वैलेनटाइन
स्टोरीलाइन
ये अफ़साना धार्मिक अतिवाद पर आधारित है। एक उग्रवादी अध्यापिका मासूम सरमद को स्कूल में बताती है कि वेलेनटाइन मनाना काफ़िरों का काम है और इसका गुनाह होगा। सरमद अपनी कज़न आमना को वेलेनटाइन का मैसेज कर चुका है, इसी वजह से वो अपराध बोध से रोता है। वालिद समझाते हैं कि तुम मासूम हो, बच्चों को गुनाह नहीं होता, तो वो किसी तरह अपने दुख से बाहर निकलता है और फिर कुछ देर बाद अपने माँ-बाप से कहता है कि आमना को मुहर्रम के हॉली-डे पर मेनी हैप्पी रिटर्नज़ ऑफ़ सेलिब्रेशन का मैसेज भेजूँगा।
ख़ामोशी इतनी थी कि रोने की आवाज़ सुनाई नहीं दी।
या फिर शायद वो रो नहीं रहा होगा, बे-आवाज़ सिसकियाँ भर रहा होगा जिस वक़्त मैं घर में दाख़िल हो रहा था।
मैंने सुना ही नहीं। मैं अंदर आ रहा था।
शाम ढल रही थी। उस रोज़ भी दफ़्तर से उठते-उठते देर हो गई थी... नहीं मा’लूम कि ये ख़ुदा की मार है, क्या है कि लंच के बा’द से यूँ तो मंदा पड़ा रहता है, लोग तो क्या दफ़्तर के फ़र्नीचर तक पर एक ऊँघती हुई सुस्ती छाई हुई लगती है लेकिन अदबदा कर सारे काम उसी वक़्त याद आते हैं जब छुट्टी का वक़्त होने वाला हो और फिर हो कर निकल गया हो। उसी वक़्त किसी न किसी ज़रूरी ई-मेल का जवाब देना है, फ़ैक्स भेजना है, चैक पर दस्तख़त करने हैं और नहीं तो फिर डायरेक्टर को याद आ जाता है कि मेमो का जवाब आज नहीं भेजा गया तो जाने क्या हो जाएगा। ये रोज़ होता आया है और उस दिन भी यही हुआ था।
धूप दरख़्तों से रुख़्सत हो चुकी थी और शाम की ख़ुनकी बढ़ती जा रही थी जब मैंने घर के उसी मानूस रास्ते पर गाड़ी डाल दी। ट्रैफ़िक मा’मूल से ज़ियादा ही था और हॉर्न बजाती, एक दूसरे से कतराती गाड़ियों वाले सभी लोगों को घर पर पहुँचने की जल्दी थी मगर पानी साकित और पुर-सुकून था... माईकोलाची बाईपास के दोनों तरफ़ जहाँ समुन्दर पीछे हट गया था और ज़मीन re-claim कर ली गई थी। उस पर न निशानात थे और न कोई और चीज़, सिवाए उन झाड़ियों के जो मैंग्रोव के झुंड में गुम हो जाती थीं। मकानों और आबादी की कसरत की वज्ह से ये जगह थोड़े दिनों में पहचानी नहीं जाएगी, मुझे याद है कि मैंने एक-बार फिर यही सोचा था।
बिल्कुल उस जगह की तरह जहाँ मैं रह रहा हूँ। घर की दहलीज़ तक आते-आते मुझे इसी एहसास ने आ लिया। आस-पास कोई और मकान बनना शुरू’ हो गया है... रोज़ की तरह मैंने गर्दन घुमाकर, दूर तक चटियल नज़र आने वाली ज़मीन की तरफ़ नहीं देखा। शायद बजरी का कोई नया ढेर और सीमेंट की बोरियों की क़तार दिखाई न दी हो। सामने की सीढ़ी पर मैंने पैर रखा और सद्र दरवाज़े के ताले में चाबी घुमाने लगा।
