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ग्रहण

MORE BYराजिंदर सिंह बेदी

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसी गर्भवती स्त्री की कहानी है जिसके गर्भ के दौरान चाँद ग्रहण लगता है। वह एक अच्छे ख़ानदान की लड़की थी। मगर कायस्थों में शादी होने के बाद लड़की को मात्र बच्चा जनने की मशीन समझ लिया जाता है। गर्भवती होने और उस पर भी ग्रहण के औक़ात में भी घरेलू ज़िम्मेदारियाँ निभानी पड़ती हैं। ऐसे में उसे अपने मायके की याद आती है कि वहाँ ग्रहण के औक़ात में कैसे दान किया जाता था और गर्भवती के लिए बहुत सरे कामों को करने की मनाही थी, यह सब सोचते हुए अचानक वह सब कुछ छोड़कर भाग जाने का फैसला करती है।

    रूपो, शिब्बू, कत्थू और मुन्ना... होली ने असाढ़ी के कायस्थों को चार बच्चे दिये थे और पाँचवाँ चंद ही महीनों में जनने वाली थी। उसकी आँखों के गिर्द गहरे सियाह हलक़े पड़ने लगे। गालों की हड्डियाँ उभर आईं और गोश्त उनमें पिचक गया। वो होली, जिसे पहले-पहल मय्या प्यार से चाँद रानी कह कर पुकारा करती थी और जिसकी सेहत और सुन्दरता का रसीला हासिद था, गिरे हुए पत्ते की तरह ज़र्द और पज़-मुर्दा हो चुकी थी।

    आज रात चाँद ग्रहन था। सर-ए-शाम चाँद, ग्रहन के ज़ुम्रे में दाख़िल हो जाता है। होली को इजाज़त थी कि वो कोई कपड़ा फाड़ सके... पेट में बच्चे के कान फट जाएँगे। वो सी सकती थी... मुँह सिला बच्चा पैदा होगा। अपने मैके ख़त लिख सकती थी। उसके टेढ़े-मेढ़े हुरूफ़ बच्चे के चेहरे पर लिखे जाएंगे, और अपने मैके ख़त लिखने का उसे बड़ा चाव था।

    मैके का नाम आते ही उसका तमाम जिस्म एक मालूम जज़्बे से काँप उठता। वो मैके थी तो उसे सुसराल का कितना चाव था। लेकिन अब वो सुसराल से इतनी सेर हो चुकी थी कि वहाँ से भाग जाना चाहती थी। इस बात का उसने कई मर्तबा तहय्या भी किया लेकिन हर दफ़ा नाकाम रही। उसके मैके असाढ़ी गाँव से पच्चीस मील के फ़ासिला पर थे। समुंदर के किनारे हर फूल बंदर पर शाम के वक़्त स्टीमर लॉन्च मिल जाता था और साहिल के साथ साथ डेढ़ दो घंटे की मुसाफ़त के बाद उसके मैके गाँव के बड़े मंदिर के ज़ंग ख़ुर्दा कलस दिखाई देने लगते।

