ही। कहते हैं जिस जगह ये परिंदा मतलब है उल्लू बसेरा लेता है वहां नहूसत फैलती है। वीरानी बिराजने लगती है। उल्लू, फिर इमली का पेड़, इमली का पेड़ भी मनहूस है, उसने सुन रखा था कि जो शख़्स मुसलसल इमली के साये तले बैठता है, उसे कोढ़, जज़ाम हो जाता है। पहली बार उसने इमली के पेड़ पर ही उस परिंदे को देखा था जिस के बशरे पर हंसी फूटती थी। बड़ी घुन्नी हंसी, मगर वो कीं कीं की आवाज़ पैदा होती थी... तो क्या कोई मुसीबत आने वाली है, कोई बर्बादी फैलने वाली है। उसने अपने एक दोस्त से संजीदगी से पूछा, सच्च बताओ क्या तुम महसूस करते हो कि... कि कोई बर्बादी आने वाली है?

    कैसी बर्बादी? उसके दोस्त ने शराब का गिलास उठाते हुए कहा, मैं तो ऐसा नहीं महसूस करता, मैं तो मज़े में हूँ, मेरी सास मर गई और तीन लाख...

    तो कोई बर्बादी नहीं आने वाली है। ये सब उसका वहम है। वो बहुत सारे वाक़ियात जो पै दर पै उसकी ज़िंदगी में रूनुमा हो गए हैं, जिनके तसलसुल के बाइस उसके ज़ह्न ने ख़ुद नताइज अख़्ज़ कर लिये हैं कि कोई बात होने वाली है वर्ना हक़ीक़तन ऐसी कोई बात नहीं है। सभी ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम हैं। सिर्फ़ वही ख़्वाह-मख़्वाह उलझन का शिकार है।

    वो भी ख़ुश रहने की की कोशिश करने लगा। यही ठीक है वो इतना बहुत सोचेगा नहीं। जा-ब-जा सोच ही का नतीजा है कि उसकी ज़िंदगी में बहुत सी ग़लत बातें राह पा गई हैं। ग़लत बातें जैसे उल्लू की आवाज़ पर इस दर्जा सोचना। जैसे अपने अज़ीज़ों को देखकर भी आगे बढ़ जाना। लेकिन ये अजीब बात है वो सोच की दुनिया में इस क़दर क्यों रहता है कि आस-पास की चीज़ों से बे-ख़बर हो जाता है। ये तो नुक़्सानदेह है... नहीं वो ऐसा नहीं करेगा। सारी ख़लक़त जिस बहाव में रवां है वो भी उसी में बहेगा, वो भी वही करेगा!

    फिर ज़िंदगी मामूल पर आने लगी। उसने सोचना छोड़ दिया। एक आज़ार से गोया नजात मिलने लगी। अच्छा है जैसे सब लोग रहते हैं वो भी रहेगा। वो दिन भर दफ़्तर में काम करता, हँसता बोलता... शाम को दोस्तों के साथ ख़ुश गप्पियाँ भी करता। ख़ूब ख़ूब।

    नीलू मुस्कुरा कर एक रोज़ कह उठी...

    हुँह, इतना भी क्या चोंचला, लगता है ऐक्टिंग कर रहे हैं।

    वो धक से रह गया। उसके रवैय्ये में फ़र्क़ आगया है, बनावट?

    लेकिन बहुत देर तक सोचने के बाद वो इस नतीजे पर पहुंचा कि वाक़ई वो ज़िंदगी को ज़्यादा शिद्दत के साथ पकड़ने की कोशिश कर रहा है ख़्वाहिश के बग़ैर... लेकिन वो क्या करे, नीलू को प्यार नहीं करता है तब भी शिकायत, ये बनावटी ज़िंदगी तो उसने कभी पसंद ही नहीं की। फिर ऐसा क्यों होता है। नहीं नीलू ग़लत सोच रही है। यूं ही रवादारी में उसने ये जुमला कह दिया है... बनावट, तसन्नो कहाँ से आएगा... वो तो शुरू से इस बात के लिए मशहूर है बल्कि बदनाम है कि वो हर काम में बहुत खरा है... मगर यह बनावट। उसने ग़ौर किया। जब से अख़बार नए मालिक के हाथ में चला गया है, स्टाफ़ के लोग बहुत ख़ुश रहने लगे हैं। उनकी ज़रूरतें पूरी होती हैं शायद इसलिए मगर... उनके हरकात-ओ-सकनात में कुछ नई बातें भी राह पाने लगी हैं।

    ये नई बातें क्या थीं?

