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तरक़्क़ी का इब्लीसी नाच

अशफ़ाक़ अहमद

तरक़्क़ी का इब्लीसी नाच

अशफ़ाक़ अहमद

MORE BYअशफ़ाक़ अहमद

    स्टोरीलाइन

    कहानी तरक्क़ी के निस्बत लोगों के बदलते मिज़ाज के गिर्द घूमती है। इंसान लगातार तरक्क़ी करता जा रहा है। तरक्क़ी की इस रफ़्तार में वह अक्सर उन चीज़ों की ईजाद कर रहा है जिनकी उसे कोई ज़रूरत ही नहीं है। हमारे पास कार, टेप रिकॉर्डर और दूसरी चीज़ें हैं। फिर वह उनके नए-नए वर्ज़न बना रहा है और इस चक्कर में हम उस इल्म को छोड़ते जा रहे हैं जो हमें हमारे पूर्वजों से मिला है और जिसकी हम सभी को ज़रूरत है।

    आज से चंद रोज़ पहले की बात है, मैं एक इलेक्ट्रोनिक्स की शाप पर बैठा था तो वहां एक नौजवान लड़की आई। वो किसी टेप रिकार्डर की तलाश में थी। दुकानदार ने उसे बहुत आला दर्जे के नए नवेले टेप रिकार्डर दिखाए लेकिन वो कहने लगी मुझे वो मख़सूस क़िस्म का मख़सूस Made का मख़सूस नंबर वाला टेप रिकार्डर चाहिए। दुकानदार ने कहा, बीबी ये तो अब तीसरी Generation है, इस टेप रिकार्डर की और जो अब नए आए हैं, वो उसकी निस्बत कारकर्दगी में ज़्यादा बेहतर हैं। लड़की कहने लगी कि ये नया ज़रूर है लेकिन मेरा तजुर्बा कहता है कि ये उससे बेहतर नहीं। मैं बैठा ग़ौर से उस लड़की की बातें सुनने लगा क्योंकि उसकी बातें बड़ी दिलचस्प थीं और वो इलेक्ट्रोनिक्स के इस्तिमाल की माहिर मालूम होती थी।

    इंजिनियर तो नहीं थी लेकिन उसका तजुर्बा और मुशाहिदा ख़ासा था। वो कहने लगी कि आप मुझे मतलूबा टेप रिकार्डर तलाश कर दें। मैं आपकी बड़ी शुक्रगुज़ार होंगी। मैंने उस लड़की से पूछा, बीबी आप उसको ही क्यों तलाश कर रही हैं? उसने कहा कि एक तो उसकी मशीन बेहतर थी और उसको मेरी ख़ाला मुझसे मांग कर दुबई ले गई हैं और मैं उनसे वापस लेना भी नहीं चाहती लेकिन अब जितने भी नए बनने वाले टेप रिकार्डर्ज़ हैं, उनमें वो ख़सुसियात और खूबियां नहीं हैं जो मेरे वाले में थीं। इस वाक़िया के दूसरे तीसरे रोज़ मुझे अपने एक अमीर दोस्त के साथ कारों के एक बड़े शो रूम में जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ। शो रूम के मालिक ने हमें कार का एक मॉडल दिखाते हुए कहा कि ये मॉडल तो अभी बाद में आएगा लेकिन हमने अपने मख़सूस ग्राहकों के लिए उसे पहले ही मंगवा लिया है। उन्होंने बताया कि इस मॉडल में पहले की निस्बत काफ़ी तब्दीलियां की गई हैं और ये कमाल की गाड़ी बनी है।

    मैंने इस्तिफ़सार किया कि क्या पिछले साल की गाड़ी में कुछ ख़राबियां थीं जो आपने अब दूर कर दी हैं? वो ख़राबियों के साथ ही चलती रही है, उसमें क्या इतने ही नक़ाइस थे जो आपने दूर कर दिए ? कहने लगे, नहीं इशफ़ाक़ साहिब ये बात नहीं। हम कोशिश करते रहते हैं कि इसमें जिद्दत आती रहे और अच्छी, बासहूलत तब्दीली आती रहे। तो ये सुनकर मेरा दिमाग़ पीछे की तरफ़ चल पड़ा और मुझे ये ख़याल आने लगा कि हर नई चीज़, हर पेचीदा चीज़, हर मुख़्तलिफ़ शय यक़ीनन बेहतर नहीं होती।

