अब और तब
जब मर्ज़ बहुत पुराना हो जाये और सेहतयाबी की कोई उम्मीद बाक़ी न रहे तो ज़िंदगी की तमाम मसर्रतें महदूद हो कर बस यहीं तक रह जाती हैं कि चारपाई के सिरहाने मेज़ पर जो अंगूर का खोशा रखा है उसके चंद दाने खा लिये, महीने-दो महीने के बाद कोठे पर ग़ुसल कर लिया या गाहे-गाहे नाख़ुन तरशवा लिये।
मुझे कॉलेज का मर्ज़ लाहक़ हुए अब कई बरस हो चुके हैं। शबाब का रंगीन ज़माना इम्तिहानों में जवाबात लिखते लिखते गुज़र गया। और अब ज़िंदगी के जो दो-चार दिन बाक़ी हैं वो सवालात मुरत्तब करते-करते गुज़र जाऐंगे। एम.ए.का इम्तिहान गोया मर्ज़ का बोहरान था। यक़ीन था कि इसके बाद या मर्ज़ न रहेगा या हम न रहेंगे। सो मर्ज़ तो बदस्तूर बाक़ी है और हम...हर-चंद कहें कि हैं...नहीं हैं। तालिब इल्मी का ज़माना बेफ़िक्री का ज़माना था। नर्म-नर्म गदेलों पर गुज़रा ,गोया बिस्तर-ए-ऐश पर दराज़ था। अब तो साहब-ए-फ़राश हूँ। अब ऐश सिर्फ़ इस क़दर नसीब है कि अंगूर खा लिया। ग़ुसल कर लिया। नाख़ुन तरशवा लिये।
तमाम तग-ओ-दौ लाइब्रेरी के एक कमरे और स्टाफ़ के एक डरबे तक महदूद है और दोनों के ऐन दरमियान का हर मोड़ एक कमीन गाह मालूम होता है।
कभी रावी से बहुत दिलचस्पी थी। रोज़ाना अली उल-सुबह उसकी तिलावत किया करता था अब उसके एडिटर साहिब से मिलते हुए डरता हूँ कि कहीं न कहीं सलाम रू सताई खींच मारेंगे। हाल में से गुज़रना क़ियामत है। वहम का ये हाल है कि हर सतून के पीछे एक एडिटर छुपा हुआ मालूम होता है। कॉलेज के जलसों में अपनी दरीदा दहनी से बहुत हंगामा आराइयां कीं। सद्र-ए-जलसा बनने से हमेशा घबराया करता हूँ कि ये ‘दहन सग ब लुक़मा दोख़्ता बह’ वाला मुआ’मला है। अब जब कभी जलसा का सुन पाता हूँ एक ख़ुन्क सा ज़ो’फ़ बदन पर तारी होजाता है। जानता हूँ कि कुर्सी-ए-सदारत की सूली पर चढ़ना होगा और सूली भी ऐसी कि अनल-हक़ का नारा नहीं लगा सकता।
क़ाज़ी साहिब क़िबला ने अगले दिन कॉलेज में एक मुशायरा किया। मुझसे बद-गुमानी इतनी कि मुझे अपने ऐन मुक़ाबिल एक नुमायां और बुलंद मुक़ाम पर बिठा दिया और मेरी हर हरकत पर निगाह रखी। मेरे इर्द-गिर्द महफ़िल गर्म थी और मैं इसमें कंचन चंगा की तरह अपनी बुलंदी पर जमा बैठा था। जिस दिन कॉलेज में ता’तील हुआ करती मुझ पर उदासी सी छा जाती। जानता कि आज के दिन तहमद पोश, तौलिया बर्दार, साबुन नवाज़ हस्तियाँ दिन के बारह एक बजे तक नज़र आती रहेंगी। दिन-भर लोग गन्ने चूस-चूस कर जा-ब-जा फोग के ढेर लगा देंगे। जो रफ़्ता-रफ़्ता आसार-ए-सना दीद का सा मटियाला रंग इख़्तियार करलेंगे। जहां किसी को एक कुर्सी और स्टूल मयस्सर आगया वहीं खाना मंगवा लेगा और खाना खा चुकने पर कव्वों और चीलों की एक बस्ती आबाद करता जाएगा ताकि दुनिया में नाम बरक़रार रहे। अब ये हाल है कि महीनों से छुट्टी की ताक में रहता हूँ। जानता हूँ कि अगर इस छुट्टी के दिन बाल न कटवाए तो फिर बात गर्मी-ए-ता’तीलात पर जा पड़ेगी। मिर्ज़ा साहिब से अपनी किताब वापस न लाया तो वो बिला तकल्लुफ़ हज़म कर जाएंगे। मछली के शिकार को न गया तो फिर उम्र-भर ज़िंदा मछली देखनी नसीब न होगी।
अब तो दिलचस्पी के लिए सिर्फ़ ये बातें रह गई हैं कि फ़ोर्थ इयर की हाज़िरी लगाने लगता हूँ तो सोचता हूँ कि इस दरवाज़े के पास जो नौजवान स्याह टोपी पहने बैठे हैं और इस दरवाज़े के पास जो नौजवान सफ़ैद पगड़ी पहने बैठे हैं। हाज़िरी ख़त्म होने तक ये दोनों जादू की करामात से ग़ायब होजाएंगे और फिर उनमें से एक साहिब तो हाल में नमूदार होंगे और दूसरे भगत की दुकान में दूध पीते दिखाई देंगे। आजकल के ज़माने में ऐसी नज़रबंदी का खेल कम देखने में आता है। या साहब-ए-कमाल के करतब का तमाशा करता हूँ जो ऐन लेक्चर के दौरान में खांसता-खांसता यकलख़्त उठ खड़ा होता है और बीमारों की तरह दरवाज़े तक चल कर वहां से फिर ऐसा भागता है कि फिर हफ़्तों सुराग़ नहीं मिलता। या उन अह्ल-ए-फ़न की दाद देता हूँ जो रोज़ाना देर से आते हैं और ये कह कर अपनी हाज़िरी लगवा लेते हैं कि साहिब ग़रीबख़ाना बहुत दूर है। जानता हूँ कि दौलत ख़ाना हॉस्टल की पहली मंज़िल पर है लेकिन मुँह से कुछ नहीं कहता। मेरी बात पर यक़ीन उन्हें भला कैसे आएगा और कभी एक दो मिनट को फ़ुर्सत नसीब हो तो दिल बहलाने के लिए ये सवाल काफ़ी है कि हाल की घड़ी मीनार की घड़ी से तीन मिनट पीछे है। दफ़्तर की घड़ी हाल की घड़ी से सात मिनट आगे है। चपड़ासी ने सुबह दूसरी घंटी मीनार के घड़ियाल से पाँच मिनट पहले बजाई और तीसरी घंटी हाल की घड़ी से नौ मिनट पहले तो मुरक्कब सूद के क़ाएदे से हिसाब लगा कर बताओ कि किस का सर फोड़ा जाये।
वही मैंने कहा ना कि अंगूर खा लिया, ग़ुसल कर लिया, नाख़ुन तरशवा लिये।
दिल ने दुनिया नई बना डाली और... हमें आज तक ख़बर न हुई।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.