    उस दिन उसने अपने ज़ह्न पर बहुत ज़ोर दिया। मगर समझ में कुछ नहीं आया। कोई नई बात ज़रूर थी जैसे कोई पानी का गिलास किसी को दे तो इस एहतियात से कि कहीं गिलास हाथ से छूट जाये... उसी तरह, जैसे कोई गिलास थमाते वक़्त भी एहतियात बरते कि लेते वक़्त भी वो गिलास उसके हाथ से छूट जाये।

    वो दिन भर यही ऊटपटांग बातें सोचता रहा। दफ़्तर में काम करते वक़्त आज फिर उसका जी नहीं लगा... एक नामालूम सी ख़लिश उसे तंग करती रही।

    आज फिर वो पटरी से उतर गया।

    ये कमबख़्त उलझनें... और उलझते रहने का दौरा, ज़रा सी बात, इतना ही तो नीलू ने कहा था कि प्यार करते वक़्त बनावट सी...

    फिर सिलसिला शुरू हुआ तो वो सोचता ही चला गया...

    उसने ज़ह्न को झटक दिया। अब वो कुछ नहीं सोचेगा। जितनी ऊटपटांग बातें उसके अंदर की दुनिया में दर आई हैं, उनको उसने सख़्ती से रोक दिया। उसने आँखें बंद कर लीं और ज़ह्न को अपनी ख़ूबसूरत बीवी नीलू और एक बच्चे के बाद भी नई बनी हुई चारपाई की तरफ़ मुंतक़िल कर दिया। उसने नीलू की तरफ़ देखा नहीं, जो उसके पहलू वाले पलंग पर सोई हुई थी। सिर्फ़ तसव्वुर ही तसव्वुर में इसके उर्यां जिस्म से लुत्फ़ अंदोज़ होता रहा।

    और यूं कई मिनट गुज़र गए। उसने अपने आपको हल्का महसूस किया और लगा कि एक बोझ धीरे धीरे उसके वजूद पर से उतर रहा है और कहीं दूर से नन्ही नन्ही नींद की परियाँ आँखों में बिराजने लगी हैं... और ज़रा देर बाद वो वाक़ई सो गया... गहरी नींद... और फिर सुब्ह-ए-सादिक़ के वक़्त ही उसकी आँख खुली!

    अब वो यही करता, जब भी उसके ख़यालात उलझने लगते या ऊटपटांग बातें उसको सताने लगतीं वो तसव्वुर ही तसव्वुर में नीलू को उर्यां करता, उसके जिस्म पर हाथ फेरता... ये अमल कहीं भी जारी रहता, दफ़्तर में भी, राह चलते भी और यूं उसे राहत नसीब होती।

    ये ठीक है। बस यही तरीक़ा कार-ओ-मद है। जिसके बाइस ज़ह्न अज़िय्यतों से नजात हासिल कर सकता है। उसने इत्मिनान महसूस किया।

    रफ़्ता-रफ़्ता उसका ज़ह्न शगुफ़्तगी महसूस करने लगा और रात को गहरी नींद आने लगी। ख़ूब गहरी और प्यारी नींद। यही वो चाहता था। सोच सोच कर घुलने से क्या हासिल। सारी दुनिया ख़ुश, हर आदमी अपने काम के बाद अपने बीवी बच्चों में, यार दोस्तों में ख़ुश रहता है। उससे कम तनख़्वाह पाने वाले भी बल्कि बहुत ग़रीब भी जिनको अक्सर फ़ाक़े नसीब होते हैं, वो भी मज़े में रहते हैं। जलने से क्या फ़ायदा?

