उलझन
स्टोरीलाइन
अपनी शादी के तामझाम पर खुद से ही तब्सिरा करती एक लड़की की कहानी। शादी इंसान की ज़िंदगी का सबसे अहम मरहला होता है। इस अमल के बारे में नौजवान और उनमें भी ख़ासतौर से लड़कियाँ ढ़ेरों ख़्वाब सजाए रहती हैं। मगर जब शादी होती है तब एहसास होता है कि वे ख़्वाब हक़ीक़त से कितनी दूर थे। शादी की चहल-पहल, रिश्तेदारों की बतकही और फिर जीवन-साथी से होने वाली मुलाकातें, सब मिलकर इंसान को एक उलझन में डाल देते हैं।
रात आई, ख़ैर के लिए हाथ उठाए गए और उसके ब्याह का ऐ’लान किया गया... वो लाल दुपट्टे में सिमटी हुई सोचने लगी कि इतना बड़ा वाक़िया’ इतने मुख़्तसर अ’र्से में कैसे तक्मील तक पहुंचा, वो तो ये समझे बैठी थी कि जब बरात आएगी तो ज़मीन और आसमान के दरमियान अलिफ़ लैला वाली परियों के ग़ोल हाथों में हाथ डाले, परों से मिलाए बड़ा प्यारा सा नाच नाचेंगे, बिखरे हुए तारे इधर उधर से खिसक कर एक दूसरे से चिमट जाऐंगे और टिमटिमाते हुए बादल की शक्ल इख़तियार कर लेंगे और फिर ये बादल हौले हौले ज़मीं पर उतरेगा, उसके सर पर आकर रुक जाएगा और उस के हिना आलूद अंगूठे की पोरों की लकीरें तक झिलमिला उट्ठेंगी, दुनिया के किनारों से तहनियत के ग़लग़ले उट्ठेंगे और उसके बालियों भरे कानों के क़रीब आकर मंडलाएँगे... वो तो ये समझती थी कि ये दिन और रात का सिलसिला सिर्फ उसके ब्याह के इंतिज़ार में है, बस जूंही उसका ब्याह होगा, पूरब पच्छिम पर एक मटियाला सा उजाला छा जाएगा... जिसे न दिन कहा जा सकेगा और न ही रात... बस झुटपुटे का सा समां रहेगा क़ियामत तक और जूंही बरात उसके घर की दहलीज़ उलांगेगी ये सारा निज़ाम खिलखिला कर हंस देगा और तब सब लोगों को मा’लूम होगा कि आज गौरी का ब्याह है।
लेकिन बस बरात आई, लंबी लंबी दाढ़ियों वालों ने आँखें बंद कर के दुआ’ के लिए हाथ उठाए, शकर और तिल तक़सीम किए गए और फिर उसे डोली में धक्का दिया गया, ढोल चिंघाड़ने लगे, शहनाइयाँ बिलकने लगीं, गोले भोंकने लगे और वो किसी अनदेखे, अनजाने घर को रवाना कर दी गई।
डोली में से बहुत मुश्किल से एक झिर्री बना कर उसने मीरासियों की तरफ़ देखा, काले कलोटे भुतने, मयाल ढोल और मरी हुई संपोलियों की सी शहनाइयों, न बीन न बाजा न तोंत्नियाँ न अण्टों के घुटनों पर झनजनाते हुए घुंघरु, न गोले न शिरकनियाँ, जैसे किसी की लाश क़ब्रिस्तान ले जा रहे हों।
हाँ वो लाश ही तो थी और ये डोली उसका ताबूत था, सफ़ेद कफ़न के बजाय उसने लाल कफ़न ओढ़ रखा था और फिर ये नथ, बुलाक़, झूमर, हार... बालियां... ये क़ब्र वाले बिच्छू और कनखजूरे थे, जो उसे क़दम क़दम पर डस रहे थे।
डोली के क़रीब बार-बार एक बूढ़े की खांसी की आवाज़ आ रही थी, शायद वो दूल्हा का बाप था... फिर जिस दूल्हा का बाप पल पल-भर बाद बलग़म के इतने बड़े बड़े गोले पटाख से ज़मीन पर दे मारता है, वो ख़ुद कैसा होगा... हाए-री।
