व्हीलचेयर पर बैठा शख़्स
एयर पोर्ट की शानदार और मशहूर ड्यूटी फ़्री दुकानों में नीले यूनिफ़ॉर्म में काम करने वाली लड़कियाँ ख़रीदारी में मुसाफ़िरों की मदद कर रही थीं। टर्मीनल वन की इंडीगो ए र लाइंस का अभी ऐलान नहीं हुआ था। साइमा दुकान से बाहर निकल कर ज़रा सुस्ताने को और वक़्त गज़ाने को क़तार में जुड़ी हुई कुर्सियों की तरफ़ बढ़ी। एयर पोर्ट की ग्राउंड सर्वस में काम करने वाली लड़कियाँ पूरी आस्तीन के शर्ट और स्कर्ट में पैरों में स्टॉकिन्स और जूते पहने हुए बड़ी चुस्ती के साथ घूम रही थीं। कुछ अमेराती ग्राउंड हॉस्टेस औरतें काले बुर्क़े में अपने कहले चेहरे को समाए हुए आती-जाती दिखाई दे रही थीं। कुछ दूरी पर काली शर्ट पहने हुए सुर्ख़ बालों और नीली आँखों वाला शख़्स दूसरी बार साइमा को देख कर मुस्कुराया था। वो सर-ता-पा थर्रा गई। इसकी आँखों के आगे भोले हुए मंज़र नाचने लगे। वो अपने ख़्यालों में दूर तक चली गई। अब इसके सामने मर्द नहीं एक बुर्क़ा पोष औरत थी। वही औरत जिसका पीर इसकी अपनी गैलरी से कूदते हुए फिसल गया था। वो अपाहिज औरत... वो थर्रा गई...
वो दिसम्बर के ख़ुशगवार मौसम की एक रात थी। दस बज रहे थे। साइमा अपने दोनों बच्चों को कमरे में बिस्तर पर लेटी कहानी सुना कर सुला रही थी। कहानी के तौर पर वो उन्हें हर रात किसी न किसी पैग़म्बर का क़िस्सा सुनाती। आज वो यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का क़िस्सा सुना रही थी।
और... उनके ग्यारह भाइयों ने उन्हें सूखे कुँवें में डाल दिया... वो बिलकते रहे। फ़रियाद करते रहे... मगर भाइयों के कानों पर जूँ तक न रेंगी।
तो क्या अम्मी उनके भाइयों के सरों में जुएँ हो गई थीं?, चार साला छोटी ने हैरानी से माँ से पूछा। साइमा हँसने लगी।
अरे कानों पर जूँ न रेंगना तो मुहावरा है ना बेटा!
और अम्मी कुँवें में गिरकर उनके चोट नहीं आई?, छोटी ने फिर पूछा, और उनके भाइयों को पुलिस पकड़ कर नहीं ले गई?
छोटी के सवाल हैं कि ख़त्म ही नहीं हो रहे हैं, अम्मी! आप आगे की कहानी सुनाइए।, सात साला बड़ी ने ज़रा चिड़कर मां से कहा।
उसी वक़्त धन... धन की आवाज़ ने उन्हें चौंका दिया। आवाज़ किसी चीज़ को हाथों से पीटने की थी और बहुत क़रीब से आ रही थी। साइमा इधर-उधर देखने लगी। उसका ध्यान क़िस्से से हट चुका था।
बाक़ी क़िस्सा कल सुनाऊँगी। सुबह स्कूल जाना है ना!, बच्चों को बल्ब की मद्धम रौशनी में ऊँघता छोड़ कर साइमा ड्राइंग रूम में आई। दुबई की नाइट लाइफ़ बहुत मसरूफ़ होती है। क्लब, डिस्को और पता नहीं क्या-क्या! बालकनी में पीछे से आने वाली रौशनी की वजह से साइमा को वहाँ बालकनी में कुछ साफ़ कुछ धुँधला-सा एक हयूला नज़र आया। ड्राइंग रूम की हल्की नीली लाइट की रौशनी में उसने बालकनी में ग़ौर से देखा। उस वक़्त कोई यहाँ, इस बालकनी में!' उसे किसी आसमानी आफ़त का गुमान सा हुआ। ग़ौर से देखा तो महसूस हुआ जैसे कोई औरत नमाज़ का दुपट्टा ओढ़े खड़ी हो। बालकनी की काली काँच पर हथेलियों की गोलाइयों में चेहरा रखकर उस हयूले ने बालकनी से अंदर ड्राइंग रूम में झाँका। साइमा ने सख़्ती से पूछा,
कौन हो तुम...? कौन हो?, साइमा ने कुछ और हिम्मत कर ली और बालकनी का स्लाइडिंग डोर ज़रा सा सरकाकर बालकनी में देखा और अपना सवाल मुकम्मल किया, और यहाँ कैसे आई हो?
आपके पड़ोस में रहती हूँ और अपनी बालकनी की दीवार फाँद कर आई हूँ। सामने से बड़ी सादगी के साथ जवाब मिला।
साइमा ने ट्यूब लाइट ऑन कर दी और दूधिया रौशनी में उसे ग़ौर से देखने लगी। दुबली पतली... काले रंग का बुर्क़ा पहने हुए, वो अपने हाथों में बैग और चप्पल लिए खड़ी थी। तक़रीबन पाँच फ़िट की ही होगी। बीस बाईस साल से ज़्यादा बड़ी नहीं लगती थी।
प्लीज़ आप मुझे अपने घर में से होकर जाने दीजिए।, उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा।
मेरे घर से? तुम अपने घर के दरवाज़े से बाहर क्यों नहीं निकलीं?
मेरा शौहर बड़ा ज़ालिम है, बहुत मारता है मुझे। दिन भर मुझे घर में बंद रखता है। किसी से मिलने नहीं देता। ताला लगा कर बाहर जाता है... आज भी दरवाज़े पर बाहर से ताला लगा कर ही काम पर गया है...
अरे ऐसे क्यों? वो पागल है क्या?
हाँ। अब प्लीज़, मुझे अंदर ले लीजिए।
मैं तुमको ऐसे कैसे अपने घर के अंदर अपनी बालकनी से आने और फिर घर से गुज़र कर अपने मेन डोर से निकल कर जाने दूँ...! ये अच्छी रही... ये कौन सा रास्ता है बाहर जाने का? और फिर... मैंने तो तुमको कभी देखा तक नहीं है... तुम हो कौन? साइमा ने हड़बड़ाते हुए कह तो दिया मगर ख़ुद उसे अपना सवाल ही अजीब सा लगा।
मैं आपको बताती हूँ ना! चोर नहीं हूँ मैं! इक़रा नाम है मेरा।
साइमा के शौहर हमीद, किचन में दरवाज़ा भिड़े खाने की मेज़ पर लैपटॉप खोले काम कर रहे थे। हॉल में अक्सर साइमा के सास बहू वाले सीरियल जो चलते रहते थे। बातचीत का शोर सुन कर बाहर ड्राइंग रूम में चले आए। उन्हें देख कर तो इक़रा की दरख़्वास्त और तेज़ हो गई।
प्लीज़ मुझे अंदर तो आने दीजिए। अब अगर मेरा शौहर आ गया और मैं यहाँ मिली... तो वो मुझे जान से मार देगा।
अपना फ़ोन नंबर दो मुझे। हमीद के साथ से साइमा की हिम्मत बढ़ गई।
मोबाइल नंबर? क्यों शीशे में से आपको मेरी आवाज़ साफ़ सुनाई नहीं देती क्या?
