
अगर मैं किसी औरत के सीने का ज़िक्र करना चाहूँगा तो उसे औरत का सीना ही कहूँगा। औरत की छातियों को आप मूंगफ़ली, मेज़ या उस्तुरा नहीं कह सकते... यूँ तो बाअज़ हज़रात के नज़दीक औरत का वुजूद ही फ़ोह्श है, मगर उस का क्या ईलाज हो सकता है?

सोसाइटी के उसूलों के मुताबिक़ मर्द मर्द रहता है ख़ाह उस की किताब-ए-ज़िंदगी के हर वर्क़ पर गुनाहों की स्याही लिपि हो। मगर वो औरत जो सिर्फ एक मर्तबा जवानी के बेपनाह जज़बे के ज़ेर-ए-असर या किसी लालच में आकर या किसी मर्द की ज़बरदस्ती का शिकार हो कर एक लम्हे के लिए अपने रास्ते से हट जाये, औरत नहीं रहती। उसे हक़ारत-ओ-नफ़रत की निगाहों से देखा जाता है। सोसाइटी उस पर वो तमाम दरवाज़े बंद कर देती है जो एक स्याह पेशा मर्द के लिए खुले रहते हैं।

भूक किसी क़िस्म की भी हो, बहुत ख़तरनाक है... आज़ादी के भूकों को अगर गु़लामी की ज़ंजीरें ही पेश की जाती रहीं तो इन्क़िलाब ज़रूर बरपा होगा... रोटी के भूके अगर फ़ाक़े ही खींचते रहे तो वो तंग आकर दूसरे का निवाला ज़रूर छीनेंगे... मर्द की नज़रों को अगर औरत के दीदार का भूका रखा गया तो शायद वो अपने हम-जिंसों और हैवानों ही में उस का अक्स देखने की कोशिश करें।

मैं तहज़ीब-ओ-तमद्दुन और सोसाइटी की चोली क्या उतारुंगा जो है ही नंगी... मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इस लिए कि ये मेरा काम नहीं दर्ज़ियों का है। लोग मुझे सियाह क़लम कहते हैं, मैं तख़्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफ़ेद चाक इस्तेमाल करता हूँ कि तख़्ता-ए-सियाह की सियाही और भी ज़्यादा नुमायां हो जाए। ये मेरा ख़ास अंदाज़, मेरा ख़ास तर्ज़ है जिसे फ़ोह्श निगारी, तरक़्क़ी पसंदी और ख़ुदा मालूम क्या कुछ कहा जाता है। लानत हो सआदत हसन मंटो पर, कमबख़्त को गाली भी सलीक़े से नहीं दी जाती।

मेरा ख़्याल है कि कोई भी चीज़ फ़ोह्श नहीं, लेकिन घर की कुर्सी और हांडी भी फ़ोह्श हो सकती है अगर उनको फ़ोह्श तरीक़े पर पेश किया जाये।

मेरे नज़दीक वो बाप अपनी औलाद को जिन्सी बेदारी का मौक़ा देते हैं जो दिन को बंद कमरों में कई कई घंटे अपनी बीवी से सर दबवाने का बहाना लगा कर हमबिस्तरी करते हैं।

जब तक समाज अपने क़वानीन पर अज़ सर-ए-नौ ग़ौर ना करेगा वो ''नजासत'' दूर ना होगी जो तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के इस ज़माने में हर शहर और हर बस्ती के अंदर मौजूद है।

मेरा ख़्याल है कि कोई भी चीज़ फ़ोह्श नहीं, लेकिन घर की कुर्सी और हांडी भी फ़ोह्श हो सकती है अगर उनको फ़ोह्श तरीक़े पर पेश किया जाये... चीज़ें फ़ोह्श बनाई जाती हैं, किसी ख़ास ग़रज़ के मातहत। औरत और मर्द का रिश्ता फ़ोह्श नहीं, उस का ज़िक्र भी फ़ोह्श नहीं, लेकिन जब इस रिश्ते को चौरासी आसनों या जोड़दार खु़फ़ीया तस्वीरों में तबदील कर दिया जाये तो मैं इस फे़अ्ल को सिर्फ फ़ोह्श ही नहीं बल्कि निहायत घिनावना, मकरूह और ग़ैर सेहत-मंद कहूँगा।