उसकी बीवी
स्टोरीलाइन
एक नौजवान वेश्या नसरीन की बाँहों में पड़ हुआ है और उससे अपनी मरहूम बीवी की बातें कर रहा है। नसरीन की हर अदा और बनाव-सिंगार में उसे अपनी बीवी नज़र आती है। वह अपनी बीवी की हर एक बात नसरीन को बताता जाता है। उसकी बातें सुनकर नसरीन शुरू में दिलचस्पी जाहिर करती है। फिर ऊब जाती है और आख़िर में तरस खा कर उसे किसी माँ की तरह अपनी बाँहों में भर लेती है।
वो दोनों तीसरी मंज़िल के एक कमरे में थे। ये छोटा सा कमरा अपनी हल्की नीली रौशनी के साथ बाहर से यूँ दिखाई देता गोया ट्रेन का कोई ठंडा डिब्बा है, जिस तरह रेलवे वाले गर्मी के मौसम में “फ़िरदौस-ए-सीमीं” या “ख़्वाब-ए-सीमीं” वग़ैरह शायराना नाम रखकर बा'ज़ ख़ास गाड़ियों में जोड़ देते हैं।
बारिशों का ज़माना क़रीब-क़रीब ख़त्म हो चुका था। मकानों में बसने वाली मख़लूक़ ने पसीने, बदबू और घुटन से निजात पाई थी। फ़िज़ा में ख़ुसूसन रात के वक़्त ख़ुनकी होने लगी थी। हाँ जब कोई बड़ा सा काले रंग का पतंगा अपनी तेज़ भनभनाहट के साथ अंधा-धुंद किसी बर्क़ी क़ुमक़ुमे के चक्कर काटने लगता तो ज़ाहिर हो जाता कि बरखा-रुत अभी गई नहीं।
“नजमा भी ठीक इसी तरह सीधी माँग निकाला करती।” नौजवान ने कहा। “मगर कभी-कभी वो गुद्दी तक माँग ले जाती... ये तरीक़ा उसने एक बंगालन से सीखा था।” नसरीन चुप रही, नज़रें फ़र्शी सिंघार मेज़ के आईने पर जमाए जिसमें उसे अपना धुँदला-धुँदला नीलगूँ अ'क्स दिखाई दे रहा था, वो बालों में कंघी करती रही, जैसा कि सोने से पहले बा'ज़ औरतों की आदत होती है।
नौजवान उसके पास ही चाँदनी पर कोहनियों के बल औंधा लेटा हुआ था। यूँ लेटने से उसकी सफ़ेद सिल्क की क़मीस और ख़ाकी ज़ीन की पतलून में जा-ब-जा सिलवटें पड़ गई थीं। उसने चंद लम्हे जवाब का इंतिज़ार किया, और फिर कहना शुरू' किया, “कभी-कभी नजमा अपने दाहिने कान के पास से अपने भूरे बालों की एक लट निकाल कर लाम सा बना लिया करती जो उसके सुर्ख़-ओ-सफ़ेद भरे-भरे गाल पर बहुत भला लगता...।”
नसरीन के चेहरे पर ख़फ़ीफ़ सी इज़्मेहलाल की कैफ़ियत पैदा हुई। मगर ज़बान से अब भी उसने कुछ न कहा। वो सोच रही थी ये कैसा मर्द है, जिसके पास बात करने को बीवी के सिवा और कोई मौज़ू' ही नहीं। वो दो घंटे से बराबर उसी औरत का ज़िक्र सुने जा रही थी, जो अब दुनिया में मौजूद न थी। इन दो घंटों वो इस नौजवान की मुत‘अह्हिल ज़िंदगी के तमाम अहम वाक़िआ'त और उसकी मरहूम बीवी की बहुत सी आदतों और ख़सलतों