    इस मर्तबा मेरी सालगिरह पर मेरी बीवी ने मुझे काफ़ी परकुलेटर दिया और वो उसे ख़रीदने के बाद घर इस क़दर ख़ुश आईं कि बता नहीं सकता। कहने लगीं मैं बड़े अर्से से इसकी तलाश में थी। ये बिल्कुल आपकी पसंद का है और ये आपको इटली की याद दिलाता रहेगा। आप इसमें काफ़ी बनाया करें। मैंने देखा, वो बिल्कुल नया था और उसमें प्लास्टिक का इस्तिमाल ज़्यादा था लेकिन उसका पेन्दा कमज़ोर था और वज़न ज़्यादा था। दूसरा उसकी बिजली के प्लग तक जाने वाली तार भी छोटी थी और जब मैंने उसे लगा कर इस्तिमाल किया तो उसमें पानी खौलाने की इस्तिताअत तो ज़्यादा थी लेकिन काफ़ी भापियाने की ताक़त उसमें बिल्कुल नहीं थी। चुनांचे मैं उनका (बानो क़ुदसिया) दिल तो ख़राब करना नहीं चाहता था और मैंने कहा, हाँ ये अच्छा है लेकिन फ़िलहाल मैं अपने पुराने परकुलेटर से ही काफ़ी बनाता रहूँगा।

    जब वो चली गईं तो उस वक़्त मैंने कहा, या अल्लाह (मैंने अल्लाह से दुआ की जो मेरी दुआओं में अब भी शामिल है) मुझे वो सलाहियत और इस्तिताअत अता फ़र्मा कि अगर तू नई चीज़ और तरह-ए-नौ की कोई इख़्तिरा वो बेहतर साबित हो बनी नौ इन्सान के लिए और तेरी भी पसंद की हो तो वो मैं इख़्तियार करूँ, लेकिन सिर्फ़ इस वजह से कि चूँकि ये नई है, क्योंकि लोगों का घेरा उसके गिर्द तंग होता जा रहा है, क्योंकि ये तवज्जो तलब है तो इसलिए मैं इस से दूर रहूं। चुनांचे ये बात मेरे दिल में उतर गई और मैं Progress के बारे में सोचता रहा कि तरक़्क़ी जिसके पीछे हम सारे भागे फिरते हैं और जिसके बारे में जगह जगह, घरों में, घरों से बाहर, मुहल्लों शहरों में, हुकूमतों और उसके बाहर तरक़्क़ी की जानिब एक बड़ी ज़ालिम दौड़ जारी है। उस दौड़ से मुझे डर लगता है कि हासिल तो इससे कुछ भी नहीं होगा क्योंकि तरक़्क़ी में और फ़लाह में बड़ा फ़र्क़ है। मैं और मेरा मुआशरा, मेरे अह्ल-ओ-अयाल और मेरे बाल बच्चे फ़लाह की तरफ़ जाएं तो मैं उनके साथ हूँ, ख़ाली तरक़्क़ी ना करें। ख़वातीन-ओ-हज़रात, ये इंतिहाई गौरतलब बात है कि क्या हम तरक़्क़ी के पीछे भागें या फ़लाह की जानिब लपकें और अपनी झोलियाँ फ़लाह की तरफ़ फैलाएँ।