..., साइमा ने जवाब में उसे घूरा।
अभी देती हूँ ना...!, वो हड़बड़ा कर बोली।
तो दो ना!
मगर अपना नंबर तो मुझे याद नहीं।
ये लो मेरा नंबर... 5... 7... 4... 5... 5 तुम मुझे काल करो। साइमा की बात अधूरी रह गई। उसके मोबाइल की घंटी बजी और बंद हो गई। अपने मोबाइल में इक़रा का नंबर देखकर उसे ज़रा इतमीनान हुआ।
देखिए, आप मुझे जब कभी काल करें तो सिर्फ़ एक रिंग बजाया करें।
वो क्यों?
दो रिंग बजने पर मेरा काल मेरे शौहर के फ़ोन पर डाइवर्ट हो जाता है और वो उसे उठा लेता है।
साइमा को इक़रा सहमी-सहमी सी लगी थी। पता नहीं सच्ची है कि अदाकारी कर रही है। अक्सर इतनी रात गए... वो शौहर से अपनी तश्वीश धीरे से ज़ाहिर करने की कोशिश कर रही थी।
अरे भाई! इसको अंदर तो लो। हमीद इक़रा की परेशानी देख कर साइमा की बात काटी और बोले।
साइमा ने सलाइडिंग विंडो खोल कर इक़रा को हॉल में लिया और उसे सोफ़े पर बैठने का इशारा करते हुए पूछा,कहाँ जाओगी? कैसे जाओगी?
..., वो ख़ामोशी से सोचने लगी।
माँ-बाप कौन हैं तुम्हारे? और कहाँ रहते हैं?
मेरी माँ का नाम अमीना है और वो हैदराबाद के चार मीनार इलाक़े की हैं।
और तुम्हारे वालिद?
बाप अरबी हैं।
साइमा ने ग़ौर से देखा। आपने दुबई में अरबों की दो क़िस्में देखी थीं। पहली ख़ूबसूरत और गोरे अरबों की और दूसरी साँवलों की। उनमें ज़्यादातर बद्दू बलूची ही थे। ये लड़की अपने गेहुवें रंग और नैन नक़्श से अरबी तो नहीं दिखाई दे रही थी, अलबत्ता साफ़ उर्दू बोलते हुए हिंदुस्तानी ज़रूर लग रही थी।
क्या नाम बताया था तुमने अपनी माँ का?
अमीना।
वही अमीना, जिसकी शादी एक साठ साल के बूढ़े अरब से हो रही थी और जिसे एअर पोर्ट से बचा लिया गया था? उसने पूछा।
आप को पता है उस अमीना के बारे में?
वो तो बड़ा मशहूर क़िस्सा है। इक़रा की आँखों में मशहूर और जानी पहचानी होने की चमक आ गई।
हाँ, उसी अमीना के पड़ोस में मेरी अम्मी भी रहती थीं। अम्मी की शादी भी... वैसे ही... एक पचास बरस के अरब से हुई थी... मेरा ननिहाल भी हैदराबाद के चार मीनार के पास की बस्ती का बहुत ग़रीब कुनबा था... बस अम्मी ने शिकायत नहीं की और यहाँ आ गईं और उन्होंने शिकायत की और पुलिस एक्शन हुआ।
किस मुहल्ले की हैं वो?
मुझे ठीक से याद नहीं... वो सोचने लगी फिर बोली, अम्मी ने बताया तो था बार्क्स...! एक मिनट, मैं ज़रा अपनी अम्मी से बात कर लेती हूँ। बात करते-करते इक़रा ने अपनी माँ को फ़ोन लगा लिया था।
नहीं-नहीं अम्मी..., मैं आइन्दा ऐसे नहीं करूंगी। मुझे बुला लो। कान से मोबाइल चिपकाए वो तड़प उठी थी।
ज़रा पानी पिला सकती हैं? मोबाइल बंद करके इक़रा ने ठंडी साँस ली।
साइमा पानी लेने किचन में गई। उसने पानी का ग्लास भरा ही था कि दरवाज़े की घंटी की आवाज़ सुनाई दी।
मेरा शौहर आ गया। इक़रा ने घबरा कर अंदाज़ा लगाया और बोली। फिर जल्दी से उठ कर वो पास के कमरे में घुस गई। उसे अपनी ख़्वाब-गाह में घुसते देखकर साइमा भी परेशान हो गई और उसके पीछे अंदर लपकी।
मैं देखता हूँ। हमीद ने कहा और बीवी को इक़रा के पीछे ख़्वाब-गाह में दौड़ते देखा तो इतमीनान का साँस लिया, शुक्र ख़ुदा का! उसके मुँह से निकला, अच्छा हुआ कि में बे-ख़्याली में इक़रा के पीछे बेड रूम में नहीं भागा... पता नहीं साइमा उसका मतलब क्या समझती! मुँह ही मुँह में बड़बड़ाते हुए उसने दरवाज़ा खोला। साइमा ने ख़्वाब-गाह के दरवाज़े से झाँका।
अरे! ये तुम्हारा शौहर... तो नहीं है... पुलिस मैन है...! हमीद को पुलिस मैन ने इशारे से बाहर बुलाया तो घर पर परेशानी तारी हो गई।
ए! तूने क्या किया कि पुलिस मेरे घर, तुझे ढूंढती हुई आ गई? साइमा भड़क कर इक़रा से बोली।
मैंने क्या किया? बस माँ से फ़ोन पर बात ही तो की थी। इक़रा भी घबरा गई थी।
आख़िर हो क्या रहा है यह? हमीद लौटे तो साइमा ने पूछा।
जब ये अपनी बालकनी से गुज़र कर हमारी बालकनी में कूद रही थी, नीचे से किसी ने उसे आते हुए देख लिया और पेट्रोल पुलिस को ख़बर कर दी। हमीद ने ख़ुलासा किया।
और उस पुलिस मैन ने कुछ किया नहीं? चला गया?
पूछताछ की थी। मैंने उसे बताया कि लड़की का शौहर उसे मारता पीटता है।
क्या कुछ करने का कहा है?
