aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

दस रूपये

सआदत हसन मंटो

दस रूपये

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    "यह एक ऐसी कमसिन लड़की की कहानी है जो अपनी उमड़ती हुई जवानी से अंजान थी। उसकी माँ उससे पेशा कराती थी और वो समझती थी कि हर लड़की को यही करना होता है। उसे दुनिया देखने और खुली फ़िज़ाओं में उड़ने का बेहद शौक़ था। एक दिन जब वो तीन नौजवानों के साथ मोटर में जाती है और अपनी मर्ज़ी के अनुसार ख़ूब तफ़रीह कर लेती है तो उसका दिल ख़ुशी से इतना उन्मत्त होता है कि वो उनके दिए हुए दस रुपये लौटा देती है और कहती है कि ये रुपये मैं किस लिए लूं।"

    वो गली के उस नुक्कड़ पर छोटी छोटी लड़कियों के साथ खेल रही थी और उसकी माँ उसे चाली (बड़े मकान जिसमें कई मंज़िलें और कई छोटे छोटे कमरे होते हैं) में ढूंढ रही थी। किशोरी को अपनी खोली में बिठा कर और बाहर वाले से काफ़ी चाय लाने के लिए कह कर वह इस चाली की तीनों मंज़िलों में अपनी बेटी को तलाश कर चुकी थी। मगर जाने वो कहाँ मर गई थी।

    संडास के पास जा कर भी उसने आवाज़ दी, “ए सरीता... सरीता!” मगर वो तो चाली में थी ही नहीं और जैसा कि उसकी माँ समझ रही थी, अब उसे पेचिश की शिकायत भी नहीं थी। दवा पीए बग़ैर उसको आराम आचुका था और वो बाहर गली के उस नुक्कड़ पर जहां कचरे का ढेर पड़ा रहता है, छोटी छोटी लड़कियों से खेल रही थी और हर क़िस्म के फ़िक्र-ओ-तरद्दुद से आज़ाद थी।

    उसकी माँ बहुत मुतफ़क्किर थी। किशोरी अंदर खोली में बैठा था और जैसा कि उसने कहा था, दो सेठ बाहर बड़े बाज़ार में मोटर लिए खड़े थे लेकिन सरीता कहीं ग़ायब ही होगई थी। मोटर वाले सेठ हर रोज़ तो आते ही नहीं, ये तो किशोरी की मेहरबानी है कि महीने में एक-दो बार मोटी असामी ले आता है। वर्ना ऐसे गंदे मुहल्ले में जहां पान की पीकों और जली हुई बीड़ियों की मिली जुली बू से किशोरी घबराता है, सेठ लोग कैसे सकते हैं।

    किशोरी चूँकि होशियार है इसलिए वो किसी आदमी को मकान पर नहीं लाता बल्कि सरीता को कपड़े वपड़े पहना कर बाहर ले जाया करता है और उन लोगों से कह दिया करता है कि, “साहब लोग आजकल ज़माना बड़ा नाज़ुक है। पुलिस के सिपाही हर वक़त घात में लगे रहते हैं। अब तक दो सौ धंदा करने वाली छोकरियां पकड़ी जा चुकी हैं। कोर्ट में मेरा भी एक केस चल रहा है। इसलिए फूंक फूंक कर क़दम रखना पड़ता है।”

    सरीता की माँ को बहुत ग़ुस्सा आरहा था। जब वो नीचे उतरी तो सीढ़ियों के पास राम दई बैठी बीड़ियों के पत्ते काट रही थी। उससे सरीता की माँ ने पूछा, “तूने सरीता को कहीं देखा है। जाने कहाँ मर गई है, बस आज मुझे मिल जाये वो चार चोट की मार दूं कि बंद बंद ढीला हो जाये... लोठा की लोठा होगई है पर सारा दिन लौंडों के साथ कुदकड़े लगाती रहती है।”

    राम दई बीड़ियों के पत्ते काटती रही और उसने सरीता की माँ को जवाब दिया। दरअसल राम दई से सरीता की माँ ने कुछ पूछा ही नहीं था। वो यूंही बड़बड़ाती हुई उसके पास से गुज़र गई, जैसा कि उसका आम दस्तूर था। हर दूसरे-तीसरे दिन उसे सरीता को ढूंढना पड़ता था और राम दई को जो कि सारा दिन सीढ़ियों के पास पिटारी सामने रखे बीड़ियों पर लाल और सफ़ेद धागे लपेटी रहती थी मुख़ातिब करके यही अल्फ़ाज़ दुहराया करती थी।

    एक और बात वो चाली की सारी औरतों से कहा करती थी, “मैं तो अपनी सरीता का किसी बाबू से ब्याह करूंगी... इसीलिए तो उससे कहती हूँ कि कुछ पढ़-लिख ले... यहां पास ही एक स्कूल मंसी पाल्टी (म्यूंसिपल्टी) ने खोला है। सोचती हूँ उसमें सरीता को दाख़िल करादूँ, बहन उसके पिता को बड़ा शौक़ था कि मेरी लड़की लिखी पढ़ी हो।”

    इसके बाद वो एक लंबी आह भर कर आमतौर पर अपने मरे हुए शौहर का क़िस्सा छेड़ देती थी, जो चाली की हर औरत को ज़बानी याद था। राम दई से अगर आप पूछें कि अच्छा जब सरीता के बाप को जो रेलवाई में काम करता था, बड़े साहब ने गाली दी तो क्या हुआ, तो राम दई फ़ौरन आपको बता देगी कि सरीता के बाप के मुँह में झाग भर आया और वो साहब से कहने लगा, “मैं तुम्हारा नौकर नहीं हूँ। सरकार का नौकर हूँ। तुम मुझ पर रोब नहीं जमा सकते। देखो अगर फिर गाली दी तो ये दोनों जबड़े हलक़ के अंदर कर दूँगा।”