    लाहौर के क़रीब गुजरांवाला शहर है। इस में Adult एजूकेशन (तालीम-ए-बालग़ां) के बड़े नामी गिरामी स्कूल हैं। मुझे उनके स्कूल में एक दफ़ा जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ तो वहां किसान, ज़मींदार, गाड़ीबान तालीम हासिल कर रहे थे और इस बात पर बड़े ख़ुश थे कि चूँकि उन्होंने तालीम हासिल कर ली है और वो फ़िक़्रों और हिंदिसों से शनासा हो गए हैं। इस लिए अब उन्होंने तरक़्क़ी कर ली है। चुनांचे वहां एक बहुत मज़बूत और बड़ा हँसमुख सा गाड़ीबान था। मैंने कहा, क्यों जनाब गाड़ीबान साहिब, आपने इल्म हासिल कर लिया? कहने लगा, हाँ जी मैंने इल्म हासिल कर लिया है। मैंने कहा, अब आप लिख-पढ़ सकते हैं, कहने लगे, लिखने की तो मुझे प्रैक्टिस नहीं है अलबत्ता मैं पढ़ ज़रूर लेता हूँ। मैंने कहा, आप क्या पढ़ते हैं? कहने लगा, जब मैं सड़क पर से गुज़रता हूँ तो जो संग-ए-मील होता है, मैं अब उसे पढ़ने की सलाहियत रखता हूँ। मैंने उससे पूछा कि उस संग-ए-मील पर क्या कुछ लिखा होता है। कहने लगा, मैं हर संग-ए-मील पर ये तो पढ़ लेता हूँ कि अस्सी मील या सत्तर मील लेकिन कहाँ का अस्सी मील, कहाँ का सत्तर मील। ये मुझे कभी पता नहीं लगा कि किस तरफ़ है। ये सत्तर मील कहाँ के हैं। इसके बावजूद वो कह रहा था कि मैं तरक़्क़ी याफ़्ता हो गया हूँ और मैंने अब तरक़्क़ी कर ली है। ये इस क़िस्म की तरक़्क़ी है (मुस्कुराते हुए ) ये राह में नई चीज़ होने के बावस्फ़ बड़ी हाइल होती है।

    मैं इस पर काफ़ी हद तक सोचता और ग़ौर करता रहता हूँ कि मेरे अल्लाह क्या हम हर नई शय को हर Modern चीज़ को अपना लें। ये तो वो था जो गुज़श्ता दिनों मेरे साथ पेश आया और मैंने इसकी दुआ की कि या अल्लाह मैं तुझसे इस बात का आर्ज़ूमंद हूँ कि कुछ पुरानी चीज़ें जो हैं, मैं उनका साथ देता रहूं मसलन मैं पुरानी ज़मीन का साथ देता रहूं, मैं पुराने चांद सितारों का साथ देता रहूं। अल्लाह मैं अपने पुराने दीन के साथ वाबस्ता रहूं और या अल्लाह मेरी बीवी से जो 38 साल पुरानी शादी है, मेरी आरज़ू है कि वो भी पुरानी ही रहे और इसी तरह चलती रहे। मुझे मालूम है कि मेरे दोस्त और मेरे जानने वाले मुझ पर ज़रूर हँसेंगे और मुझे एक दक़ियानूस इन्सान समझेंगे और मेरा मज़ाक़, ठट्ठा उड़ाएँगे और मुझे बहुत Fundamentalist समझेंगे, बुनियाद परस्त ख़याल करेंगे लेकिन मैं कोशिश कर के, जुर्रत कर के बहुत सारी चीज़ों के साथ वाबस्ता रहता हूँ। उन्हें चाहता हूँ और कुछ नई चीज़ें जो मेरी ज़िंदगी में दाख़िल हो कर मेरे पहलुओं से हो कर गुज़र रही हैं, उनमें जो ठीक है, जो मुनासिब है, जो मुझे फ़लाह की तरफ़ ले जाती हों, मैं उनकी तरफ़ माइल होना चाहता हूँ और मुझे ये यक़ीन है कि ख़ुदा मेरी दुआ यक़ीनन क़बूल कर लेगा।

    जहां तक तब्दीली का ताल्लुक़ है तो इस हवाले से अगर आप ग़ौर करें तो ऐसी कोई तब्दीली आई ही नहीं है या आती नहीं जैसी कि आनी चाहिए। अगर आप तारीख़ के तालिब इल्म हैं भी तो यक़ीनन आप तारीख़ के बारे में बहुत कुछ जानते हैं। आपने ज़रूर पढ़ा होगा या किसी दास्तानगो से ये कहानी सुनी होगी कि पुराने ज़माने में जब शिकारी जंगल में जाते थे और शिकार करते थे, किसी हिरन, नीलगाय का या किसी ख़ूँख़ार जानवर का तो वो ढोल ताशे बजाते थे और ऊंची ऊंची घनी फसलों में नीचे नीचे हो कर छुप कर अपने ढोल और ताशे का दायरा तंग करते जाते थे और उस दायरे के अंदर शिकार घबरा कर, बेचैन हो कर, तंग आकर भागने की कोशिश में पकड़ा जाता था और दबोच लिया जाता था। उनका ये शिकार करने का एक तरीक़ा था। हाथी से लेकर ख़रगोश तक इसी तरह से शिकार किया जाता था। ये तरीक़ा चलता रहा और वक़्त गुज़रता रहा।

