कुछ और टिकट कुछ और उम्मीदवार
हमने इस रोज़ रेलवे के रिटायर्ड गार्ड मीर दिलदार अली संदेलवी का ज़िक्र किया था जिनको सुबाई असैंबली के लिए किसी और पार्टी का टिकट न मिला तो रेलवे के टिकट पर ही खड़े हो गए हैं। ये ग़ालिबन रिटर्न टिकट होगा, जिसमें फ़ायदा ये है कि आदमी और कुछ नहीं तो अपने घर तो वापस आसकता है। दूसरे टिकटों वालों का तो ये देखा है कि बा’ज़ औक़ात न घर के रहते हैं न घाट के। प्रोग्राम मीर साहिब क़िबला का ये है कि वो तहरीक-ए-पाकिस्तान के मुख़लिस कारकुनों को एक प्लेटफार्म पर जमा करें। मीर साहिब के तवील तजुर्बे को देखते हुए हम कह सकते हैं कि वाक़ई करेंगे लेकिन उन्हें कुछ और चौकसी और मुस्तइद्दी दिखाने की ज़रूरत है, ये न हो कि मुख़लिस कारकुनों को एक प्लेटफार्म पर जमा करते करते ख़ुद इतने लेट हो जाएं कि
गाड़ी निकल चुकी हो
पटरी चमक रही हो
मीर साहिब मज़कूर की इलेक्शन मुहिम आजकल छकाछक जा रही है। तक़रीर में ऐसा फ़र्राटा भर रहे हैं कि बड़े बड़े जंक्शन मुँह देखते रह जाते हैं। बीच में फ़क़त एक-आध जगह रुकते हैं। वो भी पानी लेने यानी पानी पीने के लिए। उनकी एक-आध तक़रीर हमने भी सुनी है। फ़रमाया आपने,
हज़रात ये दुनिया मुसाफ़िरख़ाना है, हम सब यहां पैसन्ज़र के मुवाफ़िक़ हैं। पस जितने दिन ज़िंदगी की गाड़ी चलती है, मुहब्बत और उखुवत का सिगनल डाउन रखना चाहे और नफ़रत-ओ-इनाद को हमेशा लाल झंडी दिखानी चाहिए। ग़रीब और अमीर का ज़िक्र करते हुए मीर साहिब ने कहा कि “इस वक़्त हमारे मुआशरे में बड़ी अबतरी है। फ़र्स्ट और सेकंड क्लास के लोग तो ऐश की सीटियाँ बजाते हैं। हम एंटर क्लास और थर्ड क्लास लोग जूतीयां चटख़ाते हैं।”
हाज़िरीन में से किसी ने नारा लगाया कि इस्लाम ख़तरे में है। मीर साहिब तुरंत बोले, “इस्लाम ख़तरे में नहीं है, बार-बार ख़तरे की ज़ंजीर मत खींचो, ये क़ानून के ख़िलाफ़ है, जुर्माना देना पड़ेगा।”
रेलवे का सुना तो एक साहिब पी आई ए के टिकट पर खड़े हो गए। आजकल इस क़िस्म की तक़रीरें कर रहे हैं, लेडीज़ एंड जेंटलमैन, सलामालैकुम। कैप्टन फ़लक सैर आपको इलेक्शनी परवाज़ 1970 पर ख़ुश-आमदीद कहता है। अपने हिफ़ाज़ती बंद बांध लीजिए और सिगरेट नोशी से परहेज़ करें। हम पैंतीस हज़ार फुट की बुलंदी पर परवाज़ करते हुए और ख़्याली पुलाव खाते हुए इंशा अल्लाह महीना भर में असैंबली चैंबर में जा उतरेंगे। रास्ते में दाहिनी तरफ़ अच्छरा मोड़ आएगा और बाएं तरफ़ लाड़काना के पीपलों के झुंड पड़ेंगे। हम उनको बेनियाज़ाना देखते हुए गुज़़रेंगे। उम्मीद है कि आपका सफ़र ख़ुशगवार गुज़रेगा। धन्यबाद शुक्रिया, थैंक यू।