    आज शाम होने से पहले रोटी, चौका बर्तन के काम से फ़ारिग़ होना था। मय्या कहती थी ग्रहन से पहले रोटी वग़ैरा खा लेनी चाहिए, वगरना हर हरकत पेट में बच्चे के जिस्म-ओ-तक़्दीर पर असर-अंदाज़ होती है। गोया वो बद-ज़ेब, फ़राग़ नथुनों वाली मटीली मय्या अपनी बहू हमीदा बानो के पेट से किसी अकबर-ए-आज़म की मुतवक़्क़े है। चार बच्चों, तीन मर्दों, दो औरतों, चार भैंसों पर मुश्तमिल बड़ा कुम्बा और अकेली होली... दोपहर तक तो होली बर्तनों का अंबार साफ़ करती रही। फिर जानवरों के लिए बिनौले, खली और चने भिगोने चली, हत्ता कि उसके कूल्हे दर्द से फटने लगे और बग़ावत पसंद बच्चा पेट में अपनी बे-बिज़ाअत मगर होली को तड़पा देने वाली हरकतों से एहतिजाज करने लगा। होली शिकस्त के एहसास से चौकी पर बैठ गई। लेकिन वो बहुत देर तक चौकी या फ़र्श पर बैठने के क़ाबिल थी और फिर मय्या के ख़याल के मुताबिक़ चौड़ी चकली चौकी पर बहुत देर बैठने से बच्चे का सर चपटा हो जाता है। मूंढा हो तो अच्छा है। कभी-कभी होली मय्या और कायस्थों की आँख बचा कर खाट पर सीधी पड़ जाती और एक शिकमपुर कुतिया की तरह टांगों को अच्छी तरह से फैला कर जमाई लेती और फिर उसी वक़्त काँपते हुए हाथ से अपने नन्हे से दोज़ख़ को सहलाने लगती।

    ये ख़याल करने से कि वो सीतल की बेटी है, वो अपने आपको रोक सकती थी। सीतल सारंग देव ग्राम का एक मुतमव्विल साहूकार था और सारंग देव ग्राम के नवाह के बीस गाँवों के किसान उससे ब्याज पर रुपया लेते थे। इसके बावजूद उसे कायस्थों के हाँ ज़लील किया जाता था। होली के साथ कुत्तों से भी बुरा सुलूक होता था। कायस्थों को तो बच्चे चाहिएँ। होली जहन्नम में जाये। गोया सारे गुज़रात में ये कायस्थ ही कुलवधु (कुल को बढ़ाने वाली... बहू) का सही मतलब समझते थे।

    हर साल डेढ़ साल के बाद वो एक नया कीड़ा घर में रेंगता हुआ देख कर ख़ुश होते थे, और बच्चे की वजह से खाया पिया होली के जिस्म पर असर अंदाज़ नहीं होता था। शायद उसे रोटी भी इसीलिए दी जाती थी कि पेट में बच्चा माँगता है और इसीलिए उसे हमल के शुरुअ चाट और अब फल आज़ादाना दिये जाते थे।

    “देवर है तो वो अलग पेट लेता है,” होली सोचती थी, “और सास के कोसने मार-पीट से कहीं बुरे हैं, और बड़े कायस्थ जब डाँटने लगते हैं तो पाँव तले से ज़मीन निकल जाती है। उन सबको भला मेरी जान लेने का क्या हक़ है? रसीला की बात तो दूसरी है। शास्त्रों ने उसे परमात्मा का दर्जा दिया है। वो जिस छुरी से मारे उस छुरी का भला...! लेकिन क्या शास्त्र किसी औरत ने बनाये हैं? और मय्या की तो बात ही अलैहदा है। शास्त्र किसी औरत ने लिखे होते तो वो अपनी हम-जिंस पर इससे भी ज़्यादा पाबंदियाँ आ’इद करती।”

    राहू अपने नये भेस में निहायत इत्मीनान से अमृत पी रहा था। चाँद और सूरज ने विष्णु महाराज को इसकी इत्तिला दी और भगवान ने सुदर्शन से राहू के दो टुकड़े कर दिये। उसका सर और धड़ दोनों आसमान पर जा कर राहू और केतू बन गए। सूरज और चाँद दोनों उनके मक़रूज़ हैं। अब वो हर साल दो मर्तबा चाँद और सूरज से बदला लेते हैं और होली सोचती थी। “भगवान के खेल भी न्यारे हैं... और राहू की शक्ल कैसी अजीब है। एक काला सा राक्षस, शेर पर चढ़ा हुआ देख कर कितना डर आता है। रसीला भी तो शक्ल से राहू ही दिखाई देता है। मुन्ना की पैदाइश पर अभी चालीसवाँ भी नहाई थी तो मौजूद हुआ... क्या मैंने भी उसका क़र्ज़ा देना है?”