नहीं, वो कहता है, घरेलू मामला है। दुबई में तो ऐसे घरेलू तशद्दुद के मामले बहुत सुनाई देते हैं।
ये अच्छा है! साइमा झुँझलाई।
तभी दोबारा घंटी बजी। दरवाज़ा खुला हुआ था। काला बुर्क़ा पहने हुए एक क़दरे कम रंग की ज़रा भरे जिस्म की औरत तीखे हिंदुस्तानी नैन नक़्श, फैली हुई आँखों की वही हैरानी लिए हुए दरवाज़े में खड़ी थी, जो इक़रा की आँखों में थी... अलबत्ता उसके चेहरे पर ख़ानदानी नादारी की झलक अभी तक बाक़ी थी।
माँ आई हैं। ख़बर देते हुए इक़रा की आँखें चमक रही थीं। साइमा ने उसे घर के अंदर बुला लिया और तजस्सुस के साथ पूछा,
आप हैदराबाद की हैं ना? ख़ातून ने एक नज़र दर्द के एहसास से साइमा को देखा। पूरी ज़िंदगी फ़िल्म की रील की तरह आँखों के सामने से गुज़र गई। उसने साइमा से नज़र चुरा ली और इक़रा की जानिब देखा। फिर दोनों साइमा का शुक्रिया अदा करके एक लम्हा ज़ाए किए बग़ैर दरवाज़े से निकल गईं।
ख़ातून रास्ते भर ख़ामोश थी। उसकी आँखें मंज़र-मंज़र देख रही थीं। 1948 के पुलिस एक्शन के बाद से ही मुआशरे में अफ़रातफ़री का माहौल था। ग़ुर्बत बहुत थी। ए. सी. गार्ड, मौला अली पहाड़, जहाँ शायरा महलक़ा चंदा बाई ने ख़ुद अपने लिए मज़ार बनाया था। बेरून दबीरपुरा, याक़ूतपुरा, चार मीनार चौक, लाड़ बाज़ार, और मूसा नदी के इउस पार बार्क्स इलाक़े के पुराने मुहल्ले और कच्ची बस्तियाँ... मिट्टी की दीवारें, कवेलो की छत वाले कच्चे मकान... ज़्यादा ग़रीब लोगों के टाट के पर्दे लगे घर... रिश्ते लगाने वाली औरतें और मर्द... जो हमदर्दी के तौर पर बेटियों की शादी अरबों से करवाते।
काय को नईं देती माँ तो बेटी को... उसका अपना घर हो जाएगा। इसकी वजह से सारा घर खड़ा हो जाएगा।
शौक़ बढ़ा, धंदे बाज़ी बढ़ी। कभी कभार कोई अरब शादी करके अपने साथ भी ले जाता, मगर वहाँ उस लड़की का क्या हश्र होता था, खुदा ही को मालूम! शादी करके बेटी को भूल ही तो जाना था। कुछ मुता और कुछ हलाला के नाम पर भी बरबाद हुईं। दो दिन कभी दो माह... क़लील मुद्दत के लिए मुता करवाया जाता। ख़ुला करवा के या तलाक़ देकर चले जाते। पेट में बच्चा पलता भी तो किसी को क्या था। उसे गिराने का क्या बंदोबस्त नहीं हो सकता था! इस्क़ात हमल के पैसे घर वालों तक पहुँचे या नहीं... कौन ख़बर लेता...! लालची लोगों ने धनदा बना लिया। ए. सी. गार्ड, ख़ैरताबाद ख़ास तौर पर बार्क्स में, जो हब्शी चाऊशों का इलाक़ा कहलाता। ये चाऊश 'हुज़ूर निज़ाम सरकार' में बड़े अहम थे। ये उनके बॉडीगार्डों में भी शामिल होते थे। कहा जाता है कि चाऊश अरब मुल्कों से बुलाए गए थे। शायद ये लोग नस्लन अरब थे या शायद उन्हीं का सिलसिला, मगर ये ज़रूर है कि ये अरबों के रिश्तेदार समझे जाते हैं। अरबों का वहाँ पहले से आना जाना शुरू था। आपस में शादियाँ हुईं। अक्सर किसी की ख़ाला की पोती तो किसी की बेटी की नवासी किसी न किसी अरब से ब्याही गई।
इक़रा की माँ अमीना भी उनमें से एक थी। रियासतें ज़म हुईं। बेरोज़गारी फैल गई। बार्क्स में अमरूद के बहुत से दरख़्त होते थे। जाम ले लो। टोकरी भर अमरूद साइकल पर रखकर यहाँ के लोग बेचते फिरते। वो साइकल रिक्शा में पर्दा लगाकर याक़ूतपुरा से बार्क्स के चढ़ाव पर एक उर्दू स्कूल में पढ़ने जाती थी। एक जाम वाले लड़के से दोस्ती की ही तो सज़ा थी कि वो स्कूल से छुड़ा दी गई थी... फिर... अब्दुल्लाह से... अपने से दो गुनी उम्र के मर्द से... एक अरब... से उसकी किसी नंबर की बीवी की हैसियत से शादी और देस निकाला... और अब उसकी बेटी... कितनी पीढ़ियाँ..., इक़रा की माँ अमीना ने अपनी आँखें कलमे की उंगली से रगड़ीं और बेटी का हाथ सख़्ती से थाम लिया।
घर के झमेलों में इस वाक़िए की तफ़सील भूल जाने का साइमा को डर था। पुलिस दोबारा आ जाए तो! कोई बात ज़ेहन से निकल जाए और पुलिस को शक में मुब्तला कर दे तो...! पता नहीं कहाँ ये बातें दोहराने की ज़रूरत पड़ जाए! पता नहीं ये सब कुछ जो आज हुआ था एक आरज़ी वाक़िआ था या किसी आने वाली मुश्किल का पेशख़ेमा...! साइमा ने अपनी डायरी निकाली और आज का सारा वाक़िआ, तारीख़, वक़्त और मुक़ाम के साथ लिखा और बड़ी हिफ़ाज़त के साथ अलमारी के लाकर में रख दिया।
आज कल उसका दिल हर वक़्त सहमा-सहमा सा रहता था। वो ए सी की रेलिंग को पकड़ कर अपनी बालकनी से पैर घुमा कर उनकी बालकनी में किसी चीज़ को पकड़ कर आई थी! बहुत दिन हुए, उसने सुना था उनका पड़ोसी रातों को औरतें लेकर आता था। लोग कहते थे 'हमने सुना है। मगर किसी ने अपनी आँखों से कभी देखा नहीं था। उसने अब इक़रा से शादी करली होगी! जैसा ख़ुद है, वैसा ही बीवी को समझता होगा! उस दिन जब घर लौटा होगा, उसने सोचा होगा कि 'जब मैं रात को बीवी को घर में लॉक करके गया था तो ये निकली कहाँ से!' यही सब तसव्वुर करके साइमा घबराती। शौहर से कहती, सहेलियों से बात करती। शायद उसी घबराहट की वजह से उसे अजीब-अजीब आवाज़ें सुनाई देतीं। कभी दरवाज़ा खटखटाने की, सरगोशी में उसे नाम लेकर आवाज़ देने की, बालकनी में तो उसने अजीब से चेहरे भी देखे थे जो क़रीब जाकर देखने पर ग़ायब हो गए थे।
उस दिन सुबह नाश्ते के टेबल पर लबन, शहद, डबल रोटी और ज़ातर रखते हुए साइमा ने धीरे से हमीद के ज़ेहन में यही बात डालने की कोशिश की, जिससे बात करो, यही कहता है, मकान मालिक या पुलिस से शिकायत करो।
परदेस में कहाँ झमेले में पड़ें! हमीद तज़ब्ज़ुब में थे।
अब आप शिकायत करने का मन बना ही लीजिए। ऐसे कब तक चलेगा!
