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फ़ैज़ और मैं

इब्न-ए-इंशा

फ़ैज़ और मैं

इब्न-ए-इंशा

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    बड़े लोगों के दोस्तों और हम जलीसों में दो तरह के लोग होते हैं। एक वो जो इस दोस्ती और हम जलीसी का इश्तिहार देकर ख़ुद भी नामवरी हासिल करने की कोशिश करते हैं। दूसरे वो इ’ज्ज़-ओ-फ़रोतनी के पुतले जो शोहरत से भागते हैं। कम अज़ कम अपने ममदूह की ज़िन्दगी में। हाँ उसके बा’द रिसालों के एडिटरों के पुर-ज़ोर इस्‍रार पर उन्हें अपने तअ’ल्लुक़ात को अलम नशरह करना पड़े तो दूसरी बात है।

    डाक्टर लकीरुद्दीन फ़क़ीर को लीजिए। जैसे और प्रोफ़ेसर होते हैं वैसे ही ये थे। लोग फ़क़त इतना जानते थे कि अल्लामा इक़बाल के हाँ उठते बैठते थे। सो ये भी ख़ुसूसियत की कोई बात नहीं। ये इन्किशाफ़ अल्लामा के इन्तिक़ाल के बा’द हुआ कि जब कोई फ़लसफ़े का दकी़क़ मसअला उनकी समझ में आता तो उन्हीं से रुजू करते थे। डाक्टर लकीरूद्दीन फ़क़ीर ने एक वाक़िआ’ लिखा है कि एक रोज़ आधी रात को मैं चौंक कर उठा और खिड़की में से झाँका तो क्या देखता हूँ कि अल्लामा मरहूम का ख़ादिम-ए-ख़ास अ’ली बख़्श है। मैंने पूछा, “ख़ै​िरयत?” जवाब मिला, “अल्लामा साहिब ने याद फ़रमाया है।” मैंने कहा, “इस वक़्त?” बोला, “जी हाँ, इस वक़्त और ताकीद की है कि डाक्टर साहिब को लेकर आना।”

    मैं हाज़िर हुआ तो अपने लिहाफ़ में जगह दी और फ़रमाया, “आज एक साहिब ने गुफ़्तुगू में राज़ी का ज़िक्‍र किया। तुम जानते हो मैं तो शाइ’र आदमी हूँ। आख़िर क्या-क्या पढ़ूँ? इस वक़्त ये पूछने को तकलीफ़ दी है कि ये राज़ी कौन साहिब थे और उनका फ़लसफ़ा क्या था।” मैं दिल ही दिल में हँसा कि देखो अल्लाह वाले लोग ऐसे होते हैं। बहरहाल तामील-ए-इरशाद में मैंने इमाम फ़ख़्‍र उद्दीन राज़ी और उनके मकतब फ़िक्‍र का सैर-ए-हासिल अहाता किया और इजाज़त चाही। अल्लामा साहिब दरवाज़े तक आए, आबदीदा हो कर रुख़सत किया और कहा, “तुमने मेरी मुश्किल आसान कर दी। अब शहर में और कौन रह गया है जिससे कुछ पूछ सकूँ।”

    अगली इतवार को ‘ज़मींदार’ का पर्चा खोला तो सफ़ह-ए-अव्वल पर अल्लामा मौसूफ़ की नज़्म थी जिसमें वो मिसरा है,

    ग़रीब अगरचे हैं राज़ी के नुक्ता हाए दक़ीक़

    हरचंद मैंने वाज़ेह कर दिया था कि राज़ी का फ़लसफ़ा ख़ासा पेश पा उफ़्तादा है। दक़ीक़ हर्गिज़ नहीं। लेकिन मालूम होता है अल्लामा मरहूम को ऐसा ही लगा।