    उस वक़्त होली के कानों में माँ-बेटे के आने की भनक पड़ी। होली ने दोनों हाथों से पेट को संभाला और उठ खड़ी हुई और जल्दी से तवे को धीमी-धीमी आँच पर रख दिया। अब उसमें झुकने की ताब थी कि फूंकें मार कर आग जला सके। उसने कोशिश भी की लेकिन उसकी आँखें फट कर बाहर आने लगीं।

    रसीला एक नया मरम्मत किया हुआ छाज हाथ में लिये अंदर दाख़िल हुआ। उसने जल्दी से हाथ धोए और मुँह में कुछ बड़बड़ाने लगा। उसके पीछे मय्या आई और आते ही बोली, ”बहू... अनाज रखा है क्या?”

    होली डरते डरते बोली, “हाँ हाँ... रक्खा है... नहीं रक्खा, याद आया, भूल गई थी मय्या...”

    “तू बैठी कर क्या रही है, नबाब जादी?”

    होली ने रहम जूयाना निगाहों से रसीले की तरफ़ देखा और बोली, “जी, मुझसे अनाज की बोरी हिलाई जाती है कहीं?”

    मय्या ला-जवाब हो गई और यूँ भी उसे होली की निस्बत उसके पेट में बच्चे की ज़्यादा पर्वा थी। शायद इसीलिए होली की आँखों में आँखें डालते हुए बोली,

    “तूने सुरमा क्यूँ लगाया है री...? राँड, जानती भी है आज गहन है जो, बच्चा अंधा हो जाये तो तेरे ऐसी बेसवा उसे पालने चलेगी?”

    होली चुप हो गई और नज़रें ज़मीन पर गाड़े हुए मुँह में कुछ बड़बड़ाती गई। और सब हो जाए लेकिन राँड की गाली उसकी बर्दाश्त से बाहर थी। उसे बड़बड़ाते देख कर मय्या और भी बकती-झकती चाबियों का गुच्छा तलाश करने लगी। एक मैले शमादान के क़रीब सुर्मा पीसने का खरल रक्खा हुआ था। उसमें से चाबियों का गुच्छा निकाल कर वो भंडारे की तरफ़ चली गई। रसीले ने एक पुर-हवस निगाह से होली की तरफ़ देखा। उस वक़्त होली अकेली थी। रसीले ने आहिस्ता से आँचल को छुआ। होली ने डरते-डरते दामन झटक दिया और अपने देवर को आवाज़ें देने लगी। गोया दूसरे आदमी की मौजूदगी चाहती है। इस कैफ़ियत में मर्द को ठुकरा देना मामूली बात नहीं होती। रसीला आवाज़ को चबाते हुए बोला, ”मैं पूछता हूँ भला इतनी जल्दी काहे की थी?”

    “जल्दी कैसी?”

    रसीला पेट की तरफ़ इशारा करते हुए बोला, “यही... तुम भी तो कुतिया हो, कुतिया।”

    होली सहम कर बोली, “तो इसमें मेरा क्या क़ुसूर है?”

    होली ने ना-दानिस्तगी में रसीले को वहशी, बद-चलन, हवस-रान सभी कुछ कह दिया। चोट सीधी पड़ी। रसीले के पास इस बात का कोई जवाब था। लाजवाब आदमी का जवाब चपत होती है और दूसरे लम्हे में उंगलियों के निशान होली के गालों पर दिखाई देने लगे।

    उस वक़्त मय्या माश की एक टोकरी उठाए हुए भंडारे की तरफ़ से आयी और बहू से बद-सुलूकी करने की वजह से बेटे को झिड़कने लगी। होली को रसीले पर तो गु़स्सा आया, अलबत्ता मय्या की इस आ’दत से जल भुन गई, “राँड, आप मारे तो उससे भी ज्यादा, और जो बेटा कुछ कहे तो हमदर्दी जताती है, बड़ी आई है...”