साइमा, हम कितने सालों से दुबई में हैं? हमीद ने अचानक पूछा।
मुझे दस साल हुए, आपको तो पन्द्रह साल हो गए। क्यों!
हमारा इलाक़ा हिंदुस्तानियों, पाकिस्तानियों और फ़िलीपीनों से भरा रहता है, है ना! पड़ोस में पेट्रोल पंप है। पीछे बस स्टेशन है। ज़िंदगी आसान है क्योंकि एक मानूस ढर्रे पर चल रही है... मगर अब... अब तो फ़िक्र हो गई है मुझे...
मुझे यक़ीन है आइन्दा कुछ नहीं होगा... इंशा-अल्लाह... वैसे आपने ग़ौर किया, तीन महीने हुए, कुछ हुआ नहीं है। लेकिन ये कैसे कि अपने ओमानी पड़ोसी ने कभी उस सिलसिले में किसी से कोई बात नहीं की! साइमा कह ही रही थी कि उसके मोबाइल की घंटी बज उठी।
हाँ बेटा! किसी औरत की आवाज़ थी, मैं इक़रा की माँ बोल रही हूँ। ज़रा दरवाज़ा खोलना।
साइमा ने घबरा कर दरवाज़े के पीप होल में से झाँका। वही थी। उसने दरवाज़ा खोल दिया।
मेरी बेटी आपकी बालकनी में खड़ी है। ख़ुदा के लिए उसे अपनी बालकनी से अपने घर में आने दो। इक़रा की माँ ने गुज़ारिश की तो साइमा का पारा चढ़ गया।
अरे! आप लोगों ने तो रास्ता बना लिया! उसने दरवाज़ा खोला।
प्लीज़! इक़रा की माँ वहीं खड़ी इल्तिजा करने लगी।
आपका जो भी मामला है सुलझा लो भाई! हमें क्यों परेशानी में डालते हो?
आख़िरी बार... इक़रा कह रही है, आइन्दा ऐसा नहीं करेगी। आगे से आपकी बालकनी में नहीं जाएगी। उसका ओमानी शौहर जादूगर है।
क्या बात करती हैं?
हाँ और नहीं तो क्या!
वो कैसे?
अब देखो ना! उस दिन आपके घर से इक़रा हमारे यहाँ आई थी। शौहर का फ़ोन आया। घंटे भर बात की फिर खड़ी हो गई कि जाऊँगी। पता नहीं क्या जादू करता है।
ओह!
साइमा ने हमीद की जानिब देखा। वो बहुत नाराज़ थे मगर करते क्या! बीवी को इशारा किया कि हॉल की बालकनी का सलाइडिंग दरवाज़ा खोल दे।
साइमा ने बा-दिल-ए-ना-ख़ास्ता इक़रा को सोफ़े पर बिठाया, पानी पेश किया और पूछा, कैसे आती हो? इससे पहले कि वो कोई जवाब देती, उसकी माँ दरवाज़े से अंदर आगई।
ये बदमाश आपको कहाँ से मिल गया? अब साइमा का सवाल उसकी माँ से था।
आपको पता है, कि हिंदुस्तानी माओं की बेटियों की यहाँ अच्छे घरों में शादी नहीं होती...! इक़रा का बाप बूढ़ा था। मर गया, वरना वो किसी अरबी के साथ अपनी बेटी की शादी करवाने की कोशिश ज़रूर करता...
तुम ही अरबी दामाद नहीं चाहती होगी!
ऐसा नहीं है। मुझे भी अच्छा लगता।
क्यों? तुम ऐसा क्यों चाहोगी?
भला मैं क्यों न चाहती कि मेरी बेटी मेरी तरह किसी अरब से ही शादी करे? वहाँ शादी का पूरा ख़र्च लड़का उठाता है ना! शादी के एक जोड़े की क़ीमत एक लाख रूपए होती है... उनके घर भी तो बहुत ख़ूबसूरत होते हैं और वो हनीमून पर दूसरे मुल्क जाना पसंद करते हैं। बीवी के साथ दूसरे घर वालों से अलग रहते हैं। शहरों में उनके बड़े-बड़े बँगले होते हैं। उनकी औरतें बहुत कम बच्चे पैदा करना पसंद करती हैं। फिर मैं क्यों न चाहती कि मेरी बेटी मेरी तरह किसी अरब से ही शादी करे?
जो इतना ख़र्च नहीं उठा सकता, उसके घर में झगड़े शुरू होते हैं?
हाँ... अरबी औरतें... ये सब बर्दाश्त नहीं कर सकतीं।
फिर तुमने अपने तौर पर इक़रा की किसी अरब से शादी कराने की कोशिश क्यों नहीं की?
वजह ये है कि अब अरबी जल्दी शादी नहीं करते और मुझे इसकी शादी की जल्दी थी। दूसरे... अब एक थालसीमिया नामी बीमारी सुनने में आती है... जिस्म का पूरा ख़ून बदलना पड़ता है। ये ख़ानदान के अंदर ही अंदर बहुत क़रीबी रिश्तों में नस्ल दर नस्ल शादी करने का नतीजा होती है।
फिर अरबी आपस में शादियाँ क्यों करते हैं? साइमा सवालात की बौछार किए जा रही थी।
इसीलिए तो फ़िलिपिनियों और थाईलैंडी या इंडियन से शादी करते हैं...
क्या सिर्फ़ इसीलिए? साइमा ने उसकी बात काटी मगर उसने बड़ी तेज़ी से अपनी बात को बचा लिया।
मगर अब हुकूमत ने शर्त रख दी है कि दूसरे मुल्क वालों से शादी की तो उसे क़ौमियत नहीं मिलेगी।
मगर इक़रा का मर्द तो फ़ज़ूल है।
इक़रा का बड़ा भाई भी यही कहता है... कि बैठ जा घर... हम हैं... अभी बाल बच्चा भी नहीं... जाती हो, फिर हमसे माफ़ी मांग कर लौट आती हो! इक़रा की माँ एक लम्हा रुकी फिर बात जारी रखते हुए बोली,
तुम लोग हिंदुस्तान क्यों नहीं लौट जाते? साइमा ने पूछा,
अम्मां बावा नहीं रहे।
भाई बहन?
वो भी नहीं रहे। उनकी औलादें हैं मगर पता नहीं कौन कहाँ है? सुना है अब हैदराबाद ने बहुत तरक़्क़ी कर ली है और मेरे घर वाले भी...
यानी तुम्हारा यहाँ आना ज़ाए नहीं गया। वो धीरे से हँसी। फिर ज़रा ख़ामोश हो गई। उसकी आँखों में उसका आसूदा शहर, घर परिवार झाँकने लगे।
मेरा ब्लड प्रेशर बढ़ गया था। अस्पताल में एडमिट थी। बेटी का फ़ोन आया। कहा लेने आओ तो अस्पताल से सीधे चली आ रही हूँ। इक़रा की माँ ने कहा।
क्यों?