    ख़वातीन-ओ-हज़रात, बड़ी अजीब-ओ-ग़रीब बातें मेरे सामने जाती हैं और मैं परेशान भी होता हूँ लेकिन शुक्र है कि मैं उन्हें आपके साथ Share भी कर सकता हूँ। मेरे साथ एक वाक़िया ये हुआ कि मैंने सिनेमा में, टीवी पर और बाहर दीवारों पर कुछ इश्तिहार देखे, कुछ इश्तिहार मुतहर्रिक थे और कुछ साकिन, कुछ बड़े बड़े और कुछ छोटे छोटे थे और मैं खड़ा हो कर उनको ग़ौर से देखने लगा कि ये पुरानी शिकार पकड़ने की जो रस्म है, वो अभी तक मादूम नहीं हुई वैसी की वैसी ही चल रही है। पहले ढोल ताशे बजा कर, शोर मचा कर रौला डाल के शिकारी अपने शिकार को घेरते थे और फिर उसको दबोच लेते थे। अब जो इश्तिहार देने वाला है वो ढोल ताशे बजा के अपने स्लोगन, नारे, दावे बयान कर के शिकार को घेरता है, शिकार बिचारा तो मासूम होता है। उसे ज़रूरत नहीं है कि मैं ये मख़सूस साबुन खरीदूं या पाउडर खरीदूं। उसे तो अपनी ज़रूरत की चीज़ें चाहिऐं होती हैं लेकिन चूँकि वो शिकार है और पुराने ज़माने से ये रस्म चली रही है कि उसका घेराव किस तरह से करना है तो वो बज़ाहिर तो तब्बदील हो गई है लेकिन ये बातिन उसका रुख और उसकी सोच वैसी की वैसी है।

    आपने देखा होगा, आप ख़ुद रोज़ शिकार बनते हैं। मैं बनता हूँ और हम इस नर्ग़े और दायरे से निकल नहीं सकते। फिर जब हम शिकार की तरह पकड़े जाते हैं और चीख़ते चिल्लाते हैं तो फिर अपने ही घर वालों से पिंजरे के अंदर जाने के बाद लड़ना शुरू कर देते हैं और अपने ही अज़ीज़-ओ-अका़रिब से झगड़ा करते हैं कि तुम्हारी वजह से ख़र्चा ज़्यादा हो रहा है। दूसरा कहता है,, नहीं तुम्हारी वजह से ये मसला हो रहा है। हालाँकि हम तो शिकारी के शिकार में फंसे हुए लोग हैं। अगर हम ये समझते हैं कि तरक़्क़ी होगी और वो शिकार का पुराना तरीक़ा गुज़र चुका है तो मैं समझता हूँ और आपसे दरख़्वास्त करता हूँ कि ये काम तरक़्क़ी की तरफ़ माइल नहीं हुआ है बल्कि हम इसी नहज पर और इसी ढब पर चलते जा रहे हैं। जैसा कि मैंने बताया कि ऐसे अजीब-ओ-ग़रीब वाक़ियात मेरे साथ वक़ूअ पज़ीर होते रहते हैं और मैं उन पर हैरान भी होता रहता हूँ और कहीं अगर उन्हें जब डिस्कस करने का मुनासिब मौक़ा नहीं मिलता तो मैं आपकी ख़िदमत में पेश कर देता हूँ। फिर मुझे कई ख़ुतूत मिलते हैं और लोग, ख़त लिखने वाले मुझे रास्त और दुरुस्त क़दम उठाने पर माइल करते हैं। मैं आप सब का शुक्रगुज़ार हूँ।