    होली सोचती थी कल रसीला ने मुझे इसलिए मारा था कि मैंने उसकी बात का जवाब नहीं दिया, और आज इसलिए मारा है कि मैंने बात का जवाब दिया है। मैं जानती हूँ वो मुझसे क्यूँ नाराज़ है। क्यूँ गालियाँ देता है। मेरे खाने-पकाने, उठने-बैठने में उसे क्यूँ सलीक़ा नहीं दिखाई देता, और मेरी ये हालत है कि नाक में दम चुका है और मर्द औरत को मुसीबत में मुब्तला कर के आप अलग हो जाते हैं, ये मर्द।

    मय्या ने कुछ बासमती, दालें और नमक वग़ैरा रसोई में बिखेर दिया और फिर एक भीगी हुई तराज़ू में उसे तौलने लगी। तराज़ू गीला था, ये मय्या भी देख रही थी और जब बासमती चावल पेंदे में चिमट गए तो बहू मरती करती फूहड़ हो गई और आप इतनी सुघड़ कि नये दुपट्टे से पेंदा साफ़ करने लगी। जब बहुत मैला हो गया तो दुपट्टे को सर पर से उतार कर होली की तरफ़ फेंक दिया और बोली, “ले, धो डाल।”

    अब होली नहीं जानती बेचारी कि वो रोटियाँ पकाए या दुपट्टा धोए। बोले या बोले, हिले या हिले, वो कुतिया है या नबाब जादी। उसने दुपट्टा धोने ही में मस्लिहत समझी। उस वक़्त चाँद ग्रहन के ज़ुमरे में दाख़िल होने वाला ही होगा। बच्चा धुले हुए कपड़े की तरह चुरमुर सा पैदा होगा और अगर माह दो माह बाद बच्चे का बुरा सा चेहरा देख कर उसे कोसा जाए तो उसमें होली का क्या क़ुसूर है...? लेकिन क़ुसूर और बे-क़ुसूरी की तो बात ही अलैहदा है क्योंकि ये कोई सुनने के लिए तैयार नहीं कि इसमें होली का गुनाह क्या है, सब गुनाह होली का है।

    उसी वक़्त होली को सारंग देव ग्राम याद गया। किस तरह वो असोज के शुरुअ में दूसरी औरतों के साथ गरबा नाचा करती थी और भाबी के सर पर रखे हुए घड़े के सुराख़ों में से रौशनी फूट फूट कर दालान के चारों कोनों को मुनव्वर कर दिया करती थी। उस वक़्त सब औरतें अपने हिना मालीदा हाथों से तालियाँ बजाया करती थीं और गाया करती थीं...

    माहिंदी त्वादी मालवी

    एनु रंग गयो गुज़रात रे

    माहिंदी रंग लागयो रे

    उस वक़्त वो एक उछलने कूदने वाली अल्हड़ छोकरी थी, एक बह्र-ओ-क़ाफ़िया से आज़ाद नज़्म, जो चाहती थी पूरा हो जाता था। घर में सबसे छोटी थी। नबाब जादी तो थी... और उसकी सहेलियाँ... वो भी अपने-अपने क़र्ज़-ख़्वाहों के पास जा चुकी होंगी।

    सारंग देव ग्राम में ग्रहन के मौक़े पर जी खोल कर दान पुन्य किया जाता है। औरतें इकट्ठी हो कर त्रिवेदी घाट पर अश्नान के लिए चली जाती हैं। फूल, नारियल, बताशे समुंदर में बहाती हैं। पानी की एक उछाल मुँह खोले हुए आती है और सब फूल पत्तों को क़ुबूल कर लेती है। उस वक़्त के अश्नान से सब मर्द औरतों के गुनाहों का कफ़्फ़ारा हो जाता है। उन गुनाहों का जिनका इर्तिकाब लोग गुज़िश्ता साल करते रहे हैं, अश्नान से सब पाप धुल जाते हैं। बदन और रूह पाक हो जाती है। समुंदर की लहर लोगों के सब गुनाहों को बहा कर दूर, बहुत दूर... एक नामालूम, ना-क़ाबिल-ए-उ’बूर, नाक़ाबिल-ए-पैमाइश समुंदर में ले जाती है... एक साल बाद फिर लोगों के बदन गुनाहों से आलूदा हो जाते हैं, फिर गहना जाते हैं। फिर दया की एक लहर आती है और फिर पाक-ओ-साफ़।

