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ग़ालिब क़ैद में

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    तफ़्ता: क़िबला कल आप मुफ़्ती सदर उद्दीन आज़ुर्दा के मुशायरे में शरीक न हुए। 

    ग़ालिब: एक तो दर्द कमर, दूसरे बारिश, शिरकत न कर सका। मुफ़्ती साहिब को ‎माज़रत नामा भेज दिया था। क्यों मुशायरा कैसा रहा? 

    तफ़्ता: बड़ा कामयाब रहा, लाला मुकुन्दीलाल भी तो वहां मौजूद थे। 

    ग़ालिब: क्यों लाला जी? 

    मुकुन्दीलाल: जी हाँ क़िबला, मैं भी एक दोस्त के साथ उधर जा निकला था। 

    ग़ालिब: क्यों तफ़्ता, मुशायरे में कोई अच्छा शे’र भी हुआ? 

    तफ़्ता: सुलतान उश्शुअरा ने एक अजीब शे’र कहा। 

    ग़ालिब: वो क्या? 

    तफ़्ता: अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे 

    मर के भी चैन न पाया तो किधर जाऐंगे 

    ग़ालिब: क्या वाक़ई ये ज़ौक़ का शे’र है? 

    तफ़्ता: जी हाँ क़िबला, ये उन्हीं का शे’र है। 

    ग़ालिब: भई जिस किसी का भी हो, शे’र ख़ूब है; 

    अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे 
    ‎ मरके भी चैन न पाया तो किधर जाऐंगे 

    मर्हबा, मर्हबा, क्या शे’र कहा है, सुब्हान-अल्लाह। 

    मुकुन्दीलाल: क्यों भई मेहता राम, वो तुम उस रोज़ हज़रत ज़ौक़ का कोई शे’र सुना रहे ‎थे। 

    मेहता राम: कौन सा शे’र? 

    मुकुन्दीलाल: वही जिसका क़ाफ़िया शायद रोशनी था। 

    मेहता राम: हाँ हाँ, याद आ गया,

    पड़ा है इस तीरा ख़ाकदाँ में ये आदमी की फ़िरोतनी है 

    वगर न क़ंदील अर्श में भी उसी के जल्वे की रोशनी है 

    ग़ालिब: बहुत ख़ूब बहुत ख़ूब! 

    तफ़्ता: आपकी वो ग़ज़ल जिसका मक़ता है; 

    इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’ 
    कि लगाए न लगे और बुझाए न बने 

    वलीअहद बहादुर के दरबार में गाई जा रही थी।  

    ग़ालिब: ये कब की बात है? 

    तफ़्ता: यही कोई चार रोज़ की बात होगी। 

    ग़ालिब: तुम से किसने कहा? 

    तफ़्ता: हकीम मोमिन ख़ां कह रहे थे कि उन्होंने ये बात किसी मुर्शिद ज़ादे से सुनी थी। 

    मुकुन्दीलाल: जनाब-ए-वाला, आपकी एक ग़ज़ल तो शहर के हर गली कूचे में गाई जा ‎रही है। 

    ग़ालिब: कौन सी ग़ज़ल? 

    मुकुन्दीलाल: वही देखिए ना... उसका कोई शे’र इस वक़्त याद न रहा। भाई मेहता तुम्हें ‎तो याद होगा? 

    मेहता राम: वही जिसका एक शे’र है; 

    वाइज़ न तुम पियो न किसी को पिला सको 
    क्या बात है तुम्हारी शराब-ए-तुहूर की 

    मुकुन्दीलाल: नहीं ये नहीं... नहीं देखिए, याद आगया वही जिस का मक़ता है;  

    ग़ालिब छुटी शराब, पर अब भी कभी कभी 
    पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में 
    ‎ 
    ग़ालिब: (हंसते हुए) लाला जी, मैं असल में फ़ारसी का शायर हूँ। रेख़्ता में यूँही कभी-‎कभार तफ़रीहन कुछ कह लिया करता हूँ। 

    मुकुन्दीलाल: अजी क़िबला मिर्ज़ा साहिब, ये आपकी ख़ाकसारी है वर्ना आज दिल्ली भर ‎में आप जैसा रेख़्ता का कौन शायर है। 

    ग़ालिब: ये आपकी बंदा परवरी है वर्ना में क्या और मेरी शायरी क्या। 

    (सबका क़हक़हा लगाना... कुछ ख़ामोशी) 

    तफ़्ता: एक बात दरयाफ़्त तलब थी। 

    ग़ालिब: वो क्या? 