दरवाज़ा फिर बंद था। कुछ होगा, ज़रूर कुछ होगा... दरवाज़ा खुलने से पहले का लम्हा एक-बार फिर फ़ैसला-कुन मा’लूम हुआ, हमेशा की तरह जब मुझे मा’लूम हो जाता था कि दरवाज़ा खुलने और घर में दाख़िल होने पर सन्नाटा मेरा इस्तिक़बाल करेगा।
दरवाज़े में चाबी लगी छोड़कर मैंने नज़र कमरे में दौड़ाई। मेज़ अपनी जगह मौजूद थी और कुर्सियाँ। मेज़-पोश का कपड़ा दिन की तेज़ हवा चलने से कहीं-कहीं से मिस्क गया था और उस पर बे-तर्तीब धरी हुई किताबों में से जिसका डस्ट-कवर, सिल्वर-ग्रे था, उस पर रेत की हल्की सी तह झिलमिला रही थी। हर चीज़ उसी तरह थी। वहाँ कोई न था। मगर मुझे आवाज़ देने की ज़रूरत नहीं पड़ी। ग़ुस्ल-ख़ाने में से पानी गिरने की आवाज़ आ रही थी... रुख़्साना नहा रही होगी। ख़ुदा मा’लूम उसको पहले से कैसे पता चल जाता है और ये ‘ऐन उसी वक़्त ग़ुस्ल-ख़ाने में घुस जाती है। जिस वक़्त मुझे दफ़्तर से घर आना होता है। फिर इतनी देर ग़ुस्ल-ख़ाने ख़ाली होने का इन्तिज़ार करो। निकलती है तो सारा फ़र्श गीला होता है। कपड़े बदलने भी जाऊँ तो पाँव फच-फच करने लगते हैं और फिर देर तक ठंडे रहते हैं।
ठंडे और बे-जान।
रुख़्साना तो बाथरूम में है मगर वो कहाँ है? टाई उतारे और जूते खोले बग़ैर ही बिस्तर पर दराज़ हो कर मुझे म’अन ख़याल आया। मैंने वो मानूस, सीटी की तरह तेज़ और बारीक आवाज़ सुनी जो मुझे छोटी सी चिड़िया की तरह चहकती हुई मा’लूम होती थी और ज़िन्दगी से भरी हुई, “हेलो अब्बू...”
“सलाम करो बेटे...”, मैं जवाब में कहता।
जवाब देने के बजाए वो फूले हुए मुँह के साथ लिपटने के लिए तय्यार होता। मगर ये सूरत-ए-हाल फ़र्ज़ी थी, या उस वक़्त लग रही थी। वहाँ कोई भी नहीं था। रोने की आवाज़ मैंने बा’द में सुनी। इससे पहले कि ये आवाज़ कान में पड़ती, ग़ुस्ल-ख़ाने से आने वाली पानी की शर्र-शर्र रुक गई। दरवाज़ा खुला और रुख़्साना गीले बालों में कंघी करती हुई बाहर निकली। जूतों समेत बिस्तर की चादर पर लेटे रहने के बारे में उसने कुछ नहीं कहा। बल्कि उसने मेरे जूतों की तरफ़ देखा भी नहीं। उनके बजाए उसने गर्दन घुमा कर बिस्तर के साथ रखी हुई चेस्ट आफ़ ड्रॉर्ज़ की तरफ़ देखा। वो बिल्कुल ख़ाली थी।
“क्या देख रही हो?”, मैंने तअ’ज्जुब से पूछा।
“कुछ नहीं।”, उसने बिल्कुल सपाट लहजे में जवाब दिया।
“कुछ तो...”, मैं अपने तअ’ज्जुब पर क़ाबू नहीं पा रहा था।
“ऊँह...”, उसने जवाब भी पूरा नहीं दिया।
मुझे बराह-ए-रस्त सवाल करना लाज़िमी मा’लूम हुआ, “क्या ये देख रही हो कि मैंने कुछ ला कर रखा है? क्या मुझे कुछ लेकर आना था? तुमने तो बताया नहीं...”