    जब ग्रहन शुरुअ होता है और चाँद की नूरानी इस्मत पर-दाग़ लग जाता है तो चंद लमहात के लिए चारों तरफ़ ख़ामोशी और फिर राम-नाम का जाप शुरुअ होता है। फिर घंटे, नाक़ूस, शंख एक दम बजने लगते हैं। इस शोर-ओ-ग़ोग़ा में अश्नान के बाद सब मर्द औरतें जमघटे की सूरत में गाते बजाते हुए गाँव वापस लौटते हैं।

    ग्रहन के दौरान में ग़रीब लोग बाज़ारों और गली कूचों में दौड़ते हैं। लंगड़े बैसाखियाँ घुमाते हुए अपनी अपनी झोलियाँ और कश्कोल थामे प्लेग के चूहों की तरह एक दूसरे पर गिरते पड़ते भागते चले जाते हैं, क्योंकि राहू और केतू ने ख़ूबसूरत चाँद को अपनी गिरफ़्त में पूरी तरह से जकड़ लिया है। नर्म-दिल हिंदू दान देता है ताकि ग़रीब चाँद को छोड़ दिया जाये और दान लेने के लिए भागने वाले भिकारी छोड़ दो, छोड़ दो, दान का वक़्त है... छोड़ दो का शोर मचाते हुए मीलों की मुसाफ़त तय कर लेते हैं।

    चाँद, ग्रहन के ज़ुमरे में आने वाला ही था, होली ने बच्चों को बड़े कायस्थ के पास छोड़ा। एक मैली-कुचैली धोती बाँधी और औरतों के साथ हर फूल बंदर की तरफ़ अश्नान के लिए चली।

    अब मय्या, रसीला, बड़ा लड़का शीबू और होली सब समुंदर की तरफ़ जा रहे थे। उनके हाथ में फूल थे। गजरे थे और आम के पत्ते थे और बड़ी अम्माँ के हाथ में रुद्राक्ष की माला के अ’लावा मुश्क-ए-काफ़ूर था, जिसे वो जला कर पानी की लहरों पर बहा देना चाहती थी, ताकि मरने के बाद सफ़र में उसका रास्ता रौशन हो जाए और होली डरती थी... क्या उसके गुनाह समुंदर के पानी से धोए धुल जाएँगे?

    समुंदर के किनारे घाट से पौन मील के क़रीब एक लॉन्च खड़ा था। वो जगह हर फूल बंदर का एक हिस्सा थी। बंदर के छोटे से ना-हमवार साहिल और एक मुख़्तसर से डाक पर कुछ टैन्डल ग़ुरूब-ए-आफ़ताब में रौशनी और अंधेरे की कशमकश के ख़िलाफ़ नन्हे-नन्हे बेबिज़ा’त से ख़ाके बना रहे थे और लॉन्च के किसी केबिन से एक हल्की सी टिमटिमाती हुई रौशनी सीमाबदार पानी की लहरों पर नाच रही थी। उसके बाद एक चर्ख़ी सी घूमती हुई दिखाई दी। चंद एक धुँदले से साये एक अज़दहा नुमा रस्से को खींचने लगे। आठ बजे स्टीमर लॉन्च की आख़िरी सीटी थी। फिर वो सारंग देव ग्राम की तरफ़ रवाना होगा। अगर होली इस पर सवार हो जाए तो फिर डेढ़ दो घंटे में वो चाँदनी में नहाते हुए गोया सदियों से आशना कलस दिखाई देने लगें... और फिर वही अम्माँ... कुंवार-पन और गरबा नाच!

