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बड़ी आपा

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    वो भय्या के साथ अक्सर हमारे हाँ आया करता था। कई साल से दोनों साथ पढ़ते थे। पहले-पहल भय्या जब उसकी बातें किया करते तो मेरे दिल में गुदगुदी सी होने लगती। वो बड़े फ़ख़्र से सीना फुला कर कहते, आज रफ़ीक़ ने ये किया, वो किया, इतने नंबर लिए, फ़ुलां खेल में हिस्सा लिया। वैसे भय्या और उसकी जोड़ी भी ख़ूब थी।

    एक से क़द, एक से जिस्म और एक सी आदतें। दोनों सिनेमा के आशिक़, दोनों खेल कूद के दीवाने। जब साईकिलों पर एक दूसरे के कंधों पर हाथ रखे सड़क पर जाते तो दूर से पहचानना मुश्किल हो जाता, अलबत्ता एक फ़र्क़ नुमायां था, वो ये कि भय्या ज़रा साँवले थे और उसका रंग खुला हुआ था। इसलिए जो नीले और काले सूट उसके रंग को नुमायां कर देते थे वो भय्या को इतने अच्छे नहीं लगते थे। और हाँ, एक बात और भी थी, वो ये कि उसकी नाक पर हर वक़्त काले शीशों की एक ऐनक रखी रहती थी। भय्या के बताने पर मालूम हुआ कि जनाब सिनेमा बहुत देखते हैं, जिससे आँखें कभी कभी सुर्ख़ हो जाती हैं। इसलिए ये ऐनक लगा रखी है।

    मैं उसे छुप-छुप कर शीशों में से और किवाड़ों की आड़ से देखा करती। दराज़ क़द, छरेरा और वरज़िशी जिस्म, बिखरे हुए बाल, चेहरे पर एक अजीब क़िस्म की मासूमियत। जब बात करता, तो बच्चों का सा भोलापन चेहरे पर आजाता। कुछ ऐसा हसीन भी था। ही ख़त-ओ-ख़ाल ऐसे दिलकश थे। वो तक़रीबन हर-रोज़ हमारे हाँ आया करता। बा’ज़-औक़ात भय्या पहले चले आते और शाम को उसका इंतज़ार किया करते। जिस रोज़ वो आता, बेचैन हो जाते। बार-बार दरवाज़े तक जाते और घड़ी देखते। कभी मुझसे वक़्त पूछते और जैसे ही उस के साईकिल की घंटी की आवाज़ कानों में आती, उनका चेहरा दमक उठता। फ़ौरन दौड़ कर दूसरे कमरे में छुप जाते। वो भागा भागा आता, नौकर आगे बढ़कर कह देता, “वो तो बाहर चले गए।” ये मज़ाक़ हर बार किया जाता, मगर वो हमेशा उसे सच समझ लेता और वापस मुड़ने लगता। भय्या दौड़ कर उससे चिमट जाते और फिर जो बातें शुरू होतीं तो बस ख़ुदा की पनाह, रात के बारह बारह बजे तक दोनों बैठे रहते। वो रेडियो वाले कमरे ही में बैठते और रेडियो को हमेशा बंद कर देते कि बातों में मुख़िल होता है। मेरा जी बड़ा जलता, अगर ये दास्तान-ए-अमीर हमज़ा छेड़नी है तो इस कमरे में क्यों बैठते हैं और फिर रेडियो बंद क्यूँ कर देते हैं। जानते हैं ना कि में इस बात से चिड़ती हूँ।

    कई मर्तबा ऐसा हुआ कि मैं किवाड़ों से लगी उनकी बातें सन रही हूँ। यकायक किसी के आने की आहट सुनाई दी, मेरा दिल धक धक करने लगा। पसीना पसीना हो गई। अगर अम्मी देख लें तो क्या कहें। वहां से ऐसी भागती कि अपने कमरे में आकर दम लेती। तौबा तौबा एक लड़की के लिए इससे ज़्यादा और क्या बेशर्मी हो सकती है? मैं क़सम खाती कि फिर उसे कभी नहीं देखूँगी। भला उसमें क्या ख़ास बात थी आख़िर? यूंही मामूली लड़कों जैसा था। भय्या को अच्छा लगता था तो उसके मअनी ये तो नहीं कि मुझे भी अच्छा लगे। और फिर हर बार मैं ही देखती थी, उसने किस रोज़ कोशिश की कि मुझे देखे।