इतना टेंशन जो देती है... अच्छा चलते हैं। शुक्रिया। मैं अपने भाई को नीचे रोक आई हूँ।
एक अर्ज़ी बना लीजिए। इस बार तो बिल्डिंग की सोसाइटी में तहरीरी शिकायत करनी होगी। उन माँ-बेटी के जाने के बाद साइमा ने हमीद से कहा।
कुछ दिन पहले मैंने अर्ज़ी देने की कोशिश की थी मगर मैनेजर ने नहीं ली।
अरे वाह! ऐसे कैसे? साइमा चिढ़ कर बोली। आख़िर कहता क्या है? अर्ज़ी लेने में क्या परेशानी है उसको? ये तो बिल्डिंग की हिफ़ाज़त के लिए है ना! ऐसे कैसे नहीं लेगा? आपने पूछा नहीं? कहता क्या था?
कहता था, अर्ज़ी का तर्जुमा अरबी में करके दो।
तो करवा लीजिए ना! मेरी सहेली...
मैं क्यों करूँ? हमीद ने ख़फ़ा होकर बीवी की बात काटी, मैं सेक्रेटरी के घर अंग्रेज़ी में अर्ज़ी दे आया हूँ। वो करें, जो करना है।
ज़ुहर की नमाज़ का वक़्त था। आज दोपहर हमीद घर पर ही थे। बच्चों ने भी अभी खाना नहीं खाया था। साइमा किचन में चली गई। हमीद ने मनेजर को फ़ोन किया। अरे भाई पाँच दिन हो गए, अर्ज़ी दिए, क्या हुआ उसका? फ़ोन बंद करते ही साइमा सर हो गई।
क्या कहता है?
कहता है, तर्जुमा हो गया है। मैं आपके घर आता हूँ। अर्ज़ी पर साइन कर दीजिए।
ठीक है, फिर मैं नमाज़ अंदर पढ़ लेती हूँ। साइमा अपनी जानमाज़ उठा कर कमरे में चली गई। उसने इक़रा वाले वाक़िए की जानिब से अपना ध्यान हटाया और नमाज़ पढ़ने खड़ी हो गई। रकअत बाँधते ही नीचे सड़क की तरफ़ से ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने की आवाज़ें आने लगीं। जल्दी-जल्दी सलाम फेर कर वह बालकनी में दौड़ कर गई।
अरे! ये औरत है या बंदरिया! हमीद पहले ही बालकनी में मौजूद थे।
हरे...! मंकी गर्ल!, छोटी ने हल्ला किया।
साइमा ने नीचे सड़क पर नज़र डाली। वहाँ लोगों का मजमा था जो उनकी बिल्डिंग की तरफ़ देख रहे थे। चीख़ पुकार की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं।
साइमा ने नीचे झाँका। उनके ठीक नीचे की पहले मंज़िले की बालकनी में इक़रा ए सी की मशीन पर बैठी थी।
रस्सी भी लटकती दिखाई नहीं देती! अल्लाह जाने कैसे उतरी होगी! साइमा को तअज्जुब हुआ।
बताइए हमारी पूरी बिल्डिंग के नीचे तो 'ब्लासम सुपर मार्केट' है, फिर ये कहाँ से यहाँ पहुँची होगी!
हाँ, और पहले मंज़िले पर फ़्रंट के दो फ़्लैट सुपर मार्केट के ही तो हैं।
हाँ, इसीलिए तो समझ में नहीं आता कि किस तरह इक़रा सुपर मार्केट के स्टोर रूम की बालकनी के स्प्लिट यूनिट तक पहुँच गई होगी! तअज्जुब है...! है ना साइमा?
और इस बार भी वो बुर्क़ा पहने हुए है। देखिए ना, हाथ में चप्पल और बैग भी हैं, भागने की पूरी तैयारी के साथ कूदती है।
उसके हाथों के पंजों को तो देखो! कैसे काले दिखाई दे रहे हैं ना?
मुझे तो जली हुई बू भी महसूस हो रही है। साइमा ने झाँक कर देखा। ज़रा झुक कर देखिए, वहाँ धुआँ तो नहीं।
नहीं ऐसा तो कुछ दिखाई नहीं देता।
छलाँग मत लगाना। अचानक इक़रा को झुक कर सड़क का अंदाज़ा करते देख कर साइमा के मुँह से बे-साख़्ता निकल गया। इक़रा ने सर उठा कर बड़े दर्द के साथ उसे देखा।
ब्लासम सुपर मार्केट वालों ने नीचे सड़क पर सीढ़ी लगवाई। सीढ़ी छोटी थी, पहले मंज़िले की बालकनी तक भी नहीं पहुँची। दोबारा भाग-दौड़ हुई। बिल्डिंग के पीछे के पेट्रोल पम्प से लम्बी सीढ़ी मंगवाई गई और इक़रा नीचे उतर आई। कुछ मिनटों बाद वह ब्लासम वालों को कुछ बता रही थी। फिर वो लोग उसे सुपर मार्केट के मेन गेट की जानिब लेकर चले गए।
वो कैसे गई होगी वहाँ? क्या लगता है? साइमा ने पूछा, हैरत है!
हूँ साहब!
कोई कैसे एक फ़्लैट की बालकनी से दूसरे फ़्लैट की बालकनी में कूद जाता है? कमाल है...! तू कहाँ था? हमीद ने वॉच मैन को बुलाकर पूछा।
बिल्डिंग में कुछ भी हुआ तो मनेजर साहब मुझ ही को डाँटते हैं। वो शिकायती लहजे में बोला। साहब! दोनों गेट भी देखने होते हैं और बिल्डिंग का राउंड लगाना भी...
हमीद को उस ग़रीब बँगलादेशी वॉच मैन से हमदर्दी थी। कभी कभार बीवी बच्चों के हिंदुस्तान जाने के दिनों में वो उसके कपड़े इस्त्री करवा लाता या ज़रूरत का कोई सामान ख़रीद कर ला देता था।
ठीक है, तुम जाओ। आगे से ख़्याल रखना। हमीद ने उसकी चौकीदारी पर उठे सवाल को नज़र अंदाज कर दिया कि ग़रीब फिर डाँट खाएगा।
कुछ देर बाद बिल्डिंग में नीचे पुलिस आई। इक़रा का शौहर और मकान मालिक भी नीचे थे। हमीद भी नीचे उतर गए।
हुआ क्या था आख़िर? लौटे तो बीवी का सवाल तैयार था।
पता नहीं, उसकी माँ आई और उसे गाड़ी में बिठा कर ले गई। सुना है, उसके शौहर को वार्निंग मिली है कि फिर ऐसा न हो।
लोग क्या कहते हैं?
कोई कहता है, इक़रा के मुँह से ख़ून आता था। कोई कहता है, हाथ बाँध कर उसे जला दिया था।
सब अफ़वाहें लगती हैं।
मगर है बड़ी ढीट ये औरत!