    तफ़्ता: परवाना और बुतख़ाना के साथ मर्दाना और दिलेराना के क़ाफ़िए जायज़ हैं या ‎नाजायज़। 

    ग़ालिब: मियां ये बिल्कुल नाजायज़ और ना मुस्तहसिन हैं, ये ईता है और वो भी ईताए ‎क़बीह। 

    तफ़्ता: क़िबला, दीदा-ए-मस्त की तरकीब सही है या ग़लत? 

    ग़ालिब: भाई इसके बजाय चश्म-ए-पुर ख़ार लिखो।

    तफ़्ता: बंदा परवर, एक मिसरा हुआ है; 
    ‎ गर्दिश-ए-चर्ख़ इस्तिख़्वां साईद 

    ग़ालिब: (कुछ सोच कर) इसे यूं बना लो; 
    ‎सूदा शुद इस्तख़्वां ज़गर्दिश-ए-चर्ख़ 

    तफ़्ता: मैं एक ग़ज़ल लिख रहा हूँ, उसका एक मिसरा है; 
    ‎दीगर नतवां गुफ़्त ग़मत रा कि ग़म अस्त ईं 

    ग़ालिब: तफ़्ता तुम्हें शे’र कहते इतनी मुद्दत हो गई और अब तक तक़ती करना भी न ‎आया। मियां ग़ौर करो, बाद ग़ौर के इस नामौज़ूनी का ख़ुद इक़रार करोगे। 

    तफ़्ता: क़िबला एक शे’र और है। 
    ‎ 
    ग़ालिब: भाई! इस गुफ़्तगु को छोड़ो, कोई और बात सुनाओ। कभी पूछते हो फ़ुलां शे’र ‎का क्या मतलब है कभी पूछते हो फ़ुलां मिसरे का वज़न सही है या नहीं, कभी ‎दरयाफ़्त करते हो कि ये तरकीब जायज़ है या नाजायज़। कुछ आप-बीती कहो कुछ ‎जग-बीती सुनाओ। ये मौक़ा न इस गुफ़्तगु का है और न ये वक़्त ऐसी गुफ़्तगु के लिए ‎मौज़ूं है। कहो आज का अहसन-उल-अख़बार देखा है? 

    तफ़्ता: जी हाँ देखा है। 

    ग़ालिब: कोई अहम ख़बर हो तो सुनाओ। 

    तफ़्ता: नवाब रेजिडेंट बहादुर ने उस आदमख़ोर शेर का शिकार कर लिया जो फ़िरोज़पुर ‎झिरका के जंगल में था। 

    ग़ालिब: ख़स कम जहां पाक, मियां और कोई ख़बर! 

    तफ़्ता: आजकल बारिश की वजह से शहर में अक्सर मकानात गिर रहे हैं। ख़ानम का ‎बाज़ार, उर्दू बाज़ार और फ़राश ख़ाने में चार सौ के क़रीब मकान गिर पड़े। 

    ग़ालिब: भाई बरसात क्या है, एक क़ियामत है। ख़ुद मेरे घर का ये हाल है कि मस्जिद ‎की तरफ़ के दालान को जाते हुए जो दरवाज़ा था वो गिर गया। सीढ़ियां गिरा चाहती हैं। ‎सुबह के बैठने का हुज्रा झुक रहा है। छतें छलनी हो गई हैं। मेंह घड़ी भर बरसे तो छत ‎घंटा भर बरसे। किताबें, क़लमदान तोशा ख़ाना में हैं। फ़र्श पर कहीं लगन रखी है, कहीं ‎चलचमी धरी हुई है। 

    तफ़्ता: आप मालिक मकान को मरम्मत कराने के लिए क्यों नहीं कहते? 

    ग़ालिब: मालिक मकान अगर चाहे कि मरम्मत करे तो क्यों कर करे, मेंह हफ़्ता दो ‎हफ़्ते बंद हो तो मरम्मत का सामान हो, फिर असनाए मरम्मत में किस तरह बैठा रहूं। 

    तफ़्ता: ये तो बड़ी मुसीबत है। 

    ग़ालिब: और कोई ख़बर हो तो सुनाओ। 

    तफ़्ता: और तो कोई अहम ख़बर है नहीं। 

    ग़ालिब: ख़ैर। 

    (कुछ ख़ामोशी) 

    तफ़्ता: क़िबला मुझे मीर मह्दी मजरूह से मिलने जाना है। अब इजाज़त दीजिए। 

    ग़ालिब: हाँ भाई जाओ। 

    तफ़्ता: आदाब अर्ज़ है। 

    ग़ालिब: तस्लीम, तस्लीम, देखना मियां कल ज़रूर आना, अगर वक़्त मिला तो तुम्हारी ‎ग़ज़ल बना रखूँगा। 

    (कुछ ख़ामोशी)‎
    ‎ 
    मुकुन्दीलाल: कहिए मिर्ज़ा साहिब चौसर निकाली जाये? 

    मेहता राम: हाँ लाला मुकुन्दीलाल जी, ज़रूर निकालिए। 

    ग़ालिब: जी तो नहीं चाहता, लेकिन अगर आपकी मर्ज़ी हो तो निकालिए। 

    (बिसात बिछाई जाती है कौड़ियाँ फेंकने की आवाज़) 

    मुकुन्दीलाल: मिर्ज़ा साहिब क्या ये बाज़ी जीतने का इरादा है? 

    ग़ालिब: (क़हक़हा लगाते हुए )आप का मंशा ये है कि हमेशा आप ही जीता करें? 

    मुकुंदी: अरे भाई मेहता राम सुनते हो, मिर्ज़ा साहिब क्या फ़र्मा रहे हैं? 

    मेहता राम: फ़र्मा क्या रहे हैं? ठीक कहते हैं। मिर्ज़ा साहिब ने तो शायरी में अपनी उम्र ‎गंवा दी वर्ना उनकी टक्कर का चौसर खेलने वाला दिल्ली भर में नहीं निकलता। 

    ग़ालिब: (हंसते हुए) देखिए लाला जी, ये पौ बारा (कौड़ियाँ फेंकने की आवाज़) बाज़ी मैं ‎जीता। (ज़ोर से क़हक़हा लगाते हुए) 

    (दूर से जूतों की आवाज़ें) 

    मुकुन्दीलाल: हैं इधर से कौन लोग चले आरहे हैं? 

    (जूतों की आवाज़ से लोगों का क़रीब आना महसूस होता है) 

    मेहता राम: (घबराई हुई आवाज़ में) पुलिस पुलिस (काँपते हुए) लाला मुकुन्दीलाल जी ‎अब क्या होगा, पुलिस आगई। हाय हाय अब क्या होगा? 

    पुलिस वाले: (बैक आवाज़) पकड़ो, पकड़ो इन जुवारियों को पकड़ो, देखना उनमें से कोई ‎भागने न पाए। 

    (मुकुन्दीलाल और मेहता राम भागने की कोशिश करते हैं, क़दमों की आवाज़) 

    थानेदार: ये दोनों भागने की कोशिश कर रहे हैं, जवानो बढ़कर इन दोनों की मुशकें कस ‎लो। 

    मेहता राम: (थर्राई हुई आवाज़ में) थानेदार साहिब रहम कीजिए, ग़लती हो गई अब... ‎अब... हुज़ूर... हुज़ूर... हम ऐसा नहीं करेंगे, हमें छोड़ दीजिए। लाला मुकुन्दीलाल जी को ‎तो मिर्ज़ा साहिब ने बहकाया था। 

    ग़ालिब: (ग़ुस्से से) सुब्हान-अल्लाह, कम्बख़्त झूटा कहीं का। अजी थानेदार साहिब, ये ‎मर्दूद झूट बकता है और अगर सच भी कहे तो चौसर खेलना कोई जुर्म नहीं है। 

    थानेदार: जी बजा इरशाद बंदा परवर, चोरी और सीना ज़ोरी इसी को कहते हैं। (कुछ ‎ख़ामोशी) अख़ाह आप हैं ख़ूब, ख़ूब! अब मैं समझा (क़हक़हा लगाते हुए) मिर्ज़ा ‎असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब। 

    ग़ालिब: थानेदार साहिब, होश की दवा कीजिए, आप किस से बातें कर रहे हैं? 

    थानेदार: जनाब-ए-वाला, ये कोई मुशायरे की महफ़िल नहीं है। इस वक़्त आप जुए की ‎इल्लत में ज़ेर-ए-हिरासत हैं। समझे जनाब, आपसे मैं जो कुछ कहूं उसकी तामील बे ‎चूं-ओ-चरा करनी पड़ेगी। 

    ग़ालिब: मगर... 

    थानेदार: मैं अगर मगर कुछ नहीं जानता। आप चुप-चाप मेरे पीछे चले आइए। ‎‎(सिपाहियों से) जवानो ज़रा इन दोनों लालाओं की मुशकें मज़बूती से कस लेना। कहीं ये ‎रास्ते से भाग न निकलें। 

    मेहता राम और मुकुन्दीलाल (साथ साथ रोते हुए) हाय हाय हम मरे, भगवान के लिए ‎हमें छोड़ दो। 

    ग़ालिब: न मालूम आज सुबह किस मनहूस की सूरत देखकर उठा था... आदम के बेटे ‎पर जो भी गुज़र जाये वो कम है ये भी ख़ुदा की क़ुदरत है। 

    थानेदार: मिर्ज़ा साहिब, ज़्यादा बातें न बनाइऐ। चुपचाप चले चलिए। 

    ग़ालिब: (रुक कर) अजीब वाहियात इंसान से पाला पड़ा है। क्या तुझे नहीं मालूम कि ‎हम कौन हैं? 

    थानेदार: जी बंदा नवाज़, मुझे सब कुछ मालूम है मगर इस वक़्त आपकी हैसियत एक ‎मुल्ज़िम से ज़्यादा कुछ नहीं। 

    ग़ालिब: (बड़बड़ाते हुए) अजीब अहमक़ है...ये आदमी काहे को है, अच्छा-ख़ासा पाजामा ‎है। 

    (वक़फ़ा) 

    चपरासी: (ब आवाज़-ए-बुलंद) मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब, लाला मुकुन्दीलाल और ‎लाला मेहता राम मुल्ज़िमान हाज़िर अदालत हैं। 

    (काग़ज़ों की खड़खड़ाहट। कुछ ख़ामोशी) 

    मजिस्ट्रेट: अच्छा इंस्पेक्टर साहिब आप अपना चालान पेश कीजिए। 

    कोर्ट इंस्पेक्टर: कल रात मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब, लाला मुकुन्दीलाल और लाला ‎मेहता राम चौसर पर बाज़ी लगाते हुए गिरफ़्तार हुए। लाला मुकुन्दीलाल और लाला ‎मेहता राम को अपने जुर्म का एतराफ़ है और इस शर्त पर गवाही देने पर आमादा हैं ‎कि उनका गुनाह माफ़ कर दिया जाये। 

    मजिस्ट्रेट: लाला मुकुन्दीलाल और लाला मेहता राम को पुलिस की दरख़ास्त पर माफ़ ‎किया जाता है। 

    मुकुन्दीलाल: हुज़ूर-ए-वाला, मिर्ज़ा ग़ालिब और मैं कभी कभी चौसर खेल लिया करते थे। ‎खेल से पहले हम बाज़ी लगाते थे जो हारता वो बाज़ी की मुक़र्ररा रक़म अदा करता। ‎कल रात भी हम इसी तरह की बाज़ी लगाकर चौसर खेल रहे थे। इतने में पुलिस की ‎दौड़ आगई और हम गिरफ़्तार हो गए। 

    मजिस्ट्रेट: लाला मेहता राम तुम क्या कहना चाहते हो? 

    मेहता राम: लाला मुकुन्दीलाल ने जो कुछ कहा वो सरकार कंपनी बहादुर के इक़बाल से ‎हर्फ़ ब हर्फ़ सही है। 

    मजिस्ट्रेट: क्यों मिर्ज़ा साहिब, आप क्या कहना चाहते हैं? 

    ग़ालिब: बंदा नवाज़ मेरा बयान ये है कि मैं चौसर खेल रहा था। चौसर खेलना कोई जुर्म ‎नहीं। 

    मजिस्ट्रेट: बेशक चौसर खेलना कोई जुर्म नहीं, मगर उस पर बाज़ी लगाना जुर्म है। क्या ‎आपने उस पर बाज़ी नहीं लगाई? 

    मुकुन्दीलाल और मेहता राम: (बयक आवाज़) हाँ हाँ, राम की सौगन्द, इन्होंने बाज़ी ‎लगाई थी। 

    ग़ालिब: यक न शुद दो शुद जनाब मजिस्ट्रेट साहिब, इन कमबख़्तों ने तो ख़ुद मुझे ‎बाज़ी लगाने पर आमादा किया था। 

    मजिस्ट्रेट: अच्छा तो आपको अपने जुर्म का इक़बाल है? 

    ग़ालिब: बेशक मैंने बाज़ी लगाई मगर मक़सद महज़ तफ़रीह-ए-तबा था। 

    मजिस्ट्रेट: ख़ैर, तो अब मैं अपना फ़ैसला सुनाना चाहता हूँ। 

    (थोड़ी ख़ामोशी के बाद फ़ैसला सुनाता है। 
    ‎ 
    आप असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब साकिन हब्श ख़ां का फाटक को क़िमारबाज़ी की इल्लत में ‎छः माह क़ैद बामशक़्क़त और दो सौ रुपया जुर्माना... जुर्माना की रक़म दाख़िल सरकार ‎न की गई तो मज़ीद छः माह की क़ैद भुगतना पड़ेगी। अलबत्ता इतनी रिआयत की ‎जाती है कि अगर पच्चास रुपये ज़्यादा अदा किए गए तो मशक़्क़त माफ़ हो जाएगी। ‎नीज़ लाला मुकुन्दीलाल और लाला मेहता राम साकिनान ख़ास बाज़ार को वादा माफ़ ‎गवाह होने की बिना पर रिहा किया जाता है। 
    ‎ 
    मुकुन्दीलाल और मेहता राम: (दोनों ब आवाज़-ए-बुलंद) सरकार कंपनी बहादुर का ‎इक़बाल बुलंद हो। मजिस्ट्रेट साहिब बहादुर का साया शहर पर हमेशा क़ायम रहे। 
    ‎(वक़फ़ा) 

    (लोगों के चलने फिरने की आवाज़) 
    ‎ 
    एक शख़्स: भई देखा आख़िर मिर्ज़ा ग़ालिब बेचारे को सज़ा हो ही गई। उन्होंने ऐसा जुर्म ‎ही कौन सा किया था? 

    दूसरा शख़्स: अजी ये सब कुछ ज़ालिम कोतवाल का किया धरा है। हम तो पहले ही ‎कहते थे कि हाकिम-ए-वक़त से बिगाड़ अच्छा नहीं। 

    तीसरा शख़्स: अजी कोतवाल ऐसा कौन सा बड़ा हाकिम है? जिस मजिस्ट्रेट ने मिर्ज़ा ‎साहिब को सज़ा दी वो ख़ुद कोतवाल का हाकिम है। वो कम्बख़्त मिर्ज़ा साहिब को ख़ूब ‎जानता है लेकिन ऐन वक़्त पर अंजान बन गया। 

    पहला शख़्स: सुना है कि सेशन में अपील हुई थी, उसका भी कुछ मुफ़ीद नतीजा न ‎निकला। सेशन जज भी मिर्ज़ा साहिब का पुराना शनासा था। 

    दूसरा शख़्स आप सेशन जज का तज़्किरा कर रहे हैं। हज़रत, सदर में भी सिलसिला ‎जबनानी की गई थी। हमने तो यहां तक सुना है कि हज़रत जहांपनाह ने नवाब रेजिडेंट ‎बहादुर को भी सिफ़ारशी चिट्ठी लिखी, मगर वहां से भी टका सा जवाब आगया। 
    ‎ 
    तीसरा शख़्स: अरे भाई, जब क़िस्मत बिगड़ती है तो यूंही होता है। मिर्ज़ा साहिब अर्से से ‎बीमार रहते हैं। बादाम के हरीरे और ज़रा से क़लिए चपाती पर उनकी ज़िंदगी का दार-‎ओ-मदार है। जेल की मशक़्क़त से उनका जांबर होना मुश्किल नज़र आता है। अल्लाह ‎रहम करे। 

    पहला शख़्स: ख़ुदा भला करे नवाब मुस्तफ़ा ख़ां शेफ़्ता का। भई दोस्त हो तो ऐसा हो। ‎इस आड़े वक़्त में उन्होंने मिर्ज़ा साहिब का बड़ा साथ दिया। 

    दूसरा शख़्स: सुना है कि उन्होंने जुर्माने की रक़म अपनी जेब ख़ास से अदा कर दी है। 

    तीसरा शख़्स: अजी, आप जुर्माने की रक़म को लिये बैठे हैं, उन्होंने पच्चास रुपये भी ‎अपने पास से सरकार में जमा कर दिए हैं कि मिर्ज़ा साहिब मशक़्क़त से बच जाएं। 
    ‎ 
    पहला शख़्स: ये भी सुना गया है कि उन्होंने हुक्काम से कह-सुनकर मिर्ज़ा साहिब को ‎घर से खाना कपड़ा मंगवाने और अज़ीज़ों और दोस्तों से मिलने-जुलने की इजाज़त भी ‎दिलवादी है। 

    दूसरा शख़्स: मियां, क़ैद फिर क़ैद है। ख़ुदा दुश्मन पर भी ऐसा वक़्त न डाले। 
    ‎(वक़फ़ा) 
    ‎ 
    ‎(पहले दूर से फिर नज़दीक से पांव की चाप) 

    ग़ालिब: इधर ये कौन आरहा है? 

    तफ़्ता: आदाब अर्ज़ है क़िबला, मैं हूँ हरगोपाल तफ़्ता। 

    ग़ालिब: (आह-ए-सर्द खींच कर) आओ मियां तफ़्ता आओ, बैठो कहो मिज़ाज कैसा है? 

    तफ़्ता: मैं तो अच्छा हूँ क़िबला, आप अपने मिज़ाज की कैफ़ियत कहिए। 

    ग़ालिब: (खाँसते हुए) मियां, क्या कहूं, कभी सरकार अंग्रेज़ी में बड़ा पाया रखता था और ‎रईस ज़ादों में गिना जाता था। पूरा ख़िलअत पाता था, अब बदनाम हो गया हूँ। इस क़ैद ‎से इज़्ज़त पर बड़ा धब्बा लग गया है। 

    तफ़्ता: (रोते हुए) हुज़ूर को क़ैदख़ाने में देखकर कलेजा मुँह को आता है। हाय क़िस्मत ‎ने क्या बुरा दिन दिखाया है। 

    ग़ालिब: (खाँसते हुए) मियां, मैं तो हर हाल और हर रंग में राज़ी ब रज़ा हूँ। मैं हर ‎काम को ख़ुदा की तरफ़ से जानता हूँ और ख़ुदा से लड़ा नहीं चाहता। जो गुज़र रहा है ‎उसके नंग से आज़ाद और जो कुछ गुज़रने वाला है उस पर राज़ी हूँ (खाँसना) इतना ‎ज़रूर है कि अब मेरी आरज़ू ये है कि दुनिया में न रहूं और अगर रहूं तो हिंदुस्तान में ‎न रहूं। रोम है, मिस्र है, ईरान है, बग़दाद है। काअबा आज़ादों की जाए पनाह है। देखिए ‎वो वक़्त कब आएगा कि इस क़ैद से नजात पाऊं और सर बसहरा निकल जाऊं। ‎‎(खाँसना) 
    ‎ 
    तफ़्ता: क़िबला, इस क़दर मायूस न होना चाहिए। ख़ुदा को फ़ज़ल करते देर नहीं लगती। ‎मैं आपको ये ख़ुशख़बरी सुनाने आया हूँ कि मजिस्ट्रेट को अपनी ग़लती का एहसास हो ‎गया है। उसने सदर में तहरीर की है। कोई देर में रिहाई का हुक्म आया चाहता है। 

    ग़ालिब: “हाय उस ज़ूद-पशेमाँ का पशेमां होना।” 

    (दूर से जूतों की आवाज़ आती है) 

    तफ़्ता: देखिए जेलर हाथ में कोई पुर्ज़ा लिए चला आ रहा है। 
    ‎(क़रीब से जूतों की आवाज़) 

    ख़ुदा करे ये रिहाई का परवाना हो 
    ‎(जेलर का आना) 

    तफ़्ता: आइए जेलर साहिब, आइए। 

    जेलर: (ख़ुशी के लहजे में) मिर्ज़ा साहिब मुबारक, सदर से आपकी रिहाई का हुक्म ‎वसूल हुआ है। अब आप आज़ाद हैं जहां चाहें जा सकते हैं। 

    ग़ालिब: (तंज़िया अंदाज़ में) जनाब, हमसे क़ैदीयों को आज़ादी कहां। पहले गोरे की क़ैद ‎में थे, अब काले की क़ैद में जाऐंगे।

     

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