    माशा अल्लाह भय्या में वैसे तो सारी खूबियां थीं, मगर एक ज़रा ज़्यादा नुमायां थी। वो ये कि सिगरेट इतनी बुरी तरह पीते थे कि कोई हद थी हिसाब। अम्मी ने बहतेरा सर खपाया, अब्बा ने बहतेरा समझाया। वो भी तंबाकू के नुक़्सानात पर लेक्चर देता रहा, मगर शाबाश है भय्या को, ऐसे चिकने घड़े निकले कि कुछ भी असर हुआ। अम्मी से मुँह बनाकर कहते, “भला कब पीता हूँ सिगरेट, कभी आपने देखा भी है मुझे पीते हुए?” और वो वाक़ई घर में पीते भी नहीं थे। मैं और नन्हा हम दोनों उनके पीछे जासूस लगे हुए थे।

    एक शाम को मैं कॉलेज से घर ज़रा देर से पहुंची। आहिस्ता से पर्दा हटाकर दबे-पाँव अंदर दाख़िल हुई। मेरी आँखें मारे ख़ुशी के चमक उठीं। भय्या रेडियो के सामने आराम कुर्सी पर मेरी तरफ़ पीठ किए बैठे थे। सिगरेट का धुआँ एक अजीब शान से निकल रहा था। वैसे तो अपनी तरफ़ से पूरी मोर्चा बंदी की हुई थी। कुर्सी में धंसे हुए बैठे थे और बैठे भी क्या थे बस लेटे हुए थे। सर पर आड़ा हैट रखा हुआ था ताकि दूर से सर अच्छी तरह नज़र आसके और देखने वाला यही समझे कि आराम कुर्सी की पुश्त पर एक हैट रखा है। मैंने आहिस्ता से किताबें मेज़ पर रखीं और क़ालीन पर दबे-पाँव आगे बढ़ी। एक हाथ से हैट एक तरफ़ फेंका और दूसरे से सिगरेट छीन ली। भय्या हड़बड़ाकर उठे, तौबा... जो नज़ारा मैंने देखा बस धक से रह गई। ये भय्या नहीं थे कोई और था, ये रफ़ीक़ था। जो ओढ़नी छोड़कर भागी हूँ तो तन-बदन का होश रहा। सामने से अम्मी आरही थीं, दरवाज़े मैं उनसे ज़ोर की टक्कर हुई, “या वहशत, आख़िर ये बचपना जाएगा कब?” उन्होंने डाँट कर कहा।

    मैंने अपने कमरे में पहुंच कर दम लिया। अम्मी के लेक्चर की आवाज़ बराबर कानों में आरही थी। रात को देर तक नींद आई। वो अपने दिल में क्या कहता होगा कि या तो कभी सामने नहीं आती थी और या यकलख़्त इस क़दर बे-तकल्लुफ़ी? अगर वो भय्या से कह दे कि “जनाब, मेरा आपके घर सिगरेट पीना आपकी हमशीरा साहिबा पर नागवार गुज़रता है।” तो भय्या क्या कहेंगे कि कितनी बदतमीज़ है।

    मगर फिर एक अजीब से ख़्याल ने दिल पर सुरूर तारी कर दिया। कुछ भी हो, आख़िर उसने भी तो मुझे देख लिया था ना... मगर किस हुलिए में? मैंने अपने कपड़ों पर नज़र डाली, चॉकलेट रंग की शलवार, वैसी ही क़मीज़ और वैसा ही दुपट्टा (जो मैं वहीं छोड़ आई थी।) गोया मुजस्सम चॉकलेट। मैंने अपने आपको कोस डाला। मेरे पास बेहतरीन जोड़े मौजूद थे। अच्छी से अच्छी साड़ियां थीं। काश मैंने उस रोज़ चमकदार बॉर्डर वाली सब्ज़ साड़ी पहनी होती। मेरे बाल बिखरे हुए थे। चेहरा सारे दिन की पढ़ाई के बाद कुछ कुमलाया हुआ सा था, मगर शायद बिजली की रोशनी में क़दरे गुलाबी झलक आगई हो।