से वाक़िफ़ हो चुकी थी। ये कि उसे बचपन ही से अपनी बीवी से इ'श्क़ था। ये कि नजमा का बाप उनकी शादी के ख़िलाफ़ था मगर मामूँ और चचा हक़ में थे। ये कि नजमा लंबे क़द की थी। उसे गाना सीखने का बहुत शौक़ था। जब वो हँसती तो उसके बाएँ गाल में गढ़ा पड़ जाता। उसे हिना का इत्र बहुत मर्ग़ूब था... वो क्रोशिए से मोर बहुत अच्छा बनाया करती।
शुरू'-शुरू' में नसरीन को इस ज़िक्र से कुछ यूँ ही सी दिलचस्पी हुई थी जैसा कि इब्तिदा में उ'मूमन एक औरत को दूसरी औरत के ज़िक्र से हुआ करती है। मगर जल्द ही वो उससे बेज़ार हो गई थी और आख़िर
जब उसकी जमाइयाँ और अंगड़ाइयाँ भी इस मौज़ू' से उसका पीछा न छुड़ा सकीं तो ज़च हो कर उसने चुप साध ली थी।
वो अब चोटी करके जूड़ा बाँध चुकी थी और उन हेयरपिनों और क्लिपों को, जिनसे वो अपने बालों की आराइश में मदद लिया करती, फ़र्श से उठा-उठाकर सिंघार मेज़ के ख़ाने में डाल रही थी। इस अस्ना में नौजवान की नज़रें उसकी गोरी-गोरी उँगलियों की ख़फ़ीफ़-तरीन हरकात का भी तआक़ुब करती रही थीं।
दो मिनट ख़ामोशी में गुज़र गए।
कई दिन हुए इस नौजवान ने नसरीन को देखा था। उसे देखते ही उसे अपनी मरहूम बीवी की याद बे-तरह सताने लगी थी और वो उससे मिलने की तदबीरें करने लगा था और आख़िर जब उसने इस क़दर रुपया जमा' कर लिया कि दो रातों के लिए इस औरत को ख़रीद सके तो उसने सीधा उसके घर का रुख़ किया।
“मेरी बीवी...”
“तो गोया बहुत मुहब्बत थी आपको बेगम साहब से।” बिल-आख़िर नसरीन ने बात काट कर कहा। जब एक आदमी बोले ही चला जाए तो दूसरा कब तक चुप रह सकता है।
“बेहद...” बे-साख़्ता नौजवान के मुँह से निकला। वो उसके ता‘न को नहीं समझ सका था।
“मगर साहब आपकी बातें भी अ'जीब हैं।” एक इंतिक़ामी जज़्बा उसमें पैदा हो रहा था। “समझ में नहीं आता वो कैसी मुहब्बत थी जो उसके मरने के तीन ही महीने बा'द रफ़ू-चक्कर हो गई, और अब...”
वो फ़िक़रा मुकम्मल न कर सकी। शायद उसकी ज़रूरत भी न थी। क्योंकि नौजवान उसका मतलब ब-ख़ूबी समझ गया था। वो कुछ देर गुम-सुम रहा। फिर उसने अपनी साफ़ और रौशन आँखें उठाकर जिनमें मुजरिमाना घबराहट या गुनाहगाराना नदामत की कोई अलामत न थी, नसरीन के चेहरे की तरफ़ देखा। फिर वो आलती-पालती मार के बैठ गया कि शायद लेटे रहने से वो अपनी मुदाफ़अ'त पूरे तौर पर न कर सके। उसके होंट पल-भर को लरज़े मगर ज़बान कुछ न कह सकी। चंद लम्हों तक दोनों ख़ामोश बैठे रहे। उसके बा'द नसरीन अंगड़ाई लेती हुई और बग़ैर कुछ कहे कमरे से निकल गई।