    मदरसा इलमिया शर्तिया मोची दरवाज़े के प्रिंसिपल मिर्ज़ा अल्लाह दत्ता ख़याल ने जो छः माह में मैट्रिक और दो साल में बी.ए पास कराने की गारंटी लेते हैं, माहनामा “तस्वीर-ए-बुताँ” में पहली बार इस बात का ए​’ितराफ़ किया कि अल्लामा मरहूम को मसनवी मौलाना रुम के बा’ज़ मुक़ामात में उलझन होती तो मुझे याद फ़रमाते थे। एक-बार मैंने अर्ज़ किया कि आप मुंशी फ़ाज़िल क्यों नहीं करलेते। तमाम उलूम आपके लिए पानी हो जाएँगे। बोले, “इस उ’म्‍र में इतनी मेहनत-ए-शाक़ा नहीं कर सकता।” बा’द में, मैंने सोचा कि वाक़ई शोअरा तलामिज़ुर्रहमान होते हैं। उनको इ’ल्म और रिसर्च के झमेलों में नहीं पड़ना चाहिए। ये तो हम जैसे सरफिरों का काम है। अल्लामा के एक जिगरी दोस्त रंजूर फ़िरोज़पुरी को भी लोग गोशा-ए-गुमनामी से निकाल लाए। एक बसीरत-अफ़रोज़ मज़्मून में आपने लिखा, “ख़ाकसार ने अपने लिए शाइ’री को कभी ज़रिया-ए-इ’ज़्ज़त नहीं जाना। बुज़ुर्ग हमेशा नीचा बन्दी करते आए थे। उसमें ख़ुदा ने मुझे बरकत दी। जो टूटा फूटा कलाम ब-सबील-ए-इर्तिजाल कहता था, अल्लामा साहिब की नज़्र कर देता था। अब भी देखता हूँ कि अरमुग़ान-ए-हिजाज़ वग़ैरा किताबों में सैकड़ों ही मिसरे जो इस हेच मदाँ कज-मज ज़बाँ ने अल्लामा के गोश-गुज़ार किए थे, नगीनों की तरह चमक रहे हैं।

    हकीम इज़्राईली मुसन्निफ़-ए-तिब्ब-ए-बुक़्राती ने नुमाइंदा ''सुब्ह-ओ-शाम’' को इंटरव्यू दिया तो बताया कि एक ज़माने में हकीम-उल-उम्मत को भी तिब्ब का शौक़ हुआ। बन्दा नुस्ख़ा लिखता और अल्लामा मरहूम पु​िड़याँ बनाते और जोशांदे कूटते छानते। इस दौरन अगर फ़िक्‍र-ए-सुख़न में मुस्तग़रक़ हो जाते तो कभी-कभी हावन दस्ते में अपने अँगूठा फोड़ बैठते। दूसरे रोज़ अ’कीदत-मन्द पूछते कि ये क्या हुआ, तो फ़क़त मुस्कुरा कर अंगुश्त-ए-शहादत आस्मान की तरफ़ बुलन्द कर देते।

    आ’म लोगों का ये ख़याल था कि अल्लामा मरहूम आख़िरी सालों में कबूतर-बाज़ी और पहलवानी नहीं करते थे और मेंढे लड़ाने का शौक़ भी तर्क कर दिया था। सही सूरत-ए-हाल से मियाँ मेराज दीन गूजरांवालवी ने रिसाला ''ग़ज़ल-उल-ग़ज़लात'' के इक़बाल नंबर में पर्दा उठाया। फिर अल्लामा मज़कूर के अहवाल में अक्सर आया है कि फ़ुलाँ बात सुनी और आबदीदा हो गए। फ़ुलाँ ज़िक्‍र हुआ और आँसुओं का तर बंध गया। इस का भेद भी अल्लामा मरहूम के एक और क़रीबी दोस्त डाक्टर ऐन-उद-दीन माहिर-ए-अमराज़-ए-चश्म ने खोला।