    कोई हफ़्ता बाद भय्या बीमार हो गए। अच्छे भले कॉलेज से आए, शाम को मालूम क्या हो गया। रात होते होते पलंग पर दराज़ हो गए। अब्बा जान दौरे पर गए हुए थे। अम्मी नौकरानी और नन्हे समेत दूसरे मुहल्ले में किसी से मिलने गई हुई थीं। मैं अकेली घबरा गई, फ़ौरन नौकर को भेजा कि रफ़ीक़ को बुला लाए। इसके सिवा और मैं कर ही क्या सकती थी? नौकर चला तो गया मगर मेरे दिल में एक ख़्याल आता था, दूसरा जाता था। बार-बार ये सोचती कि उससे बात कैसे कर सकूंगी? साईकिल की घंटी बजी, पर्दा उठाकर वो अंदर दाख़िल हुआ। मुझे देखकर पहले तो कुछ ठिटका। फिर भय्या की तरफ़ देखकर लपक कर अंदर गया।

    “ये कब से बेहोश हैं?” उसने मेरी तरफ़ देखे बग़ैर पूछा। मैंने कुछ जवाब दिया। बहुत से और सवालों का भी उल्टा सीधा जवाब दिया। ये थी मेरी और उसकी पहली बातचीत। वो बच्चों की तरह शर्मा रहा था। सर झुकाए और बग़ैर मेरी जानिब देखे कोई सवाल पूछता और मैं रुक रुक कर जवाब देती। अलफ़ाज़ मेरे हलक़ में अटक रहे थे। पाँच छः दिन में भय्या अच्छे हो गए। उसकी अनथक तीमारदारी का नतीजा ये निकला कि वो हम लोगों में काफ़ी घुल मिल गया। उधर नन्हा था कि हर वक़्त भय्या रफ़ू, भय्या रफ़ू की रट लगाए रखता। कितनी बार समझाया कि बेवक़ूफ़ कहीं के, अव्वल तो बड़ों का नाम नहीं लिया करते और फिर अगर लें भी, तो ये क्या सितम है कि इस बुरी तरह से। हर-रोज़ नन्हे की जेब में चॉकलेट होते। कोई दिन ऐसा गुज़रता कि जब नन्हा उसके साथ सैर करने गया हो, और चॉकलेट की जुगाली करता हुआ आया हो। एक रोज़ मैंने तंग आकर कह दिया, “आप नन्हे की आदत बिगाड़ रहे हैं। ये क्या कि हर-रोज़ सैर को भी ले जाएं और चॉकलेट भी लेकर दें। ख़्वाह-मख़ाह का बार है आप पर।”

    “तो आप नन्हे को मेरे साथ जाने ही क्यों देती हैं? शौक़ से रोकिए। ये तो मानी हुई बात है कि जो कोई भी मेरे साथ रहेगा, उसकी आदतें बिगड़ जाएँगी।” वो हंस पड़ा

    एक रोज़ में कॉलेज जाने की तैयारी कर रही थी कि बाहर से आवाज़ आई, “तार ले लीजिए।” भय्या दौड़े गए और चिल्ला कर बोले, “बड़ी आपा आरही हैं।”

    “बड़ी आपा आरही हैं सचमुच?” मैंने ख़ुश हो कर पूछा। भय्या तार लेकर अम्मी को ख़बर देने चले गए। वो साल भर के बाद आरही थीं। इम्तिहान पास कर चुकी थीं। फिर वही शेख़ियाँ बघारेंगी, “में तो रात-भर सोती नहीं थी। पढ़ते पढ़ते गर्दन अकड़ जाती थी। जब इम्तिहान दिया तो बुख़ार चढ़ा हुआ था।” मगर मैं भी ख़ूब झुटलाऊँगी इस दफ़ा, इस एक साल में मैं भी ख़ासी समझदार हो गई थी। शाम को आपा आगईं। हम ख़ूब लिपट लिपट कर मिले। फिर जो बातें शुरू हुईं तो रात के दो बज गए। यकायक आपा ने एक अजीब सा सवाल किया,

    “जो तस्वीर भय्या ने मुझे भेजी थी, उसमें एक अजनबी लड़का भी था, कौन है भला वो?”

    “कोई दोस्त है उनका मैंने।” बेपर्वाई से कहा

    “वो तो मुझे भी पता है, नाम क्यों नहीं बताती उसका।”

    “रफ़ीक़ है उसका नाम।”

    “नाम तो बड़ा अच्छा है और वैसे ख़ुद भी अच्छा है, है ना?”