कोई पाव घंटे बा'द वो वापस आई। ज़ेवर वग़ैरह उसने उतार दिए थे... और शब-ख़्वाबी के लिए एक सादा सी उजली धोती बाँध ली थी। वो इस क़दर आहिस्ता से दाख़िल हुई कि नौजवान ने उसके क़दमों की चाप तक नहीं सुनी। वो चाँदनी पर पेट के बल लेटा हुआ था। उसकी उम्र चौबीस-पच्चीस बरस से कम न होगी मगर उस वक़्त बर्क़ी लैम्प की मद्धम नीली रौशनी में वो अपनी छोटी-छोटी सियाह मूँछों, घने अब्रुओं और चमकती हुई आँखों के साथ कॉलेज की किसी इब्तिदाई जमाअ'त का तालिब-इ'ल्म मा'लूम होता था। उसके सामने चाँदनी पर मटर के दाने के बराबर एक सियाह पतंगा चित्त पड़ा था, जो शायद बर्क़ी क़ुमक़ुमे से टकराकर नीचे आ रहा था। पतंगा अपनी नन्ही-नन्ही बाल सी टाँगें हवा में हिला-हिलाकर और सर को फ़र्श पर रगड़-रगड़ कर सीधा होने की कोशिश करता, मगर जहाँ उसे ज़रा कामयाबी होती, नौजवान एक बुझी हुई देह-सलाई के सिरे से फिर उसे औंधा कर देता। जब नसरीन बिल्कुल उसके सर पर आ खड़ी हुई तो वो चौंक पड़ा।
“ओह आप हैं।” और उसने कुछ शर्मिंदा-सा हो कर पतंगे को दिया-सलाई से परे उछाल दिया।
“बेगम साहब के मरने का रंज तो बहुत हुआ होगा आपको।” ये सवाल करके वो ख़ुद हैरान रह गई।
नौजवान ने लम्हा भर तअ'म्मुल किया और फिर संजीदा लहजा में कहना शुरू' किया “नहीं। शुरू'-शुरू' में कुछ ऐसा ग़म नहीं हुआ था। यक़ीन ही नहीं आता था कि ऐसा हो गया है मगर मैं ज़ियादा दिन इस फ़रेब में न रह सका। मैं बीमार पड़ गया। महीना भर चारपाई पर पड़ा रहा। जब मेरी हालत बहुत ख़राब हो जाती तो अम्मी जान और ज़ुहरा, ये मेरी छोटी बहन का नाम है, मेरे सिरहाने आकर खड़ी हो जाती और ऐसी चुप-चुप सहमी हुई नज़रों से मेरी तरफ़ देखतीं कि मैं जल्दी से आँखें बंद कर लेता और चाहता कि न मरूँ... बस फिर मैं रफ़्ता-रफ़्ता तंदुरुस्त होता गया।” उसके लहजे ने नसरीन को मुतअ'स्सिर किया। दो तीन लम्हे फिर दोनों चुप रहे।
“आपने कहा था।” अचानक नसरीन के लहजे में शोख़ी झलकने लगी। “मेरी शक्ल बेगम साहब से मिलती जुलती है। भला क्या चीज़ मिलती है?”
नौजवान ने पल-भर ग़ौर किया।
“सबसे ज़ियादा तुम्हारी आँखें नजमा से मिलती हैं।” ये कहते वक़्त उसके होंटों पर हल्की सी मुस्कुराहट आ गई थी। मगर लहजे से अभी अफ़्सुर्दगी का असर दूर नहीं हुआ था। “वैसी ही सियाह और गहरी। दूसरे नंबर पर ठोढ़ी वैसी ही पतली और तीसरे नंबर पर...”
“चलिए हटिए बनाइए नहीं।”
“तुम्हारे बाल, तुम्हारी गर्दन...”