    बस फिर क्या था, साहब ताव में आगया और उसने एक और गाली सुना दी। इस पर सरीता के बाप ने ग़ुस्से में आकर साहब की गर्दन पर धौल जमा दी कि उसका टोप दस गज़ पर जा गिरा और उसको दिन में तारे नज़र आगए। मगर फिर भी वो बड़ा आदमी था आगे बढ़ कर उसने सरीता के बाप के पेट में अपने फ़ौजी बूट से इस ज़ोर की ठोकर मारी कि उसकी तली फट गई और वहीं लाईनों के पास गिर कर उसने जान दे दी।

    सरकार ने साहब पर मुक़द्दमा चलाया और पूरे पाँच सौ रुपये सरीता की माँ को उससे दिलवाए मगर क़िस्मत बुरी थी। उसको सट्टा खेलने की चाट पड़ गई और पाँच महीने के अंदर अंदर सारा रुपया बर्बाद होगया।

    सरीता की माँ की ज़बान पर हर वक़्त ये कहानी जारी रहती थी लेकिन किसी को यक़ीन नहीं था कि ये सच है या झूट। चाली में से किसी आदमी को भी सरीता की माँ से हमदर्दी थी। शायद इसलिए कि वो सबके सब ख़ुद हमदर्दी के क़ाबिल थे, कोई किसी का दोस्त नहीं था। उस बिल्डिंग में अक्सर आदमी ऐसे रहते थे जो दिनभर सोते थे और रात को जागते थे क्योंकि उन्हें रात को पास वाली मिल में काम पर जाना होता था। उस बिल्डिंग में सब आदमी बिल्कुल पास रहते थे लेकिन किसी को एक दूसरे से दिलचस्पी थी।

    चाली में क़रीब-क़रीब सब लोग जानते थे कि सरीता की माँ अपनी जवान बेटी से पेशा कराती है लेकिन चूँकि वो किसी के साथ अच्छा-बुरा सुलूक करने के आदी ही थे, इसलिए सरीता की माँ को कोई झुटलाने की कोशिश करता था, जब वो कहा करती थी, “मेरी बेटी को तो दुनिया की कुछ ख़बर ही नहीं।

    अलबत्ता एक रोज़ सुबह-सवेरे नल के पास जब तुकाराम ने सरीता को छेड़ा था तो सरीता की माँ बहुत चीख़ी-चिल्लाई थी, इस मुये गंजे को तू क्यों सँभाल के नहीं रखती। परमात्मा करे दोनों आँखों से अंधा हो जाये जिनसे उसने मेरी कुंवारी बेटी की तरफ़ बुरी नज़रों से देखा... सच कहती हूँ। एक रोज़ ऐसा फ़साद होगा कि इस तेरी सौगात का मारे जूतों के सर पिलपिला कर दूँगी... बाहर जो चाहे करता फिरे, यहां उसे भले मानुसों की तरह रहना होगा, सुना!”

    और ये सुनकर तुकाराम की भेंगी बीवी धोती बांधते-बांधते बाहर निकल आई, “ख़बरदार मुई चड़ी जो तू ने एक लफ़्ज़ भी और ज़बान से निकाला... ये तेरी देवी तो होटल के छोकरों से भी आंख मिचौली खेलती है और तू क्या हम सबको अंधा समझती है, क्या हम सब जानते नहीं कि तेरे घर में नित नए बाबू किसलिए आते हैं। और ये तेरी सरीता आए दिन बन संवर कर बाहर क्यों जाती है... बड़ी आई इज़्ज़त आबरू वाली... जा जा दूर दफ़ान हो यहां से।”

    तुकाराम की भेंगी बीवी के मुतअल्लिक़ बहुत सी बातें मशहूर थीं लेकिन ये बात ख़ासतौर पर सब लोगों को मालूम थी कि घांसलेट वाला (मिट्टी का तेल बेचने वाला) तेल देने के लिए आता है तो वो उसे अंदर बुला कर दरवाज़ा बंद कर लिया करती है। चुनांचे सरीता की माँ ने इस ख़ास बात पर बहुत ज़ोर दिया। वो बार बार नफ़रत भरे लहजे में उससे कहती, “वो तेरा यार घांसलेट... दो दो घंटे उसे खोली में बिठा कर क्या तू उसका घांसलेट सूंघती रहती है?”

    तुकाराम की बीवी से सरीता की माँ की बोलचाल ज़्यादा देर तक बंद रही थी क्योंकि एक रोज़ सरीता की माँ ने रात को अपनी इस पड़ोसन को घुप्प अंधेरे में किसी से मीठी-मीठी बातें करते पकड़ लिया था और दूसरे ही रोज़ तुकाराम की बीवी ने जब वो रात को पायधोनी की तरफ़ से आरही थी। सरीता को एक जेंटलमैन आदमी के साथ मोटर में बैठे देख लिया। चुनांचे उन दोनों का आपस में समझौता होगया था। इसीलिए सरीता की माँ ने तुकाराम की बीवी से पूछा, “तूने कहीं सरीता को नहीं देखा?”

