ताज्जुब तो इस बात का है कि जब सदियों से हम ये सुन रहे हैं कि वेश्या का डसा हुआ पानी नहीं मांगता तो हम क्यों अपने आपको इस से डसवाते हैं और फिर क्यों ख़ुद ही रोना पीटना शुरू कर देते हैं। वेश्या इरादतन या किसी इंतिक़ामी जज़्बे के ज़ेर-ए-असर मर्दों के माल-ओ-ज़र पर हाथ नहीं डालती। वो सौदा करती है और कमाती है।
वेश्या या तवाइफ़ अपने तिजारती उसूलों के मातहत हर मर्द से जो उस के पास गाहक के तौर पर आता है, ज़्यादा से ज़्यादा नफ़ा हासिल करने की कोशिश करेगी। अगर वो मुनासिब दामों पर या हैरत-अंगेज़ क़ीमत पर अपना माल बेचती है तो ये उस का पेशा है। बनिया भी तो सौदा तौलते वक़्त डंडी मार जाता है। बाअज़ दुकानें ज़्यादा क़ीमत पर अपना माल बेचती हैं बाअज़ कम क़ीमत पर।