नौजवान की फ़ितरी चौंचाली तेज़ी से बहाल हो रही थी और नसरीन ख़ुद को रोके हुए थी कि इस सिलसिले में कोई और सवाल न कर बैठे।
आध घंटे बा'द रौशनी गुल कर दी गई थी और वो दोनों खिड़की के पास पलंग पर दराज़ हो गए थे। नौजवान जो रात को जल्द ही सो जाने का आदी था, ज़ियादा देर तक न जागा। नसरीन आँखें खोले देर तक खिड़की में से आसमान को देखती रही। ये क़मरी महीने की आख़िरी तारीख़ों की एक रात थी। आसमान साफ़ मगर तारीक-तारीक सा था। सितारे इस क़दर तेज़ी से चमक रहे थे कि मा'लूम होता था ज़मीन के क़रीब सरक आए हैं। नसरीन सितारों को हमेशा दिलचस्पी से देखा करती थी। सबसे पहले जब वो सितारों से आश्ना हुई थी, उसकी उम्र चार बरस की थी। माँ मर चुकी थी मगर बाप ज़िंदा था। उसने बाप के साथ रेल-गाड़ी में एक लंबा सफ़र किया था। आधी रात को वो दोनों एक छोटे से देहाती स्टेशन पर उतरे थे। उसी स्टेशन पर लालटेन की मद्धम रौशनी में एक मोटे नंग-धड़ंग फ़क़ीर ने उसे ऐसी लाल-लाल डरावनी आँखों से घूरा था कि उसकी चीख़ निकल गई थी। और वो बे-इख़्तियार बाप की टाँगों से लिपट गई थी। कुछ देर दोनों स्टेशन ही पर ठहरे रहे मगर सवारी न मिली। आख़िर बाप ने उसे गोद में ले लिया। गठरी बग़ल में मारी और अँधेरे घुप में पैदल चलना शुरू' कर दिया।
ये सफ़र भी बहुत लंबा था, मगर उसकी सहमी हुई नज़रों ने जल्द ही सितारों को ढूँढ निकाला था। उनको देखकर उसका डर कम होने लगा था। यहाँ तक कि वो बाप के कंधे से लग कर सो गई। आँख खुली तो ख़ुद को एक अजनबी औरत के घर पाया। वो कई दिन तक रोती-बिलकती रही मगर बाप की सूरत देखना उसे फिर कभी नसीब न हुआ।
सुब्ह को नसरीन की आँख खुली तो सूरज ख़ासा निकल आया था। उठते ही सबसे पहले उसे जो एहसास हुआ ये था कि नौजवान उसके बिस्तर पर मौजूद नहीं, उसने सोचा ग़ुस्ल-ख़ाने में होगा। खुले-खुले बिस्तर पर करवटें बदलने लगी। जब पाव घंटा गुज़र गया और नौजवान कहीं नज़र न आया तो उसे उलझन होने लगी। शम्मन झाड़ू लिए कमरे में आया तो उससे पूछा, “वो रात वाले बाबू कहाँ हैं?”
“चले गए।”
“चले गए?” उसने तअ'ज्जुब से पूछा।
“जी हाँ सुब्ह-सुब्ह, हम सब सो रहे थे। दरवाज़ा भी तो खुला ही छोड़ गए।”
“वैसे तो सब ख़ैरीयत है ना?” बे-साख़्ता उसके मुँह से निकल गया।
“जी सब ख़ैरीयत है।” शम्मन उसका मतलब फ़ौरन समझ गया।“ मैंने उठते ही सब देख-भाल लिया था।”
अपने शुबहे के घटियापन पर उसे शर्म आ गई मगर दूसरे ही लम्हे इस ख़याल ने उस पर तसल्लुत जमा' लिया कि वो नौजवान चला क्यों गया। उसने सोचा रात उसे मेरा ता'ना बुरा लगा। वो बड़ा हस्सास था। ऊपर-ऊपर से हँसता बोलता रहा, सुब्ह होते ही चल दिया। मुँह हाथ धोकर नीचे फूफी के पास जाने को थी कि अचानक किसी के जल्द-जल्द सीढ़ियाँ चढ़ने की आवाज़ आई। नौजवान गया नहीं था। वो रूमाल में कुछ बाँधे लिए आ रहा था।
“मुआ'फ़ करना।” उसने अपने फूले हुए साँस पर क़ाबू पाने की कोशिश करते हुए कहा, “मैं तुम्हें बताए बग़ैर ही चला गया। मैंने जगाना मुनासिब नहीं समझा था। ये लो।” ये कह कर उसने रूमाल नसरीन के हाथ में दे दिया।
“क्या है?” नसरीन ने पूछा।
“गोश्त तरकारी।” ये कह कर वो मुस्कुराने लगा, जैसे उसने कोई शरारत की हो।
“गोश्त तरकारी? किसने कहा था लाने को?”
