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टूटी हुई सड़क

मोहम्मद जमील अख़्तर

टूटी हुई सड़क

मोहम्मद जमील अख़्तर

वो एक छोटे से गाँव की एक छोटी सी सड़क थी, जिसके इर्द-गिर्द दरख़्त ही दरख़्त थे दरख़्तों के पीछे स्कूल की ‘इमारत थी, उस सड़क पर आप अगर चलते जाएँ तो आगे हस्पताल जाएगा जहाँ एक डाक्टर साहिब बैठते थे, जो सबको एक ही तरह की कड़वी अदवियात देते थे। उनके पास कोई दवा मीठी नहीं थी। दवा के फ़ौरन बा’द आपको चीनी भी खाना पड़ती थी, लेकिन अब वो डाक्टर साहिब मा’लूम नहीं कहाँ होंगे कि ये बहुत पुरानी बात है।

उस सड़क में कुछ भी ख़ास बात नहीं थी लेकिन मा’लूम नहीं मुझे वो सड़क भूलती क्यों नहीं, उसके एक सिरे पर बिजली का खंबा नसब था। जब रात होती तो बल्ब जलता और सब बच्चे उसके नीचे खेला करते, जब बहुत बारिश होती तो सड़क पर पानी ही पानी होता और अपनी कश्तियाँ ले कर सड़क के दरिया में उतर जाते, मा’लूम नहीं मुझे वो सड़क वो खंबा क्योंकर याद है, वहाँ एक बच्चा था जो शायद दरख़्त के साथ टेक लगाए अब भी बैठा हो, वो जो सारी दोपहर दरख़्त के नीचे गुज़ारता था। उसे गाँव से, उस सड़क से और वहाँ के परिंदों से मुहब्बत थी। उसे उस गाँव से मुहब्बत थी जहाँ अम्न-ओ-सुकून था।

शायद वो अब भी स्कूल की फ़ीस जो उससे राह में कहीं खो गई थी ढूँढ रहा हो, सारी दोपहर निकल गई थी। ढूँढ-ढूँढ के थक गया था लेकिन उसे रुपये मिले, बग़ैर पैसों के वो स्कूल जा सकता था और घर, मा’लूम नहीं वो कितनी बार सड़क पर आया और गया था, वो बार-बार सूरज को देखता कि कहीं डूब जाए। ये डूब गया तो अँधेरे में रुपये क्योंकर मिलेंगे। लेकिन सूरज को क्या ख़बर? सो वो डूब गया... वो परेशान हो कर खम्बे के नीचे टेक लगा कर बैठ गया...

शायद वो अब भी वहाँ बैठा हो...

वो बिल्कुल ही आ’म सी सड़क थी।

वही लड़का कि जो मेरे साथ शहर सका, अपने हम-जमा’अतों से झूट बोलता था कि सड़क के किनारे दरख़्तों में जिन परिंदों के घोंसले हैं वो सारे परिंदे उसके दोस्त हैं और जब बाक़ी लड़के नहीं होते तो परिंदे दरख़्तों से उतर कर आते हैं और वो मिलकर खेलते हैं, सब कहते थे ये झूट है। ऐसा भला क्योंकर मुम्किन है। सबने कहा अगर ऐसा है तो हम छुप कर बैठेंगे और देखते हैं परिंदे कैसे नीचे आते हैं, सब लड़के झाड़ियों में छिप गए और वो लड़का दरख़्त के नीचे बैठ गया, परिंदे नहीं आए, परिंदों को क्या ख़बर कि वो कौन है, लेकिन वो बैठा रहा। शायद वो अब भी बैठा हो। उसी दरख़्त से टेक लगाए। परिंदों को देख रहा हो कि ये कब नीचे आकर उससे खेलेंगे... वो परिंदे उसके दोस्त थे लेकिन वो नहीं आए और सब लड़के उस पर हँसने लगे थे।