    तुकाराम की बीवी ने भेंगी आँख से गली के नुक्कड़ की तरफ़ देखा, “वहां घूरे के पास पटवारी की लौंडिया से खेल रही है।” फिर उसने आवाज़ धीमी करके उससे कहा, “अभी अभी किशोरी ऊपर गया था, क्या तुझसे मिला?”

    सरीता की माँ ने इधर-उधर देखकर हौले से कहा, “ऊपर बिठा आई हूँ पर ये सरीता हमेशा वक़्त पर कहीं ग़ायब हो जाती है, कुछ सोचती नहीं। बस दिन भर खेल कूद चाहिए।”

    ये कह कर वो घूरे की तरफ़ बढ़ी और जब सीमेंट की बनी हुई मुत्री (पेशाब गाह) के पास आई तो सरीता फ़ौरन उठ खड़ी हुई और उसके चेहरे पर अफ़्सुर्दगी के आसार पैदा होगए। जब उसकी माँ ने ख़श्मआलूद लहजे में उसका बाज़ू पकड़ कर कहा, “चल घर में चल के मर... तुझे तो सिवाए उछल कूद के और कोई काम ही नहीं।”

    फिर रास्ते में उसने हौले से कहा, “किशोरी बड़ी देर से आया बैठा है, एक मोटर वाले सेठ को बुलाया है... चल तू भाग के ऊपर चल और जल्दी जल्दी तैयार हो जा... और सुन... वो नीली जॉर्जट की साड़ी पहन... और देख ये तेरे बाल भी बहुत बुरी तरह बिखर रहे हैं... तू जल्दी तैयार हो, कंघी मैं कर दूँगी।”

    ये सुन कर कि मोटर वाले सेठ आए हैं, सरीता बहुत ख़ुश हुई। उसे सेठ से इतनी दिलचस्पी नहीं थी जितनी कि मोटर से थी। मोटर की सवारी उसे बहुत पसंद थी। जब मोटर फर्राटे भर्ती खुली खुली सड़कों पर चलती और उसके मुँह पर हवा के तमाँचे पड़ते, तो उसके दिल में एक नाक़ाबिल-ए-बयान मसर्रत उबलना शुरू हो जाती। मोटर में बैठ कर उसको हर शैय एक हवाई चक्कर दिखाई देती और समझती कि वो ख़ुद एक बगूला है जो सड़कों पर उड़ता चला जा रहा है।

    सरीता की उम्र ज़्यादा से ज़्यादा पंद्रह बरस की होगी। मगर उसमें बचपना तेरह बरस की लड़कियों का सा था। औरतों से मिलना-जुलना और उनसे बातें करना बिल्कुल पसंद नहीं करती थी। सारा दिन छोटी छोटी लड़कियों के साथ ऊंट-पटांग खेलों में मसरूफ़ रहती।

    ऐसे खेल जिनका कोई मतलब ही हो। मिसाल के तौर पर वो गली के काले लुक फिरे फ़र्श पर खरिया मिट्टी से लकीरें खींचने में बहुत दिलचस्पी लेती थी और इस खेल में वो इस इन्हिमाक से मसरूफ़ रहती जैसे सड़क पर ये टेढ़ी बंगी लकीरें अगर खींची गईं तो आमद-ओ-रफ़्त बंद हो जाएगी और फिर खोली से पुराने टाट उठा कर वह अपनी नन्ही नन्ही सहेलियों के साथ कई कई घंटे उनको फुटपाथ पर झटकने साफ़ करने, बिछाने और उन पर बैठने के ग़ैर दिलचस्प खेल में मशग़ूल रहती थी।

    सरीता ख़ूबसूरत नहीं थी। रंग उसका स्याही माइल गंदुमी था। बंबई के मरतूब मौसम के बाइस उसके चेहरे की जिल्द हर वक़्त चिकनी रहती थी और पतले पतले होंटों पर जो चीकू ( एक फल जिसका रंग गंदुमी होता है) के छिलके दिखाई देते थे, हर वक़्त ख़फ़ीफ़ सी लरज़िश तारी रहती थी। ऊपर के होंट पर पसीने की तीन-चार नन्ही नन्ही बूंदें हमेशा कपकपाती रहती थीं।

    उसकी सेहत अच्छी थी। ग़लाज़त में रहने के बावजूद उसका जिस्म सुडौल और मुतनासिब था। ऐसा मालूम होता था कि उसपर जवानी का हमला बड़ी शिद्दत से हुआ है जिसने मुख़ालिफ़ कुव्वतों को दबा के रख दिया है। क़द छोटा था जो उसकी तंदुरुस्ती में इज़ाफ़ा करता था।

    सड़क पर फुर्ती से इधर-उधर चलते हुए जब उसकी मैली घगरी ऊपर को उठ जाती तो कई राह चलने वाले मर्दों की निगाहें उसकी पिंडलियों की तरफ़ उठ जाती थीं जिनमें जवानी के बाइस ताज़ा रन्दा की हुई सागवान की लकड़ी जैसी चमक दिखाई देती थी।

    उन पिंडलियों पर जो बालों से बिल्कुल बेनयाज़ थीं। मसामों के नन्हे नन्हे निशान देखकर उन संतरों के छिलके याद आजाते थे जिनके छोटे छोटे ख़लियों में तेल भरा होता है और जो थोड़े से दबाव पर फव्वारे की तरह ऊपर उठ कर आँखों में घुस जाया करता है।