“ख़फ़ा क्यों होती हो, बात यूँ है जब नजमा ज़िंदा थी मैं यूँ ही मुँह-अँधेरे उसे जगाए बग़ैर घर से निकल जाता। हवा-ख़ोरी की हवा-ख़ोरी हो जाती और घर का सौदा भी ले आता। हमें नौकर रखने की तौफ़ीक़ नहीं थी। बस यूँ ही मिल बाँट के काम किया करते। वो घर का और मैं बाहर का... ज़रा देखो तो गोश्त क्या उम्दा और ताज़ा है। आधा दस्त का और आधा पुश्त का, और गर्दा रूंगे में। नौकर का बाप भी ऐसा गोश्त नहीं ला सकता। और फिर ज़रा कचनाल तो देखो, आज ही शहर में आई है। फिर प्याज़ भी है, हरी मिर्चें भी और अदरक भी और धनिया भी।”
नौजवान दाढ़ी भी मुंडवाता आया था। थोड़ा सा साबुन उसके कानों की लवों पर अभी तक लगा रह गया था। नसरीन का जी चाहा कि दुपट्टे के दामन से साबुन को पोंछ दे। मगर वो ऐसा न कर सकी।
“आप ने ना-हक़ तकलीफ़ की।” नसरीन ने कहा, “ख़ैर अब ले आए तो मैं शम्मन को बुलवाती हूँ।”
“नहीं। नहीं उसे मत बुलवाओ।”
“ये क्यों?”
“मैं खाना ख़ुद पकाऊँगा। जब नजमा ज़िंदा थी तो कभी-कभी मैं हंडिया पकाया करता। वो सामने मूँढे पर बैठी मुझे बताती रहती...”
“हमारा शम्मन भी बहुत होशियार है।” नसरीन ने कहा, “ऐसा खाना पकाता है कि ज़बान चटख़ारे लेती रह जाती है।”
“नहीं साहब।” नौजवान ने क़तई' फ़ैसला करते हुए कहा, “नजमा कचनाल एक ख़ास तरकीब से पकाया करती थी। वो तरकीब या तो वो जानती थी या मैं जानता हूँ... मेहरबानी करके आप अँगीठी, कोएले और चाक़ू मँगवा दीजिए।”
नसरीन ने इस सिलसिले में कुछ और कहना मुनासिब न समझा और ख़ामोश सीढ़ियों से उतर गई।
“ओ बेटा!” नसरीन की फूफी ने उसे देखकर उगल-दान में पीक थूकते हुए कहा, “मैं अभी-अभी शम्मन से कह रही थी कि तुम्हारा और उसका नाश्ता ऊपर ले जाए।”
“मैं नाश्ता नहीं करूँगी, उसके लिए ऊपर भेज दो।”
“तुम चुप क्यों हो?”
“नहीं तो...!”
“शक्ल से तो बड़ा कम-ज़बान मा'लूम होता है।”
नसरीन ने कुछ जवाब न दिया।
“क्या कर रहा है, इस वक़्त?” फूफी ने पूछा।
“हंडिया का सौदा ख़रीद कर लाया है, ख़ुद ही पकाने बैठा है।”
नसरीन की फूफी खिलखिला कर हँस पड़ी।
“सच!”
“हाँ हाँ!”
“बड़ा ही सीधा सादा है।”
“ख़ब्ती है पूरा, रात-भर अपनी मरी हुई बीवी की बातें करके दिमाग़ चाट गया... शम्मन को उसके पास भेज देना हाथ बटाता रहेगा। मैं ज़रा नौ-बहार के हाँ जाती हूँ।”
नसरीन का ख़याल था कि वो कम से कम एक घंटा नौ-बहार के हाँ ज़रूर ठहरेगी मगर पाव घंटा भी न गुज़रने पाया था कि उठ आई। सीधी ऊपर की मंज़िल में पहुँची। देखा कि कमरे के बाहर दालान में अँगीठी दहक रही है और नौजवान उसके पास ही एक छोटी दरी पर आलती पालती मारे बैठा प्याज़ कतर रहा है, आँखें सुर्ख़ हो रही हैं, पानी बह रहा है। उससे ज़रा हट के शम्मन बैठा बड़े मज़े से ये तमाशा देख रहा है।
“शम्मन!” नसरीन ने किसी क़दर सख़्ती से कहा। “तुम बैठे मुँह क्या तक रहे हो। साहब से प्याज़ लेकर क्यों नहीं कतरते?”