उन्हीं दिनों हमीद को सउदी अरब जाना पड़ा। ये प्रोग्राम अचानक बना था।
हमारी सेफ़्टी क्या है, हमीद? साइमा परेशान होकर हमीद से सवाल करती, मैं हमेशा सोचती थी कि ये इमारत तीन मंज़िला है और हम तो दूसरे मंज़िले पर हैं। अगर कोई चोर बदमाश आ गया तो तीसरे मंज़िले पर टेरिस से आएगा या नीचे से। अगर नीचे से आया तो पहले मंज़िले वालों को ख़तरा होगा। हम तो दोनों तरफ़ से महफ़ूज़ हैं... मगर...! अब दिन भर डर लगा रहेगा ना!
वॉच मैन को आवाज़ दे देना...
और रात के वक़्त? क्या रात को भी वॉच मैन को घर बुलाऊँ?
तुम ख़्वाब-गाह का दरवाज़ा लॉक करके बच्चों के साथ अंदर सो जाना। सिर्फ़ दो दिनों की ही तो बात है।
अच्छा है, जुलाई का महीना है। बच्चे गर्मियों की छुट्टियों में हैं, अगर स्कूल होता तो!
तो क्या होता? बच्चे स्कूल बस में स्कूल चले जाते। हमीद ने हंसकर बात को हल्का कर दिया।
अब तक बात हमारे घर और बिल्डिंग तक ही थी... अब पब्लिक में आ गई है। सुपर मार्केट वालों को पता चल गया था। कितने ही दिनों तक सड़क पर चलते लोग उंगली के इशारे से एक-दूसरे को पहले मंज़िले की बालकनी दिखाते रहे, पता है ना!
मगर अब तो सब ठीक है।
हाँ, लग तो यही रहा है।
फिर ख़ुश रहो ना!
और अपनी किटी पार्टी का क्या करूँ...? दो दिनों बाद हमारी बारी है! और आप हैं कि जा रहे हैं।
भला ख़्वातीन की किटी पार्टी में मेरी क्या ज़रूरत!
अकेली कैसे... साइमा ने हमीद को अपने ग़ैर-महफ़ूज़ होने और तन्हा होने का एहसास कराना चाहा था।
दो दिन बाद की पार्टी को दो दिन पहले कर लो ना! हमीद शायद भाँप गए थे।
क्या कहते हैं? दो दिन बाद की पार्टी को दो दिन पहले कर लूँ? यानी आज... पार्टी!
उस वक़्त सुबह के साढ़े दस बज रहे थे। साइमा ने फ़ौरन सहेलियों को फ़ोन पर उसी दिन शाम छे बजे की किटी पार्टी की दावत दी और उनके लिए बर दुबई इलाक़े से कुछ तहाइफ़ ख़रीदने के ख़्याल से निकली। डेरा सस्ती शॉपिंग के लिए मशहूर है। अपनी बिल्डिंग के पीछे वाली सड़क पार करके उसने बस स्टेशन पहुँच कर सी वन बस पकड़ी। बस के दाएं जानिब की मशीन में 'एन ओ एल कार्ड' पंच किया। दो दिरहम बीस फ़िल्स, वो हिसाब दोहराती हुई अपनी सीट पर बैठ गई। बस में उसका ज़ेहन परागंदा ही रहा। रह-रह कर उसे फ़ोन पर मिली सहेलियों की इत्तिलाआत याद आतीं और वो सहम-सहम जाती। कल ही तो साइमा को उसकी पड़ोसन सहेली मरियम ने फ़ोन पर बताया था,
पता है, अपने ओमानी पड़ोसी की आज कल नाइट ड्यूटी होती है।
बीवी को घर में लॉक करके जाता होगा!
शायद इक़रा को उसकी माँ के यहाँ छोड़ जाता है।
हाँ सुबह छे बजे उसे हाथ पकड़ कर घर ले आता है। मैंने देखा है।
पता नहीं, उनका निकाह हुआ भी है कि नहीं। दूसरी दोस्त ने शक ज़ाहिर किया था।
शादी की है? लगता तो नहीं।
की तो है, मगर उसने अपनी शादी के बारे में किसी रिश्दातेर को मालूम नहीं करवाया। मरियम ने जानकारी दी।
तुम्हें कैसे पता?
उसका एक रिश्दातेर, मेरे बेटे की कम्पनी में काम करता है। मरियम ने अपनी कही बात का सबूत पेश किया।
वो तो ठीक है, लेकिन है बहुत शकी। साइमा सहेलियों से इक़रा की पुर-असरार ज़िंदगी के बारे में मालूमात इकट्ठा करती रहती।
आज सुबह बहुत सवेरे कोई जंगली की तरह उनका दरवाज़ा पीट रहा था। अक्सर इसी तरह पड़ोसियों को जगा देता है।
ये लीजिए! मैं तो समझती थी कि ओमानी दरवाज़े की चाबी साथ ले जाना भूल जाता होगा। बीवी सो गई होगी, इसलिए दरवाज़ा पीटता होगा। साइमा बोली।
नहीं, ये ओमानी का भाई था। जो दरवाज़ा पीट-पीट कर चला गया था।
तुमने इस शख़्स को देखा था? साइमा में तजस्सुस जागा।
तुमने कभी देखा नहीं क्या, दोनों की शक्लें कितनी मिलती-जुलती हैं!
हाँ... मेरे शौहर भी ड्यूटी से उसी वक़्त आए थे।
क्या कहती हो!
कमाल है... कोई एक्शन ही नहीं लेता। बिल्डिंग वालों को तो कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता है। कोई झमेले में पड़ना नहीं चाहता।
मकान मालिक के एक दोस्त ने ये फ़्लैट लिया है और अपने दोस्त को दिया है! सहेली ने साइमा को बताया था। यही ख़्याल और बातें बस स्टॉप पहुँचने तक साइमा के ज़ेहन में गूँजती रहीं।
बस स्टॉप पर उतर कर साइमा ने सड़क पार की। सामने ही लौटने वाली सी वन बस खड़ी थी। पंचिंग मशीन में सतुआ के लिए अपने कार्ड से दो दिरहम, बीस फ़िल्स कटवा कर वो इतमीनान से अपनी सीट पर बैठ गई।
अरे! तुम बग़ैर शॉपिंग किए ही घर लौट आईं...! ये तो तारीख़ी वाक़िआ है! हमीद के चेहरे पर ज़बरदस्त मुस्कुराहट थी। बच गए भाई!
टी वी पर कोई टॉक शो चल रहा था। साइमा प्रोग्राम से ग़ाफ़िल सोफ़े पर बैठी थी। उसकी आँख लगी ही थी कि एक चीख़ से हड़बड़ा कर उठी। साइमा ने बालकनी से नीचे झाँका। उसके सामने इक़रा का टूटा-फूटा जिस्म था। पथराई हुई आँखें, टूटे हुए घुटने, उधड़ा हुआ बुर्क़ा, पेशानी पर ख़ून की एक लकीर, चेहरे पर ज़मीन की धूल, टूटी-टूटी साँसें, हिचकियाँ लेती लड़की, उसे इस हाल में देख कर साइमा की चीख़ निकल गई।
अम्मी पानी लाऊँ...