    सरीता की बाहें भी सुडौल थीं। कंधों पर उनकी गोलाई मोटे और बड़े बेढब तरीक़े पर सिले हुए ब्लाउज़ के बावजूद बाहर झाँकती थी। बाल बड़े घने और लंबे थे। उनमें से खोपरे के तेल की बू आती रहती थी। एक मोटे कोड़े के मानिंद उसकी चोटी पीठ को थपकती रहती थी। सरीता अपने बालों की लंबाई से ख़ुश नहीं थी क्योंकि खेल कूद के दौरान में उसकी चोटी उसे बहुत तकलीफ़ दिया करती थी और उसे मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से उसको क़ाबू में रखना पड़ता था।

    सरीता का दिल-ओ-दिमाग़ हर क़िस्म के फ़िक्र-ओ-तरद्दुद से आज़ाद था। दोनों वक़्त उसे खाने को मिल जाता था। उसकी माँ घर का सब काम-काज करती थी। सुबह को सरीता दो बालटियां भर कर अन्दर रख देती और शाम को हर रोज़ लैम्प में एक पैसे का तेल भरवा लाती। कई बरसों से वो ये काम बड़ी बाक़ायदगी से कर रही थी। चुनांचे शाम को आदत के बाइस ख़ुदबख़ुद उसका हाथ उस प्याले की तरफ़ बढ़ता जिसमें पैसे पड़े रहते थे और लैम्प उठा कर वो नीचे चली जाती।

    कभी-कभी यानी महीने में चार-पाँच बार जब किशोरी सेठ लोगों को लाता था तो उनके साथ होटल में या बाहर अंधेरे मुक़ामों पर जाने को वो तफ़रीह ख़याल करती थी। उसने इस बाहर जाने के सिलसिले के दूसरे पहलूओं पर कभी ग़ौर ही नहीं किया था। शायद ये समझती थी कि दूसरी लड़कियों के घर में भी किशोरी जैसे आदमी आते होंगे और उनको सेठ लोगों के साथ बाहर जाना पड़ता होगा और वहां रात को वर्ली के ठंडे ठंडे बेंचों पर या जूहू की गीली रेत पर जो कुछ होता है सब के साथ होता होगा।

    चुनांचे उसने एक बार अपनी माँ से कहा था, “माँ अब तो शांता भी काफ़ी बड़ी होगई... उसको भी मेरे साथ भेज दो न... ये सेठ जो अब आए हैं। उबले अंडे खाने को दिया करते हैं और शांता को अंडे बहुत भाते हैं।” इस पर उसकी माँ ने बात गोल-मोल करदी थी, “हाँ हाँ किसी रोज़ उसको भी तुम्हारे साथ भेज दूंगी। उसकी माँ पूना से वापस तो जाए।”

    और सरीता ने दूसरे रोज़ ही शांता को जब वो संडास से निकल रही थी, ये ख़ुशख़बरी सुनाई थी, “तेरी माँ पूना से आजाए तो सब मुआमला ठीक हो जाएगा। तू भी मेरे साथ वर्ली जाया करेगी।” और उसके बाद सरीता ने उसको रात की बात कुछ इस तरीक़े पर सुनाना शुरू की थी जैसे उसने एक ही प्यारा सपना देखा है।

    शांता को जो सरीता से दो बरस छोटी थी ये बातें सुन कर ऐसा लगा था जैसे उसके सारे जिस्म के अंदर नन्हे नन्हे घुंघरू बज रहे हैं। सरीता की सब बातें सुन कर भी उसको तसल्ली हुई थी और उसका बाज़ू खींच कर उसने कहा था, “चल नीचे चलते हैं... वहां बातें करेंगे।” और नीचे उस मूत्री के पास जहां गिरधारी बनिया ने बहुत से टाटों पर खोपरे के मैले टुकड़े सुखाने के लिए डाल रखे थे, वो दोनों देर तक कपकपी करने वाली बातें करती रही थीं।

    उस वक़्त भी जबकि सरीता धोती के पर्दे के पीछे नीली जॉर्जट की साड़ी पहन रही थी। कपड़े के मस ही से उसके बदन पर गुदगुदी होरही थी और मोटर की सैर का ख़याल उसके दिमाग़ में परिन्दों की सी फड़फड़ाहटें पैदा कर रहा था। अब की बार सेठ कैसा होगा और उसे कहाँ ले जाएगा। ये और इसी क़िस्म के और सवाल उसके दिमाग़ में रहे थे।

    अलबत्ता जल्दी जल्दी कपड़े बदलते हुए उसने एक दो मरतबा ये ज़रूर सोचा था कि ऐसा हो कि मोटर चले और चंद ही मिन्टों में किसी होटल के दरवाज़े पर ठहर जाये और एक बंद कमरे में सेठ शराब पीना शुरू कर दें और उसका दम घुटना शुरू हो जाये। उसे होटलों के बंद कमरे पसंद नहीं थे। जिनमें आम तौर पर लोहे की दो चारपाइयाँ उस तौर बिछी होती थीं गोया उनपर जी भर के सोने की इजाज़त ही नहीं है।

    जल्दी जल्दी उसने जॉर्जट की साड़ी पहनी और उसकी शिकनें दुरुस्त करती हुई एक लम्हे के लिए किशोरी के सामने खड़ी हुई, “किशोरी, ज़रा देखो... पीछे से साड़ी ठीक है ना?” और जवाब का इंतिज़ार किए बग़ैर वो लकड़ी के उस टूटे हुए बक्स की तरफ़ बढ़ी जिसमें उसने जापानी सुर्ख़ी रखी हुई थी... एक धुँदले आईने को खिड़की की सलाख़ों में अटका कर उस ने दोहरी हो कर अपने गालों पर पाउडर लगाया और सुर्ख़ी लगा कर जब बिल्कुल तैयार होगई तो मुस्कुरा कर किशोरी की तरफ़ दाद तलब निगाहों से देखा।