मेरे एक सवाल में से तीन सवाल बन गए। कुछ कहने से पहले उसने मेरी तरफ़ देखा। उसी तरह बराह-ए-रास्त। मगर कहा कुछ नहीं। कम-अज़-कम लफ़्ज़ों में नहीं।
“क्या हो गया?”, मैंने इसी त’अज्जुब के तसलसुल में पूछा।
“आपने ऑफ़िस से फ़ोन भी नहीं किया...”
“हाँ, आज मीटिंग लंबी चली। मगर सुब्ह तो तुमने कह दिया था कि तुम ख़ुद शॉपिंग एरिया जाओगी, इसलिए मुझे कुछ लाना नहीं है बाज़ार से।”, मैंने जवाब दिया। वो चुप-चाप बालों में कंघी करती रही। उसने एक-बार फिर मेरी तरफ़ निगाह उठा कर देखा और फिर कंघे में टूट कर उलझने वाले बालों की तरफ़\
“कोई बात थी क्या? तुम फ़ोन का इन्तिज़ार कर रही थीं?”
वो कंघे की तरफ़ देखती रही। उसके बालों से टपकने वाली बूँदें फ़र्श पर जमा’ हो रही थीं।
“आज चौदह फरवरी है...”, उसने धीरे से कहा।
“वो तो है, मगर फिर...?”, मैंने क़द्रे झल्लाकर कहा। ये गुफ़्तगू जाने किस सिम्त चली जा रही थी। चौदह फरवरी? मगर ये कौन सा दिन है। शादी की सालगिरह भूलने का सवाल नहीं। इसलिए कि वो एक मशहूर सियासी लीडर की फांसी का दिन था और उस दिन शहर में यादगारी जलूस निकला था।
“मेरी भी फांसी का वही दिन है...”, एक-बार मैंने मज़ाक़ से कह दिया था तो रुख़्साना के आँसू निकल पड़े थे। फिर उस दिन के बारे में, मैं कोई मज़ाक़ कैसे कर सकता था? उसकी अपनी सालगिरह भी नहीं होगी। उसकी तारीख़, उसका स्टार और उसके असरात वो मुझे अच्छी तरह बावर करा चुकी थी। फिर मुझे क्या करना चाहिए था जो मैंने नहीं किया था? उसकी आँखों में एक ख़ामोश, बे-लफ़्ज़ सी कैफ़ियत थी जिसको मैं पढ़ नहीं पा रहा था।
“मुन्ना कहाँ है?”, मैंने इसी सवाल में ‘आफ़ियत समझी।
“बुला कर देख लीजिए...”, फिर वही उखड़ा हुआ लहजा।
“सरमद! सरमद! मैं घर आ गया हूँ। कहाँ हो बच्चे?”, मैंने ज़ोर से आवाज़ दी।
एक-बार फिर दूसरी बार पुकारने पर वो आ तो गया मगर इतनी ख़ामोशी के साथ कि रोने की आवाज़ सुनाई न दे और गालों पर बहते हुए आँसू उस कमरे के अँधेरे में चमकने लगें जिसमें अब तक कोई बत्ती न जली हो। क्या हो गया? मैंने कुछ नाराज़, कुछ परेशान हो कर पूछना चाहा। लेकिन वो भी चेस्ट आफ़ ड्रॉर्ज़ के ऊपर देख रहा था जहाँ कोई चीज़ नहीं रखी हुई थी
“ख़ाली आ गए?”, उसने अपनी छोटी-छोटी आँखें झपकाते हुए पूछा और इससे पहले कि मैं कोई जवाब देता, उसने ख़ुद ही बता दिया, “वो हॉर्ट्ज़ वाला केक तो लेकर आते। फिर हम टेबल पर रखते। मम्मी केक काटतीं और मैं क्लैप-क्लैप कर के कहता, वैलेनटाइन, वैलेनटाइन...”