आपको क्या हुआ? ख़्वाब में डर गईं क्या? बड़ी माँ को झिंझोड़ रही थी।
अम्मी पानी लीजिए। छोटी ने अपनी स्कूल की वाटर बोतल माँ की जानिब बढ़ा दी।
मम्मी पानी लीजिए ना! डरिए मत हम हैं ना! साइमा ने गहरी साँस ली।
छोटी उछल कर उसकी गोद में चढ़ बैठी। साइमा ने झुरझुरी ली और अपने ख़्यालों से निकल आई। एअर पोर्ट पर चहल पहल बढ़ गई थी। डिस्प्ले स्क्रीन पर हवाई जहाज़ों की आमद-ओ-रफ़्त की जानकारी दी जा रही थी। साइमा के दिल में प्यार उमड़ आया। उसने छोटी को सीने में जज़्ब करते हुए बड़ी को भी अपने से क़रीब करके उनके गालों का बोसा लिया। कुछ ही फ़ासले पर व्हील चेयर पर बैठा हुआ शख़्स अपनी गहरी निगाहें उसीपर गाड़े था। साइमा ने सोचा, हो सकता है, बूढ़े मुसाफ़िर की निगाहों के साथ उसका ज़ेहन न हो! साइमा का ज़ेहन दोबारा फ़्लैश बैक में लौट गया।
अम्मी, क्या अब हमारा स्कूल भी बदल जाएगा! नए घर में बड़ी बेटी ने साइमा से पूछा था।
स्कूल का क्या मसला है! आप अपने स्कूल में ही रहेंगी और उसी तरह बस से आया जाया करेंगी।
उसी 'ऊद मीठा रोड 'वाले दी इंडियन हाई स्कूल में ना अम्मी?
हाँ,हाँ उसी में!
हुर्रे! हमारी अम्मी ज़िंदाबाद!
अम्मी अब हम किस इलाक़े में रहने लगे हैं? बड़ी ने पूछा।
इस नए इलाक़े का नाम 'रास अलख़ोर' है। तुम्हें अच्छा लगा?
'रास अलख़ोर' सन्अती इलाक़ा था। यहाँ आमतौर पर तीन और चार मंज़िलों की इमारतें दिखाई देतीं। क्रीक पुराने शहर बरदुबई और डेरा को अलग करती है। शारजा में काफ़ी ऊँची चौबीस पच्चीस तीस मंज़िला इमारतें थीं। शैख़ ज़ाइद रोड पर दुनिया की सबसे ऊँची इमारतें थीं और डेरा भी ऊँची इमारतों का इलाक़ा था। शैख़ मुहम्मद ज़ाइद रोड के पास ये नया रिहाइशी इलाक़ा तैयार हुआ था। ये उन्नीस इमारतों की एक कम्यूनिटी थी, जिसका नाम 'सना डेवलपमेंट' था। आमद-ओ-रफ़्त के लिए रास-अल-ख़ैर में ट्रांसपोर्ट की तकलीफ़ थी, इसीलिए कॉलोनी के अंदर मस्जिद और ज़रूरत के सामान के लिए एक सुपर मार्केट भी बना लिया गया था। कम्यूनिटी के बाहर का इलाक़ा, जहाँ ट्रक ठहराए जाते, रेतीला था। दूर होने के बावजूद हाई वे से सीधे-सीधे निकल कर शैख़ ज़ाइद रोड से होते हुए तक़रीबन पच्चीस मिनट में वहाँ से सतुआ पहुँचा जा सकता था। कम्यूनिटी के बाएं जानिब घर से पाँच मिनट की दूरी पर बस स्टॉप था। सतुआ के एक बेड रूम हॉल किचन फ़्लैट के किराए में ही उन्हें यहाँ दो बेड रूम हॉल किचन का घर मिल गया था और फिर कॉलोनी भी सेफ़ थी। कम से कम चोरों के ख़ौफ़ से निजात तो मिल गई थी। इसके बावजूद साइमा को बच्चों को छोड़ने और लेने वहाँ तक जाना पड़ता। वजह ये थी कि अफ़वाह थी कि गाड़ी रुकवाकर कुछ बदमाश लड़कियों को उठा ले जाते हैं।
नहीं अम्मी! हमारा 'सतुआ' मार्केट एरिया है। बहुत सी दुकानें हैं। पिन से प्यानो तक सब कुछ वहाँ मिलता है। मेरी दूर दराज़ इलाक़े की सहेलियाँ ख़ास कपड़ों की ख़रीदारी के लिए वहाँ जाती हैं।
वहाँ सतुआ में कपड़े महँगे भी तो होते हैं। साइमा ने बड़ी होती बेटी को उदासी से बचाना चाहा।
मगर ख़ूबसूरत भी तो इतने होते हैं ना!
वहाँ आमतौर पर वो लोग रहते हैं, जो सतुआ के पीछे की जानिब वाक़े’ शैख़ ज़ाइद रोड या जबल-अली इलाक़ों के ऑफ़िसों में काम करते हैं। फिर तुम्हारा अपना कमरा भी तो हो गया है। है ना! साइमा ने उसे परेशान होने से बचाने की दोबारा कोशिश की।
नहीं अम्मी! यहाँ रौनक़ नहीं है और फिर हमारी अच्छी-अच्छी दोस्त वहाँ रह गईं। अम्मी! क्या कभी दुबई या इंडिया में हमारा अपना घर नहीं हो सकता? बड़ी ने ज़रा उदासी के साथ कहा।
यहाँ तो मंकी गर्ल है ना! छोटी बच्ची ने आपी और अम्मी की गुफ़्तगू के बीच झट से अपनी फ़रमाइश पेश कर दी, अम्मी, आज आप हमको मंकी गर्ल की कहानी सुनाएंगी ना?
फिर... वही मंकी गर्ल की कहानी...! अब उस बंदरिया को भूल जाओ बेटा!