    “मुझे क्या मालूम, होगा?” मैंने मुँह बना कर कहा। मुझे आपा की ये तारीफ़ बड़ी नागवार लगी। मैंने दूसरी तरफ़ करवट बदल ली।

    “क्यों नींद आगई क्या?” वो बोलीं।

    “हाँ।”

    दूसरे रोज़ आपा ने उसे देखा, बातें कीं। कमरे में मैं और भय्या भी बैठे थे, मगर क्या मजाल जो आपा ने किसी और से एक बात भी की हो। रफ़ीक़ के पीछे इस तरह पड़ीं कि उस ग़रीब का नाक में दम आगया। आपा के चेहरे पर मुस्कुराहट थी, और रफ़ीक़ का चेहरा उतरा हुआ था। सोफ़े में घुसा जा रहा था। बार-बार गुफ़्तगु का रुख़ पलटता था कि छुटकारा मिले। उधर में बेचैन हो रही थी। आख़िर आपा का मतलब क्या है, इस क़िस्म के सवालों से, “भय्या से कब वाक़फ़ियत हुई थी? घर में आना जाना कब से हुआ? ये लड़की (मेरी तरफ़ इशारा करके) तुम्हें सताती तो? अच्छी लड़की है ना, तुम बड़े शर्मीले हो, क्यों हो इतने शर्मीले? रोज़ आया करते होना?” आपा को क्या हो गया था?

    उसके बाद आपा का ज़्यादा वक़्त आईने के सामने गुज़रने लगा। सुबह ही से शाम के लिए कपड़े चुन लिए जाते। शाम को सैर से दो अढ़ाई घंटे पहले मेक अप शुरू होजाता। रफ़ीक़ भी पहले से ज़्यादा बन-सँवर कर आने लगा। बिखरे हुए बाल सँवरने लगे। टाई भी कोट के रंग के मुताबिक़ हुआ करती, या शायद ये तब्दीली मुझे ही महसूस होती हो, क्योंकि आपा इन दिनों मुझे ज़हर दिखाई देती थीं। बात बात पर रफ़ीक़, हर वक़्त उसी का नाम। जब वो जाता तो गोया आपा की जान में जान आजाती। ऐसी गरवीदा होतीं कि किसी तीसरे का ख़्याल रहता। रफ़ीक़ बहुत शरमाता। बातें करते करते मेरी तरफ़ दुज़दीदा निगाहों से देखता। गोया शिकायत करता कि देख लो।

    आपा से मैं बेहद मुहब्बत करती थी। हम बहन-भाईयों में वो सबसे बड़ी थीं। मुझमें और उनमें कोई छः साल का फ़र्क़ होगा। वैसे भी वो मुझे बहुत अच्छी लगती थीं। मगर जब वो रफ़ीक़ का ज़िक्र करतीं, या उससे बातें करतीं तो मैं दीवानी सी होजाती। बहतेरा दिल को समझाती कि ये उसे कहीं लेकर भागने से तो रहीं। कुछ दिनों के लिए आई हैं फिर चली जाएँगी। और फिर रफ़ीक़ कौन सा मेरा हो गया था। फ़क़त यही था कि मुझे उससे दिलचस्पी थी और जैसा कि उसकी बातें ज़ाहिर करती थीं, उसे भी मुझसे कुछ कुछ उन्स ज़रूर था। तो कभी उसने इज़हार किया और मैंने। बस इतनी सी बात पर हर वक़्त का चिड़ना और इस क़दर हसद सारा क़सूर आपा का थोड़ा ही था। वो भी कहाँ का भोला था। आख़िर हर-रोज़ यूं बन-ठन कर क्यों आता था?

