ज़ाफ़रान के फूल
स्टोरीलाइन
कश्मीर के सियासी संघर्ष को बुनियाद बनाकर लिखी गई कहानी है। सड़क से गुज़रते एक ड्राईवर की गाड़ी ख़राब हो जाती है। गाड़ी के ठीक होने तक वह पास ही लगे ज़ाफ़रान के फूल के खेत के पास जाकर खड़ा हो जाता है। वहाँ काम कर रही एक बुढ़िया उसे बताती है कि ज़ाफ़रान के फूल का रंग लहू जैसे लाल सुर्ख़ क्यों नहीं है? इनकी सुर्ख़ी में उसके तीन बेटों और एक बेटी का खू़न है जो एक-एक करके कश्मीर की आज़ादी की लड़ाई के भेंट चढ़ जाते हैं।
आओ, मुसाफ़िर, यहाँ इस चनार के साए में बैठ जाओ। मैं अभी पानी पिलाती हूँ... वो नीली-नीली लंबी सी मोटर है ना तुम्हारी…? पंक्चर हो गया हो गया है…? कोई बात नहीं। अँधेरा होने से पहले श्रीनगर पहुँच जाओगे… अब बीस कोस की तो बात ही है... नहीं बेटा मुझे पानी की क़ीमत नहीं चाहिए। और फिर पैसा लेकर करूँगी भी क्या। मेरा है ही कौन…?
अकेली जान हूँ, ज़ैल-दार के खेत में काम करती हूँ, चश्मे से पानी भर लाती हूँ, धान कूट देती हूँ, अल्लाह का शुक्र है मुट्ठी भर चावल तो मिल ही जाता है। पाँच ऊपर साठ उम्र होने को आई। और चाहिए ही क्या एक बुढ़िया को। आज मरी कल दूसरा दिन… तुम भी कहते होगे किस बकवासन से पाला पड़ गया है...
क्या कहा तुमने, बेटा...? नहीं नहीं, गुल-ए-ला'ला का नहीं ये ज़ाफ़रान का खेत है... ठीक कहते हो ज़ाफ़रान के फूल सच-मुच कासनी ही होते हैं। अभी आगे जाओगे तो दूसरे खेतों में कासनी फूल ही पाओगे। पर यहाँ इस साल ज़ाफ़रान के सुर्ख़ फूल ही खिले हैं... इसकी वज्ह क्या है...? ये ख़ुदा की क़ुदरत है बेटा। पर तुम मैदानों के रहने वाले आजकल के नौजवान, ख़ुदा और उसके करिश्मे को कब मानते हो।
हम कश्मीरियों को वहमी और बे-वक़ूफ़ समझते हो कि हम ऐसी बातों में ए'तिक़ाद रखते हैं...
अब इन फूलों की पूरी कहानी सुनकर क्या करोगे? अभी तुम्हारी मोटर ठीक हो जाएगी और तुम चले जाओगे और कहानी अधूरी रह जाएगी... मोटरें तो इस सड़क पर से गुज़रती ही रहती हैं, बेटा पल दो पल को ठैरती भी हैं तो फिर धूल के बादल उड़ाती चली जाती हैं। पर ये ज़ाफ़रान की खेती, यूँही खड़ी रहेगी। यहाँ तक कि फूल चुनने का वक़्त आ जाएगा और ये लाल लाल लहू की बूँदों जैसे शगूफ़े सुखाकर दिसावर को भेज दिए जाएँगे, और न जाने इनकी ख़ुश्बू कहाँ कहाँ और किस-किसके दस्तर-ख़्वान पर महकेगी और तुम्हारी तरह कितने ही आदमी सवाल करेंगे, इस ज़ाफ़रान का रंग लहू की तरह सुर्ख़ क्यों है...? पर कोई न बता पाएगा। क्योंकि इसकी वज्ह तो सिर्फ़ मैं ही जानती हूँ।
तुम मुझे पागल समझते हो ना? दीवानी बुढ़िया, जो न जाने क्या-क्या बक रही है... है ना…?
फिर भी इस लाल ज़ाफ़रान का भेद जानना चाहते हो...? या अभी तुम्हारी मोटर दुरुस्त होने में देर है, और तुम उस वक़्त को एक पगली की बड़ सुनकर ही काटना चाहते हो? ख़ैर जो भी हो, सुनना चाहते हो तो सुनो!
हाँ तो इस खेत में लाल ज़ाफ़रान के फूल तो इसी साल लगे हैं पहले यहाँ भी कासनी फूल ही उगा करते थे। सारी वादी पर बहार आ जाती। ऐसा मा'लूम होता कि कोई नई-नवेली दुल्हन ज़ाफ़रानी दोशाला ओढ़े लेटी है, और ख़ुश्बू से ये सारा इ'लाक़ा महक उठता। सड़क पर मोटरें जो गुज़रतीं, उनकी धूल के बादलों में भी ये ख़ुश्बू फैल जाती और ऐसा मा'लूम होता कि ज़मीन से आसमान तक हर चीज़ ज़ाफ़रान में बसी हुई है...