वो रो दी, वो इससे पेशतर भी रोई थी, जब उसकी माँ ने उसे गले से लगाया और सरगोशी की... मेरी लाडली गौरी... तेरी इ’ज़्ज़त हमारी इ’ज़्ज़त है, तू अब पराए घर जा रही है, बड़े सलीक़े से रहना वर्ना नाक कट जाएगी, हमारी... या’नी उसकी माँ को इस मौक़ा पर भी अपनी नाक की फ़िक्र हुई, भट्टी में दाना स्पंद डाल दिया जाये... माँ को उसके दिल की परवाह ना थी, उस वक़्त दिखावे की ख़ातिर वो रोई भी, सिसकियाँ भी भरी, गुलू वान के दुपट्टे से आँसू भी पोंछे, पर उसके रोने में कोई मज़ा न था, यहां डोली में उसकी आँखों में नमी तैरी ही थी कि उसके रोएँ रोएँ मैं हज़ारों ख़ुफ़ता बेक़रारियाँ जाग उठीं... शहनाइयाँ उसका साथ देती रहीं, ढोल पिटता रहा, जब डोली दूल्हा के घर पहुंची तो एक गोला छूटा जैसे किसी बीमार को मरी मरी छींक आए, उसे अपनी सहेली नूरी पर बहुत ग़ुस्सा आया जो ब्याह के गीत गाने में ताक समझी जाती थी और जिसने एक-बार गौरी को छेड़ने के लिए भरे मजमे में एक गीत गाया था।
इतर फुलेल लगा ले री गौरी सेज बुलाए तूए
गौरी ने डोली से बाहर क़दम रखा ही था कि आँगन से उस पार तक रुई की एक पगडंडी सी बिछा दी गई, उसकी सास उससे यूं लिपट गई जैसे गौरी ने शराब पी रखी हो और सास को उसके लड़खड़ाने का ख़ौफ़ दामन-गीर है, गौरी नर्म नर्म रुई पर चली तो उसे यूंही शक गुज़रा कि वाक़ई’ ये वाक़िया’ था तो बड़ा, उसका अपना अंदाज़ा ग़लत था, आख़िर इतनी मुलाइम रुई सिर्फ इसीलिए तो ख़ाक पर नहीं बिछाई गई थी, कि उसके मेहंदी रहे पांव मैले न हों, पर जूंही उसने इस शुबहा को यक़ीन में बदलना चाहा तो अचानक उसके पांव ज़मीं की सख़्त ठंडी सतह से मस हुए और सराब की चमक मांद पड़ गई... रुई ख़त्म हो चुकी थी।
अब से सख़्त सज़ा भुगतना पड़ गई, उसे एक कोने में बैठा दिया गया, इस हालत में कि उसका सर झुक कर उसके घुटनों को छू रहा था और उसके गले का हार आगे लटक कर उस की थोड़ी से लिपटा पड़ा था, गांव वालियाँ आने लगीं, इकन्नी चवन्नी उस के मुर्दा हाथ में ठूंस दी और घूँघट उठा उठा कर बटर बटर उस चेहरे को घूरा जाने लगा... जैसे लाश के चेहरे से आख़िरी दीदार की ख़ातिर कफ़न सरका दिया जाता था...
सारा दिन उसकी नाक के बांसे, उसकी पलकों के तनाव, उसके होंटों के ख़म, उसके नाम और उसके रंग, उसकी इतनी बड़ी नथ और झूमर और बालियों के मुता’ल्लिक़ तज़किरे किए गए और जब सूरज पच्छिम की तरफ़ लटक गया तो उसके आगे चोरी का कटोरा धर दिया गया, उसकी सास नाक सड़ सड़ाती उसके पास आई और बोली ले मेरी रानी खा ले चोरी? जैसे नए नए तोते को पुचकारा जाता है, उसे एक-बार ख़्याल आया कि क्यों न नए तोते की तरह लपक कर उसकी नाक काट ले, मगर अब उसने एक और मौज़ू पर बोलना शुरू कर दिया था, क्या करूँ बहन अ’जीब मुसीबत है, जी आता निगोड़ी नाक को काट कर फेंकूं, बह चली जार रही है, उतनी छींकें आती हैं, बहन और इतनी बड़ी छींकें कि अल्लाह क़सम अंतड़ियां खिंच जाती हैं, उधर मेरे लाल का भी यही हाल है, पड़ा छींकता है पलंग पर और उसका बाप तो खांस खांस कर अध मुआ हो रहा है।
गौरी का जी मतला गया...