    बादशाहत के ज़माने और उससे पहले पत्थर और धात के ज़माने से लेकर आज तक जितने भी अदवार गुज़रे, ग़ुलामों की तिजारत को बहुत बड़ा फे़अल समझा जाता रहा है। लोग ग़ुलाम लेकर जहाज़ों में फिरते थे। उन्हें बिलआख़िर फ़रोख़्त कर के अपने पैसे खरे कर के चले जाते थे और इस से बड़ा और क्या दुख होगा कि इन्सान बिकते थे और कहाँ कहाँ से आकर बिकते थे और वो अपने नए मालिकों के पास कैसे रह जाते थे। ये एक बड़ी दर्दनाक कहानी है, कि महाराजों की हुकूमत में दासियां बिकती थीं जो मंदिरों में नाच और पूजापाट करती थीं। ये दासियां दूर दराज़ से चल कर आती थीं, उन्हें ज़्यादातर मंदिरों में रखा जाता था। कपिलवस्तु के राजा शुद्दोदन का बेटा सिद्धांत जो अपने बाप को बहुत ही प्यारा था और वो बाद में महात्मा बुद्ध के नाम से मशहूर हुआ। उसका दिल लगाने के लिए उसके बाप ने एक हज़ार लौंडियां ख़रीद के महल में रखी थीं ताकि साहबज़ादे को दुख, ग़म, बीमारी, बुढ़ापे और मौत से आश्नाई हो। ये लौंडियां शहज़ादे का दिल बहलाती थीं और ये रस्म पहले से ही चलती रही थी, हत्ता के एक वक़्त ऐसा भी आया और इस बात की तारीख़ गवाह है कि एक जलील-उल-क़दर पैग़ंबर और उनके वालिद भी पैग़ंबर थे, वो दुनिया के हसीनतरीन शख़्स थे। वो भी बिक गए। मैं ये हज़रत-ए-यूसुफ़ अलैहिस सलाम की बात कर रहा हूँ। उनकी भी बाक़ायदा बोली लगी थी।

    ये दर्दनाक कहानियां चली आती रही हैं और ऐसे वाक़ियात मुसलसल होते रहे हैं। हज़रत ईसा, हज़रत मूसा के ज़माने में गु़लामी का दौर और रस्म भी थी। गु़लामी और इन्सानी तिजारत के ख़िलाफ़ सबसे पहली आवाज़ जो उठी वो नबी करीम मुहम्मद सल्ल अल्लाह अलैहि वसल्लम की थी। आप सल्ल अल्लाह अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि ये निहायत क़बीह रस्म है। चलती तो ज़मानों से रही है और उसे पूरा का पूरा रोकना बहुत मुश्किल हो जाएगा लेकिन मैं दरख़्वास्त करता हूँ कि जब भी मौक़ा मिले तो चलो अपने सौ ग़ुलामों में से किसी एक ग़ुलाम को रिहा कर दिया करो। अल्लाह तुम्हारे लिए ज़्यादा आसानियां पैदा करेगा। फिर जब किसी से कोई गुनाह कबीरा सरज़द हो जाता तो आप सल्ल अल्लाह अलैहि वसल्लम फ़रमाते कि सब गुनाह माफ़ हो जाऐंगे अगर तुम ये ग़ुलाम आज़ाद कर दो।अगर वो शख़्स कहता कि हुज़ूर सल्ल अल्लाह अलैहि वसल्लम मैं तो ग़रीब आदमी हूँ, मेरे पास कुछ नहीं तो आप सल्ल अल्लाह अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया, ग़ुलाम किसी से क़िस्तों पर ले लो ( कोई पाँच रुपये महीना, तीन रुपये महीना अदा करते रहना) लेकिन ग़ुलाम आज़ाद कर दो। ये गु़लामी की ऐसी क़बीह रस्म थी जिससे इन्सान आहिस्ता-आहिस्ता निकलने की कोशिश करता रहा लेकिन फिर अमरीका में तो उसने बाक़ायदा खेल की सूरत इख़्तियार कर ली, अफ़्रीक़ा से ग़ुलामों के जहाज़ भर भर कर लाए जाते थे और उन अफ़्रीक़ी लोगों को अमरीका के शहरों में फ़रोख़्त कर दिया जाता था।

    आपने सात क़िस्तों में चलने वाली फ़िल्म रूटस तो देखी ही होगी। उसको देखकर पता चलता है कि गोरे किस-किस तरीक़े से कैसे ज़ुल्म-ओ-सितम के साथ काले (स्याह फ़ाम) ग़ुलामों को ला कर मंडियों में फ़रोख़्त करते थे। चंद दिन पहले की बात है ये दुख जो ज़ह्न के एक ख़ाने में मौजूद है, उसे लेकर मैं चलता रहता था जैसा के आप भी चलते रहते हैं तो मुझे एक इंटरव्यू कमेटी में बतौर Subject Expert रखा गया। मैं वहां चला गया। उस कमेटी में कुल आठ अफ़राद थे। वो आठ अफ़राद का पैनल था जिसमें ख़वातीन और मर्द भी थे और वहां एक एक कर के Candidate रहे थे और हम उनसे सवाल करते थे। ब्रॉडकास्टिंग और लिखने-लिखाने के हवाले से सवाल पूछना मेरे ज़िम्मा था। वो बहुत बड़ा इंटरव्यू हर एक से लिया जा रहा था। वहां किसी साहिब ने बाहर से आकर मुझे कहा कि एक साहिब आपसे मिलने आए हैं। घर से उन्हें पता चला कि आप यहां हैं तो यहां पहुंच गए।