“मैं तो कई दफ़ा अर्ज़ कर चुका हूँ।” शम्मन ने मुँह बना कर कहा। “पर साहब मानते ही नहीं। मुझसे आग जलाने को कहा मैंने आग जला दी।”
“अच्छा तुम नीचे जाओ।”
जब शम्मन चला गया, तो नसरीन ने कहा “हज़रत ये इस उम्र में हंड-कुल्हिया पकाने की क्या सूझी है। लाइए प्याज़ मुझे दीजिए और जाकर आँखों पर छींटे दीजिए। और उसने हाथ बढ़ाकर नौजवान की गोद से प्याज़ की रकाबी ख़ुद ही उठा ली, नौजवान ने मुज़ाहमत न की। दो घंटे के बा'द जब वो दोनों दस्तरख़्वान पर खाना खाने बैठे तो नौजवान ने कहा “मुआ'फ़ करना, मेरी वज्ह से तुमको इतनी तकलीफ़ उठानी पड़ी। बात ये है कि नजमा...”
“बातें छोड़िए और खाना खाइए।”
“वाह क्या मज़े का खाना पकाया है।” नौजवान ने पहला निवाला मुँह में रखते हुए कहा, “नजमा के हाथ का मज़ा याद आ गया।”
“चलिए ज़ियादा बनाइए नहीं। चपातियाँ तो देखिए कैसी टेढ़ी-बैंकी हैं।”
“चपातियाँ नजमा को भी पकानी नहीं आती थीं और मैं ज़ियादा-तर तनूर ही से रोटियाँ लगवाकर लाया करता था।”
“मुझे तनूर की रोटी ज़हर लगती है।”
“कभी-कभी हम कोई सस्ता सा ख़ानसामाँ भी रख लिया करते मगर वो पंद्रह बीस रोज़ से ज़ियादा न टिकता। पहले-चुपके किसी अच्छे घर की टोह में रहता। और फिर खिसक जाता।”
खाने से फ़ारिग़ हो कर दोनों कमरे में फ़र्श पर आ बैठे।
“आपने कहा था।” नसरीन ने कहा, “आजकल आप किसी दोस्त के हाँ रहते हैं।”
“हाँ नजमा के मरने के बा'द मैंने अम्मी जान और ज़ुहरा को तो गाँव भेज दिया था और ख़ुद एक दोस्त के हाँ उठ आया था। ये दोस्त भी मेरी तरह अकेला ही है। हम दोनों मकान के किराए, खाने पीने के ख़र्च और नौकर की तनख़्वाह में साझी हैं।”
“और आधी तनख़्वाह आप अम्मी जान को भेज देते हैं?”
“हाँ। मगर वो हमेशा किसी न किसी बहाने कुछ न कुछ लौटाती ही रहती हैं। कभी गर्म पतलून सिलवाने के लिए कभी नया बूट ख़रीदने के लिए।” नसरीन ने महसूस किया कि उसकी माँ उसे बहुत चाहती होगी।
“अपनी हम-शीरा की क्या उम्र बताई थी आपने?”
“दस बरस, बड़ी प्यारी बच्ची है।”
“स्कूल जाती है?”
नहीं, घर में मौलवी-साहब से पढ़ती है। सीना-पिरोना उसे दादी सिखाती है। उसने एक बकरी पाली है। दूध सी सफ़ेद, एक भी काला बाल नहीं। ज़ुहरा ही उसकी बड़ी देख-भाल करती है। खेत से बॉनेट तोड़ लाती है अपने हाथ से खिलाती है। हमारे गाँव के पास ही छोटी सी नदी बहती है, वो उसे वहाँ पानी पिलाने ले जाती है। एक दिन क्या हुआ कि वो बकरी पानी पी रही थी कि एक बड़ा सा कुत्ता आया। वो जो ज़ोर से भौंका तो बकरी डर कर नदी में गिर पड़ी पानी का बहाव तेज़ था। वो उसके साथ बह चली। इस पर ज़ुहरा ने चीख़-चीख़ कर बुरा हाल कर लिया। इत्तिफ़ाक़ से एक किसान उधर से गुज़रा, शोर सुन कर दौड़ा हुआ आया। बड़ी मुश्किल से बकरी को निकाला। तब ज़ुहरा की जान में जान आई...”