    होली ने एक नज़र से शिबू की तरफ़ देखा। शिबू हैरान था कि उसकी माँ ने इतनी भीड़ में झुक कर उसका मुँह क्यूँ चूमा और एक गर्म-गर्म क़तरा कहाँ से उसके गालों पर पड़ा। उसने आगे बढ़ कर रसीले की उंगली पकड़ ली। अब घाट चुका था जहाँ से मर्द और औरतें अलैहदा होती थीं। हमेशा के लिए नहीं, फ़क़त चंद घंटों के लिए... उसी पानी की गवाही में वो अपने मर्दों से बांध दी गई थीं। पानी में भी क्या पुर-असरार बईद उल-फ़ह्म ताक़त है... और दूर से लॉन्च की टिमटिमाती हुई रौशनी होली तक पहुँच रही थी।

    होली ने भागना चाहा मगर वो भाग भी तो सकती थी। उसने अपनी हल्की सी धोती को कस कर बाँधा... धोती नीचे की तरफ़ ढलक जाती थी... आधे घंटे में वो लॉन्च के सामने खड़ी थी। लॉन्च के सामने नहीं... सारंग देव ग्राम के सामने... वो कलस, मंदिर के घंटे, लॉन्च की सीटी और होली को याद आया कि उसके पास तो टिकट के लिए भी पैसे नहीं हैं।

    वो कुछ अ’र्से तक लॉन्च के एक कोने में बद-हवास हो कर बैठी रही। पौने आठ बजे के क़रीब एक टेन्डल आया और होली से टिकट माँगने लगा। टिकट पाने पर वो ख़ामोशी से वहाँ से टल गया। कुछ देर बाद मुलाज़िमों की सरगोशियाँ सुनाई देने लगीं... फिर अंधेरे में ख़फ़ीफ़ से हंसने और बातें करने की आवाज़ें आने लगीं। कोई कोई लफ़्ज़ होली के कान में भी पड़ जाता... मुर्ग़ी... दूले... चाबियाँ मेरे पास हैं... पानी ज़्यादा होगा।

    उसके बाद चंद वहशियाना क़हक़हे बुलंद हुए और कुछ देर बाद तीन-चार आदमी होली को लॉन्च के एक तारीक कोने की तरफ़ धकेलने लगे। उसी वक़्त आबकारी का एक सिपाही लॉन्च में वारिद हुआ, ऐन जब कि दुनिया होली की आँखों में तारीक हो रही थी, होली को उम्मीद की एक शुआ’ दिखाई दी। वो सिपाही सारंग देव ग्राम का ही एक छोकरा था और मैके के रिश्ते से भाई था। छः साल हुए वो बड़ी उमंगों के साथ गाँव से बाहर निकला था और साबरमती फाँद कर किसी नामालूम देस को चला गया था। कभी कभी मुसीबत के वक़्त इन्सान के हवास बजा हो जाते हैं। होली ने सिपाही को आवाज़ से ही पहचान लिया और कुछ दिलेरी से बोली, “कत्थू राम।”

    कत्थू राम ने भी सीतल की छोकरी की आवाज़ पहचान ली। बचपन में वो उसके साथ खेला था।

    कत्थू राम बोला, “होली।”

    होली यक़ीन से मा’मूर मगर भर्राई हुई आवाज़ में बोली, “कत्थू भय्या... मुझे सारंग देव ग्राम पहुँचा दो...”

    कत्थू राम क़रीब आया। एक टेण्डल को घूरते हुए बोला, “सारंग देव जाओगी होली?” और फिर अपने सामने खड़े हुए आदमी से मुख़ातिब होते हुए बोला, “तुमने इसे यहाँ क्यूँ रक्खा है भाई?”

    टेण्डल जो सबसे क़रीब था बोला, “बेचारी कोई दुखिया है। इसके पास तो टिकट के पैसे भी नहीं थे। हम सोच रहे थे हम इसकी क्या मदद कर सकते हैं?”