    मैं अपने दीगर कमेटी के अरकान से इजाज़त लेकर और माज़रत कर के बाहर गया कि बराह-ए-करम ज़रा देर के लिए इस इंटरव्यूज़ के सिलसिले को रोक लिया जाये। मैं हाल में उस साहिब से मिलने के लिए गया। वो साहिब मिले, बात हुई और वो चले गए लेकिन मैं थोड़ी देर के लिए हाल में उन उम्मीदवारों को देखने लगा जो बड़ी बेचैनी की हालत में अपनी बारी आने का इंतिज़ार कर रहे थे और जो बारी भुगता के बाहर निकलता था। उससे बार-बार पूछते थे कि तुमसे अंदर क्या पूछा गया है और किस-किस क़िस्म के सवाल हुए हैं? और उन बाहर बैठे उम्मीदवारों के चेहरों पर तरद्दुद और बेचैनी और इज़तिराब अयाँ था।

    मैं खड़ा हो कर उन लोगों को देखता रहा और हैरान होता रहा कि अगले ज़माने में तो लौंडी ग़ुलाम बेचने के लिए मंडी में ताजिर बाहर से लाया करते थे। आज जब तरक़्क़ी याफ़्ता दौर है और चीज़ें तब्दील हो गई हैं, ये नौजवान लड़के और लड़कियां ख़ुद अपने आपको बेचने और ग़ुलाम बनाने के लिए यहां तशरीफ़ लाए हैं और चीख़ें मार मार कर और तड़प-तड़प कर अपने आपको, अपनी ज़ात, वजूद को, जिस्म-ओ-ज़ह्न और रूह को फ़रोख़्त करने आए हैं और जब इंटरव्यू में हमारे सामने हाज़िर होते हैं और कहते हैं, सर, मैंने ये कमाल का काम किया है, मेरे पास ये सर्टीफ़िकेट है, मेरे पुराने मालिक का जिसमें लिखा है कि जनाब इस से अच्छा ग़ुलाम और कोई नहीं और ये लौंडी इतने साल तक ख़िदमतगुज़ार रही है और हम इसको पूरे नंबर देते हैं और इसकी कारकर्दगी बहुत अच्छी है और सर, अब आप ख़ुदा के वास्ते हमें रख लें और हम ख़ुद को आपके सामने पेश करते हैं। मैं सोचता हूँ कि क्या वक़्त बदल गया? क्या इन्सान तरक़्क़ी कर गया? क्या आप और मैं इस को तरक़्क़ी कहेंगे कि किसी माशीयत के बोझ तले, किसी इक़तिसादी वज़न तले हम अपने आपको ख़ुद बेचने पर मजबूर हो गए हैं। अपनी औलाद को अपने हाथों ले जा कर ये कहते हैं कि जनाब इसको रख लो। इसको ले लो और हमारे साथ सौदा करो कि इसको गु़लामी और इसको लौंडी गिरी के कितने पैसे मिलते रहेंगे।

    ये एक सोच की बात है और एक मुख़्तलिफ़ नौईयत की सोच की बात है। आप इस पर ग़ौर कीजिए और मुझे बिल्कुल मना कीजिए कि ख़ुदा के वास्ते ऐसी सोच आइन्दा मेरे आपके ज़ह्न में आया करे क्योंकि ये कुछ ख़ुशगवार सोच नहीं है। क्या इन्सान इस काम के लिए बना है कि वो मेहनत-ओ-मशक़्क़त और तरद्दुद करे और फिर ख़ुद को एक पैकेट में लपेट के उस पर ख़ूबसूरत पैकिंग कर के गोटा लगा के पेश करे कि मैं फ़रोख़्त के लिए तैयार हूँ। ये ऐसी बातें हैं जो नज़र के आगे से गुज़रती रहती हैं और फिर ये ख़याल करना और ये सूचना कि इन्सान बहुत बरतर हो गया है, बरतर तो वो लोग होते हैं जो अपने इर्द-गिर्द के गिरे पड़े लोगों को सहारा देकर अपने साथ बिठाने की कोशिश करते हैं और वही कौमें मज़बूत और ताक़तवर होती हैं जो तफ़रीक़ मिटा देती हैं। दौलत, इज़्ज़त, औलाद ये सब ख़ुदा की तरफ़ से अता करदा चीज़ें होती हैं लेकिन इज़्ज़त-ए-नफ़स लौटाने में, लोगों को बराबरी अता करने में ये तो वो अमल है जो हमारे करने का है और इससे हम पीछे हटे जाते हैं और अपनी ही ज़ात को मोतबर करते जाते हैं।