    लेकिन उन ही दिनों एक अजीब वाक़िया हुआ। या फिर ये कि वाक़िया तो बहुत मामूली था मगर उसने अहमियत बहुत दे दी। इस फ़ैसले के बाद भी कि वो आइन्दा बड़ी से बड़ी बात को भी कम से कम अहमियत देगा। यूं बज़ाहिर बहुत छोटी सी बात थी। शहर के चौक में चिल्ड्रेन पार्क है उसके बीचों बीच चबूतरे पर लंबे से पोल से झंडा लहराया करता था। जिसके किनारे कुछ सुर्ख़ सुर्ख़ नज़र आया।

    चंद आदमी ग़ौर से देख रहे थे।

    सुर्ख़ी कहाँ से आई और सुर्ख़ी क्या थी?

    फुरेरे का किनारा लहू से तर हो गया था।

    दफ़्अतन वो चौंक उठा। लहू से कैसे तर हो गया?

    वो आगे बढ़ा और चबूतरे पर खड़ा हो गया। जिसके दरमियान झंडे का पोल गिरा था। वाक़ई लहू ही था। जीता जीता लहू...

    वो मह्वियत और ख़ौफ़ से देख रहा था... देख तो और भी लोग रहे थे मगर उनके चेहरों पर किसी तरह का ख़ौफ़, किसी तरह का तरद्दुद नहीं था। यूँही तमाश-बीनों वाली कैफ़ियत थी।

    क्या बात हो सकती है?

    एक आदमी ने पास खड़े एक आदमी से पूछा।

    कुछ नहीं यार, कोई ज़ख़्मी परिंदा उड़ता उड़ता फुरेरे से लिपट गया होगा।

    इसी तरह की मुख़्तलिफ़ क़यास आराइयाँ की जा रही हैं।

    लेकिन वो सरासीमा था। वो अभी झंडे को ग़ौर से देख रहा था कि टप से एक क़तरा उसकी नाक के बांसा पर गिरा। धक से उसका कलेजा उछल गया। वो हड़बड़ा कर चबूतरे से उतर आया। उसका दिल धक धक बे तहाशा धड़के जा रहा था। उसने इधर उधर कुछ नहीं देखा, ऐसे कैसे हो गया। फुरेरे का किनारा ख़ून से जीते ख़ून से तर था, लहू में नहाया था!

    लंबे लंबे डग भर कर उसने घर की राह ली, जैसे कोई उसको रगेदे चला रहा हो। उसने पता नहीं किस ख़ौफ़ के ज़ेर-ए-असर पलट कर देखा, कोई नहीं था, सिर्फ़ वह दुम कटा कुत्ता हस्ब-ए-दस्तूर उसके पीछे चला रहा था। वो जितना तेज़ चल रहा था, उतनी ही तेज़ कुत्ते की रफ़्तार थी। उसने ग़ौर किया कि अभी जब उसने पलट कर पीछे की तरफ़ देखा था कि कोई और उसका तआक़ुब तो नहीं कर रहा है। उसी वक़्त उसी इन्हिमाक से कुत्ते ने भी मुड़ कर देखा था।

    लेकिन फिर उसके दिमाग़ में ख़ून में लुथड़े हुए फ़ुरेरे का किनारा चमक उठा... उसका दिल फिर बे-तहाशा धड़कने लगा। चुनांचे वो तेज़ तेज़ क़दम बढ़ाता गोया पनाह की तलाश में अपने घर में दाख़िल हुआ और जल्दी से दरवाज़ा बंद कर दिया। वो दुम कटा कुत्ता वहीं बाहर दहलीज़ पर बैठ गया।

    ज़रा देर बाद, जब उसने दरवाज़ा खोल कर देखा, तो ख़िलाफ़-ए-तवक़्क़ो कुत्ते को बाहर दहलीज़ पर बैठे देखकर उसे तअज्जुब हुआ उलझन, ख़ौफ़, इत्मिनान... मगर नहीं...सुकून जैसी कोई चीज़ थी जो उसके अंदर की दुनिया में फैलती जा रही थी...

    उसने फिर दरवाज़ा बंद किया और ज़रा देर ख़ामोशी से खड़ा रहा।

    उसकी बीवी खड़ी खड़ी उसकी बदहवासी का तमाशा देख रही थी। जब वो आँगन उबूर कर के उसके क़रीब आया तो उसने रास्ता रोक लिया...

    क्या हुआ, ऐसे घबराए हुए क्यों हो?