उसकी बातों में एक तस्वीर मुकम्मल थी। मैं उसकी तफ़्सीलात फ़राहम करने में नाकाम रहा था। इससे पहले कि मैं अपनी सफ़ाई में कोई लूला-लंगड़ा बयान देता, उसकी सिसकी ने मुझे चौंका दिया। गालों पर आँसू फिर चमकने लगे थे।
“अच्छा हुआ आप केक नहीं लाए। नहीं तो आप भी काफ़िर हो जाते। गंदे काफ़िर। आप बच गए...”, उसने फिर आँखें झपकाते हुए मुझसे कहा, “नहीं तो आप भी मेरी तरह गंदे हो जाते। आपको पहले से पता था नाँ?”
वैलेनटाइन डे? गंदे काफ़िर? मैं उसकी बनाई हुई तस्वीर से अब भी बाहर था और उस तस्वीर में केक के सामने बैठे हुए बच्चे का चेहरा देखते ही बड़ी तेज़ी के साथ बूढ़ा हो रहा था, झुर्रियों भरा और फ़िक्र का मारा।
“मिस ने बताया... ”, वो सिसकियों के दर्मियान कह रहा था, “स्कूल में ब्रेक से पहले उन्होंने सबको बताया। वैलेनटाइन-डे मनाने वाले काफ़िर होते हैं। ये गंदी बात है, बहुत गंदी बात है। अच्छे लोग मुसलमान होते हैं। हम अच्छे मुसलमान हैं। हम सलाम करते हैं और नमाज़ पढ़ते हैं... सुब्ह ‘अम्मार ने और उसामा ने उनसे कहा था, हैप्पी वैलेनटाइन-डे मिस। सारे बच्चों ने असैंबली में बड़ी मैडम से भी कहा था। वो तो हँसती रहीं मगर क्लास मिस बहुत ग़ुस्सा हो गईं। उन्होंने ये भी दिया...”
मैंने देखा उसकी मुट्ठी में एक पर्चा दबा हुआ है। उस पर जली हुरूफ़ में लिखा हुआ था... वैलेनटाइन-डे काफ़िरों की रस्म है। इसको मनाने वाले काफ़िर हैं। नीचे बारीक बारीक हुरूफ़ में से पूरा सफ़्हा भरा हुआ था। किताबों के हवाले थे, अंग्रेज़ी के अल्फ़ाज़ और ’अरबी की आयात भी। मैंने वो काग़ज़ उससे ले लिया। लेकिन मैं इतनी जल्दी-जल्दी उसको पढ़ नहीं सका। मैंने भी उसे मुट्ठी में भींच लिया। मैं उसको पढ़ सकता था न फेंक सकता था। पूरी तरह समझे बग़ैर कि मुझे इस सूरत-ए-हाल में क्या करना चाहिए, मैंने जवाब देना चाहा। फिर ख़ुद ही रुक गया। मेरा जवाब यक़ीनन ना-काफ़ी होता। कोई भी जवाब जिससे नन्हे-मुन्ने सरमद के आँसू न पोंछे जा सकें।
“चलो, तुमने टीचर को विश कर दिया। कोई बात नहीं... ये तो बल्कि एक तरह से अच्छी बात है...”, अपना लहजा ख़ुद मुझे ही खोखला मा’लूम हो रहा था।
“गिस ने कहा था वैलेनटाइन-डे हमारा नहीं होता। इसको मनाने वाले काफ़िर होते हैं। उनको गुनाह मिलता है। मैंने भी गंदी बात कर दी, सुब्ह ही सुब्ह। मुझे क्या पता था? आई ऐम सौरी अब्बू, सो सौरी!”