    एक रोज़ आपा ने उसकी टाई पकड़ कर खींच ली और मुस्कुरा कर बोलीं, ''शरीर कहीं के, हर-रोज़ गुलाबी टाई लगा कर आते हो। जानते हो ना कि मेरे पास गुलाबी रंग की ऐसे फूलों वाली कोई साड़ी नहीं है।” मैं जल ही तो गई। गोया इसका मतलब ये है कि जैसी साड़ी आपा की हो वैसी ही टाई रफ़ीक़ की होनी चाहिए, सुब्हान-अल्लाह क्या निराली मंतिक़ है और रफ़ीक़ भी बस मोम की नाक था। अगले रोज़ से उसने वो टाई लगानी छोड़ दी। ये मर्द ऐवरेस्ट पर चढ़ जाएं, समुंदर की तह तक पहुंच जाएं, ख़्वाह कैसा ही नामुमकिन काम क्यों करलें, मगर औरत को कभी नहीं समझ सकते। बा’ज़-औक़ात ऐसी अहमक़ाना हरकत कर बैठते हैं कि अच्छी भली मुहब्बत नफ़रत में तब्दील होजाती है, और फिर औरत का दिल... एक ठेस लगी और बस गया। जानते हैं कि हसद और रश्क तो औरत की सरिश्त में है। अपनी तरफ़ से बड़े चालाक बनते हैं मगर मर्द के दिल को औरत एक ही नज़र में भाँप जाती है। और फिर रफ़ीक़ जैसा पगला तो कोई भी होगा। मैंने हज़ार बार इशारतन ज़िक्र किया। कई मर्तबा तो साफ़ साफ़ कह दिया कि मुझे ये चोंचले नहीं भाते, मगर के कान पर जूं तक रेंगी।

    एक बहुत अच्छी फ़िल्म रही थी। भय्या ने प्रोग्राम बनाया कि शाम को फ़िल्म देखी जाये। रफ़ीक़ को भी बुलाया। दोपहर का वक़्त होगा कि आपा मेरे कमरे में दौड़ी दौड़ी आईं, ''तेरे पास कोई काली साड़ी है?” उन्होंने पूछा

    “इस रंग की क्या?” मैंने वार्डरोब में रखी हुई एक गहरे चॉकलेट रंग की साड़ी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।

    “नहीं नहीं ऐसी नहीं, बिल्कुल स्याह जैसे मेरे बाल हैं। जैसा डिनर-सूट होता है।” डिनर-सूट का ज़िक्र। मैं इस निराली तशबीह पर हैरान रह गई। आख़िर थोड़ी देर की उलट-पलट के बाद एक सिल्क की स्याह साड़ी निकाल दी।

    “और ब्लाउज़?”

    “वो भी सियाह रंग का?” मैंने पूछा

    “हाँ बिल्कुल सियाह रंग का।”

    मैंने ब्लाउज़ भी निकाल दिया। उनकी बाछें खिल गईं।

    “बस ठीक है, स्याह जूते तो मेरे पास हैं। वो भाग कर कमरे से निकल गईं। शाम हुई, मैंने एक सादा सी सफ़ेद साड़ी पहन ली। आपा अपने कमरे से निकलीं। सर से लेकर पांव तक स्याह लिबास में मलबूस, सफ़ेद चेहरा काले लिबास में चांद की तरह चमक रहा था।

    “आहा, आपा आज कितनी प्यारी मालूम हो रही हैं, चशम-ए-बद्दूर।”

    “चल झूटी कहीं की। देख तो सही इधर भला।” वो मुझे पकड़ कर आईने के सामने ले गईं, ''ले देख तू इस सादी साड़ी में भी मुझसे हज़ार दर्जे अच्छी है।” वो बोलीं।

    “ख़ाक अच्छी हूँ, आप तो मुझे बना रही हैं बस, भला कहाँ मैं और कहाँ आप?”

    साथ के कमरे से भय्या के बड़बड़ाने की आवाज़ आई, “मैं तो आजिज़ आगया इससे, ये रफ़ीक़ भी अजीब लड़का है। देखो तो सही अब तक नहीं पहुंचा।”

    “क्या अब तक नहीं आया वो बावला?” आपा ने प्यार भरे लहजे में पूछा। ये अलफ़ाज़ कुछ चुभते हुए से महसूस हुए। आख़िर आपा उसे बावला कहने वाली कौन होती हैं?