तुम्हारी ही तरह एक और मुसाफ़िर भी एक-बार इस खेत के फूलों को देखने ठैर गया था ... कई बरस की बात है, कोई बहुत ही सीधा आदमी मा'लूम होता था। बेचारा खेत में जाकर फूलों के बीचों-बीच में खड़ा हो गया और लगा नथुने फुला-फुलाकर नाक से साँस लेने जैसे फूलों को सूँघ रहा हो। बल्कि उनकी ख़ुश्बू को पी रहा हो। फिर आपसे आप ही कहने लगा,
“अ'जीब बात है कोई भी नहीं आई?”
मैंने पूछा, “कौन? आख़िर किस को खोजते हो?”
तो जवाब मिला,“हँसी, हँसी नहीं आई। अ'जीब बात है हालाँकि किताबों में तो...”
तो बेटा तब पता चला कि वो बेचारा किताबों में ये पढ़ कर आया था कि अगर ज़ाफ़रान के खेत में खड़े हो कर उसकी ख़ुश्बू सूँघो तो आपसे आप हँसी आने लगती है। इतने में ख़ुदा का करना क्या हुआ कि सर पर लकड़ियों का गट्ठा उठाए ज़ाफ़रानी आ गई। मैंने जो उसे ये बात बताई तो वो लगी खिल-खिलाकर हँसने और वो अजनबी तो पहले तो खिस्याना हो गया मगर जब उसने देखा कि ज़ाफ़रानी के क़हक़हे ख़त्म होने ही में नहीं आते तो लगा वो भी हँसने। उन दोनों को हँसते देखकर मुझे भी हँसी आ गई। और बा'द में अजनबी कहने लगा कि देख किताबों का लिखा पूरा हुआ। क्योंकि ज़ाफ़रान के खेत में हम तीन ही खड़े थे और तीनों का हँसी के मारे बुरा हाल था।
मैं भी कहाँ से कहाँ पहुँच गई... बेटा बुढ़ापे में दिमाग़ क़ाबू में नहीं रहता। बात करते करते बहक जाती हूँ... हाँ तो ज़ाफ़रानी... क्या कहा... ज़ाफ़रानी कौन...? अभी तो बता चुकी हूँ कि ज़ाफ़रानी मेरी बेटी थी... नहीं बताया था...? भूल गई हूँगी... लो देख लो याद का ये हाल है बेटा... हाँ तो उसका नाम तो अस्ल में नूराँ था, मगर गाँव में सब उसे ज़ाफ़रानी कह कर पुकारते थे। बात ये है कि बचपन ही से उसकी रंगत कुछ पीली-पीली सी थी, लड़कपन में बच्चों-बच्चियों के साथ कुदाल मचाया करती थी, वो उसे ज़ाफ़रानी कह कर छेड़ा करते और जितना वो चिढ़ती, उतना ही वो और शोर मचाते ज़ाफ़रानी ज़ाफ़रानी।
तुम जानो बच्चे किसी की मानते थोड़ा ही हैं... हाँ तो जब वो जवान हो गई तो गाँव के लड़के कहने लगे कि नूराँ जैसी ख़ूबसूरत लड़की तो हमारे हाँ एक भी नहीं है। इसकी रंगत तो ज़ाफ़रान के फूल की तरह है। इसकी आँखें तो खिले हुए कँवल हैं और न जाने क्या-क्या औंधी-सीधी बातें, मुझे तो उसमें कोई ख़ूबसूरती-ओ-बदसूरती नज़र नहीं आती। एक तो दुबली थी जैसे चश्मे के किनारे उगे हुए बेद। बेद-ए-मजनूँ।
मैं कहती, “भला ऐसी लड़की बच्चे कैसे जनेगी? और फिर रंगत बिल्कुल पीली जैसे बीमार हो। दीदे फटे हुए। ऊपर से ये कि तमीज़ नाम को नहीं, न छोटे का ख़याल न बड़े का। बस हर वक़्त धमाचौकड़ी से मतलब, मैं तो ज़रा मुँह नहीं लगाती थी। फिर तीन भाइयों में एक बहन थी, वो भी दो से छोटी। बाप और दोनों बड़े भाइयों ने लाड-प्यार में बिगाड़ रखा था। मैं सोचती, ऐसी लड़की से कौन शादी करेगा? पर वहाँ तो जिसको देखो वो ज़ाफ़रानी ही से ब्याह करने पर तुला हुआ था... तुम लड़कों की पसंद का भी कुछ ठीक नहीं बेटा...”
