बच्चे
ये तो आप जानते हैं कि बच्चों की कई क़िस्में हैं मसलन बिल्ली के बच्चे, फ़ाख़्ता के बच्चे वग़ैरा। मगर मेरी मुराद सिर्फ़ इन्सान के बच्चों से है, जिनकी ज़ाहिरन तो कई क़िस्में हैं, कोई प्यारा बच्चा है और कोई नन्हा सा बच्चा है। कोई फूल सा बच्चा है और कोई चाँद-सा बच्चा है। लेकिन ये सब उस वक़्त तक की बातें हैं। जब तक बरखु़र्दार पँगोड़े में सोया पड़ा है। जहां बेदार होने पर बच्चे के पांचों हवास काम करने लगे, बच्चे ने उन सब ख़ताबात से बेनियाज़ हो कर एक अलार्म क्लाक की शक्ल इख़्तियार करली।
ये जो मैंने ऊपर लिखा है कि बेदार होने पर बच्चे के पांचों हवास काम करने लगते हैं ये मैंने और हुकमा-ए-के तजुर्बात की बिना पर लिखा है वर्ना हाशा व कुला मैं इस बात का क़ाइल नहीं। कहते हैं बच्चा सुनता भी है और देखता भी है लेकिन मुझे आज तक सिवाए उसकी क़ुव्वत-ए-नातिक़ा के और किसी क़ुव्वत का सबूत नहीं मिला। कई दफ़ा ऐसा इत्तिफ़ाक़ हुआ है कि रोता हुआ बच्चा मेरे हवाले कर दिया गया है कि ज़रा इसे चुप कराना, मैंने जनाब उस बच्चे के सामने गाने गाए हैं, शे’र पढ़े हैं, नाच नाचे हैं, तालियाँ बजाई हैं, घुटनों के बल चल कर घोड़े की नकलें उतारी हैं, भेड़-बकरी की सी आवाज़ें निकाली हैं, सर के बल खड़े हो कर हवा में बाईसकल चलाने के नमूने पेश किये हैं। लेकिन क्या मजाल जो उस बच्चे की यकसूई में ज़रा भी फ़र्क़ आया हो या जिस सुर पर उसने शुरू किया था इससे ज़रा भी नीचे उतरा हो और ख़ुदा जाने ऐसा बच्चा देखता है और सुनता है तो किस वक़्त?
बच्चे की ज़िंदगी का शायद ही कोई लम्हा ऐसा गुज़रता हो जब उसके लिए किसी न किसी क़िस्म का शोर ज़रूरी न हो। अक्सर औक़ात तो वो ख़ुद ही सामेआ’ नवाज़ी करते रहते हैं वर्ना ये फ़र्ज़ उनके लवाहिक़ीन पर आ’इद होता है। उनको सुलाना हो तो लोरी दीजिए। हँसाना हो तो मुहमल से फ़िक़रे बेमा’नी से बेमा’नी मुँह बना कर बुलंद से बुलंद आवाज़ में उनके सामने दुहराइये और कुछ न हो तो शुग़्ल बेकारी के तौर पर उनके हाथ में एक झुनझुना दे दीजिए। ये झुनझुना भी कमबख़्त किसी बेकार की ऐसी ईजाद है कि क्या अ’र्ज़ करूँ या’नी ज़रा सा आप हिला दीजिए लुढ़कता चला जाता है और जब तक दम में दम है उसमें से एक ऐसी बेसुरी, करख़्त आवाज़ मुतवातिर निकलती रहती है कि दुनिया में शायद उसकी मिसाल मुहाल है और जो आपने मामता या ‘बापता’ के जोश में आकर बरखु़र्दार को एक अ’दद वो रबड़ की गुड़िया मंगवा दी जिसमें एक बहुत ही तेज़ आवाज़ की सीटी लगी होती है तो बस फिर ख़ुदा-हाफ़िज़। इससे बढ़कर मेरी सेहत के लिए मुज़िर चीज़ दुनिया में और कोई नहीं। सिवाए