जहलिस्तान
जहलिस्तान में जिसे कुछ लोग जहालत निशान भी कहते थे बहुत सी चीज़ें और अश्ख़ास अ’जीब-ओ-ग़रीब थे। ऐसे दो पाए थे जिन पर चौपायों का गुमान होता था। ऐसे वुकला थे जिनमें और जेबकतरों में बज़ाहिर कोई फ़र्क़ न था। ऐसे हकीम थे जो दुखती आँख के मरीज़ को आँख निकलवा देने का मशवरा देते थे।
ऐसे डाक्टर थे जो मोहलिक से मोहलिक मर्ज़ से भी ज़्यादा ख़तरनाक थे। ऐसे साधू और मलंग थे जो पिछले चौबीस साल से दरख़्तों के साथ लटके हुए थे और जिन्हें जब नीचे उतरने के लिए कहा जाता तो कहते हम लटकने की सिलवर जुबली मनाकर ही उतरेंगे। ऐसे स्कूल और कॉलेज थे जिनमें ता’लीम पाने के बाद भला-चंगा तालिब-इ’ल्म वहशी बन जाता था। ताहम जहलिस्तान का सबसे बड़ा अ’जूबा ‘‘हज़फ़-ए- इख़तिलाफ़” था जिसे देखकर अमीर ख़ुसरो का ये मिसरा बे-इख़्तियार ज़बान पर आजाता था;
बिसियार ख़ूबाँ दीदा अ’मामा तो चीज़े देगरी
‘‘हिज़्ब-ए-इख़्तिलाफ़ ने दार-उल-उलूम की एक सौ एक नशिस्तों के लिए एक सौ एक उम्मीदवार खड़े किए थे। बदक़िस्मती से सात उम्मीदवारों के इलावा जो कामयाब हुए बाक़ी सबकी ज़मानत ज़ब्त हो गई थी। उसे इस शिकस्त से इतनी मायूसी नहीं जितनी कि हैरानी हुई थी क्योंकि उसने अपने इलेक्शन मेनिफेस्टो में बर सर-ए-इक़तिदार आने के बाद मुल्क में मुकम्मल मुसावात लाने का वा’दा किया था। इस के बबांग दहल ऐ’लान किया था’’,
‘‘हम वा’दा करते हैं अगर हुकूमत की बागडोर हमारे हाथ में आगई तो मुल्क में मुसावात का दौर दौरा होगा।”
हर घर में एक जैसे ख़द्द-ओ-ख़ाल रखनेवाले बच्चे पैदा हुआ करेंगे। तमाम शौहरों की एक जैसी ख़ूबसूरत या बदसूरत बीवीयां होंगी। सब लोग एक जैसे आ’ली दिमाग़ या बद-दिमाग़ होंगे। जुमला मरीज़ एक जैसे अमराज़ में मुबतला हुआ करेंगे। हर एक शख़्स को फ़ुनून-ए-लतीफ़ा पर यकसाँ दस्तरस हासिल हुआ करेगी। तमाम घरों में चूहों, बिल्लियों और चमगादड़ों की एक जैसी ता’दाद होगी। सब अफ़राद एक जैसी उम्र पाया करेंगे। कमांडर और सिपाही को एक जैसी तनख़्वाह मिला करेगी।
इस मेनिफेस्टो के बावजूद जो अच्छा ख़ासा 'सब्ज़-बाग़ था,जब ‘‘हज़फ़ इख़्तिलाफ़” को इ’बरतनाक शिकस्त हुई तो उसने अपनी ख़िफ़्फ़त मिटाने के लिए तरह तरह के दलायल का सहारा लिया। कहा कि पोलिंग अफ़सर बेईमान थे, वोटर बेशऊर थे। वोटों की गिनती करने वाले हिसाब में कमज़ोर थे। मज़ीद कहा हम इस शिकस्त का इंतक़ाम हुक्मराँ पार्टी से ''मुख़ालिफ़त बराए मुख़ालिफ़त” के उसूल पर अ’मल करके लेंगे। चुनांचे आए दिन इस और सरकार में इस क़िस्म की झड़पें होती रहती थीं।
सरकार, ‘‘सूरज मशरिक़ में तुलूअ और मग़रिब में ग़ुरूब होता है।”
हिज़्ब-ए-इख़्तिलाफ़, “हम इस हक़ीक़त को तस्लीम करलेते अगर आपने उसे बयान न किया होता। अब तो हम यही कहेंगे सूरज जुनूब मशरिक़ में तुलूअ और शुमाल मग़रिब में ग़ुरूब होता है।”
‘‘शोर-ओ-गुल मचाने से कोई मसला हल नहीं होता।”
“मसाइल को हल करना आपका काम है। हमारा फ़र्ज़ सिर्फ़ शोर-ओ-गुल मचाना है।”
‘‘तारीकी को कोसने की बजाय ये बेहतर है उसे दूर करने के लिए एक छोटी सी शम्मा रोशन की जाये।”
‘‘हम आपके साथ मुत्तफ़िक़ नहीं, हमारा ख़्याल है कि तारीकी को दूर करने के लिए उसे सिर्फ़ कोसना काफ़ी नहीं।”
‘‘नाव अगर मंजधार में फंस जाये तो मुत्तहदा कोशिश से उसे बचाना चाहिए। अगर वो डूबेगी तो सब डूबेंगे।”
‘‘बे-शक हम भी डूबेंगे लेकिन हमें मसर्रत होगी कि आप भी तो डूबेंगे।”