हाँ तो पैग़ाम चारों तरफ़ से आ रहे थे। यहाँ तक कि ज़ैल-दार ने अपने लड़के का पैग़ाम भी दे दिया जो शहर के स्कूल में पढ़ रहा था। भला एक मा'मूली किसान की बेटी को इससे अच्छा कौन बर मिल सकता था...? मैंने सोचा ज़ाफ़रानी की क़िस्मत खुल गई... पर ख़ुदा को तो कुछ और ही मंज़ूर था। इस साल जाड़े के मौसम में निमोनिया का बुख़ार ऐसा चला कि घरवाला अल्लाह को प्यारा हो गया। ख़ुदा उसे जन्नत नसीब करे, उसका मरना था कि हमारे घर में तो आफ़तों पर आफ़तें आनी शुरू' हो गईं। मरने वाले ने महाजन से क़र्ज़ा ले रखा था। इसमें ज़मीन की क़ुर्क़ी हो गई। इस पर भी मेरी हिम्मत न टूटी। तीन बेटे थे ना। मैंने सोचा रुपये ज़मीन से क्या होता है। मेरी अस्ल पूँजी तो मेरी औलाद है। हाँ एक ज़ाफ़रानी की तरफ़ से फ़िक्र ज़रूर थी कि ग़रीब और यतीम लड़की को कौन ब्याहेगा।
सैकड़ों बरसों से हम इस गाँव में रहते चले आ रहे हैं। कभी फ़स्ल अच्छी होती है कभी बुरी, कभी बारिश होती है कभी नहीं, कभी इतना पानी बरसता है कि खेतियाँ बह जाती हैं। कभी धूप में जल जाती हैं। कभी बर्फ़ में तबाह हो जाती हैं। कभी हम अपनी ज़मीन बोते हैं कभी दूसरे की। क़िस्मत की ऊँच-नीच तो हर एक के साथ लगी ही रहती है और बेटा कभी कभी राजा के अफ़सर ज़ुल्म भी करते हैं, पर राजा प्रजा का क्या मुक़ाबला। सब्र-ओ-शुक्र से ज़िंदगी किसी न किसी तरह बसर हो ही जाती है। मगर ठीक कहते हैं कि ये कलजुग है कलजुग। इसमें जो न हो थोड़ा है... कई बरस की बात है, अभी घरवाला ज़िंदा ही था कि एक दिन मैं धान कूट रही थी कि मेरा बेटा नूरू चिल्लाता हुआ आया,
“माँ शेर-ए-कश्मीर आए हैं, शेर-ए-कश्मीर।”
बस इतना कह ये जा वो जा। मैं चिल्लाती ही रह गई कि अरे अगर शेर आया है तो ज़ैल-दार साहिब को बोल जा के। बंदूक़ ले के आवें... थोड़ी ही देर में क्या देखती हूँ कि सारे ही गाँव वाले, तो क्या मर्द और क्या औरत और क्या बच्चे भागे चले जा रहे हैं। मैंने सोचा शेर को पकड़ लिया होगा तभी तो औरतें बच्चे निडर हो कर जा रहे हैं। चलो में भी तमाशा देखूँ...
वो नक़्शा आज तक याद है मुझे। गाँव के इस सिरे पर, ए वो देखो उन दरख़्तों के पीछे… एक स्कूल है… अब तो मिडल तक का हो गया है। पर जब चार जमाअ'तों ही की पढ़ाई होती थी... हाँ तो क्या देखती कि इसी स्कूल के सामने ठट के ठट लगे हुए हैं। और सामने शेर न चीता, एक लंबा सा गोरा सा आदमी चबूतरे पर खड़ा ज़ोर ज़ोर से कुछ कह रहा है। लो जी ये था वो शेर-ए-कश्मीर... मैंने कहा, “लो ख़्वाह-मख़्वाह ही डरा दिया। शेर तो शेर ये तो कोई मा'मूली दर्जे का सरकारी अफ़सर भी नहीं है।
भला अफ़सर कहीं गाढ़े खद्दर के मोटे-झोटे कपड़े पहनते हैं। जिस तरह से वो ज़ोर ज़ोर से तक़रीर कर रहा था, उससे मैं समझी कि चाय बेचने वाला होगा। अब थोड़ी देर में काला तवारिख़ के भोंपू वाला बाजा बजाएगा। फिर मुफ़्त चाय सबको बाँटेगा, इसी इंतिज़ार में मैं भी वहाँ जाकर खड़ी हो गई। पर वो तो कश्मीरी में बोल रहा था और अगर ये चाय वाला था तो उसकी चाय तो बहुत ही गर्मा-गर्म और ख़तरनाक थी। मैंने दो-चार बोल ही सुने थे कि डर गई। या अल्लाह अब हमारे गाँव पर कोई न कोई मुसीबत ज़रूर आएगी। वो बातें ही ऐसी कर रहा था कि दिल दहल जाए।
“रियासत के अस्ल मालिक राजा और उसके अफ़सर नहीं बल्कि हम किसान हैं। हम पर ज़ुल्म हो रहा है। सबको मिलकर उसके इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी चाहिए। आपस में एक हो जाना चाहिए। लड़कों-लड़कियों को पढ़ना चाहिए, पढ़ लिख कर ये कश्मीरी क़ौम के लीडर बनेंगे” और न जाने क्या-क्या। मैंने तो पूरी बात सुनी भी नहीं। ज़ाफ़रानी मुँह फाड़े एक कोने में बैठी थी। मैं उसका हाथ पकड़ घसीटती हुई चली कि घर जाके उसके बाप से ऐसा पिटवाऊँगी कि फिर कभी हिम्मत न पड़े। ऐसी ख़तरनाक जगह क़दम धरने की। फिर भीड़ के आगे जहाँ बड़े-बूढ़े बैठे हुए थे। वहाँ क्या देखती हूँ कि वो तो ख़ुद ही वहाँ बैठा बड़े ग़ौर से सुन रहा है। जल ही तो गई मैं...