परे कोने में दुबकी हुई एक बुढ़िया ने अपने ज़ख़्म का तज़किरा छेड़ दिया, छींक आती भी है और नहीं भी, बस यूं मुँह खोलती हूँ और खोले रखती हूँ और छींक पलट जाती है और दिमाग़ में वो खलबली मचती है कि चाहती हूँ चूल्हे में दे दूं अपना सर...
आ’म शिकायत है दूसरी बोली...
पहली ने अपनी बैंगन जैसी नाक को सादर तले छुपा कर कहा, पर मैं तो समझती हूँ ये आफ़त सिर्फ मुझ पर पड़ी है औरों को ज़ुकाम होता है कि दिमाग़ में खलबली हुई, छींक आई और जी ख़ुश हो गया, यहां तो ये हाल है कि ज़ुकाम की फ़िक्र अलग और छींक की अलग...
और ख़ुदा जाने क्या बात हुई कि गौरी को भी छींक आ गई उसकी सास के औसान ख़ता हो गए, तुझे भी छींक आ गई, ए है, अब क्या होगा, नई-नवेली दुल्हन को अल्लाह करे कभी छींक न आए, बनफ़्शे का काढ़ा बना लाऊँ? पर इस सदी में तो बनफ़्शे का असर ही ख़त्म हो गया, गर्म गर्म चने ठीक रहेंगे वो ये कह तेज़ी से उठी तो चादर पांव में उलझ गई, हड़बड़ा कर परले कोने में बुढ़िया पर जा गिरी, वो बेचारी छींक को दिमाग़ से नोच फेंकने की कोशिश में थी कि ये नई आफ़त टूटी तो उस के मुँह से कुछ ऐसी आवाज़ निकली जैसे गीला गोला फटता है।
हड़बोंग मची तो गौरी सब के दिमाग़ से उतर गई और जब कुछ सुकून हुआ तो बूढ़ी नाइन कूल्हों पर हाथ रखे अंदर आई और गौरी के पास बैठ कर बोली...
ए है मेरी रानी, अभी तक चोरी नहीं खाई तू ने? नौज ऐसे लाज भी क्या?
इन दुल्हों को क्या हो जाता है, दो दो दिन एक खील भी उड़ कर नहीं जाती पेट में और मुँह मचोड़े बैठी है।
जी नहीं चाहता।
जी चाहता है अंदर से, पर ये निगोड़ी लाज नया घर... नए लोग पर गौरी रानी मैं तो तेरी वही पुरानी नाइन हूँ, जाने कै बार मेंढीयां बनाईं, कै बार कंघी की, वो एक-बार तेरा बुंदा अटक गया था बालों में, तू चिल्लाई तो घर भर मचल उठा, बड़ी बूढ़ियों का जमघट हो गया, कोई बुँदेको मरोड़ रही थी, कोई बालों की लटें खींच रही थी और तू गुलाब का फूल बनी जा रही थी।
दुख से,मैं आई बालों की एक लट को इधर उठाया, एक लट को उधर खिसकाया और बुंदा अपनी जगह पर आ गया, याद है ना?... पर तो चोरी क्यों नहीं खाती? ये भी कोई बात है... और नाइन ने गौरी का घूँघट उठा कर कटोरा आगे बढ़ा दिया।
गौरी को तो जैसे आग लग गई, चोरी खाई तो हेटी हो सब कहीं चार दिन से भूकी थी, भूके के घर से आई है... और अगर हाथ उठा कर कटोरे को परे ढकेलती है तो चूड़ियां बजती हैं, ये कमबख़्त बिलौर की चूड़ियां जिनके छनाके में छुरियां तेज़ किए जाने की आवाज़ थी, बड़ी बूढ़ीयाँ कोहनियों तक ठूंस देती हैं चूड़ियां और फिर साथ ही ये भी कहती हैं कि आवाज़ ना आए ज़ेवर की, लोग बेशरम कहेंगे...