‘‘हिज़्ब-ए-इख़्तिलाफ़ के सिर्फ़ दो तकबीर हाय कलाम थे। पहला ये कि हर मुसीबत के लिए चाहे वो आसमानी क़हर क्यों न हो, हुकूमत ज़िम्मेदार है। दूसरा, सरकार को फ़ौरन मुस्तफ़ी होजाना चाहिए एक साल क़ुदरत ने हज़फ़ इख़्तिलाफ़ की इस तरह इमदाद की कि मुल्क में बारिश बिल्कुल न हुई। बहुत से इलाक़ों में सूखा पड़ गया। हिज़्ब-ए-इख़्तलाफ़ ने इसकी ज़िम्मेदारी सरकार के सर थोपते हुए कहा, हमें मो’तबर ज़रिये से पता चला है कि हमारी सरकार ने इम साल दीदा-ओ-दानिस्ता बारिश होने नहीं दी।
बादलों को ग़ैर ममालिक में बरामद किया गया ताकि बिदेसी सिक्का कमाया जा सके। जनता फ़ाक़ाकशी करने पर मजबूर हो गई। इन्साफ़ का तक़ाज़ा है कि सरकार को फ़ौरन मुस्तफ़ी होजाना चाहिए, इससे अगले साल इतनी ज़बरदस्त बारिश हुई कि जगह जगह सैलाब आना शुरू हो गए।
हिज़्ब-ए-इख़्तिलाफ़ को ऐसा मौक़ा ख़ुदा दे। उसने सरकार में अदम-ए-ए’तिमाद की तहरीक पेश करते हुए इल्ज़ाम लगाया, ग़ैरमामूली बारिश के लिए सरकार ज़िम्मेदार है। उसने ग़ैर ममालिक से इतनी ता’दाद में बादल दर आमद किए कि कसरत-ए-बाराँ की वजह से सैलाब आए। हम मुतालिबा करते हैं कि हुकूमत को फ़ौरन अस्तीफ़ा दे देना चाहिए।
जब आबादी के बढ़ने और पैदावार के घटने की वजह से ज़रूरियात-ए-ज़िंदगी बहुत गिरां या कमयाब हो गई तो “हिज़्ब-ए-इख़्तिलाफ़” ने हस्ब-ए-दसतूर सरकार को आड़े हाथों लिया। जब उससे पूछा गया, क्या ऐसी सूरत-ए-हाल कम-ओ-बेश तमाम ममालिक में नहीं पाई जाती, तो उसने कहा, हमें इससे सरोकार नहीं कि दूसरे ममालिक में सूरत-ए-हाल हमारे मुल्क से बदतर है। हम इस बात से क्या तसल्ली हासिल कर सकते हैं कि अगर हम परेशान हैं तो दूसरे भी तो परेशान हैं?
दो साल के दौरान “हिज़्ब-ए-इख़्तिलाफ़” ने सरकार में अदम-ए-ए’तिमाद की आठ तहरीकें पेश कीं। जब वो सब रद्द हो गईं और उनके मुसलसल तक़ाज़ों के बावजूद सरकार मुस्तफ़ी न हुई, उसने एक नए हरबे का सहारा लिया। ग़ैर मुतमईन अ’वाम को उकसाना और भड़काना शुरू कर दिया। नतीजा ये हुआ कि बात बात पर हड़तालें होने लगीं। एक बरात को जो बिला टिकट सफ़र कर रही थी, पुलिस ने हिरासत में ले लिया।
पुलिस के इस नाजायज़ रवैय्ये के ख़िलाफ़ हड़ताल की गई। इंजन में ख़राबी की वजह से एक एक्सप्रेस ट्रेन लेट हो गई। रेलवे के ख़िलाफ़ हड़ताल करने का ऐ’लान किया गया। एक शहर में आवारा कुत्तों और सांडों की तादाद में इज़ाफ़ा हो गया। कुत्तों और सांडों के ख़िलाफ़ हड़ताल की गई।
जब हड़तालों से भी “हिज़्ब-ए-इख़्तिलाफ़” को अपने मक़सद में कामयाबी न हुई, उसने एक मुल्कगीर “बंद” के एहतिमाम का फ़ैसला किया। इसके लिए बड़े ज़ोर-शोर से प्रापेगंडा किया गया। कहा गया, ये “बंद” जनता की तमाम मुश्किलात का वाहिद हल साबित होगा।
ये आख़िरी बंद होगा। इसके बाद मुल्क में हर चीज़ की फ़रावानी हो जाएगी। नायाब या कमयाब चीज़ों के गलियों और बाज़ारों में ढेर लग जाऐंगे। चूँकि ये बंद अपनी नौईयत का पहला बंद था, लोगों को तलक़ीन की गई कि उसे कामयाब बनाने के ले वो एक ख़ास दिन और ख़ास वक़्त अपने अपने घरों को आग लगा दें ताकि सरकार को पता लगे कि वो कितने बेचैन और मुज़्तरिब हैं।
जनता “हिज़्ब-ए-इख़्तिलाफ़” के भर्रे में आगई। उसने मुक़र्ररा तारीख़ और वक़्त पर अपने घरों को नज़र-ए-आतिश कर दिया और आग कुछ ऐसी लगी घर में कि जो था जल गया, के मिस्दाक़ तमाम तेज़ें जल कर स्याह हो गईं।
अब चारों तरफ़ राख ही राख के ढेर थे और भूकी, नंगी और बेहाल जनता थी। फ़ानी बद एवनी ने जब ये नज़ारा ख़ुल्द-ए-बरीं से देखा तो उन्हें बेसाख़्ता अपना एक शे’र याद आ गया;
बहला न दिल, न तीरगी-ए-शाम-ए-ग़म
ये जानता तो आग लगाता न घर को मैं
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