तुम तो जानते ही हो तलाओ के बीज में एक पत्थर फेंक दो सारे पानी में हलचल मच जाती है, तो बेटा ये शेर-ए-कश्मीर भी ऐसा ही एक पत्थर था जिसने हमारे गाँव के ठैरे हुए पानी को हिला दिया। वो दिन और आज का दिन, आराम, चैन, सुल्ह शांति का नाम नहीं रहा। जिसको देखो बेचैन। जिसको देखो उसकी ज़बान पर शिकायत। हर एक अपनी ज़िंदगी से नालाँ, उसको बदलने पर तुला हुआ। मैं कहती, “अरे तुम्हारे बाप दादा ने भी तो अपनी उ'म्रें इन्हीं राजों महाराजों के अफ़सरों के ज़ुल्म सहते-सहते रूखी-सूखी खाकर सब्र शुक्र से काट दीं, तुम में कौन से सुर्ख़ाब के पर लगे हैं कि सारी दुनिया को बदलने पर तुले हुए हो...” पर मेरी कौन सुनता है बेटा... वो तो इस शेर-ए-कश्मीर ने जादू ही ऐसा किया था... हाँ, हाँ, बेटा। इसकी बात तो कर रही हूँ। तुम भी कहते होगे, ये कहाँ का झगड़ा ले बैठी। पर बात ये है कि न तो गाँव के ठैरे, शांत तलाओ में शेर-ए-कश्मीर की तक़रीर का वो पत्थर गिरता और न ये ज़ाफ़रान के फूल लाल होते... ये कैसे? यही तो बता रही हूँ पर तुम तो बीच में टोकते ही जाते हो…
हमारे गाँव में उसको आए हुए दो-चार महीने हुए होंगे कि ख़बर आई कि शेर-ए-कश्मीर को राजा ने पकड़ लिया और जेल में बंद कर दिया। मैंने कहा चलो अच्छा हुआ। अब सब उसकी सिखाई पढ़ाई बातें भूल जाएँगे और वादी में सब्र शुक्र के दिन फिर लौट आएँगे। पर जी उसकी गिरफ़्तारी पर तो और भी इसका चर्चा होने लगा। जिसको देखो ग़ुस्से में भरा हुआ है कि हमारे शेर-ए-कश्मीर को पकड़ लिया। अब इस सरकार की ख़ैर नहीं। और ऐसी बातें करने वालों में सबसे आगे आगे मेरे ही लड़के। थोड़े दिनों में सुना कि छुट गया। मैंने सोचा ये भी अच्छा हुआ नहीं तो ये लड़के सरकार को बुरा-भला कहते रहते और ज़ैल-दार या कोई सरकारी अफ़सर सुन लेता तो लेने के देने पड़ जाते...
जब तक बाप ज़िंदा रहा तब तक बेटे कुछ क़ाबू में रहे। उसका मरना था कि जिसका जिधर मुँह उठा उधर चल दिया। ज़मीन तो जाती ही रही थी। बड़ा ग़ुलाम नय्यर कहने लगा, मैं दूसरे की ज़मीन पर मज़दूरी नहीं करूँगा। इससे तो बेहतर है श्रीनगर या गुलमर्ग में मुसाफ़िरों का सामान उठाकर ले जाने का काम करूँ। दो-तीन रुपये रोज़ कमा सकता हूँ। मैंने लाख सर पटख़ा पर वो एक न माना। जब गया है तो सारे गाँव के लड़कों में सबसे ज़ियादा चौड़ा-चकाए सीना था। उसका, छः महीने बा'द दो-चार दिन को जो आया तो पहचानना मुश्किल हो गया। रंगत ज़ाफ़रानी से भी ज़ियादा पीली, आँखें अंदर को धँसी हुई। माथे पर घाव जैसा गहरा गड्ढा, जहाँ बोझा सँभालने के लिए मज़दूर पट्टा बाँधते हैं और रात-भर खाँसना। कभी कभी तो इतना कि होश न रहता।
मैंने कहा ये क्या हालत हो गई तेरी। क्या बीमार है। बोला नहीं माँ, बोझ उठाने वालों के माथों पर ऐसा गड्ढा तो पड़ा ही रहता है। रही खाँसी तो वो उस दिन तंगमर्ग से एक साहिब का सामान गुलमर्ग ले जा रहा था, बीच में बारिश आ गई, भीगने से ज़ुकाम खाँसी हो गई है... चार दिन के बा'द जब वो तंगमर्ग गया तो मँझला नूरू भी साथ हो लिया। कहने लगा, “माँ बाप का लिहाज़ ही नहीं रहा तो यहाँ रहने से क्या फ़ाएदा?”