    “मैंने आज तक ऐसा लड़का नहीं देखा।” आपा बोलीं।

    “अब कब तक इंतज़ार करेंगे। चलिए आपा, वो ख़ुद ही सिनेमा पहुंच जाएगा।” भय्या ने कहा। हमने घड़ी देखी। वक़्त बहुत थोड़ा रह गया था। अगरचे आपा मुसिर थीं कि रफ़ीक़ का इंतज़ार किया जाये मगर भय्या माने। हम सब कार में जा बैठे। भय्या ने मुझे आगे बिठा लिया और नन्हा और आपा पीछे बैठ गए। थोड़ी ही दूर गए होंगे कि यकायक भय्या ने ज़ोर से आवाज़ दी, “रफ़ीक़ उधर आओ, ज़रा जल्दी करो।”

    “नन्हे तू आगे बैठ जा।” आपा ने कहा, “इधर जाओ रफ़ीक़।”

    मैंने पीछे मुड़ कर देखा। रफ़ीक़ स्याह सूट पहने हुए था। बिल्कुल स्याह रंग का कोट, वैसे ही बो, वैसा ही जूता। भय्या ने नन्हे को आगे बिठा लिया और वो पीछे जा बैठा। मुझे आग लग गई। अब मैं समझी कि आपा ने स्याह साड़ी क्यों पहनी थी और रफ़ीक़... कितना मक्कार निकला। आज तक हमारे हाँ कभी स्याह सूट पहन कर नहीं आया। ज़रूर आपा ने फ़र्माइश की होगी। मैंने दुबारा रफ़ीक़ की तरफ़ देखा। स्याह सूट में वो आँखों में खुबा जा रहा था। सिनेमा पहुंचे। आपा ने सिरे की सीट पर रफ़ीक़ को बिठाया और ख़ुद साथ बैठ गईं। उनके बराबर नन्हा बैठ गया। अब मेरी बारी थी। मैंने एक सीट छोड़ी दी, भय्या के लिए।

    “आप… इतनी दूर?” रफ़ीक़ बोला। मैंने कोई जवाब दिया। मुझे पता नहीं कि क्या फ़िल्म थी, भय्या क्या कह रहे थे और आपा क्या कह रही थीं। कुछ अजीब मद्धम सी आवाज़ें मेरे कानों में आरही थीं। सर चकरा रहा था। आँखों के सामने स्याही और सफ़ेदी के चंद बे ढंगे से धब्बे नाच रहे थे। मैं फुंक रही थी। फ़क़त मेरे आँसू नहीं निकले, बाक़ी मेरे रोने में कोई कसर नहीं रही। आपा और रफ़ीक़ हंस हंसकर मुझे मारे डालते थे। फ़िल्म ख़त्म हो गई और मुझे पता भी चला। भय्या ने मेरा बाज़ू पकड़ कर हिलाया, ''चलो अरे ये क्या ऊँघ रही हो तुम?” मैं उठ खड़ी हुई। भय्या और आपा पीछे पीछे आरहे थे, मैं अगली सीट पर बैठ गई।

    “अब तो मैं कार चलाऊंगा।” रफ़ीक़ ने मेरे बराबर बैठते हुए कहा।

    “आप पीछे बैठिए।” मैंने एक तरफ़ हटते हुए कहा।

    “क्यों?” वो हैरान रह गया।

    “बस यूंही आप वहां बैठे हुए अच्छे लगते हैं।”

    “क्या मतलब है आपका।” वो भौंचक्का सारा गया।

    “आप वहां बैठिए, आपा के साथ।” मैंने मुँह फेर लिया। वो और आपा पीछे बैठ गए। रास्ते में वो फ़िल्म पर तन्क़ीद करते रहे, मगर मैं चुप थी। शायद अगर बोलने की कोशिश करती तो भी बोल सकती। मैं सारी रात रोती रही। कितने मक्कार होते हैं ये मर्द, उनके नज़दीक एक दिल की कोई क़ीमत ही नहीं होती... रो-रो कर मैंने अपना तकिया भिगो दिया। आख़िर सुबह हो गई और मेरी ज़िंदगी का सबसे मनहूस दिन तुलूअ हुआ जिस रोज़ मैंने अपना सब कुछ गंवा दिया। भय्या कॉलेज में थे। आपा किसी सहेली के हाँ चली गईं। अम्मी ऊपर थीं और नन्हा मेरे पास था। दरवाज़ा खुला और रफ़ीक़ अंदर दाख़िल हुआ। उसका चेहरा इतना संजीदा था कि किसी हद तक डरावना मालूम हो रहा था। वो कुछ ठिटका, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह वो भय्या की अलालत वाली रात को शर्मा सा गया था।

    “ज़रा इधर आइए, मुझे आपसे कुछ कहना है।”

    “क्या है?”