उसने मुझे फिर वही बताना शुरू’ किया जो रुख़्साना को पहले ही बता चुका था। मगर बता कर भी तसल्ली नहीं पा रहा था... फिर स्कूल में उस पर्चे की फ़ोटो स्टेट तक़्सीम हुई थी। मेरे अंदर अफ़सोस की एक लहर उठी कि इतना सा बच्चा भी इस कैफ़ियत को झेल रहा है। मगर मैं चुप रहा। और चुप-चाप सुने गया जो वो कह रहा था।
“स्कूल जाने से पहले मैंने आमना को एस.एम.एस. भेजा था अपने इंगेज वाले टॉय से... आमना को मैंने contact लिस्ट पर डाला हुआ है, फ़्री एस.एम.एस. के लिए। मैंने स्कूल में सीखा था...”
वो मुझे बता रहा था। आमना मेरे छोटे भाई की बच्ची है। मेरा भाई साक़िब बहरीन में रहता है। वीडियो गेम और मोबाइल फ़ोन वाला इंगेज उसी ने सरमद को ला कर दिया था। आमना पाँच साल की होने वाली है या शायद साढ़े चार की हो।
“मैंने उसको विश किया था...”, उसने बटन प्रैस किया और मोबाइल फ़ोन के छोटे से स्क्रीन पर आउट-गोइंग मैसेज रौशन हो गया।
“Valentine Mubarak
Sweetie Pie
Aur Sunao
Kaisey Ho Tum
Ab Likh Dalo sab
Main Ok Hoon
Pooch Pooch...
मैंने हिज्जे कर के अल्फ़ाज़ क़यास से पढ़े। मेरी समझ में नहीं आया कि हँसू या रोऊँ, सरमद की तरह। मैंने रुख़्साना की तरफ़ देखा। उसका चेहरा धुआँ-धुआँ था। मुझसे पढ़ा नहीं गया। मैं बिस्तर से उठ गया। टाई की नाट दुरुस्त की और वही किया जो मैं ऐसे वक़्त में करता हूँ जब मेरी समझ में और कुछ नहीं आता, “चलो, ड्राईव पर चलते हैं...”
गाड़ी मैंने यूँही सोचे-समझे बग़ैर एक रास्ते पर डाल दी। मैंने कन-अँखियों से सरमद की तरफ़ देखा। वो गाड़ी के बंद शीशे से अपनी नन्ही सी नाक चिपकाए बाहर झाँक रहा था। शहर की नीवन लाइट्स से उसकी मिनमिनी आँखें जगमगा रही थीं। मैंने गला खँखार कर उसे मुख़ातिब किया, “बेटे, बात ये है कि तुम जैसे बच्चे मा’सूम होते हैं। उनकी बातों से गुनाह नहीं होता और फिर आमना भी तो बीबी है...”
मैंने कन-अँखियों से उसकी तरफ़ देखा कि वो मेरी बात सुन भी रहा है कि नहीं।
“लुक अब्बू, लुक!”, वो उँगली से इशारा कर रहा था। जिधर वो इशारा कर रहा था, मेरी नज़रें भी उसी रुख़ पर तलाश करने लगीं। ख़याबाँ शाहीन जहाँ ख़त्म होती है, दो तलवार वाले राउंड अबाउट पर ‘ऐन ट्रैफ़िक क्यूसिक के ऊपर बैनर रात के पहले पहर समुन्दर के रुख़ से आने वाली ठंडी हवा में फटफटा रहा था। चौड़े हुरूफ़ पर छिड़की हुई ग्लीटर-अफ़्शाँ की तरह चमक रही थी, लेकिन उसके बग़ैर भी हुरूफ़ को पहचान लेना मुश्किल न था।
Be Mine
This Valentine
For All of Eternity
Your Janoo 2005
सरमद ज़ोर-ज़ोर से पढ़ रहा था, रुख़्साना ज़ेर-ए-लब मुस्कुराहट दबाते हुए आहिस्ता-आहिस्ता। मैंने गड़बड़ा कर गाड़ी वहीं से मोड़ दी और पार्क टावर्ज़ के बजाए शून-चौरंगी की तरफ़ चलने लगा। रुख़्साना को भी सम्त की ग़लती का एहसास हो गया होगा, मगर उसने कुछ नहीं कहा। किसी ने भी कुछ नहीं कहा। यहाँ से हम मुसलसल ख़ामोशी में चलते रहे।
“ये बैनर किसने बनवाया होगा?”, इस आवाज़ को पहचानने में मुझे देर न लगी कि रुख़्साना की थी। मगर वो पूछ किससे रही थी।
“किसी के पास जा कर ये बैनर बनवाया होगा। फिर किसी से परमीशन भी ली होगी। मगर जिसके लिए बनवाया है, उसे पता कैसे चलेगा?'