    कौन हो तुम?... नीलू कहाँ है? वो ग़ौर से नीलू का चेहरा तकता रहा।

    अरे क्या हो गया आपको? उसकी बीवी ने हैरत से तक़रीबन चीख़ते हुए कहा, आप मुझे नहीं पहचान रहे हैं, मैं नीलू ही तो हूँ।

    अरे हाँ... हाँ। वो सँभल गया। अपने हवास में आगया। माफ़ करना नीलू, मैंने देखा नहीं।

    देखा नहीं। उसकी बीवी ने ताज्जुब से कहा।

    कुछ नहीं, छोड़ो इस बात को। उसने नीलू की कमर में फिर बाज़ू हमाइल कर दिये और अंदर की तरफ़ ले चला। तुम्हें आज एक दिलचस्प और हैरत अंगेज़ बात सुनाएँ। उसने ज़ब्त किया। जज़्बात और सरासीमगी का रेला जो उसे बहाए लिये जा रहा था, उसने उस पर क़ाबू पा लिया। उसने दिल ही दिल में फ़ैसला किया कि इस वाक़े को वो निहायत नॉर्मल ढंग से नीलू को बताएगा यूं कि नीलू सुनकर उसे बेवक़ूफ़ बनाए।

    क्या बात है बताइए? नीलू कमरे में आकर बोली, मगर ठहरिए, पहले आप मुँह-हाथ धो लीजिए, इतनी देर में मैं चाय बना लेती हूँ।

    वाक़िया सुनकर नीलू ने कोई तअज्जुब का इज़हार नहीं किया। यही बात है, कोई ज़ख़्मी परिंदा गुज़र रहा होगा फुरेरे से उलझ गया। बस... इस में हैरत की क्या बात है? नीलू ने उसकी गर्दन में बाँहें डाल दीं।

    इसमें हैरत की बात ही नहीं है क्या? उसने नीलू को ज़ोर से झटक दिया, हटो परे... तुमको हर वक़्त... आठ साल शादी को हो गए... जाने दुनिया पर कैसी बर्बादी आने वाली है और तुम हो कि, तुम्हारे दिमाग़ में एक ही बात...

    नीलू... उसकी बीवी चकरा गई ये सुनकर, ज़िल्लत और कमज़ोरी के एहसास ने उसे रुला दिया। वो दाँत पीसती, रोती और बुदबुदाती दूसरे कमरे में चली गई लेकिन उसको ज़रा नदामत नहीं हुई। उसकी बीवी ख़ूबसूरत और मुहब्बत करने वाली बीवी उससे रूठ कर चली गई, उसने ज़रा सी बात पर उसको ज़लील कर दिया। लेकिन उसको ज़रा शर्मिंदगी नहीं हुई।

    रात को उसके कमरे में नीलू नहीं आई। दूसरे कमरे में अंदर से दरवाज़ा बंद कर के सो गई और सिसकियाँ ले-ले कर रोती रही। मगर उसको ज़रा भी एहसास नहीं हुआ।

    आज तो उसका ज़ह्न बुरी तरह परागंदा था। वो चारपाई पर ख़ामोश पड़ा छत की तरफ़ तक रहा था और उसका दिल ख़ौफ़ और मायूसियों तले निढाल सा था। उसकी आँखें खुली थीं। ऊपर छत पर टिकी थीं। वो चारपाई पर पड़ा यूँ महसूस कर रहा था जैसे वो किसी गहरे स्याह समुंदर की क़ैद में चुप चाप पड़ा हो और उसके ऊपर से भयानक मौजें गुज़र रही हों और बड़े बड़े आबी परिंदे भी जिनकी आँखें गोल गोल और बशरे हंसते रहते हैं।

    ख़ौफ़ से आने वाले कल के ख़ौफ़ से उसका दिल धड़क कर रुक जाता। फिर उसने शिद्दत से आँखें मीच लीं और बड़ी कोशिशों के बाद अपने आपको काले समुंदर की तह से उभारा और नीलू के ख़ूबसूरत जिस्म की ताबंदगी को तसव्वुर में जगाता रहा और उसने अपने आप पर एहसान किया कि उसका वुजूद हल्का पड़ जाये। उसके दिल पर जो भारी बोझ सा है वो हल्का हो। आँखों में नींद की परियाँ बसेरा लें... रात बहुत बीत गई थी। बाहर और अंदर हर तरफ़ सन्नाटा मुसल्लत था।