    शोख़ रंग की नीली साड़ी में, होंटों पर बेतरतीबी से सुर्ख़ी की धड़ी जमाए और साँवले गालों पर प्याज़ी रंग का पाउडर मले वो मिट्टी का एक ऐसा खिलौना मालूम हुई जो दीवाली पर खिलौने बेचने वालों की दुकान में सबसे ज़्यादा नुमायां दिखाई दिया करता है।

    इतने में उसकी माँ आगई। उसने जल्दी जल्दी सरीता के बाल दुरुस्त किए और कहा, “देखो बिटिया अच्छी अच्छी बातें करना... और जो कुछ वो कहें मान लेना... ये सेठ जो आए हैं बड़े आदमी हैं मोटर उनकी अपनी है...” फिर किशोरी से मुख़ातिब हो कर कहा, “अब तू जल्दी से ले जा इसे... बिचारे कब के खड़े राह देख रहे होंगे।”

    बाहर बड़े बाज़ार में जहां एक कारख़ाने की लंबी दीवार दूर तक चली गई है। एक पीले रंग की मोटर में तीन हैदराबादी नौजवान अपनी अपनी नाक पर रूमाल रखे किशोरी का इंतिज़ार कररहे थे। वो मोटर आगे ले जाते मगर मुसीबत ये है कि दीवार दूर तक चली गई थी और उसके साथ ही पेशाब का सिलसिला भी।

    जब गली के मोड़ से उन नौजवान को जो मोटर का हैंडल थामे बैठा था। किशोरी नज़र आया तो उसने अपने बाक़ी दो साथियों से कहा, “लो भई आगए... ये है किशोरी... और... और।” उसने मोटर की तरफ़ निगाहें जमाए रखीं, “और... और... अरे ये तो बिल्कुल ही छोटी लड़की है... ज़रा तुम भी देखो न... अरे भई वो... वो नीली साड़ी में।”

    जब किशोरी और सरीता दोनों मोटर के पास आगए तो पिछली सीट पर जो दो नौजवान बैठे थे। उन्होंने दरमियान में से अपने हैट वग़ैरा उठा लिये और जगह ख़ाली करदी। किशोरी ने आगे बढ़ के मोटर के पिछले हिस्से का दरवाज़ा खोला और फुर्ती से सरीता को अंदर दाख़िल कर दिया। दरवाज़ा बंद करके किशोरी ने उस नौजवान से जो मोटर का हैंडिल थामे था, कहा, “माफ़ कीजिएगा देर होगई... ये बाहर अपनी किसी सहेली के पास गई हुई थी... तो... तो?”

    नौजवान ने मुड़ कर सरीता की तरफ़ देखा और किशोरी से कहा, “ठीक है... लेकिन देखो।” सरक कर मोटर की इस खिकड़ी में से उसने अपना सर बाहर निकाला और हौले से किशोरी के कान में कहा, “शोर वोर तो नहीं मचाएगी?”

    किशोरी ने उसके जवाब में अपने सीने पर हाथ रख कर कहा, “सेठ, आप मुझ पर भरोसा रखिए।”

    ये सुन कर उस नौजवान ने जेब में से दो रुपये निकाले और किशोरी के हाथ में थमा दिए, “जाओ ऐश करो।” किशोरी ने सलाम किया और मोटर स्टार्ट हुई।

    शाम के पाँच बजे थे। बंबई के बाज़ारों में गाड़ियों, ट्रामों, बसों और लोगों की आमद-ओ-रफ़्त बहुत ज़्यादा थी। सरीता ख़ामोशी से दो आदमियों के बीच में दुबकी बैठी रही। बार-बार अपनी रानों को जोड़ कर ऊपर हाथ रख देती और कुछ कहते कहते ख़ामोश हो जाती। वो दरअसल मोटर चलाने वाले नौजवान से कहना चाहती थी, “सेठ जल्दी जल्दी मोटर चलाओ... मेरा तो यूं दम घुट जाएगा।”

    बहुत देर तक मोटर में किसी ने एक दूसरे से बात की। मोटर वाला मोटर चलाता रहा और पिछली सीट पर दोनों हैदराबादी नौजवान अपनी अचकनों में वो इज़तिराब छुपाते रहे जो पहली दफ़ा एक नौजवान लड़की को बिल्कुल अपने पास देखकर उन्हें महसूस होरहा था... ऐसी नौजवान लड़की जो कुछ अर्से के लिए उनकी अपनी थी यानी जिससे वो बिला ख़ौफ़-ओ-ख़तर छेड़छाड़ कर सकते थे।

    वो नौजवान जो मोटर चला रहा था। दो बरस से बंबई में क़याम पज़ीर था और सरीता जैसी कई लड़कियां दिन के उजाले और रात के अंधेरे में देख चुका था। उसकी पीली मोटर में मुख़्तलिफ़ रंग-ओ-नस्ल की छोकरियां दाख़िल हो चुकी थीं। इसलिए उसे कोई ख़ास बेचैनी महसूस नहीं हो रही थी।