नसरीन ये सादा सा बे-रंग वाक़िआ' बड़ी दिलचस्पी से सुनती रही। अब नौजवान पर कुछ ग़ुनूदगी तारी हो रही थी। वो गाव-तकिए के सहारे लेट गया। रफ़्ता-रफ़्ता उसकी आँखें बंद हो गईं और वो सो गया। नसरीन उठी। अलमारी के ख़ाने से सफ़ेद मलमल का दुपट्टा और गोटा उठा लाई और नौजवान के क़रीब ही फ़र्श पर बैठ दुपट्टे में गोटा टाँकने लगी। मगर थोड़ी ही देर में उसका जी उकता गया और वो भी पलंग पर जाकर लेट गई।
तीसरे पहर एक रिक्शा मंगवाया गया और वो दोनों बाज़ार जाने की तैयारी करने लगे। नौजवान ने ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी कि वो उसे कोई तोहफ़ा ख़रीद कर देना चाहता है। उसने बग़ैर किसी शर्म-ओ-हिजाब के साफ़-साफ़ कह दिया था कि नसरीन बीस रुपये तक की जो चीज़ चाहे ख़रीद सकती है। इससे ज़ियादा की उसे तौफ़ीक़ नहीं।
“ये सच है।” उसने कहा, “कि इतने कम दामों की कोई चीज़ तुम्हारे लाएक़ नहीं हो सकती। मगर मेरा जी चाहता है कि मेरी कोई चीज़ ख़्वाह वो कितनी ही हक़ीर क्यों न हो तुम्हारे पास ब-तौर यादगार रहे।”
और वो उसके साथ चलने पर रज़ा-मंद हो गई थी। फूफी को इजाज़त देने में तअ'म्मुल हुआ था। मगर एक तो नसरीन ख़ुद जाने पर मुसिर थी। दूसरे नौजवान के चेहरे से ऐसी मा'सूमियत बरस रही थी कि किसी बुरे इरादे का गुमान तक न होता था और वो ख़ामोश रह गई। और अब नसरीन नीले रंग का बुर्क़ा ओढ़े नौजवान के पहलू में रिक्शे में बैठी थी। शहर की खुली सड़कों पर हज़ारों औरतों, मर्दों के बहते हुए हुजूम में ये जोड़ा भी था। उसे देखकर किसी को ये सोचने तक की पर्वा न थी कि उनका रिश्ता ज़न-ओ-शौहर के सिवा और भी कुछ हो सकता है।
वो रिक्शे से उतर कर कई बाज़ारों में से गुज़रे। कई दुकानों में गए। जब वो सड़क पर चलती तो वो उसके आगे पीछे रास्ता साफ़ करता, उसे आने-जाने वाली गाड़ियों, मोटरों और हुजूम की धक्का-पेल से बचाता। यूँ अपनी हिफ़ाज़त में ले जाता गोया वो कोई बहुत मुक़द्दस चीज़ है। जिसका दामन तक किसी से छू जाना उसे गवारा नहीं। जब वो किसी दुकान में दाख़िल होते तो उसकी फ़रमाइश की चीज़ें दुकानदार से मँगवा-मँगवाकर ऐसी तकरीम से पेश करता कि देखने वाले ये महसूस किए बग़ैर न रह सकते कि ये कोई नया जोड़ा है। और ये कि शौहर बीवी से कमाल-ए-इ'श्क़ रखता है।
नसरीन ने बड़ी क़ीमत की कोई एक चीज़ नहीं ख़रीदी बल्कि रोज़मर्रा के इस्ते'माल की कई छोटी-छोटी चीज़ें खरीदें। जिनमें से बा'ज़ की वाक़ई'' उसे ज़रूरत थी, मसलन एक तो चुटला ख़रीदा। एक रेशमी इज़ार-बंद, कुछ छोटी बड़ी सूईयाँ, दो-तीन मुख़्तलिफ़ रंगों के तागे, तागे की रीलें, कुछ क्रोशिया की सलाईयाँ, एक फ्रे़म, दो-तीन मुख़्तलिफ़ ग़ाज़े और बस, इन सब चीज़ों पर बीस रुपये से कुछ कम ही ख़र्च हुए। हर एक चीज़ ख़रीदने के बा'द वो बड़ी अदा के साथ पूछती, “बाक़ी क्या बचा?”