गौरी पहले तो बुत बनी बैठी रही लेकिन जब नाइन ने कटोरा इतना आगे बढ़ा दिया कि वो उसके चोले को छूने लगा तो वो ज़ब्त न कर सकी, सरगोशी से भी कहीं मद्धम आवाज़ में बोली, में नहीं खाऊँगी, क्यों नहीं
खाएगी? नाइन ने अब गौरी का घूँघट उठा कर अपने सर पर डाल लिया था, क्यों नहीं खाएगी? मैं खिला के छोड़ूँगी, तू नहीं खाएगी तो मैं भी नहीं खाऊँगी, हाँ पर तू तो ज़रूर खाएगी, ये देख मैं खा रही हूँ, देख ना गौरी दुल्हन... उसने चोरी मुट्ठी भरी और पोपले में ठूंस कर बोली अब खा भी ले गौरी रानी।
मैं नहीं खाऊँगी, गौरी ने ये अलफ़ाज़ कुछ ऊंची आवाज़ में कहे और घूँघट खीँच कर दीवार से लग गई, चूड़ियां बजीं तो औरतें मिनमिनाने लगीं।
नई नवेली दुल्हनों को पहले दिन कभी बोलते न सुना था।
और फिर एक जगह जम कर बैठी ही नहीं, तड़प रही है पारे की तरह।
इस सदी के ब्याह क्या होते हैं मदारी खेल दिखाता है।
हमने देखी हैं दुल्हन, एक एक महीना नहीं बोलीं किसी से... एक एक महीना...
मुझे तो और किसी की बात याद नहीं, ये सामने नाइन बैठी है हमारी, दस दिन तक मुँह में घुनघुनियां डाले बैठी रही, ग्यारहवीं दिन ज़बान भी हिलाई तो बस अज़ान के बाद कलिमा पढ़ा।
नाइन यूं हँसने लगी जैसे टिन के डिब्बे में कंकर डाल कर उसे लुढका दिया जाये, बोली किसी से ग़लत बात सुनी तू ने, मैंने तो जैसे ही नए घर में क़दम धरा और सास ने सहारा दिया तो बिलबिला उठी थी, क्या लिपटी पड़ती है मुझको, मैं कोई लंडूरी चिड़िया थोड़ी हूँ कि उड़ जाऊँगी फिर से, यहीं रहने आई हूँ यहीं रहूंगी, सास अपना सा मुँह लेकर रह गई और मैंने उसी रोज़ दिन ढले सहेलियों से गोटियां खेली।
कौन गोटियां खेली, गौरी की सास दामन में चने डाले अंदर आई... दुल्हन के साथ गोटियों की बातें की जाती हैं? उतनी उम्र गुज़र गई, सैंकड़ों बार दाया बनी पर बात करने का ढब न आया तुझे... भूने हुए चनों की ख़ुशबू से कमरा महक गया, लेकिन शादी के रोज़ ससुराल में पहले-पहल चनों से फ़ाक़ा तोड़ना बुरा शगुन था इसलिए गौरी अपने आपको इस नए हमले से महफ़ूज़ रखने की कोशिश करने लगी, नाइन का बाज़ू छुवा और जब वो उसके बिलकुल क़रीब हो गई तो आहिस्ता से बोली मुझे नींद आती है।
गौरी की सास ने नाइन से पूछा क्या कहती है?