    कत्थू राम ने होली को साथ लिया और लॉन्च से नीचे उतर आया। डाक पर क़दम रखते हुए बोला,

    “होली... क्या तुम असाढ़ी से भाग आई हो?”

    “हाँ।”

    “ये सरीफ जादियों का काम है? और जो मैं कायस्थों को ख़बर कर दूँ तो?”

    होली डर से काँपने लगी। वो तो नबाब जादी थी और सरीफ जादी। इस जगह और ऐसी हालत में वो कत्थू राम को कुछ कह भी तो सकती थी। वो अपनी कमज़ोरी को महसूस करती हुई ख़ामोशी से समुंदर की लहरों के तलातुम की आवाज़ें सुनने लगी। फिर उसके सामने लॉन्च के रस्से ढीले किये गए। एक हल्की सी विसिल हुई और हौले-हौले सारंग देव ग्राम होली की नज़रों से ओझल हो गया। उसने एक दफ़ा पीछे की जानिब देखा। लॉन्च की हल्की सी रौशनी में उसे झाग की एक लंबी सी लकीर लॉन्च का पीछा करती हुई दिखाई दी।

    कत्थू राम बोला, “डरो नहीं होली... मैं तुम्हारी हर मुम्किन मदद करूँगा। यहाँ से कुछ दूर नाव पड़ती है। पो फटे ले चलूँगा। यूँ घबराओ नहीं। रात की रात सराय में आराम कर लो।”

    कत्थू राम होली को सराय में ले गया। सराय का मालिक बड़ी हैरत से कत्थू राम और उसके साथी को देखता रहा। आख़िर जब वो रह सका, तो उसने कत्थू राम से निहायत आहिस्ता आवाज़ में पूछा, “ये कौन हैं?”

    कत्थू राम ने आहिस्ता से जवाब दिया, “मेरी पत्नी है।”

    होली की आँखें पथराने लगीं। एक दफ़ा उसने अपने पेट को सहारा दिया और दीवार का सहारा ले कर बैठ गयी। कत्थू राम ने सराय में एक कमरा किराए पर लिया। होली ने डरते-डरते उस कमरे में क़दम रखा। कुछ देर बाद कत्थू राम अंदर आया तो उसके मुँह से शराब की बू रही थी।

    समुंदर की एक बड़ी भारी उछाल आयी। सब फूल, बताशे, आम की टहनियाँ, गजरे और जलता हुआ मुश्क-ए-काफ़ूर बहा कर ले गई। उसके साथ ही इन्सान के मुहीब तरीन गुनाह भी लेती गई। दूर, बहुत दूर, एक नामालूम, नाक़ाबिल-ए-उ’बूर, नाक़ाबिल-ए-पैमाइश समुंदर की तरफ़... जहाँ तारीकी ही तारीकी थी... फिर शंख बजने लगे। उस वक़्त सराय में से कोई औरत निकल कर भागी। सरपट, बगटुट... वो गिरती थी, भागती थी, पेट पकड़ कर बैठ जाती, हाँफती और दौड़ने लगती... उस वक़्त आसमान पर चाँद पूरा गहना चुका था। राहू और केतू दोनों ने जी भर कर क़र्ज़ा वसूल किया था। दो धुँदले से साये उस औरत की मदद के लिए सरासीमा इधर उधर दौड़ रहे थे... चारों तरफ़ अंधेरा ही अंधेरा था और दूर, असाढ़ी से हल्की-हल्की आवाज़ें रही थीं।

    दान का वक़्त है...

    छोड़ दो... छोड़ दो... छोड़ दो...

    हर फूल बंदर से आवाज़ आई...

    पकड़ लो... पकड़ लो... पकड़ लो...

    छोड़ दो... दान का वक़्त है... पकड़ लो... छोड़ दो!

    स्रोत:

    ग्रहण (Pg. 8)

    • लेखक: राजिंदर सिंह बेदी
      • प्रकाशक: मकतबा उर्दू, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 1942

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