वापसी पर नौजवान उसे एक रेस्तौरान में ले गया और ठंडी और गर्म कई क़िस्म की चीज़ें मँगवाईं और नसरीन को अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कई चीज़ें खानी पड़ीं। जिस वक़्त वो घर पहुँची अच्छा ख़ासा अँधेरा फैल चुका था। नसरीन की फूफी बड़े इज़तिराब से उसकी राह देख रही थी। जब वो सही सलामत घर पहुँच गए तो उसकी जान में जान आई। शम्मन से कह दिया गया था कि वो खाना नहीं खाएँगे। चुनाँचे शाम से ऊपर की सीढ़ियों का दरवाज़ा बंद कर दिया गया। नसरीन ने पिछली रात की तरह फिर कमरे की हल्की नीली रौशनी में कंघी करनी शुरू' की। नौजवान फिर उसके पास ही चाँदनी पर लेट गया। कुछ देर दोनों ख़ामोश रहे फिर नौजवान ने कहा।
“नसरीन मैंने तुम्हें नजमा की बहुत सी बातें बताईं मगर एक बात नहीं बताई।” नौजवान ने ये बात ऐसे गंभीर लहजे में कही थी कि नसरीन बे-साख़्ता कह उठी “वो क्या?” नौजवान कुछ लम्हे ख़ामोश रहा और फिर बोला “वो ये कि वो ... बा-वफ़ा नहीं थी।”
“क्या मतलब?” नसरीन ने और भी मुतअ'ज्जिब हो कर पूछा।
“मतलब ये... कि वो किसी और को चाहती थी।”
“झूट है।”
“नहीं मैं सच कह रहा हूँ।”
“इसका कोई सबूत भी था?”
“मुझे सबूत मिल गया था।”
“वो क्या?”
नौजवान लम्हे भर के लिए ख़ामोश रहा। फिर बोला “उसके ख़त। मैंने ग़लती से उसके नाम का एक ख़त खोल लिया था।” ये कहते-कहते नौजवान एक दम सख़्त अफ़्सुर्दा हो गया और उसने गर्दन झुका ली।
“और तुम फिर भी उसे चाहते रहे?”
“हाँ...” भर्राई हुई आवाज़ में नौजवान के मुँह से निकला “उसके सिवा चारा ही न था।”
कई लम्हे ख़ामोशी रही जिसे तोड़ने की किसी में ख़्वाहिश पैदा न हुई।
“क्या वो जानती थी कि तुम उसके इस राज़ से वाक़िफ़ हो?” बिल-आख़िर नसरीन ने उससे पूछा।
“नहीं। मैंने आख़िरी दम तक उस पर ये ज़ाहिर न होने दिया। उसकी मौत से चंद मिनट पहले मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे वो सख़्त नज़्अ' में है और मुझसे कुछ कहना चाहती है। मगर मैं उससे आँख न मिलाता था। अलबत्ता दिलदारी और तशफ़्फ़ी के कलमे बराबर मेरे मुँह से निकलते रहे। यहाँ तक कि उसने आख़री हिचकी ली और रुख़स्त हो गई।”
कुछ लम्हे फिर ख़ामोशी रही जिसको ख़ुद नौजवान ही ने तोड़ा “आख़िर उस पर ये ज़ाहिर करने का फ़ाएदा भी क्या था!”
उस रात पिछली शब की ब-निस्बत जल्द ही रौशनी गुल कर दी गई। नौजवान फिर जल्द ही सो गया। मगर नसरीन बराबर सितारों को झिलमिलाते देखती रही।
पिछले-पहर अचानक नौजवान ने सोते में सुबकी ली और फिर तेज़-तेज़ साँस लेने शुरू' कर दिए। नसरीन ने सर उठा कर उसके चेहरे की तरफ़ देखा, कुछ देर सोचती रही फिर जिस तरह कोई बच्चा सोते-सोते डर जाए तो माँ उसे छाती से चिमटा लेती है। नसरीन ने भी इसी तरह उसका सर अपने बाज़ू में लेकर उसे अपने आग़ोश में भींच लिया।
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