    एक दफ़ा हमारे बाबा जी के डेरे पर एक नौजवान सा लड़का आया। वो बेचारा टांगों से माज़ूर था और उसने हाथ में पकड़ने और वज़न डालने के लिए लकड़ी के दो चौखटे से बनवा रखे थे। वो बाबा जी को मिलने, लंगर लेने और सलाम करने आया करता था। मैं वहां बैठा था और उसे देखकर मुझे बहुत तकलीफ़ हुई और चूँकि बाबा जी के सामने हम आज़ादी से हर क़िस्म की बात कर लिया करते थे। इस लिए मैंने कहा, बाबा जी आपके ख़ुदा ने इस आदमी के लिए कुछ सोचा। ये देखिए नौजवान है, अच्छा लेकिन सेहत मंद है। बाबा जी ने हंसकर कहा, सोचा क्यों नहीं। सोचा बल्कि बहुत ज़्यादा सोचा और इस आदमी ही के लिए तो सोचा। मैंने कहा, जी क्या सोचा इस आदमी के लिए, कहने लगे, इसके लिए तुमको पैदा किया, कितनी बड़ी सोच है अल्लाह की। अब ये ज़िम्मेदारी तुम्हारी है। मैंने कहा, जी (मुस्कुराते हुए) आइन्दा से डेरे पर नहीं आना। ये तो कंधों पर ज़िम्मेदारियाँ डाल देते हैं।

    दूसरों के लिए सोचना तो फ़लाह की राह है और ये तरक़्क़ी जिसे हम तरक़्क़ी समझते हैं या वो तरक़्क़ी जो आपके, हमारे इर्द-गिर्द इब्लीसी नाच कर रही है या वो तरक़्क़ी जो आपको ख़ौफ़नाक हथियारों से सजा रही है। उसे तरक़्क़ी तो नहीं कहा जा सकता। आज से कुछ अर्सा क़ब्ल आप जानते हैं कि इस दुनिया में दो सुपर पावर्ज़ थीं और उनका आपस में बड़ा मुक़ाबला रहता था और वो काग़ज़ी जंग लड़ते हुए और इलैक़्ट्रोनिक की लड़ाई लड़ते हुए आपस में हमेशा एक दूसरे की तक़ाबुल करते थे और एक दूसरी को ये ताना देती कि मैं तुमसे बड़ी सुपर पावर हूँ और दूसरी पहली को और वो अपनी सुपर पावर और तरक़्क़ी की परख और पैमाना ये बताती थीं कि जैसे एक कहती कि तुम दस सेकंड में एक मिलियन अफ़राद को मलियामेट कर सकती हो, हम 5 सेकंड के अंदर एक मिलियन इन्सान हलाक कर सकते हैं। इस लिए हम बड़ी सुपर पावर हैं।

    इसके इलावा उन्होंने कभी तक़ाबुली मुताले में या मुआमले में और किसी बात पर फ़ख़्र ही नहीं किया। तो क्या इन्सानियत इस राह पर चलती जाएगी और जो इल्म हमें पैग़म्बरों ने अता किया है और जो बातें उन्होंने बताई हैं, वो सिर्फ़ इस वजह से पीछे हटती जाएँगी कि हम नई चीज़ें और नए लोग हासिल करते चले जा रहे हैं। बहर कैफ़ ये दुख की बातें हैं और बहुत से लोग मेरे साथ इस दुख में शरीक होंगे। अब आपसे इजाज़त चाहूँगा।

    अल्लाह आपको आसानियां अता फ़रमाए और आसानियां तक़सीम करने का शरफ़ अता फ़रमाए।

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