नूरू को गए हुए तीन चार महीने हुए होंगे कि ज़ैल-दार ने शहर से आकर कहा, “ग़ुलाम नबी की माँ अब तुम्हारी ख़ैर नहीं है। तुम्हारा मँझला बेटा नूरू शैख़ अबदुल्लाह की पार्टी में मिल गया है। दिन में कश्ती चलाता है, रात को मज़दूरों के जलसों में जा जा के तक़रीरें करता है।” मैंने कहा, “बी मेंडकी को भी ज़ुकाम हुआ। वो शेर-ए-कश्मीर तो सुना मास्टर था पहले। इस किसान के छोकरे को देखो ये भी चला है लीडरी करने।” पर मैंने सबसे कह दिया कि “आज से मेरे सामने उसका नाम न लेना। न वो मेरा बेटा। न मैं उसकी माँ...”
ज़ाफ़रानी? तो उसका तो ज़िक्र ही करना भूल गई। तो बेटा अब हमारे घर में रह ही गया था कौन? बस मैं, ज़ाफ़रानी और सबसे छोटा लड़का ग़फ़ूरा। ज़ाफ़रानी अब बीस बरस की बिन ब्याही बैठी थी। घर में पैसे हों तो उसकी शादी की बातचीत करूँ। और यहाँ अव़्वल तो आमदनी ही सिफ़र थी। उधर सुना समंदर पार विलाइत में लड़ाई शुरू' हो गई, तो महंगाई का ये आ'लम हुआ कि बस कुछ पूछो मत। मैं और ज़ाफ़रानी दोनों काम करते थे।
कभी किसी के खेत पर, कभी जंगल से लकड़ियाँ चुन लाते, कभी पानी भरते, कभी ऊन कातते तब जाके दो वक़्त चूल्हा जलता। मैंने कहा, ग़फ़ूरा दस बरस का हो गया, लाओ इसको भी काम पर लगा दें। पर ज़ाफ़रानी बोली, “नहीं माँ, हम तो ग़फ़ूरा को मदरसे पढ़ने भेजेंगे।” मैंने कहा, “पागल हो गई है।” पर वो एक न मानी, मुझसे कहे सुने बग़ैर अगले दिन सवेरे ख़ुद उसे ले जा मदरसे में दाख़िल करवा आई। जवान बराबर की लड़की। अब मैं उसे कहूँ भी तो क्या कहूँ। फिर उसके ब्याह न होने का भी दुःख था।
इस वास्ते मैं चुप ही हो गई... मगर मेरा माथा ज़रूर ठनका कि आज इस घर का पहला लड़का मदरसे गया है।
अब न जाने कौन सी मुसीबत आएगी... पर बेटा उस लौंडिया पर तो पढ़ाई का भूत सवार था, दिन रात भाई के पीछे पड़ी रहती... मदरसे से आता तो कहती घर पर बैठ कर पढ़। हिसाब के सवाल पूछने मास्टर के हाँ जा, ये कर, वो कर। उसका बस न चलता था कि किताबें घोल कर ग़फ़ूरा को पिला दे... जिस घर में बेरी का पेड़ होता है बेटा वहाँ पत्थर तो आते ही हैं। बीस-इक्कीस बरस की लड़की, फिर शक्ल सूरत में हूर का बच्चा नहीं थी तो कानी, भेंगी, चेचक दाग़ भी नहीं थी, और तुम जानो आजकल कित्ते लौंडे, शहर जाके सिनेमा, बाइस्कोप, नाच रंग न जाने क्या-क्या देख के कितने आवारा हो गए हैं।
एक दिन ज़ाफ़रानी लकड़ियाँ चुनने गई थी कि क्या देखती हूँ कि ख़ाली हाथ वापिस चली आ रही है। ज़ार-ओ-क़तार रोती हुई। मैंने पूछा कि क्या हुआ, तो कुछ जवाब नहीं। बस रोए चली जा रही है। अरी कम-बख़्त कुछ कहेगी भी क्या हुआ। किसी ने मारा, गाली दी। चोट लग गई। आख़िर हुआ क्या? उसका जवाब सुनकर मैं तो दंग रह गई, बेटा बात ही उसने ऐसी कही जो किसी माँ ने अपनी बेटी की ज़बान से कभी नहीं सुनी होगी। कहने लगी,
“माँ मेरा ब्याह कर दो।” और फिर लगी रोने। दस दफ़्'अ पूछा तब ये बात खुली कि लकड़ियाँ चुन रही थी कि ज़ैल-दार का लड़का जो शहर से आया हुआ है उधर आन निकला और लड़की को अकेला देख कर लगा उसे छेड़ने और ओल-फ़ोल बकने। जब ज़ाफ़रानी ने झटका तो उसका हाथ पकड़ कर बद-इरादे से अपनी तरफ़ घसीटने लगा। बड़ी मुसीबत से हाथ छुड़ा कर भागती हुई आई थी बेचारी। मगर इस बदमाश की हौल बैठी हुई थी दिल में, अभी तक पत्ते की तरह थर-थर काँप रही थी और रो रही थी। और जब हिचकियाँ ज़रा रुकतीं तो यही कहती,