नाइन नाक पर उंगली रखकर बोली कहती मुझे नींद आती है?... और फिर टिन के डिब्बे में कंकर बजने लगे... मेरी रानी नींद की भी एक ही कही तू ने... तेरी नींद... दुल्हन की नींद... अब मैं क्या कहूं? गले में फंदा पड़ा है।
यहां गौरी की सास ने रहमत के फ़रिश्ते का रूप धार लिया बोली, ए रहने भी दे बात बात पर दाँत निकाल रही है, नाइन हो तो सलीक़े वाली हो ये भी क्या इधर बात हुई उधर मुँह फाड़ कर हलक़ का कव्वा दिखा दिया, इतना नहीं सोचा कि दिन-भर की थकन है... सोचा मेरी गौरी रानी... पर ये चने।
ऊँघ कर गौरी एक तरफ़ झुक गई और क़रीब ही बैठी हुई उधेड़ उ’म्र की एक औरत घुटनों पर हाथ रखकर बोली। बड़ी लाडली दुल्हन है...
सब औरतें बाहर निकल गईं मगर गौरी की आँखों में नींद कहाँ आज तो नींद की जगह काजल ने ले ली है, आँखें झपकाती रही और सोचती रही, वाह-रे मेरे फूटे भाग यही ब्याह है तो वारी जाऊं कँवारे पन पे, क्या ज़माना था कौन सी बात याद करूँ, किस-किस को याद करो, वो सावन की छमछम में कड़े नीम के टहने में झूलना, झूला आगे लपकता है तो ठंडी फुवार धो डालती है, झूला पीछे हटता है, तो ख़ुशबू में बसी हुई लटें चेहरे को पोंछ डालती हैं, आस-पास का झुरमुट भीगी भीगी ढोलक की मीठी मीठी आवाज़ और नूरी का नरस भरा गीत...
मोहे सावन की रिमझिम भाए रे..
भय्या के कानों में सोने की मुरकी..
फूल पे तितली आए रे...
मोहे सावन की रिमझिम भाए रे...
और फिर उसी शरीर नवीर के खुले आँगन में चरखे की घों घों, गोरे गोरे हाथ पूनियां थामे ऊपर उभरते हैं, तकते से बारीक तार लिपटता है तो ऐसा लगता है जैसे तार पोनी से नहीं निकला, गौरी की हथेली से निकला है और फिर ईद के दिन मलंग साईं का मेला, वो उत्तरी ढेरों पर पुर्वा के झोंकों में लचकती हुई घास... वो गूँजते हुए दिन और चुप-चाप रातें और ये नई ज़िंदगी जीना अजीरन हो रहा था, हाथ पांव हिलाऊँ तो बे-हया और लाडली ठहरूं, अजनबी औरतों का हुजूम कोई खाँसती है, कोई छींकती है, कोई पड़ोसन का गिला करती है, कोई मेरे लौंग के किनारों को भद्दा बताती है, ना सावन की रिमझिम के गीत, न अलिफ़ लैला की कहानियां, न हमसिनों की चुहलें, इससे तो यही अच्छा था कि माँ बाप मुझे किसी कगर से दिखा दे देते, ये साँसों की डोरी टूट जाती, चैन आ जाता, कैसे मज़ाक़ करती थी मुझसे नूरी, तू ब्याही जाएगी, दुल्हन बनेगी मेहंदी रचाएगी, दूध पिएगी, चोरी खाएगी और नूरी को अपने मन से निकाल देगी... बेचारी भोली नूरी... नादान सहेली... तुझे क्या मा’लूम ब्याह की रौनक़ सिर्फ़ दिखावा है, फोड़े की तरह... ऊपर से गुलाबी अंदर से पीप भरा... उफ़...