वो लड़का बहुत झूटा था। वो ये भी कहता था कि मैं बहादुर हूँ और मैं अकेला कई लोगों से लड़ सकता हूँ, छुट्टी के बा’द उसी सड़क पर चलते हुए चार लड़कों ने उसकी ख़ूब धुनाई की और उसकी शर्ट के बटन भी तोड़ दिए, उसे थप्पड़ पड़ता था और वो ज़मीन पर अपने बटन तलाश कर रहा था।

“ठहरो मुझे बटन उठा लेने दो, ठहरो, एक मिनट ठहरो... ये... ये मेरी जेब है। देखो, देखो। जेब छोड़ दो।”

जेब भी फट गई थी, बटन भी टूट गए थे।

“अब बताओ तुम्हें तो बड़े कराटे आते थे। तुम तो कई लोगों से लड़ सकते थे अब बताओ।” और वो लड़के चले गए। उसने बटन तलाश किए, जब सारे बटन मिल गए तो उसे एहसास हुआ कि उसकी कुहनी से ख़ून भी बह रहा है...

वो वहीं सड़क के किनारे बैठ कर रोने लगा, शायद वो अब भी वहीं बैठा रो रहा हो...

मैं भला उसे कैसे साथ ला सकता था। वो ख़ुद बहुत ज़िद्दी था हालाँकि गाँव के हालात अब पहले से नहीं रहे थे।

हुआ यूँ कि एक ज़ालिम देव ने अपने हामियों समेत गाँव पर क़ब्ज़ा कर लिया, ज़ुल्म की सियाह रात छा गई थी, सूरज निकलता था लेकिन दिन नहीं होता था, काली सियाह रात में, जिसमें कोई अगर उजाला करना चाहता तो उसे सज़ा दी जाती, ग़रीब डरे हुए लोग अब आहिस्ता-आहिस्ता गाँव छोड़ कर जा रहे थे, दीवार-ओ-दर को, अब दीमक चाट रही थी, वो गाँव और वो गलियाँ कि जो सारा दिन बच्चों के शोर-ओ-ग़ुल से मुस्कुरा रही होतीं, अब वीरान हो कर सिसक रही होतीं, हत्ता कि वो खंबा कि जिसके नीचे हर शाम बच्चे खेला करते थे, उदास था।

सड़क और ज़ियादा टूट गई थी और उसके इर्द-गिर्द झाड़ियाँ भी बढ़ने लग गईं थीं, अब गाँव में सिर्फ़ देव के हामी और चंद ही और लोग रह गए थे और ज़ुल्म-ओ-सितम जारी था। मुख़ालिफ़ीन के घर तोड़े जा रहे थे और लोग उस देव के ख़िलाफ़ कुछ कर सकते थे, ग़रीब लोग भला कर ही क्या सकते थे, वो एक शाम कि जब देव के कारिंदे आए और हमें भी घर ख़ाली करने को कहा, हाँ वो घर कि जिस की एक-एक ईंट मुहब्बत से रखी गई थी, वो दीवारें जो मकीनों को जानती थीं, मकीन दीवारों को जानते थे, वो घर ख़ाली करने था, सो सामान बांध लिया गया था, लेकिन वो लड़का उसी टूटी हुई सड़क के किनारे बैठा था जहाँ अब झाड़ियाँ ही झाड़ियाँ थीं। स्कूल बंद हो गया था और वो डाक्टर साहिब जो कड़वी दवाइयाँ दिया करते थे वो भी अब आते, लेकिन फिर भी वो लड़का वहीं बैठा था। मैंने उसे बहुत समझाया कि देखो ये लोग बहुत ज़ालिम हैं, अब हमारा गुज़ारा यहाँ मुम्किन नहीं हम ग़रीब नातवाँ लोग इन ज़ालिमों के ख़िलाफ़ कर ही क्या सकते हैं, उठो मेरे प्यारे, अब यहाँ वीरानियाँ ही वीरानियाँ हैं, यहाँ स्कूल है हस्पताल और तुम्हारे सारे दोस्त भी अब ये गाँव छोड़कर जा चुके हैं सो हमें भी जाना होगा। पर वो नहीं माना उसका ख़याल था कि परिंदे उसके दोस्त हैं सो वो वहीं रहेगा और वो उसी टूटी सड़क पर ही रह गया... और मैं शहर गया।

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