“माँ मेरा ब्याह कर दो, नहीं तो एक दिन मेरी इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी”
अब तुम ही बोलो बेटा, ग़रीब औरत करे तो क्या करे। जब दमड़ी पास न हो तो किस बिरते पर लड़की का ब्याह रचाए... फिर भी मैंने इधर-उधर निगाह डाली कि कोई ग़रीब मगर तबीअ'त का शरीफ़ आदमी मिल जाए जो ज़ाफ़रानी को ब्याह ले, तो ये फ़िक्र तो दूर हो जाएगी। मगर पचास-साठ रुपये तब भी चाहिएँ। ज़मीन। ज़ेवर यहाँ तक कि मेरे और ज़ाफ़रानी के कानों के बाले भी बिक चुके थे। अब तो कुछ भी नहीं था जिसके सहारे क़र्ज़ा ही मिल जाता। इसी उधेड़-बुन में लगी हुई थी कि एक दिन एक आदमी आया। शक्ल सूरत से बेचारा क़ुली मा'लूम होता था। वही माथे पर पट्टे का निशान, उम्र पता नहीं क्या थी? पर पचास का मा'लूम होता था। कहने लगा,
“ग़ुलाम नबी ने ये भेजा है। मैं उसका दोस्त हूँ मोहम्मदो।” ये कह कर एक मैले से कपड़े की पोटली मेरे सामने रख दी। खोल कर देखा तो नोट और रुपये और कुछ रेज़गारी। गिने तो पाँच ऊपर साठ रुपये और दस आने हुए। वो बोला,
“ग़ुलाम नबी ने कहा था कि माँ से कहना, इस रुपये से ज़ाफ़रानी का ब्याह कर दें।”
मैंने ख़ुदा का शुक्र किया कि बेटे के दिल में माँ-बहन का ख़याल तो आया। फिर मोहम्मदो के मुँह पर कुछ अ'जीब सी हालत देखकर मैंने पूछा,
“ग़ुलाम नबी का क्या हाल है? वो नहीं आया?”
मोहम्मदो के गले में आवाज़ फंसी हुई मा'लूम होती थी। ठैर ठैर कर बोला जैसे बोलना न चाहता हो
“माँ जी ग़ुलाम नबी तो चल बसा। उसे दिक़ हो गई थी।” और बस चुप हो गया।
बेटा तुम लोग नहीं समझ सकते कि बेटे की मौत का माँ पर क्या असर होता है... ऐसा मा'लूम होता है जैसे कलेजे का टुकड़ा किसी ने काट कर निकाल लिया हो। माँ नौ महीने बच्चे को पेट में रखती है ना। दो साल दूध पिलाती है। बच्चा उसके ख़ून, उसके गोश्त-पोस्त से बनता है और फिर वो बड़ा हो कर ग़ुलाम नबी की तरह चौड़े चकले सीने वाला नौजवान होजाता है और फिर गधे की तरह साहिब लोगों का सामान ढोते ढोते ख़ून की खाँसी खॉँसता हुआ मर जाता है। और उसके साथ माँ भी मर जाती है... और सबसे बड़ी मौत ये होती है कि वो फिर भी ज़िंदा रहती है...
मेरा तो, जो हाल हुआ सो हुआ, ज़ाफ़रानी पर भाई की मौत का कुछ अ'जीब ही असर हुआ, छोटे भाई की पढ़ाई की और भी फ़िक्र पड़ गई। हर वक़्त उसकी जान पर सवार रहती कि पढ़। तख़्ती लिख। मदरसे का काम कर। घड़ी-भर खेलने की भी छुट्टीना देती जैसे उसे कोई ख़ास जल्दी हो कि साल भर की मदरसे की पढ़ाई दो-चार दिन ही में पूरी हो जाएगी। न जाने क्यों इतनी जल्दी थी उसे। न जाने क्यों।
हाँ और मोहम्मदो के पास बैठ कर ज़ाफ़रानी ने भाई के आख़िरी दिनों का सब हाल कुरेद-कुरेद कर पूछा,
“कब और कैसे बीमार पड़ा, इ'लाज हुआ या नहीं? क्या सब सामान ढोने वाले मज़दूरों को इसी तरह दिक़ हो जाती है?”
और जब मोहम्मदो ने कहा,
“हाँ बहुत सों को”, तो न जाने क्यों ज़ाफ़रानी ने उससे पूछा,
“तो क्या तुम वापिस जाकर फिर यही काम करने लगोगे? यहाँ क्यों नहीं रह जाते...?” न जाने क्यों...
मेरे कहने से मोहम्मदो हमारे यहाँ तीन दिन और ठैरा। जिस रोज़ वो जा रहा था, मैंने इससे पूछा,
“क्यों मोहम्मदो जब ये काम इतना ख़तरनाक है तो छोड़ क्यों नहीं देता?”
वो बोला,
“छोड़कर क्या करूँगा, माँ जी? और कोई काम आता नहीं है। और फिर कोई आगे है न पीछे। न माँ न बाप...”