गौरी घबरा कर उठी बैठी, चूड़ियां बजीं तो सास अंदर दौड़ी आई उसके बाद एक औरत... दूसरी औरत... फिर तीसरी औरत... और वही दम घोंट देने वाली हरकतें और बातें, गौरी ने चाहा नादान बच्चों की तरह मचल जाये बिलक बिलक कर रोने लगे, भाग कर बाहर आँगन में लौटने लगे, ज़ेवर उतार फेंके कपड़ों की धज्जियाँ उड़ा दे और आँखों पर धूल भरे हाथ मल मलकर सिसकियाँ भरे और कहे, मैं तो सबसे थक गई हूँ, तुम अलिफ़ लैला वाली दीवनियां हो, तुम्हारी खांस की ठन-ठन तुम्हारे क़हक़हों की करख़तगी बहुत डरावनी बहुत घिनाओनी है, मुझे अकेला छोड़ दो मैं नाचना और गाना चाहती हूँ।
तब गौरी के दिल में ख़्याल आया न हुई नूरी इस वक़्त वर्ना यूं ज़ोर सत गले लगाती उसे कमबख़्त की पसलियाँ पटाख़े छोड़ने लगतीं।
वो ख़ुदा जाने और क्या सोचती मगर सास और नाइन और दूसरी कम बख़्तें फिर वही घिस पिटी बातें करने लगीं, जहेज़ की क्या पूछती हो बहन, सारा घर दे डाला गौरी को, ऐसे ऐसे कपड़े कि देखे मैले हों, वो वो ज़ेवर कि आँखें चुंधिया जाएं, पलंग के पाने नहीं देखे तुमने? नीचे से शंगरफ़ी और ऊपर से इतने सफ़ेद जैसे चांद उतर कर जड़ दीए हैं, असल में मेरा बेटा है ही क़िस्मत वाला..
और नाइन बोली क्या सजीला गबरू है। आन नाई कह रहा है मैं कपड़े पहनाने दूलहा को घर आऊँगा शाने पर हाथ फेरा तो जैसे फ़ौलाद और चेहरे पर वो नूर कि तारे बग़लें झांकें... पर मैं अभी अभी उसे ड्योढ़ी में खड़े देखा, उस ज़ुकाम का बुरा हो, फूल सा चेहरा यूं हो रहा था... और नाइन ने अपनी सफ़ेद चादर का पल्लू सब के आगे फैला दिया।
गौरी के लिए ये मौज़ू भी दिलचस्पी से ख़ाली था, नाइन झूट बोलती हैं अक्सर, पर वो सजीला है भी तो क्या, हालत तो ये है कि चार पहर से उसके घर में बैठी हूँ और उसने शक्ल तक नहीं दिखाई, वहीं ड्योढ़ी में पड़ा छींकता है, बे तरस।
बड़ी देर के बाद शाम आई, औरतें चली गईं और उसने हाथ पांव फैला कर बाज़ू ताने, ज़ेवर से लदे फंदे सर को धीरे से झटकाया और बाहर देखा, उस की सास और नाइन सामने के कमरे से बाहर आती थीं और अंदर घुस जाती, मुरझाई हुई बाँहों में ताँबे के कंगन और पीतल की चूड़ियां जैसे खांस रही थी, जूतियां चपड़ चपड़ चीख़ रही थीं और वो कलदार गुड़ियों की तरह मटकती फिर रही थीं।
कुछ देर बाद गांव वालियाँ गीत गाने और सुनने आईं तो उनके हमराह नूरी भी आई गौरी के क़रीब बैठ गई और उसके कान में बोली आज तो बात तक नहीं करती बहन और फिर आँखें मटका कर गुनगुनाने लगी।
दुल्हन का बोलना गुनाह है और फिर गौरी तो उन अल्लाह वालियों को ज़िक्र भी सन चुकी थी जिन्हों ने एक एक माह चुप शाह का रोज़ा रखा, इसलिए उसने बोलना मुनासिब न समझा बस धीरे से नूरी के पहलू में कुहनी जड़ दी और नूरी तड़प कर बोली, ले के कलेजा हिला दिया मेरा, क्यों न हो, ब्याह जो हो गया तेरा, हो लेने दे हमारा ब्याह, तेरे घर के पास से गुज़़रेंगे तो नाक भौं चढ़ा कर आगे बढ़ जाऐंगे ग़रूर से पलट कर देखेंगे भी नहीं, कर ले मान घड़ी की बात है।
गौरी की ज़बान में सुईयां सी चुभ गईं, जब तक गीत गाये जाते रहे वो नूरी को और नूरी के नुक़रई बुंदों को देखती रही और सोचती रही कि, कँवारेपने के साथी, बुँदे कैसे भले लगते हैं गुलाबी कानों में और एक मेरे कान हैं कि कीड़ों ऐसी पतली पतली बालियों से पटे पड़े हैं, नूरी सर हिलाती है तो ये बुँदे तारों की तरह टिमटिमाते हैं और जब पलट कर इधर उधर देखती है तो बुँदे अंगूरों का गुच्छा बन जाते हैं... सोचते सोचते उसका माथा धूप में पड़ी हुई ठीकरी की मानिंद तप गया और जब सब नाचने लगीं और नूरी ने ढोलक के इर्द-गिर्द घूम कर एक गाया...