शायद उस रबड़ के थैले के जिसके मुँह पर एक सीटीदार नाली लगी होती है और जिसमें मुँह से हवा भरी जाती है। ख़ुश-क़िस्मत हैं वो लोग जो वालदैन कहलाते हैं। बदक़िस्मत हैं तो वो बेचारे जो क़ुदरत की तरफ़ से इस ड्यूटी पर मुक़र्रर हुए हैं कि जब किसी अ’ज़ीज़ या दोस्त के बच्चे को देखें तो ऐसे मौक़े पर उनके ज़ाती जज़्बात कुछ ही क्यों न हों वो ये ज़रूर कहें कि क्या प्यारा बच्चा है।
मेरे साथ के घर एक मिर्ज़ा साहिब रहते हैं। ख़ुदा के फ़ज़ल से छः बच्चों के वालिद हैं। बड़े बच्चे की उम्र नौ साल है। बहुत शरीफ़ आदमी हैं। उनके बच्चे भी बेचारे बहुत ही बेज़बान हैं। जब उनमें से एक रोता है तो बाक़ी के सब चुपके बैठे सुनते रहते हैं। जब वो रोते-रोते थक जाता है तो उनका दूसरा बरखु़र्दार शुरू होजाता है। वो हार जाता है तो तीसरे की बारी आती है, रात की ड्यूटी वाले बच्चे अलग हैं। उनका सुर ज़रा बारीक है। आप उंगलियां चटख़वा कर, सर की खाल में तेल मिसवा कर, कानों में रुई देकर, लिहाफ़ में सर लपेट कर सोइए, एक लम्हे के अंदर आपको जगा के उठा के बिठा न दें तो मेरा ज़िम्मा।
इन ही मिर्ज़ा साहिब के घर पे जब मैं जाता हूँ तो एक एक बच्चे को बुला कर प्यार करता हूँ। अब आप ही बताइये में क्या करूँ। कई दफ़ा दिल में आया मिर्ज़ा साहिब से कहूं हज़रत आपकी इन नग़मा सराइयों ने मेरी ज़िंदगी हराम कर दी है, न दिन को काम कर सकता हूँ न रात को सो सकता हूँ। लेकिन ये मैं कहने ही को होता हूँ कि उनका एक बच्चा कमरे में आजाता है और मिर्ज़ा साहिब एक वालिदाना तबस्सुम से कहते हैं, “अख़्तर बेटा! इनको सलाम करो, सलाम करो बेटा”, उसका नाम अख़्तर है। साहिब बड़ा अच्छा बेटा है। कभी ज़िद नहीं करता, कभी नहीं रोता, कभी माँ को दिक़ नहीं करता। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि ये वही नालायक़ है जो रात को दो बजे गला फाड़ फाड़ के रोता है। मिर्ज़ा साहिब क़िबला तो शायद अपने ख़र्राटों के ज़ोर शोर में कुछ नहीं सुनते, बदबख़्ती हमारी होती है लेकिन कहता यही हूँ कि “यहां आओ बेटा,” घुटने पर बिठा कर उसका मुँह भी चूमता हूँ।
ख़ुदा जाने आजकल के बच्चे किस क़िस्म के बच्चे हैं। हमें अच्छी तरह याद है कि हम बक़रईद को थोड़ा सा रो लिया करते थे और कभी-कभार कोई मेहमान आ निकला तो नमूने के तौर पर थोड़ी सी ज़िद करली, क्योंकि ऐसे मौक़े पर ज़िद कारआमद हुआ करती थी। लेकिन ये कि चौबीस घंटे मुतवातिर रोते रहें। ऐसी मश्क़ हमने कभी बहम न पहुंचाई थी।
(इन्तिखाब:मज़ामीन-ए- पतरस मुरत्तबा वजाहत अली संदेलवी,स102)
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