    हैदराबाद के उसके दो दोस्त आए थे, उनमें से एक जिसका नाम शहाब था, जो बंबई में पूरी तरह सैर-ओ-तफ़रीह करना चाहता था। इसलिए किफ़ायत ने यानी मोटर के मालिक ने अज़राह दोस्त नवाज़ी किशोरी के ज़रिया से सरीता का इंतिज़ाम कर दिया था। दूसरे दोस्त अनवर से किफ़ायत ने कहा कि “भई तुम्हारे लिए भी एक रहे तो क्या हर्ज है।” मगर इसमें चूँकि अख़्लाक़ी क़ुव्वत कम थी। इसलिए शर्म के मारे वो ये कह सका कि हाँ भई मेरे लिए भी एक रहे।

    किफ़ायत ने सरीता को पहले कभी नहीं देखा था क्योंकि किशोरी बहुत देर के बाद ये नई छोकरी निकाल कर लाया था। लेकिन इस नएपन के बावजूद उसने अभी तक उससे दिलचस्पी ली थी। शायद इसलिए कि वो एक वक़्त में सिर्फ़ एक काम कर सकता था। मोटर चलाने के साथ साथ वो सरीता की तरफ़ ध्यान नहीं दे सकता था।

    जब शहर ख़त्म हो गया और मोटर मुज़ाफ़ात की सड़क पर चलने लगी तो सरीता उछल पड़ी। वो दबाव जो अब तक उसने अपने ऊपर डाल रखा था, ठंडी हवा के झोंकों और उड़ती हुई मोटर ने एक दम उठा दिया और सरीता के अंदर बिजलियां सी दौड़ गईं। वो सर-ता-पा हरकत बन गई। उसकी टांगें थिरकने लगीं। बाज़ू नाचने लगे, उंगलियां कपकपाने लगीं और वो अपने दोनों तरफ़ भागते हुए दरख़्तों को दौड़ती हुई निगाहों से देखने लगी।

    अब अनवर और शहाब आराम महसूस कररहे थे। शहाब ने जो सरीता पर अपना हक़ समझता था, हौले से अपना बाज़ू उसकी कमर में हाइल करना चाहा। एक दम सरीता के गुदगुदी उठी। तड़प कर वो अनवर पर जा गिरी और पीली मोटर की खिड़कियों में से दूर तक सरीता की हंसी बहती गई।

    शहाब ने जब एक बार फिर उसकी कमर की तरफ़ हाथ बढ़ाया तो सरीता दोहरी होगई और हंसते हंसते उसका बुरा हाल हो गया। अनवर एक कोने में दुबका रहा और मुँह में थूक पैदा करने की कोशिश करता रहा।

    शहाब के दिल-ओ-दिमाग़ में शोख़ रंग भर गए। उसने किफ़ायत से कहा, वल्लाह बड़ी करारी लौंडिया है। ये कह कर उसने ज़ोर से सरीता की रान में चुटकी भरी। सरीता ने इसके जवाब में अनवर का हौले से कान मरोड़ दिया। इसलिए कि वो उसके बिल्कुल पास था। मोटर में क़हक़हे उबलने लगे।

    किफ़ायत बार-बार मुड़-मुड़ कर देखता था। हालाँकि उसे अपने सामने छोटे से आईने में सब कुछ दिखाई दे रहा था... क़हक़हों के ज़ोर का साथ देने की ख़ातिर उसने मोटर की रफ़्तार भी तेज़ कर दी।

    सरीता का जी चाहा कि बाहर निकल कर मोटर के मुँह पर बैठ जाये जहां लोहे की उड़ती हुई परी लगी थी। वो आगे बढ़ी। शहाब ने उसे छेड़ा, सो सँभलने की ख़ातिर उसने किफ़ायत के गले में अपनी बाहें हायल कर दीं। किफ़ायत ने ग़ैर इरादी तौर पर उसके हाथ चूम लिये। एक सनसनी सी सरीता के जिस्म में दौड़ गई और फांद कर अगली सीट पर किफ़ायत के पास बैठ गई और उसकी टाई से खेलना शुरू कर दिया, “तुम्हारा नाम क्या है?” उसने किफ़ायत से पूछा।

    “मेरा नाम!” किफ़ायत ने पूछा, “मेरा नाम किफ़ायत है।” ये कह कर उसने दस रुपये का नोट उसके हाथ में दे दिया।

    सरीता ने उसके नाम की तरफ़ कोई तवज्जो दी और नोट अपनी चोली में अड़स कर बच्चों की तरह ख़ुश हो कर कहा, “तुम बहुत अच्छे आदमी हो... तुम्हारी ये टाई बहुत अच्छी है।” उस वक़्त सरीता को हर शय अच्छी नज़र आरही थी... वो चाहती थी कि जो बुरे भी हैं अच्छे हो जाएं... और... और... फिर ऐसा हो, ऐसा हो कि मोटर तेज़ दौड़ती रहे और हर शय हवाई बगूला बन जाये।

    एक दम उसका जी चाहा कि गाए, चुनांचे उसने किफ़ायत की टाई से खेलना बंद करके गाना शुरू कर दिया;

    “तुम्हीं ने मुझको प्रेम सिखाया

    सोए हुए हिर्दे को जगाया

    कुछ देर ये फ़िल्मी गीत गाने के बाद सरीता एक दम पीछे मुड़ी और अनवर को ख़ामोश देख कर कहने लगी, “तुम क्यों चुपचाप बैठे हो... कोई बात करो... कोई गीत गाओ।” ये कहती हुई वो उचक कर पिछली सीट पर चली गई और शहाब के बालों में उंगलियों से कंघी करने लगी।