जारी सहेली अब जा... तोहे पिया बुलावे।
चांदी की झीलों के पार रे
सोने के टीलों के पार रे
जारी सहेली अब जा... तोहे पिया बुलावे
तो गौरी ने दीवार से सर टेक कर रोकना चाहा कि ज़रा जी हल्का हो जाये तो मगर आज तो आँखों में हर चीज़ की जगह काजल ने ले ली थी, न नींद न आँसू बस काजल ही काजल अच्छा ब्याह हुआ... ये भी ख़ूब रही।
जब सब चली गईं और आँगन सूना हो गया तो दूल्हा का बाप खॉँसता हुआ आया और एक तरफ़ से हुक़्क़ा उठा कर चलता बना, नाइन हाथ मलती उठी और बोली, आ मेरी बच्ची इधर पलंग पर आ जा, नींद आ रही होगी तुझे और फिर गौरी की बग़लों में हाथ डाल कर नाइन ने उसे यूं खींचा जैसे लाश को उठा रही है, गौरी पांव घिसटती कमरे में आई, रंगीन पाए वाले पलंग पर धम से गिरी और छम से लेट गई, नाइन बोली बेटी ज़ेवर तो उतार ले, नथ वथ कहीं अटक गई तो मुश्किल बनेगी... नहीं अटकती गौरी बोली... मैं ख़ुद उतार लूँगी...
नाइन ने आगे बढ़कर फिर उसकी बग़लों में दोनों हाथ जमा दीए, नहीं नहीं बेटी ये बुरा शगुन है, ज़ेवर उतारने ही पड़ते हैं, एक-बार एक दुल्हन ने तेरी तरह...
लेकिन नाइन अपनी कहानी शुरू करने ही पाई थी कि गौरी ज़ेवर नोचने लगी और फिर फोरा धड़ाम से पलंग पर गिर गई, टिन के डिब्बे में कंकर बज उठे नाइन बोली ये भी ख़ूब रही नाइन चली गई और गौरी दाँत पीस कर रह गई।
जैसे बहुत से तागे आपस में उलझ जाएं तो उन्हें सुलझाने की कोशिश और उलझनें पैदा कर देती है बिल्कुल यही कैफ़ियत थी गौरी के ज़हन की, ब्याह का पहला दिन बस बन कर उसके सीने पर सवार था, कि अचानक चर से दरवाज़ा खुला गौरी चौंक गई, अरे।
मैं समझती थी नाइन झूट बिकती है, उसने घूँघट की शिकनों में से कनखियों से नौ-वारिद को देखते हुए सोचा, ये मेरा दूल्हा है या लाल बादशाह।
भूंचाल सा आ गया उसकी तबईत में, चीख़ती हुई आंधियों, कड़कते हुए बादलों, लुढ़कती हुई चटानों और टूटे हुए टहनों में लिपटा हुआ ज़हन यहां से वहां उछलने लगा सँभल कर बैठना चाहा तो पलंग के पाए तक खिसक गए।
दूल्हा मुस्कुराता रहा और फिर पलंग पर बैठ कर बोला अगर तुम कुछ और परे खसकतीं तो पलंग से गिर जाती।
गौरी ख़ामोश रही।
दूल्हा ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला, सुना कुछ।
और यकायक आंधियां थम गईं और बादलों ने चुप साध ली, गौरी के जिस्म में झुरझुरी सी दौड़ गई, ज़हन यूं साफ़ हो गया जैसे उसने कड़कती धूप में लेमूँ का यख़ शर्बत ग़ट ग़ट चढ़ा लिया हो, अंगड़ाई आई तो बाँहें न तान सकी, बस अंदर ही चटख़ पटख़ कर रह गई और फिर हाथ छुड़ा कर ज़रा परे खिसकने की कोशिश करने लगी।
पलंग से गिर जाओगी गौरी। दुल्हा बोला।
आपकी बला से। गौरी ने जैसे अपने ज़हन का सारा बोझ उतार कर परे झटक दिया।
अगर तुम गिर गईं तो तकलीफ़ मुझे होगी दुल्हा बोला।
गौरी शर्मा गई और बे-तअ’ल्लुक़ सा सवाल कर बैठी, ज़ुकाम का क्या हाल है।
सरक गया है इस वक़्त, दुल्हा मुस्कुराया और फिर ख़ामोशी के एक तवील वक़्फ़े में गौरी की उठती और गिरती हुई नज़रों से बहुत सी बातें कर लीं और जब आँगन के परले सिरे पर अपने डरबे में एक मुर्ग़ी कुड़ कुड़ाई तो दुल्हा ने कहा कोई बात करो गौरी।
तुम ही कोई बात करो, गौरी पहली मर्तबा मुस्कुरा दी।
क्या बात करूँ?