    इस ज़ुमरे में डाक्टर मुहम्मद मूसा प्रिंसिपल बाँग-ए- दरा होमेयोपैथिक कॉलेज गढ़े शाहू को रखिए। जिन्होंने अल्लामा इक़बाल मरहूम की ज़िन्दगी के एक और ग़ैर मारूफ़ गोशे को बे-नक़ाब किया। अपनी किताब ''तसहील-उल-होमियोपैथी’’ के दीबाचे में रक़मतराज़ हैं, ''लोगों का ये गुमान ग़लत है कि डाक्टर इक़बाल फ़क़त नाम के डाक्टर थे। इस आजिज़ का मुता​िलआ’ इतना नहीं कि उनके शाइ’राना मुक़ाम पर गुफ़्तुगू कर सके। हाँ इतना वसूक़ से कह सकता हूँ कि मरज़ की तशख़ीस में अपने बा’द मैंने उन्हीं को देखा। बाज़-औक़ात दवाओं के ज़िम्न में भी ऐसे क़ाबिल-ए-क़दर मश्वरे देते कि ये आजिज़ अपने तबह्हुर-ए-इ’ल्मी के बावजूद हैरान रह जाता। शाइ’र तो हमारे हाँ अब भी अच्छे अच्छे पाए जाते हैं, मेरे नज़्दीक अल्लामा मरहूम की रहलत होम्योपैथी तिब के लिए एक नाक़ाबिल-ए-तलाफ़ी नुक़्सान है। मैं मरीज़ों पर तवज्जोह देता और वो एक कोने में बैठे हुक़्क़ा पीते रहते। ताहम इस आजिज़ के मतब की कामयाबी में जो मायूस मरीज़ों की आख़िरी उम्मीदगाह है और जहाँ ख़ालिस जर्मन अदवियात ब-किफ़ायत फ़राहम की जाती हैं, उनके नाम-नामी का बड़ा दख़्ल था। जानने वाले जानते हैं कि आपने अपनी एक मश्हूर तसनीफ़ का नाम भी आजिज़ के मतब के नाम पर रखा।

    फ़ैज़ साहिब के मुतअ’ल्लिक़ कुछ लिखते हुए मुझे ताम्मुल होता है। दुनिया हासिदान-ए-बद से ख़ाली नहीं। अगर किसी ने कह दिया कि हमने तो इस शख़्स को कभी फ़ैज़ साहिब के पास उठते बैठते नहीं देखा तो कौन उनका क़लम पकड़ सकता है। अहबाब पुरज़ोर इस्‍रार करते तो ये बन्दा भी अपने गोशा-ए-गुमनामी में मस्त रहता। फिर बा’ज़ बातें ऐसी भी हैं कि लिखते हुए ख़याल होता है कि आया ये लिखने की हैं भी या नहीं। मस्लन यही कि फ़ैज़ साहिब जिस ज़माने में पाकिस्तान टाईम्स के एडिटर थे, कोई इदारिया उस वक़्त तक प्रेस में देते थे जब तक मुझे दिखा लेते। कई बार अर्ज़ किया कि माशा अल्लाह आप ख़ुद अच्छी अंग्रेज़ी लिख लेते हैं लेकिन वो मानते और अगर में कोई लफ़्ज़ या फ़िक़रा बदल देता तो ऐसे मम्नून होते कि ख़ुद मुझे शर्मिंदगी होने लगती।

    फिर फ़ैज़ साहिब के तअ’ल्लुक़ से वो रातें याद आती हैं जब फ़ैज़ ही नहीं, बुख़ारी, सालिक, ख़लीफ़ा अ’ब्दुल हकीम वग़ैरा हम सभी हम प्याला-ओ-हम निवाला दोस्त रावी के किनारे टहलते रहते और साथ ही साथ इ’ल्म-ओ-अदब की बातें भी होती रहतीं। ये हज़रात मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से सवाल करते और ये बन्दा अपनी फ़हम के मुताबिक़ जवाब देकर उनको मुत्मइन कर देता और ये बात तो निस्बतन हाल की है कि एक रोज़ फ़ैज़ साहिब ने सुब्ह सुब्ह मुझे आन पकड़ा और कहा, “एक काम से आया हूँ। एक तो ये जानना चाहता हूँ कि यूरोप में आजकल आर्ट के क्या रुज्हानात हैं और आर्ट पेपर क्या चीज़ होती है। दूसरे मैं वाटर कलर और ऑयल पेन्टिंग का फ़र्क़ मालूम करना चाहता हूँ। ठुमरी और दादरा का फ़र्क़ भी चन्द लफ़्ज़ों में बयान कर दें तो अच्छा है।” मैंने चाय पीते पीते सब कुछ अर्ज़ कर दिया। उठते-उठते पूछने लगे, “एक और सवाल है। ग़ालिब किस ज़माने का शाइ’र था और किस ज़बान में लिखता था?” वो भी मैंने बताया। उसके कई माह बा’द तक मुलाक़ात हुई। हाँ अख़बार में पढ़ा कि लाहौर में आर्ट कौंसिल के डायरेक्टर हो गए हैं। ग़ालिबन उस नौकरी के इंटरव्यू में इस क़िस्म के सवाल पूछे जाते होंगे।