    “आओ हम दोनों गाएँ... तुम्हें याद है वो गाना जो देविका रानी ने गाया था... मैं बन की चिड़िया बन के बोलूं रे... देविका रानी कितनी अच्छी है।” ये कहकर उसने दोनों हाथ जोड़ कर अपनी थोड़ी के नीचे रख लिए और आँखें झपकाते हुए कहा, अशोक कुमार और देविका रानी पास पास खड़े थे... देविका रानी कहती थी... मैं बन की चिड़िया बन के बन बन बोलूँ रे... और अशोक कुमार कहता था... तुम कहो ना।”

    सरीता ने गाना शुरू कर दिया... मैंबन की चिड़िया बन के बोलूं रे।

    शहाब ने भद्दी आवाज़ में गाया, “मैं बन का पंछी बन के बन बन बोलूँ रे।”

    और फिर बाक़ायदा ड्यूट शुरू होगया। किफ़ायत ने मोटर का हॉर्न बजा कर ताल का साथ दिया। सरीता ने तालियां बजाना शुरू करदीं। सरीता का बारीक सुर, शहाब की फटी हुई आवाज़, हॉर्न की पों पों, हवा की साएँ-साएँ और मोटर के इंजन की फरफराहट ये सब मिल जुल कर एक ऑर्केस्ट्रा बन गए।

    सरीता ख़ुश थी, शहाब ख़ुश था, किफ़ायत ख़ुश था... इन सबको ख़ुश देख कर अनवर को भी ख़ुश होना पड़ा। वो दिल में बहुत शर्मिंदा हुआ कि ख़्वाह मख़्वाह उसने अपने को क़ैद कर रखा है... उसके बाज़ूओं में हरकत पैदा हुई। उसके सोए हुए जज़्बात ने अंगड़ाइयां लीं और वो सरीता, शहाब और किफ़ायत की शोर अफ़शां ख़ुशी में शरीक होने के लिए तैयार होगया।

    गाते-गाते सरीता ने अनवर के सर से उसका हैट उतार कर अपने सर पहन लिया और ये देखने के लिए कि उसके सर पर कैसा लगता है, उचक कर अगली सीट पर चली गई और नन्हे से आईने में अपना चेहरा देखने लगी... अनवर सोचने लगा कि क्या मोटर में वो शुरू ही से हैट पहने बैठा था।

    सरीता ने ज़ोर से किफ़ायत की मोटी रान पर तमांचा मारा, “अगर मैं तुम्हारी पतलून पहन लूं और क़मीज़ पहन कर ऐसी टाई लगा लूँ तो क्या पूरा साहब बन जाऊं?”

    ये सुनकर शहाब की समझ में आया कि वो क्या करे। चुनांचे उसने अनवर के बाज़ूओं को झिंझोड़ दिया, “वल्लाह तुम निरे चुग़द हो।” और अनवर ने थोड़ी देर के लिए महसूस किया कि वो वाक़ई बहुत बड़ा चुग़द है।

    किफ़ायत ने सरीता से पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”

    “मेरा नाम।” सरीता ने हैट के फीते को अपनी ठोढ़ी के नीचे जमाते हुए कहा, “मेरा नाम सरीता है।”

    शहाब पिछली सीट से बोला, “सरीता तुम औरत नहीं फुलझड़ी हो।”

    अनवर ने कुछ कहना चाहा। मगर सरीता ने ऊंचे सुरों में गाना शुरू कर दिया;

    प्रेम नगर में बनाऊंगी घर मैं

    तज के सब सन सा आर

    किफ़ायत और शहाब के दिल में बयक वक़्त ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि ये मोटर यूंही सारी उम्र चलती रहे।

    अनवर फिर सोच रहा था कि वो चुग़द नहीं है तो क्या है?

    प्रेम नगर में बनाऊंगी घर मैं

    तज के सब सन सा आर

    संसार के टुकड़े देर तक उड़ते रहे... सरीता के बाल जो उसकी चोटी की गिरिफ्त से आज़ाद थे। यूं लहरा रहे थे जैसे गाढ़ा धुआँ हवा के दबाव से बिखर रहा है, वो ख़ुश थी।

    शहाब ख़ुश था, किफ़ायत ख़ुश था और अब अनवर भी ख़ुश होने का इरादा कर रहा था।

    गीत ख़त्म हो गया और सबको थोड़ी देर के लिए ऐसा महसूस हुआ कि जो ज़ोर की बारिश हो रही थी, एका एकी थम गई है।

    किफ़ायत ने सरीता से कहा, “कोई और गीत गाओ।”

    शहाब पिछली सीट से बोला, “हाँ हाँ, एक और रहे... ये सिनेमा वाले भी क्या याद करेंगे।”

    सरीता ने गाना शुरू कर दिया;

    मोरे आंगना में आए आली

    मैं चाल चलूं मतवाली

    मोटर भी मतवाली चाल चलने लगी... आख़िरकार सड़क के सारे पेच ख़त्म होगए और समुंदर का किनारा आगया... दिन ढल रहा था और समुंदर से आने वाली हवा ख़ुनकी इख़्तियार कर रही थी।

    मोटर रुकी। सरीता दरवाज़ा खोल कर बाहर निकली और साहिल के साथ साथ दूर तक बेमक़्सद दौड़ती चली गई। किफ़ायत और शहाब भी इस दौड़ में शामिल होगए। खुली फ़ज़ा में, बेपायाँ समुंदर के पास, ताड़ के ऊंचे-ऊंचे पेड़ों तले गीली-गीली रेत पर सरीता समझ सकी कि वो क्या चाहती है।