कोई कहानी वहानी सुनाओ, गौरी जैसे अपने आपसे बातें कर रही हो।
कहानी... कैसी कहानी? दुल्हा ने पूछा।
कोई परियों वरियों की कहानी, गौरी खुल कर बोलने के बावजूद सिमटी जा रही थी।
मुझे तो सिर्फ लाल बादशाह और सब्ज़-परी की कहानी आती है, दुल्हा मुस्कुराया।
वही सही, गौरी ने उंगली में सुनहरी अँगूठी को घुमाते हुए कहा।
दुल्हा ने तकिए पर कुहनी टेक दी। तो फिर सुनो, पर ज़रा क़रीब हो कर सुनना... यूं... जहां ज़मीन ख़त्म हो जाती है न वहीं एक नगरी है, जिसे लोग नींद की नगरी कहते हैं, उस नगरी पर एक बादशाह राज किया करता था, उसका नाम था लाल बादशाह बड़ा ख़ूबसूरत, बड़ा हँसमुख बहुत बांका, बहुत सजीला।
तुम्हारी तरह, गौरी बिस्तर की चादर पर उंगली फेरते हुए यूं बोली जैसे कांसी के कटोरे से छल्ला मस कर गया हो।
दुल्हा हंस दिया और गौरी की लाल लाल पोरों को अपनी दूध ऐसी पोरों से टटोल कर बोला तो करना ख़ुदा क्या हुआ गौरी कि एक दिन लाल बादशाह शिकार खेलने एक जंगल में जा निकला और...
अभी कहानी निस्फ़ तक पहुंची थी, अभी लाल बादशाह ने सब्ज़-परी का हाथ अपने हाथ में ही लिया था कि दरवाज़े की झिर्रियों से सुब्ह-ए-काज़िब झाँकी, दुल्हा चौंक कर बोला, अरे सुबह हो गई।
नहीं शाम हो गई, गौरी ने भोले से कहा।
उछल कर दुल्हा ने दरवाज़ा खोला पलट कर मुस्कुराया और बाहर निकल गया और गौरी ने इतनी लंबी अंगड़ाई ली जैसे पूरब से अंगड़ाई लेती हुई सुबह का मुँह नोच लेगी, तकिये में सर जमा कर कहने लगी हाय रे नूरी बहन तू कितनी अभागन है, पड़ी होगी टूटे खटोले पर गठड़ी बन कर... और यहां तेरी गौरी शंगरफ़ी पायों वाले पलंग पर... मेहंदी की ख़ुशबू से बसे हुए कमरे में... अपने बांके सजीले दुल्हा से... उफ़, कितनी सच्ची बातें कहती थी तू?
उसने मुस्कुरा कर दीये की पीली रोशनी में अपनी लाल हथेलियाँ देखीं और अपने तपे हुए चेहरे पर हाथ मलकर बोली, काश इस वक़्त यहां नूरी होती... या कोई आईना ही होता।
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