मेरी ख़ामोशी टूटी उस वक़्त जब सिगनल पर गाड़ी रुकी और सिगनल पर मुख़्तलिफ़ चीज़ें बेचने वाले सामने आने लगे, बंद शीशों पर दस्तक देने लगे। जो लड़के जेबी कंिघयाँ, बाल पेनें और च्युइंगम ट्रे में लगा कर बेचा करते थे, उनके हाथ में ग़ुब्बारे थे। सुर्ख़-रंग के गुब्बारे जो दिल की शक्ल के थे। हवा भरे सुर्ख़, सुर्ख़ दिल धागों से बंधे हुए, उस रात की हवा में चमक रहे थे। उनमें से कोई भी धड़क नहीं रहा था। एक लड़के के हाथ में टेडी बीअर वाले की चेन थे और एक बड़ा सा सफ़ेद रंग का िबयर जिसके दोनों हाथ खुले हुए थे।
“मैं हूँ नाँ।”
उसके ऊपर टेढ़े-मेढ़े हुरूफ़ में लिखा हुआ था। एक छोटा सा विशिंग कार्ड उसकी मोटी सी टाँग के साथ लटक रहा था।
मैंने ग़ौर से देखा भी नहीं था कि चौकन्ना हो गया। सिग्नल खुलने से पहले मोटर साईकल ज़न से गुज़र गया। पहले एक, फिर दो, फिर एक के बा’द कितने ही। शोर मचाते हुए लड़के सिगनल की मुख़ालिफ़ सम्त में जा रहे थे। मोटरसाईकिलों के साइलेंसर नहीं थे। आवाज़ों का शोर हवा में गूँज रहा था।
“समुन्दर की तरफ़ जा रहे हैं...”, गाड़ी के सन्नाटे में रुख़्साना की आवाज़ उभरी तो मैं चौंक गया, “सी वेव की तरफ़ उधम मचाएँगे, वैलेनटाइन नाइट मनाएँगे”, उसकी आवाज़ आई। ये कह रही है या पूछ रही है? मैं फ़ैसला नहीं कर पाया। मैंने उसकी तरफ़ मुड़ कर देखा, फिर सरमद की तरफ़। वो अपनी सीट पर बैठा हमारी तरफ़ ग़ौर से देख रहा था\
“नेक्स्ट हॉलीडे कब है, अब्बू? ”, उसकी आवाज़ आई, “अच्छा, तो फिर मुहर्रम पर मैनी हैप्पी रिटर्न्ज़ आफ़ सैलीब्रेशन का मैसेज भेजूँगा। आमना को फिर तो कोई काफ़िर नहीं कहेगा, हैं नाँ अब्बू?”
वो मेरी तरफ़ यूँ देख रहा था जैसे सवाल का जवाब न पाकर हैरान हो रहा हो। मैंने कुछ कहना चाहा मगर कुछ कह नहीं पाया। पीछे वाली गाड़ी का हॉर्न बजा तो जैसे तार टूटा। मैं गाड़ी घर की तरफ़ मोड़ने लगा। मेरे लिए उस दिन कोई और रास्ता नहीं था। लाल, सफ़ेद हॉर्ट्ज़ वाले ग़ुब्बारे मेरे पीछे पीछे उड़ते चले आ रहे थे। और कुछ दूर तक नज़र आते रहे। गाड़ी ने मोड़ काटा तो वो नज़रों से ओझल हो गए।
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