    अक्सर लोगों को तअ’ज्जुब होता है कि “नक़्श-ए-फ़र्यादी” का रंग-ए-कलाम और है और फ़ैज़ साहिब के बा’द के मजमूओं “दस्त-ए-सबा” और “ज़िन्दान-नामा” का और अब चूँकि उसका पस-ए-मन्ज़र राज़ नहीं रहा और बा’ज़ हलक़ों में बात फैल गई है, लिहाज़ा उसे छिपाने का कुछ फ़ाइदा नहीं। फ़ैज़ साहिब जब जेल गए हैं तो वैसे तो उनको ज़ियादा तकलीफ़ नहीं हुई लेकिन काग़ज़ क़लम उनको नहीं देते थे और शे’र लिखने की इजाज़त थी। मक़्सद उसका ये था कि उनकी आतिश नवाई पर क़दग़न रहे और लोग उन्हें भूल-भाल जाएँ। लेकिन वो जो कहते हैं, तदबीर कुंद बन्दा तक़दीर ज़ंद ख़ंदा। फ़ैज़ साहिब जेल से बाहर आए तो सालिम ताँगा लेकर सीधे मेरे पास तशरीफ़ लाए और इधर-उधर की बातों के बा’द कहने लगे, “और तो सब ठीक है लेकिन सोचता हूँ, मेरे अदबी मुस्तक़बिल का अब क्या होगा”

    मैंने मुस्कुराते हुए मेज़ की दराज़ में से कुछ मसव्वदे निकाले और कहा ये मेरी तरफ़ से नज़्र हैं। पढ़ते जाते थे और हैरान होते जाते थे। फ़रमाया, “बिल्कुल यही जज़्बात मेरे दिल में आते थे लेकिन उनको क़लम बन्द कर सकता था। आपने इस ख़ूबसूरती से नाले को पाबन्द-ए-नय किया है कि मुझे अपना ही कलाम मालूम होता है।”

    मैंने कहा, “बिरादर-ए-अज़ीज़, बनी-आदम आज़ाए यक दीगर अंद। तुम पर जेल में जो गुज़रती थी, उसे मैं यहाँ बैठे-बैठे महसूस कर लेता था। वर्ना मन आनम कि मन दानम। बहरहाल अब इस कलाम को अपना ही समझो बल्कि इसमें मैंने तख़ल्लुस भी तुम्हारा ही बाँधा है और हाँ नाम भी मैं तज्वीज़ किए देता हूँ। आधे कलाम को “दस्त-ए-सबा” के नाम से शाए’ करो और आधे को “ज़िन्दाँ नामा” का नाम दो।” इस पर भी उनको ताम्मुल रहा। बोले, “ये बुरा सा लगता है कि ऐसा कलाम जिस पर एक मुहिब्ब-ए-सादिक़ ने अपना ख़ून-ए-जिगर टपकाया हो अपने नाम से मन्सूब कर दूँ।” मैंने कहा, “फ़ैज़ मियाँ, दुनिया में चराग़ से चराग़ जलता आया है, शेक्सपियर भी तो किसी से लिखवाया करता था। इससे उसकी अ’ज़्मत में क्या फ़र्क़ आया?” इस पर लाजवाब हो गए और रिक़्क़त तारी हो गई।

    फ़ैज़ साहिब में एक और बात मैंने देखी। वो बड़े ज़र्फ़ के आदमी हैं। एक तरफ़ तो उन्होंने किसी पर कभी ये राज़ अफ़्शा किया कि ये मज्मूए’ उनका नतीजा-ए-फ़िक्‍र नहीं। दूसरी तरफ़ जब लेनिन इनाम लेकर आए तो तमग़ा और आधे रूबल मेरे सामने ढेर कर दिए कि इसके अस्ल हक़दार आप हैं। इस तरह के और बहुत से वाक़िआ’त हैं। बयान करने लगूँ तो किताब हो जाएगी। लेकिन जैसा कि मैंने अर्ज़ किया नमूद-ओ-नुमाइश से इस बन्दे की तबीअ’त हमेशा नफ़ूर रही है। मा तौफ़ीक़ इल्ला बिल्लाह।

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