मैंने जल्दी से पूछा,
“और बीवी?”
उसने ठंडी साँस लेकर कहा,
“कब की मर गई।”
पता नहीं वो मेरा मतलब समझा या नहीं, पर मैंने कहा,
“दूसरी क्यों नहीं कर लेते?”
उसको तीन दिन में मैंने हँसते तो क्या मुस्कुराते भी न देखा था। पर इस बात पर उसकी आँखों में हल्की सी चमक पैदा हुई और उसके सूखे चमड़े जैसे चेहरे पर हँसी की झुर्रियाँ पड़ गईं,
“मुझसे कौन ब्याह करे है, माँ जी?”
तो बेटा यूँ ज़ाफ़रानी का ब्याह मोहम्मदो से तय पाया।
क्या कहा? ज़ाफ़रानी की राय? बेटा भला शादी-ब्याह क्या लड़कियों की सुल्ह से होते हैं। पर मैंने ज़ाफ़रानी से ज़िक्र किया कि अगले चाँद की बीसवीं को मोहम्मदो उसे ब्याहने आएगा। तो ये तो मैं नहीं कहूँगी कि वो सुनकर ख़ुश हो गई। भला शरीफ़ लड़कियाँ क्या शादी के ज़िक्र पर ख़ुश हुआ करती हैं... पर उसके चेहरे से इत्मीनान ज़रूर टपकता था। जैसे अब उसकी कोई चिंता दूर हो गई हो...
शादी की छोटी-मोटी तैयारियों में दिन गुज़र गए। हाँ बेटा, आख़िर हम ग़रीबों को भी कुछ न कुछ तो देना ही पड़ता है। चाहे एक ही जोड़ा और दो चाँदी के बाले हों। जिस दिन मोहम्मदो आने वाला था, उसी दिन मैंने सवेरे ही उसे उठाकर, नहला धुलाकर शादी का जोड़ा पहना दिया। गुलाबी रंग का पैराहन और इसके नीचे सब्ज़ फूलदार झेंट की शलवार।
हम पुराने ज़माने की कश्मीरी औरतें तो बस लंबे लंबे पैराहन ही पहना करती थीं। मगर उसी शेर-ए-कश्मीर के कहने से आजकल लड़कियों ने शलवारें भी पहननीं शुरू' कर दी हैं। यहाँ तक कि ज़ाफ़रानी तो मुझे भी मजबूर करती थी कि माँ शलवार पहनो नहीं तो शेर-ए-कश्मीर ख़फ़ा हो जाएँगे। शेर-वेर से डरे मेरी बला, पर और औरतें भी अब शलवार पहनने लगी थीं। सो मैंने सोचा मैं ही क्यों निकू बनून। सो मैंने भी सिलवा ली।
इतना ग़ुस्सा आया है मुझे इस शेर-ए-कश्मीर पर कि कम-बख़्त को अगर पकड़ा जाना था तो क्या उसे वही दिन जुड़ा था? जब मेरी बेटी का ब्याह तय पाया था, यकायक सारे गाँव में शोर मच गया, “शेर-ए-कश्मीर पकड़े गए। शेर-ए-कश्मीर पकड़े गए”, मुझे क्या पता क्यों सरकार ने उसे पकड़ा था... मेरी तरफ़ से अगर साल के बारह महीने क़ैद रखा जाता तो और भी अच्छा था। पर ये ज़रूर सुना कि अबके उसने ख़ुद राजा ही को रियासत से बाहर निकालने की बात चलाई थी। मैंने कहा अबके इस शेर ने शेर-ए-बब्बर के भट में पंजा डाला है, अब ये ज़िंदा नहीं बचेगा।
बाहर शोर की आवाज़ हुई तो मैं गली में आई, ये सोच कर कि शायद मोहम्मदो और उसके साथी बरात लाए हों, मगर वहाँ तो बच्चे धींगा-मुश्ती मचा रहे थे। दो-चार लाल झंडे जिन पर हल बुना हुआ था, लिए, “शेर-ए-कश्मीर ज़िंदाबा'द”, “डोगरा राज मुर्दाबा'द” कहते फिर रहे थे और हमारा नूरू छः ईंटों का चबूतरा बनाए सफ़ेद खरिया से दीवार पर कुछ लिख रहा था और ज़ोर ज़ोर से हिज्जे पढ़ता जाता था... “कश-मी-र-छो-ड-दो...” और ज़ाफ़रानी दरवाज़े में खड़ी ग़फ़ूरा को देख रही थी और अब उसके चेहरे पर इतनी ख़ुशी थी जैसे उसने कोई बड़ा काम पूरा कर लिया हो।
हाँ तो अभी मैं अंदर जाकर बैठी ही थी कि बाहर से रोने और चिल्लाने की आवाज़ें आईं। मैंने जो देखा तो पाँव तले की ज़मीन निकल गई। एक ख़ाकी रंग की मोटर लारी खड़ी थी और उसमें से सिपाही कूद कर, बच्चों को लाठियों से मार रहे थे, मैं दीवार की तरफ़ दौड़ी, जहाँ पल-भर हुए ग़फ़ूरा खड़ा हुआ खरिया से लिख रहा था। पर ग़फ़ूरा वहाँ नहीं था। हाँ ख़ून की एक लकीर ज़मीन पर खींची हुई थी और उस लकीर की सीध में जो मैंने देखा तो ग़फ़ूरा को ज़मीन पर बेहोश पड़ा पाया।
उसके सर में एक गहरा घाव था, जिसमें से ख़ून बह रहा था और उसके हाथ में अभी तक खरिया का टुकड़ा था... मैं अपने ग़फ़ूरा को उठाकर अंदर ले आई और वहाँ अपनी बहन की गोद में उसने जान दे दी और बेहोशी में भी आख़िर वक़्त तक उसके होंट उन्हीं हर्फ़ों को दोहराते रहे जिन्हें वो बाहर दीवार पर लिखने की कोशिश कर रहा था। कश-मी-... और अभी र नहीं कह पाया था कि गड़-गड़ाहट के साथ एक हिचकी आई और इस महीने में दूसरी बार मुझे मौत आई पर न आई...