मगर अम्मी! क्या ये सचमुच की मंकी गर्ल थी? कैसे स्पाइडर मैन की तरह कहीं भी पहुँच सकती थी! इसका कुछ आइडिया है आपको? हमको मंकी गर्ल की कहानी सुनाएं ना अम्मी! छोटी बड़े लाड़ के साथ माँ से चिमट गई।
भूल जाओ डियर, इस नए घर में न किसी मंकी गर्ल की कहानी है और न उसकी बंदर छलांगें! साइमा दोनों बेटियों को एक साथ जवाब देते हुए मुस्कुरा दी।
कुछ लड़के किसी बात पर हँसते हुए एक दूसरे के हाथ पर ज़ोर से ताली बजाते हुए साइमा के पास से गुज़र गए। साइमा ने चौंक कर देखा। एअरपोर्ट की रौनक़ में मज़ीद इज़ाफ़ा हो गया था। साइमा के भतीजे की शादी थी। हमीद अपनी मसरूफ़ियत की वजह से इंडिया जा नहीं सकते थे। सियाह बुर्क़े के ख़ूबसूरत नग लगे स्कार्फ़ में साइमा अपनी दोनों बच्चियों के हाथ पकड़े उन्हें दुबई के शानदार एअर पोर्ट से लुत्फ़अंदोज़ होते देख रही थी उनकी ख़ुशी छलक पड़ती थी। वो वक़्त से ज़रा पहले पहुँच गए थे। एअर पोर्ट पर, देस बिदेस के रंग-बिरंगे मुसाफ़िर अपने-अपने पहनावे में सहूलत महसूस कर रहे थे। वैसे तो यू ए ई की राजधानी अबूज़हबी है। सात इमारात में से एक ये ख़ूबसूरत शहर, अपने ड्यूटी फ़्री ज़ोन के लिए मशहूर है और कारोबारी राजधानी भी कहलाता है। यूरोप और एशिया के मुल्कों से इसके तअल्लुक़ात काफ़ी अच्छे हैं। न चाहते हुए भी साइमा की नज़र व्हील चेयर पर बैठे उस शख़्स पर पड़ी। वो अब भी गहरी-गहरी पुर-असरार निगाहें उसपर गाड़े हुए था। दर अस्ल सामने व्हील चेयर पर मर्द बैठा नहीं था, कोई औरत थी, बुर्क़ा पहनी हुई। उसके पैर नाकारा हो चुके थे। अचानक साइमा की गैलरी से उसका पैर फिसल गया... ओह...! साइमा ने झुरझुरी ली। व्हील चेयर पर बैठे हुए आदमी ने करवट बदली। वो वाक़ई तकलीफ़ में था। एअर पोर्ट के काउंटर पर खड़ी लड़की को अपने काग़ज़ात देते हुए साइमा ने क़रीब से किसी को अपना नाम पुकारते हुए सुना। उसे लगा ये उसकी ग़लतफ़हमी है मगर जब दूसरी बार भी दाएं जानिब से अपने नाम की पुकार महसूस हुई तो उसने गर्दन घुमाकर देखा मगर वहाँ तो एक अफ़्रीक़ी, नन्हे से बच्चे को अपने पेट से चिपकाए उसे पुचकार रहा था।
साइमा साहिबा!
अफ़्रीक़ी के लहीम-शहीम जिस्म के पीछे से एक लड़की उसकी जानिब झाँक रही थी। उस लड़की को साइमा ने ग़ौर से देखा। अब वो उनके सामने खड़ी थी।
हाँ... जी-जी... साइमा गड़बड़ा गई।
नहीं पहचाना ना! लड़की मुस्कुरा रही थी, इक़रा हूँ... आपकी पड़ोसन।
मंकी गर्ल! छोटी ने पहचान लिया और जोश के साथ ताली बजा कर ख़ुशी का इज़हार किया।
अच्छा? साइमा की आँखों में पहचान, हैरानी में घुल मिल गई। बड़ी मुश्किल से उसने कहा, तुम यहाँ? एअरपोर्ट में जॉब पर हो?
मर्हबा सर्विस में हूँ। एअरपोर्ट पर मुसाफ़िरों की मदद करती हूँ। व्हील चेयर पुराण साहब को एअरपोर्ट से बाहर ले जा रही थी। इक़रा को कुछ ख़्याल आया और पलट कर उसने व्हील चेयर पर बैठे उसी बूढ़े शख़्स से ख़िताब किया, नीली आँखों वाला...
सुर्ख़ बालों वाला...
एक्सक्यूज़ मी सर!
टेक योर ओन टाइम, ब्यूटीफ़ुल लेडी! उसने अपने सुर्ख़ बालों में उंगलियाँ फेरते हुए हाँ में सर हिला कर जवाब दिया और मुस्कुराया।
ये कैसे हुआ? साइमा ने पूछा।
छूट गई? इक़रा ने दाएं हाथ की कलमे की उंगली अँगूठे से मिलाई और बाक़ी तीन उँगलियों को पीछे की जानिब झटक दिया।
कैसे?
आइडिया, उसने मुस्कुराकर जवाब दिया।
अच्छा?
मुझे आपका बड़ा आसरा मिला था... शुक्रिया! मगर मैं आप लोगों को तकलीफ़ नहीं देना चाहती थी। बस हिम्मत करके अपने घर के दरवाज़े से एक दिन भाग निकली थी। मेरा शौहर उस वक़्त बाथरूम में था। निकला, देखा, पीछा किया मगर मैं अम्मी के घर नहीं गई, सहेली के घर चली गई थी। अम्मी पर कितने दिन बोझ रहती। भाई मुझे हरगिज़ काम करने नहीं देते। अख़बार में वॉक इन इंटरव्यू देखा और अब यहाँ हूँ।
अम्मी के साथ रहती हो?
नहीं, सहेली का घर शेयर करती हूँ।
और तुम्हारा शौहर? उसने तुम्हें काम करने दिया?
उसके पंजे से निकल आई।
क्या?
क़ाज़ी से निकाह फ़स्ख़ करवा लिया।
आप कितनी ख़ूबसूरत लग रही हैं। छोटी ने दरमियान में बात करके बात का मौज़ू’ बदल दिया। वाक़ई इक़रा के चेहरे को मेकअप ने चमका दिया था। नेवी ब्लू पूरे आस्तीन की सुनहरे बटन लगी जैकेट, कोट, पेंट, नीली टोपी में झाँकता हुआ शोख़ सुर्ख़ रंग का स्कार्फ़ पहने वो किसी और दुनिया की मख़लूक़ नज़र आ रही थी। अपने को इन तीनों माँ बेटियों को इतने ग़ौर से देखते देख कर इक़रा ज़रा सा शर्माई और उसने दोनों बच्चियों के रुख़्सारों को प्यार से छू लिया और छोटी ने माँ के सामने कई बार दोहराया हुआ अपना सवाल फिर एक बार दोहराने का मौक़ा हाथ से नहीं गँवाया।
आप दीवार कैसे फलाँगती थीं? अम्मी तो कुछ भी नहीं जानतीं। आपही बता दीजिए ना... सच सच बताइए मंकी गर्ल! इससे पहले कि इक़रा उसे कोई जवाब देती, छोटी को अचानक उससे भी अहम सवाल ने सताया और उसका ध्यान अपने दीवार फलाँगने की टेक्निक जानने वाले सवाल से हटा। उसने माँ को मुख़ातिब किया और पूछा,
अम्मी! मंकी गर्ल से डर कर ही तो हम रास अलख़ोर रहने चले गए हैं ना! मगर अम्मी! अब इस मंकी गर्ल को हमारी उस बालकनी से निकालेगा कौन? कहीं फिसल कर गिर गईं तो इन अंकल की तरह उन्हें भी व्हील चेयर पर बैठना पड़ेगा ना! छोटी आँखें फाड़े दायाँ हाथ सवालिया अंदाज़ में नचाते हुए साइमा के जवाब की मुंतज़िर थी। साइमा ने छोटी को जल्दी से अपने क़रीब कर लिया और वो माँ के लम्स के इशारे को महसूस करके बा-दिल-ए-ना-ख़ास्ता चुप हो गई। साइमा ने इक़रा की आँखों में ठहरे सवाल से बचने के लिए अपनी नज़रें व्हील चेयर पर बैठे हुए शख़्स पर मर्कूज़ कर लीं जो अपनी मुंतज़िर आँखों में बड़ी अजीब सी मुस्कुराहट लिये उनकी जानिब देख रहा था।
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