    “मुझे आपसे कुछ कहना है।”

    “आपको जो कुछ कहना है, यहीं कह दीजिए।” मैंने ग़ुस्से से कहा।

    “तो आप नहीं सुनेंगी?” उसने पूछा।

    “कह जो रही हूँ कि आपको जो कुछ कहना है यहीं कह दीजिए।”

    “अच्छा... आपको मेरी बातें नागवार लगती हैं।”

    “नागवार लगती हैं, नागवार लगती हैं।” मैंने झल्लाकर कहा, “भला मुझे किसी की बातें क्यों नागवार मालूम हों, कोई कुछ कहे, मुझे क्या?”

    वो कुछ देर ख़ामोश रहा। गोया सोचता था कि अब क्या कहूं

    “मैं आपको हमेशा ग़लत समझता रहा।”

    “मगर मैंने तो कभी ऐसा इशारा नहीं किया जिससे आपको ग़लतफ़हमी होती।”

    “वाक़ई आपने कोई इशारा नहीं किया, मगर ये मेरी हिमाक़त थी जो मैंने यूं समझा और अब तक समझता रहा। मैं अब आपको कभी तकलीफ़ दूँगा।”

    “आपकी मर्ज़ी... मैंने कब आपसे इल्तिजा की थी?”

    उसने अजीब निगाहों से मेरी तरफ़ देखा। गोया कह रहा हो कि मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद हरगिज़ थी। उसके चेहरे पर कर्ब था, बेचैनी थी।

    “बहुत अच्छा... आपने वक़्त से पहले बता दिया कि आपकी नज़रों में मेरी क्या वक़त है। काश मुझे पहले ही मालूम होजाता। अब जब सब कुछ ज़ाहिर हो गया है एक बात और बता दूं, वो ये कि इससे पहले भी इसी क़िस्म के हालात में मुझे ठुकराया जा चुका है। मुझे ठुकराने वाली आप कोई पहली हस्ती नहीं हैं... ख़ुदाहाफ़िज़।”

    उसने अपने सर को जुंबिश दी। उसके लबों पर एक भयानक सी मुस्कुराहट खेल रही थी। मैंने ख़ुदा हाफ़िज़ नहीं कहा। वो चल दिया, सर झुकाए हुए। उसने पर्दा उठाया और बग़ैर मेरी तरफ़ देखे कमरे से बाहर निकल गया। पर्दा हिल रहाथा। मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे मेरी क़िस्मत पर हमेशा के लिए पर्दा पड़ गया हो। जी में आया कि उसे आवाज़ देकर बुला लूं, मगर मेरी ज़बान हिल सकी। हलक़ ख़ुश्वक हो गया। मैं कोच पर गिर पड़ी। जी चाहता था कि ख़ूब फूट फूटकर रोऊँ, चिल्लाऊँ, मगर बावजूद इंतहाई कोशिश के एक आँसू भी निकल सका। मैंने उसे हमेशा के लिए खो दिया था।

    उसके बाद क्या हुआ? आपा दूसरे हफ़्ते वापस चली गईं। इतने दिन हो गए इस वाक़े को, मगर फिर कभी रफ़ीक़ हमारे हाँ नहीं आया। ख़ुदा जाने भय्या से क्या बहाना किया होगा। फिर एक दिन सुना कि वो कहीं चला गया। उसका कोई ख़त आया कोई ख़बर। मेरे दिल में एक पछतावा रह गया और सारी उम्र रहेगा। काश कि मैं उसकी बात सुन लेती जिसे सुनाने के लिए वो इतना बेताब था। ख़ुदा जाने वो उस रोज़ मुहब्बत का पैग़ाम लेकर आया था या मेरी ग़लत-फ़हमी दूर करना चाहता था। फिर साल के अंदर अंदर ही आपा की हमारे एक रिश्तेदार से शादी हो गई। मैं सोचा करती हूँ कि मेरे इस अलमिए का बाइस मेरी कमज़ोरी थी या बड़ी आपा? इस मुअम्मे को आज तक हल कर सकी, मगर उसका वो फ़िक़रा कि “मुझे ठुकराने वाली आप पहली हस्ती नहीं हैं।” मुझे मरते दम तक याद रहेगा।

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