और इसके बा'द क्या हुआ बेटा, ये मुझे ऐसा याद है, जैसे कोई डरावना ख़्वाब हो। जिसमें एक ख़ौफ़नाक बात का दूसरी ख़ौफ़नाक बात से कोई तअ'ल्लुक़ न हो, मगर फिर भी ख़ौफ़ और दहशत का पहाड़ उठता चला जाए...
ज़ाफ़रानी की आँखें जो कभी कँवल से मिलती-जुलती हुआ करती थीं उस वक़्त दो दहकते हुए अंगारों की तरह थीं... आँसुओं का नाम नहीं था नहीं तो वो आग बुझ जाती जो उस वक़्त उनमें सुलग रही थी...
और फिर सारे गाँव वालों का एक जलूस, मर्दों से आगे औरतें और औरतों में सबसे आगे ज़ाफ़रानी। वही अपनी शादी का जोड़ा पहने हुए और उसकी आँखों में वही दहकती हुई आग। और ये सारा मजमा गाहे हुए खेतों में से हो कर सड़क की तरफ़ जाता हुआ। जहाँ, बिल्कुल उसी जगह जहाँ तुम्हारी मोटर खड़ी है, सिपाहियों की ख़ाकी लारी खड़ी थी।
बड़ी बड़ी मूँछों और काली रंगत वाले सिपाही और उनकी बंदूक़ें जो टकटकी बाँधे इस जलूस की तरफ़, उन औरतों की तरफ़, ज़ाफ़रानी की तरफ़ देख रही थीं...
एक तड़ाख़ा। दस बारह तड़ाख़े, सब तितर-बितर हो कर भागे और इस खेत के बीचों-बीच अपनी छाती को सँभालती हुई ज़ाफ़रानी नर्म मिट्टी में इस तरह गिरी जैसे माँ की गोद में बच्चा आन कर गिर पड़े। मैं उधर भागी। पर जब तक मैं पहुँचूँ ज़ाफ़रानी की छाती में से ख़ून की एक धार बहती हुई खेत की सूखी मिट्टी को सैराब कर रही थी... औरत की छाती और उसमें से दूध के बजाए ख़ून... ख़ून मिट्टी में मिल रहा था...
और मेरी बेटी मेरी गोद में जान दे रही थी। पर मरते दम तक उसके होंटों पर मुस्कुराहट थी, औ ना जाने क्यों आख़री हिचकी से पहले उसने मुस्कराकर मुझसे कहा,
“मेरा ब्याह हो गया माँ।”
यहीं इसी खेत में जहाँ तुम अब गुल-ए-ला'ला की तरह सुर्ख़ ज़ाफ़रान के फूल देखते हो।
सुनी बेटा तुमने मेरी कहानी...? पर तुम कहाँ हो? चले गए न तुम...? मैं न कहती थी कि अभी तुम्हारी मोटर ठीक हो जाएगी और तुम लोग चले जाओगे और कहानी न सुन पाओगे।
मोटरें तो इस सड़क पर से गुज़रती ही रहती हैं बेटा, पल दो पल को ठैरती भी हैं। फिर धूल के बादल उड़ाती चली जाती हैं। पर ये ज़ाफ़रान की खेती यूँही खड़ी रहेगी। यहाँ तक कि फूल चुनने का वक़्त आ जाएगा। और ये लाल लाल लहू की बूँदों जैसे शगूफ़े सुखाकर दिसावर को भेज दिए जाएँगे। और न जाने इनकी ख़ुश्बू कहाँ कहाँ और किस-किसके दस्तर-ख़्वान पर से महकेगी और तुम्हारी तरह कितने ही आदमी सवाल करेंगे कि “इस ज़ाफ़रान का रंग लहू की तरह लाल क्यों है...?” पर कोई न बता पाएगा। क्योंकि उसकी वज्ह तो सिर्फ़ मैं ही जानती हूँ...
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