    उसका जी चाहता था कि बयक वक़्त फ़ज़ा में घुल-मिल जाये, समुंदर में फैल जाये, इतनी ऊंची हो जाये कि ताड़ के दरख़्तों को ऊपर से देखे। साहिल की रेत की सारी नमी पैरों के ज़रिये से अपने अंदर जज़्ब करले और फिर... और फिर... वही मोटर हो और वही उड़ानें वही तेज़ तेज़ झोंके और वही मुसलसल पों पों।

    वो बहुत ख़ुश थी। जब तीनों हैदराबादी नौजवान साहिल की गीली-गीली रेत पर बैठ कर बिअर पीने लगे तो किफ़ायत के हाथ से सरीता ने बोतल छीन लिया, “ठहरो मैं डालती हूँ।”

    सरीता ने इस अंदाज़ से गिलास में बिअर उंडेली कि झाग ही झाग पैदा होगए। सरीता ये तमाशा देख कर बहुत ख़ुश हुई। साँवले साँवले झागों में उसने अपनी उंगली खबोई और मुँह में डाल ली। जब कड़वी लगी तो बहुत बुरा मुँह बनाया। किफ़ायत और शहाब बेइख़्तियार हंस पड़े। जब दोनों की हंसी बंद हुई तो किफ़ायत ने मुड़कर अपने पीछे देखा, अनवर भी हंस रहा था।

    बिअर की छः बोतलें कुछ तो झाग बन कर साहिल की रेत में जज़्ब होगईं और कुछ किफ़ायत, शहाब और अनवर के पेट में चली गईं। सरीता गाती रही... अनवर ने एक बार उसकी तरफ़ देखा और ख़याल किया कि सरीता बिअर की बनी हुई है। उसके साँवले गाल समुंदर की नम आलूद हवा के मस से गीले हो रहे थे... वो बेहद मसरूर थी। अब अनवर भी ख़ुश था। उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हो रही थी कि समुंदर का सब पानी बिअर बन जाये और वो इसमें गोते लगाए, सरीता भी डुबकियां लगाए।

    दो खाली बोतलें लेकर सरीता ने एक दूसरे से टकरा दीं, झनकार पैदा हुई और सरीता ने ज़ोर ज़ोर से हंसना शुरू कर दिया। किफ़ायत, शहाब और अनवर भी हँसने लगे।

    हंसते हंसते सरीता ने किफ़ायत से कहा, “आओ मोटर चलायें।”

    सब उठ खड़े हुए... ख़ाली बोतलें गीली-गीली रेत पर औंधी पड़ी रहीं और वो सब भाग कर मोटर में बैठ गए... फिर वही हवा के तेज़ तेज़ झोंके आने लगे... वही मुसलसल पों पों शुरू हुई और सरीता के बाल फिर धुंए की तरह बिखरने लगे।

    गीतों का सिलसिला फिर शुरू हुआ।

    मोटर हवा में आरे की तरह चलती रही... सरीता गाती रही... पिछली सीट पर शहाब और अनवर के दरमियान सरीता बैठी थी। अनवर ऊँघ रहा था। सरीता ने शरारत से शहाब के बालों में कंघी करना शुरू की। मगर इसका नतीजा ये हुआ कि वो सो गया।

    सरीता ने जब अनवर की तरफ़ रुख़ किया तो उसे वैसा ही सोया हुआ पाया। उन दोनों के बीच में से उठकर वो अगली सीट पर किफ़ायत के पास बैठ गई और आवाज़ दबा कर हौले से कहने लगी,

    “आपके दोनों साथियों को सुला आई हूँ... अब आप भी सो जाइए।”

    किफ़ायत मुस्कुराया, “फिर मोटर कौन चलाएगा।”

    सरीता भी मुस्कुराई, “चलती रहेगी।”

    देर तक किफ़ायत और सरीता आपस में बातें करते रहे। इतने में वो बाज़ार आगया, जहां किशोरी ने सरीता को मोटर के अंदर दाख़िल किया था... जब वो दीवार आई जिसपर “यहां पेशाब करना मना है” के कई बोर्ड लगे थे तो सरीता ने किफ़ायत से कहा, “बस यहां रोक लो।”

    मोटर रुकी। पेशतर इसके कि किफ़ायत कुछ सोचने या कहने पाए, सरीता मोटर से बाहर थी। उसने इशारे से सलाम किया और चल दी। किफ़ायत हैंडल पर हाथ रखे ग़ालिबन सारे वाक़िया को ज़ेहन में ताज़ा करने की कोशिश कर रहा था कि सरीता के क़दम रुके, मुड़ी और चोली में से दस रुपये का नोट निकाल कर किफ़ायत के पास सीट पर रख दिया।

    किफ़ायत ने हैरत से नोट की तरफ़ देखा और पूछा, “सरीता ये क्या?”

    “ये... ये रुपये मैं किस बात के लूं?” कह कर सरीता फुर्ती से दौड़ गई और किफ़ायत सीट के गद्दे पर पड़े हुए नोट की तरफ़ देखता रह गया।

    उसने मुड़ कर पिछली सीट की तरफ़ देखा। शहाब और अनवर भी नोट की तरह सो रहे थे।

    स्रोत:

    Fasane Manto Ke

      • प्रकाशक: किताबी दुनिया, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2007

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए