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हम लखनऊ गए

MORE BYगोपाल प्रसाद व्याम

    बहुत दिनों से आरज़ू थी कि लखनऊ देखा जाए, लैला की उँगलियाँ और मजनूँ की पस्लियाँ जैसी लखनऊ की ककड़ियाँ ही हमें लखनऊ जाने को नहीं ललचा रही थीं बल्कि सफ़ेदा आम, दोसीरी नगीने और पुखराज के डलों जैसे ख़रबूज़े की चिकनी-चिकनी बटियाँ भी हमारे मुंह में पानी भर रही थीं।

    उन दिनों कुछ ऐसी बात बनी थी कि जो मिलता लखनऊ की ता’रीफ़ करता। कोई छत्तर मन्ज़िल की बात करता तो कोई इमाम-बाड़े की। कोई हज़रतगंज की चहल-पहल बयान करता तो कोई चौक-नख़ास की हमा-हमी। किसी को वहाँ की बोली प्यारी थी तो कोई वहाँ के खानों में पड़ने वाले मसाले की गोलियों पर निछावर था। कोई वहाँ की शेरवानी का क़ाइल था तो कोई ग़ज़ल-ख़्वाँ का। कोई वहाँ के इत्‍र पर क़ुर्बान था तो कोई सुरमे पर। कोई वहाँ की शराफ़त को सराहता तो कोई नफ़ासत को। हमने भी सोचा लाओ गर्मियों की छुट्टियों में इस बार लखनऊ देख ही लिया जाए।

    वहाँ हमारे बचपन के एक दोस्त भी जा बसे थे, बारह साल से ऊपर उन्हें वहाँ रहते हुए हो गए थे। हमारे दोस्त थे इसलिए शरीफ़ तो होते ही, फिर एक ज़माने से लखनऊ में रहते थे। इसलिए हमारा ये ख़याल बे-जा था कि लखनऊ ने उनकी शराफ़त में कुछ इज़ाफ़ा ही किया होगा। कई बार वो लखनऊ आने को लिख चुके थे। इस बार हमने पहल की लिखाः भाई हम इस तारीख़ को इस गाड़ी से लखनऊ रहे हैं।

    गाड़ी लखनऊ पहुँची, स्टेशन देख कर तबीअ’त खिल उठी। गाड़ी रुकी। हमारा ख़याल था कि समझदार को इशारा काफ़ी होता है। दोस्त हमारे बीवी समेत हमें लेने के लिए आए होंगे, लेकिन गाड़ी से उतर कर देखा तो वहाँ कोई था। पहले तो सच कहें, हमें बहुत अजीब सा महसूस हुआ, दोस्त पर ग़ुस्सा भी आया, मगर सोचा शायद छुट्टी मिली हो या किसी ज़रूरी काम से सके हों, कोई बात नहीं, आपस में ज़ाहिरदारी क्या? मा’मूली सा सामान था। रिक्शे में डाला और दोस्त के घर की तरफ़ चल दिए।

    रिक्शे वाला शरीफ़ था, शह्​र लखनऊ का था, होना ही चाहिए, उसने कई सड़कें पार कीं, कई मोड़ काटे और कई गलियाँ फिरा डालीं तो फिर सिर्फ़ एक घंटे में हमें दोस्त के मकान पर पहुँचा ही दिया। मेहनत को देख कर अब हम उसे ठीक मज़दूरी दें ये कैसे हो सकता था। ख़ैर, मज़ूदरी तो उसे दे दी लेकिन दोस्त के मकान का बंद दरवाज़ा कैसे खुलावाया जाए। ये बड़ा मस्अला हमारे सामने था। लखनऊ का मुआ’मला था, ज़रा शराफ़त से ही काम लेना चाहिए। हमने उँगली से दरवाज़े को खट-खटाया लेकिन किसी ने सुना, हल्की सी दस्तक दी, कोई आहट हुई, ज़रा ज़ोर से दरवाज़े की ज़ंजीर बजाई किसी की भनक उमडी। लाचार हो कर आवाज़ लगानी पड़ी, “अरे भाई भूषण।”

    एक, दो, तीन जब हमारे गले से निकल कर सातवीं बार आवाज़ मुहल्ले में गूँज गई तो अन्दर से एक बारीक लेकिन तीखी आवाज़ जैसे बिगड़े हुए हारमोनियम के सातवें सुर को किसी ने धुनकी दे दी, “देखना मोहन! ये बाहर कौन चीख रहा है, इनके रोज़ के आने वालों ने जीना हराम कर रखा है।”

    ऐसा महसूस हुआ कि हम लखनऊ में नहीं हैं और हमें किसी ने जीते जी ही गठरी में बाँध कर कुतुब मीनार से नीचे फेंक दिया है, हो गई लखनऊ की सैर। सोचा, लौट चलें अपनी दिल्ली को। यहाँ तो बिस्मिल्लाह ही ग़लत हो गई।

    हमारा दिल शुरु’ से ही वहमी है, किसी एक बात पर अगर जमे रहे होते और एक ख़याल से काम किया होता तो आज हम जाने कहाँ पहुँचे होते। बात के एक पहलू के आते ही दूसरा दिल में करवटें लेने लगता है, हमने सोचा कि हो सकता है कि हमारे दोस्त ने अपनी बीवी को हमारे आने की इत्तिला’ दी हो, और ये भी हो सकता है कि दोस्तों का यूँ इस्तक़बाल करने वाली औरत हमारे दोस्त की बीवी हो, घर में कोई किराए-दार भी तो हो सकता है, हम साँस रोके हुए दरवाज़े पर खड़े रहे, सोचा कि पूरी बात मा’लूम करना ही ठीक है। क़यास बेकार है।

    मोहन ने दरवाज़ा खोला और मीठी सी आवाज़ में कहा, “पिता घर पर नहीं है।”

    हमने बताया, “दिल्ली से आए हैं और तुम्हारे ताऊ लगते हैं ये सामान अन्दर रखवाओ।”

    लड़का बा-अख़लाक था, उसने हमें झुक कर नमस्ते किया और अटैची उठा कर अन्दर ले चला, गर्मियों का बिस्तर होता ही कितना है, हमने उसे उठा कर कंधे पर डाल लिया और दोनों चीज़ों को एक कोने में जमा कर बैठक में एक आराम कुर्सी पर जम गए सोचने लगे... आज क्या देखा जाए? चिड़िया घर या तसवीर-ख़ाना?

    मोहन बोला, “ताऊ जी शरबत पियोगे या चाय?” बच्चा बड़ा प्यारा था, हमारी शिकायत दूर हो गई।

    “चाय तो गर्मी में पीते नहीं।” हमने कहा।

    हमने कमीज़ उतार कर एक खूँटी पर टाँग दी, पंखा तेज़ किया और आराम कुर्सी पर नीम-दराज़ हो कर शरबत का इन्तिज़ार करने लगे, हमारा ख़याल था कि हमारे दोस्त की बीवी शरबत ले कर ख़ुद ही आएँगी और हमें जो सफ़र में और घर में तक्लीफ़ हुई है उस पर मीठी लखनऊ की ज़बान में कुछ ऐसी बातें करेंगी कि हमारी सारी शिकायत दूर हो जाएगी, लेकिन ये क्या? बैठक में बैठे-बैठे हमें ऐसा महसूस हुआ कि मोहन कुछ सुबकियाँ भर रहा है। यूँ हमारी आदत किसी पराए क्या अपने घर में भी किसी की सूई धागा लेने की नहीं है मगर हमारे कान उस लम्हे खिंच ही गए, हमने सुना लड़के को सख़्त-सुस्त कहा जा रहा है, “मरे, किसे बिठाया है, बैठक में? ताऊ जी! ऐसे ताऊ जी तो यहाँ दिन में तीस आते हैं, मैं भी गई हूँ किसी के यहाँ कभी पानी पीने को सब मेरी छाती पर मूँग दलने जाते हैं, मटके में पानी पड़ा है, लोटे में भर कर दे आ, और देख, ये पंखा कैसे फ़र-फ़र कर रहा है, हल्का कर, उसे”।

    लड़का पानी ले कर लौटा तो उसका “पानी” उतर गया था। वो तो अन्दर से लौट आया मगर, हमारे लबों पर अटकी जान अभी तक नहीं लौटी थी, पानी का लोटा तो हमने पकड़ लिया, मगर ये नीम उबला हुआ पानी गले से नीचे उतर सका, हमने सोचा बस अब यहाँ से चल ही देना चाहिए हालाँकि बीवियाँ सभों की कम-ओ-बेश एक सी ही होती हैं, हम तो अपनी को ही कहते थे मगर ये तो उससे भी ज़ोरदार निकली। हमने वापसी का इरादा किया मगर दोस्त का ख़याल गया, वो ज़रूर बुरा मानेंगे। फिर सोचा कि शह्​र का मुआ’मला है, दोस्त हमेशा ही मिलन-सार रहे हैं, बेचारी रोज़ परेशान रहती होगी, ठीक भी तो है, उन्हें मेरी और भूषण की लड़कपन की दोस्ती का पता भी क्या? इन लोगों की शादी के बा’द मैं आया भी तो पहली बार हूँ। दोस्त के आते ही सब ठीक हो जाएगा।

    आखिर दो घंटे के बा’द हमारे दोस्त आए, आते ही बग़ल-गीर हुए, कुछ भी हो लड़कपन की दोस्ती का मज़ा कुछ और ही है, बोले, “अमा, तुमने तो कोई ख़बर ही नहीं दी।”

    ख़त की बात कही तो कहने लगे, “मुझे नहीं मिला।” हमने सोचा, तभी तो...

    वरना तो ख़त मिले और भूषण घर बैठे रहें, कभी हो सकता है? बहुत दिनों में मिले थे हम दोनों। बातों में उलझे तो वक़्त का पता ही नहीं चला, हम तो जाने कब तक बैठे रहते मगर वो तो अन्दर से मोहन आया और कहने लगा, “माता जी बुला रही है।”

    हमारे दोस्त गए और कुछ देर बा’द लौट कर आए तो मुझे महसूस हुआ कि कुछ खोए-खोए से है। पूछा, “क्यों क्या हुआ, जी!”

    बोले, “कुछ नहीं, उनकी बहन भी यहाँ लखनऊ में रहती हैं तबीय्यत ज़रा अलील है उनकी। वो ज़रा वहाँ जाना चाहती थीं... मैं सोचता था...”

    “हाँ. हाँ, सोचने की इसमें क्या बात है।” हमने कहा, “उन्हें हो आने दो, नहा-धो तो मैं रेल में ही लिया हूँ खाना बाहर कहीं खा लेंगे।”

    हमारे दोस्त फ़ौरन मान गए, कभी-कभी बाहर खाने में भी बड़ा लुत्फ़ आता है, ख़ुसूसन मेहमानों के साथ। बोले, “सिर्फ़ एक वक़्त के खाने की ही बात है।”

    ख़ैर, वो वक़्त तो होटल में ख़ुशी-ख़ुशी कट गया, मगर बा’द के तीन दिन हमारे जो राम-राम कह कर कटे, वो हम ही जानते है। जाने मोहन बेचारा उन दिनों कितनी बार पिटा, जाने हमारे भूषण भाई कितनी बार ग़ुस्से में आए और खिसयाने हुए, छोटी-छोटी बातें हैं, क्या बताऊँ? कभी दिया सलाई माँगने पर मोहन की माँ भभक उठती, कभी हाथ पोछने के लिए तौलिया निकालने पर उनका कलेजा निकल पड़ता, कभी वो शौहर को डाँटतीं, कभी बेटे को। जब उन दोनों में से कोई होता तो उनकी झुंझलाहट बावर्ची-ख़ाने के बर्तनों पर उतरती, हमारा हाल ये कि हम कभी दाल में से मिर्च निकालते तो कभी साग सब्ज़ी में से कंकर। बिस्तरों में से कभी दरी ग़ायब हो जाती तो कभी चादर। गुस्ल-ख़ाने में कभी साबुन नदारद होता तो कभी तेल। कभी बाल्टी होती तो कभी लोटा होता। लेकिन वाह रे हम! हमारी बीवी हमें नाहक तुनक-मिज़ाज कहती हैं, हमारी बर्दाश्त तो उन दिनों जोगियों को भी मात कर गई थी, हमने वो हालत इख़्तियार कर ली कि ये छोटी-छोटी बातें हम पर उसी तरह असर नहीं कर रही थीं जैसे बरसात में मुसल्लह बूँदों के हमलों से पहाड़ों का कुछ भी नहीं बिगड़ता।

    कोई एक बात हो तो कहें। जिस दिन हम सैर को जाते वहीं बाहर खाते-पीते तो हमारे दोस्त की बीवी घर पर ही रहतीं और किसी क़दर मियान में भी रहतीं, लेकिन जब हम घर में रहते तो उनका दिल एकदम घर से फ़्रन्ट हो जाता, तो अक्सर उन्हें कोई बाहर का काम निकलता, तब पानी के लिए, पान के लिए, ऐश ट्रे और उगल-दान के लिए मोहन और उनके बाप ही नहीं, हमें भी हाथ-पाँव हिलाने पड़ जाते थे।

    तीन दिन तो हमारे दोस्त हमारे क़ाबू में रहे। लेकिन चौथा दिन आते-आते वो भी हौसला छोड़ भागे, या तो उनकी बीवी ने उन्हें भरा हो या ख़ुद ही उन्हें अक़्ल गई हो कि सुबह ही उन्होंने बैठक में टँगे मेरे कपड़ों को उठा कर मेरी अटैची पर फेंक दिया, बोले “इस तरह ये फैले हुए ठीक नहीं लगते।”

    हम पर इसका भी कोई असर नहीं हुआ तो मेरी बार-बार पान खाने की आदत पर लेक्चर पिलाया गया। हमने सोचा कि ये तो हज़रत की पुरानी आदतें हैं लेकिन जब दोपहर को खाने में मेरे साथ वो सिर्फ़ दो रोटियाँ खा कर ही उठ गए तो पहली बार मेरा माथा ठनका। मुआ’मला जैसा हम समझते थे वैसा नहीं, बहुत गंभीर है। शाम को आए तो किसी बात पर अपनी बीवी से इस क़दर उलझ पढ़े कि मुझे शक हुआ, कहीं मार-पीट हो जाए, मैंने उधर कान लगाए और मा’लूम करना चाहा आख़िर बात क्या है? जो कुछ सुना उसका निचोड़ ये हैः

    “तो मैं क्या करुँ? ये कम्बख़्त तो टलता ही नहीं।”

    “वो टलता नहीं या तुम टालते नहीं, तुम्हें क्या, भुगतना तो मुझे पड़ता है।”

    “तो भागवान! बता मैं क्या करुँ?”

    “मैं बताऊँ? फेंक दो उस बे-हिस की अटैची बाहर! यहाँ ऐसा जम गया है जैसे इसके बाप का घर हो।”

    लखनऊ की हमारी मेहमान-दारी अब क्लाइमैक्स पर पहुँच गई थी, जाने क्यों तुलसी दास की ये चौपाई (रुबाई) हमें याद आई

    “आगे चले बहुरि रघुराई”

    हमने अपना सामान अटैची में ठूँसा, बिस्तर लपेटा, कपड़े पहने और हमारे दोस्त अन्दर से आए तो हमने उन से कहा, “अच्छा भाई नमस्ते।” हमारे दोस्त के दिल में क्या था, ये तो वही जानते होंगे, मगर ज़ाहिरन उन्होंने यही कहा, “अरे अभी से।”

    हमने अपने दिल में सोचा बस, इतनी ही यादगार काफ़ी है लखनऊ की। लेकिन हमने यही कहा, “छुट्टियाँ ख़त्म हो रही हैं अब चलना ही चाहिए।”

    हमारे दोस्त ने लम्बी साँस ली, जिसका एक मतलब जुदाई का ग़म था और दूसरा मतलब था चलो पाप कटा। हमने भी पीछे मुड़ कर देखा, जो मिल गई वही रेल पकड़ी, जिस दर्जे का मिला टिकट ख़रीदा, जहाँ मिली जगह वहाँ बैठ गए। जब गाड़ी ने सीटी बजाई और जब सच-मुच वो चल पड़ी तो उसके पहियों की धुन के साथ मेरे दिल में भी ये कहावत गूँज उठी,

    “जान बची तो लाखों पाए।”

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