    उसने पलट कर देखा, कमरा ख़ाली था, दीवारें बड़ी गहरी चुप साधे खड़ी थीं। आज... नीलू भी नहीं थी, दूसरे कमरे में रोते-रोते सो चुकी थी, फिर कहीं से सनसनाता हुआ समुंदर उसके वुजूद के ऊपर से गुज़रने लगा। बड़ी हैबतनाक मौजें उसको रौंदती जा रही थीं... परिंदा... दफ़्अतन उसकी आँख खुल गई। बड़ा गहरा अंधेरा था। वो शायद सो गया था... नहीं, शायद नहीं सोया था। मगर कुछ यूं महसूस हुआ गोया नींद और बेदारी के दरमियान कहीं खो गया था कुछ देर के लिए, लेकिन अब कमरे में सख़्त अंधेरा था। सिर्फ़ खिड़की से चांद की हल्की चांदनी दाख़िल हो रही थी... उसने खिड़की की जानिब ग़ौर से देखा, देर तक देखता रहा...

    वो क्या देख रहा है?

    उसकी छटी हिस को किस शय की तलाश थी?

    उसके अपने सवालों के जवाब कौन देता? वो ख़ुद से सवाल करता, उसने आँखें बंद कर लीं। गहरा अंधेरा जिसमें टूटती बिखरती सफ़ेद लकीरें पपोटे के अंदर जल्दी जल्दी फैलती, दौड़ती कोई शबीह बनाती हुई लकीरें... ये क्या चीज़ हो सकती है?

    दफ़्अतन उसके कान में टूटे टूटे अल्फ़ा*... फिर उसने महसूस किया जैसे सामने वाली खिड़की के बाहर किसी परिंदे के पर बहुत धीमे से फड़फड़ाये। उसने आँखें खोल दीं और उस खिड़की की तरफ़ ग़ौर से देखा... नहीं, वहां कुछ नहीं था... उसने फिर आँखें बंद कर लीं और तसव्वुरात का रुख़ नीलू के ख़ूबसूरत जिस्म... ऐन उसी वक़्त उसके कान में वही अलफ़ाज़ गूँजे... मगर इस बार ज़रा वाज़ेह वही अलफ़ाज़ थे। बिल्कुल वही... वही...

    वो समझ गया। उसने पलट कर देखा तो खिड़की पर कोई काली चीज़ धीरे धीरे मुतहर्रिक थी... फिर पर फड़फड़ाये फिर उसके कानों में आवाज़ आई... तज दो... तज दो।

    उसने खड़े हो कर चारों ओर देखा और जल्दी से अपने कानों में उंगलियां डाल लीं, लेकिन फिर वही आवाज़ आई, जलते हुए सुलगते हुए अंगारा सिफ़त अल्फ़ा... उसकी आँखें फिर उधर मुड़ गईं, खिड़की पर कोई परिंदा...

    उसने फिर आँखें बंद कीं और ज़ोर से मीच लीं, फिर कान में जो उंगलियां दे रखी थीं, उन्हें सख़्त कर लिया, फिर हर बार वो बदहवासों की तरह आँखें खोलता, खिड़की की जानिब देखता, कान की उँगलियाँ ढीली करता, फिर सख़्त कर लेता... ये अमल बहुत देर तक जारी रहा... तब वो थक गया। वहशत से, बेबसी से, उसने चारों तरफ़ देखा, वहां कोई नहीं था, नीलू भी नहीं थी... तन्हाई, तन्हाई, उसका जी भर आया और वो रो पड़ा... रोता रहा।

    वो रो रहा था और इउके कान बज रहे थे। लगातार, वही मनहूस अलफ़ाज़ गूंज रहे थे और जब वो रो रहा था, उसने देखा वो दुम कटा कुत्ता जिसे वो बाहर छोड़ आया था और अंदर आकर दरवाज़ा बंद कर लिया था... उसके लिहाफ़ में मौजूद था।

    वो कुत्ता तक़रीबन उससे चिमटा, उसके गाल पर अपना थूथना रखे, उसकी आँखों से बहते हुए आँसूओं को धीरे धीरे चाट रहा था।

    ...और उसके कान बदस्तूर इन अल्फ़ाज़ से गूंज रहे थे... तज दो... तज दो

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