हवाई जहाज़ का टिकट हासिल करना ऐसा आसान नहीं। रेलवे की खिड़की पर भी कभी कभी रश् हो जाता है। लिहाज़ा हमारे करम फ़र्मा ख़ान बनारस ख़ान ने लांढी से ओमनी बस के टिकट पर खड़े होना पसंद किया है। उन्होंने इलेक्शन की मुहिम का आग़ाज़ करते हुए अपने कारकुनों को इशारा किया है कि “जाने दोस।” अपनी तक़रीर का आग़ाज़ वो हमेशा की तरह किसी न किसी शे’र से करते हैं। “आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं, सामान सौ बरस के हैं पल की ख़बर नहीं।” उनका नारा है कि “हॉर्न देकर पास करें।” और तक़रीर का अंदाज़ ये है:
बाइयो, ऊपर आ जाओ, पायदानों पर मत खड़े हो। जेब पाकेट से होशियार। आजकल वोट कतरे बहुत हो गए हैं। हाँ तो बाइयो, तुम अम को सीट पर बिठाओ, अम तुम को सीट पर बिठाएगा। किसी को खड़ा नहीं रखेगा। हमारे हाँ पार्टीयां बहुत हैं लेकिन सब धुआँ छोड़ रही हैं। उम्मीदवार में किसी का ब्रेक फ़ेल है। बोलना शुरू करता है तो रुकते रुकते भी आध घंटा और लगा देता है। किसी की बॉडी पुरानी है बाज़ों के तो साईलेंसर भी काम नहीं करते जैसे हमारे ओकाड़े वाले मौलवी साहब के। पस अम को वोट दो... अरे उठकर किधर जाता है, अभी हमारा तक़रीर कहाँ ख़त्म हुआ है:
हर बशर को है ये लाज़िम सब्र करना चाहिए
जब खड़ी हो जाये गाड़ी तब उतरना चाहिए
इत्तफ़ाक़ से एक टिकट डाक का भी होता है। बाबू मुहम्मद दीन साबिक़ पोस्ट मास्टर को उसी पर खड़े होने में सहूलत नज़र आई। उनकी तक़रीर भी हमने सुनी है, “मुहतरम हज़रात अस्सलामु अलैकुम, मिज़ाजे शरीफ़, आप सबको हमारा दर्जा बदरजा सलाम पहुंचे। हमारे थैले में बातें तो बहुत हैं लेकिन सॉर्ट करके फ़क़त चंद एक आपकी ख़िदमत में पेश करूँगा। ये जितने उम्मीदवार हैं, सब के दिलों पर मोहरें लगी हुई हैं। उनकी बातें महज़ लिफ़ाफ़ा हैं, अंदर कुछ भी नहीं। किसी का पता नहीं कि कब बैरंग हो जाएगी या पूरी क़ौम को डेड लेटर ऑफ़िस धकेल दे। वोटर हज़रात से इलतिमास है कि मेरे ख़त को तार समझें। यानी मेरी गुज़ारशात पर तवज्जो फ़रमाएं और पोलिंग के रोज़ अपने अपने वोट क़रीब तरीन लैटरबाक्स में डाल दें, बाक़ी सब ख़ैरीयत है, वस्सलाम।”
मतवाला का नाम तो आपने सुना होगा। फ़िल्मी दुनिया की मशहूर शख़्सियत हैं। ये भी इलेक्शन में खड़े हैं और उनके पास सिनेमा का टिकट है। ये अपनी तक़रीर का मुखड़ा उमूमन किसी फ़िल्मी गीत से बाँधते हैं। मसलन, “ऐ देखने वाले देख के चल, हम भी तो खड़े हैं राहों में” उसके बाद फ़रमाते हैं, “हज़रात क़ौम की ख़िदमत करना आसान काम नहीं, लेकिन मैं ये सोच कर खड़ा हो गया हूँ कि जब प्यार किया तो डरना क्या और छुप-छुप आहें भरना क्या? खड़ा होना मेरा काम था, अब मुझे मेंबर बनाना आपका काम है यानी अब ये तहाडी इज़्ज़त दा सवाल ए।
साहिबान आपके पास तरह तरह का उम्मीदवार आएगा। तरह तरह की ऐक्टिंग करेगा और डायलॉग बोलेगा, उनसे होशियार। उनके रोने गाने पर न जाइएगा। सब प्लेबैक है। ख़ाकसार की पूरी उम्र क़ौम की ख़िदमत में रिहर्सल करते गुज़री है। अब तो उसे क़ौमी हीरो बनने का मौक़ा मिलना चाहिए। आप इस शेरां दे पुत्तर शेर को वोट न देंगे तो और किसे देंगे?
एक रोज़ उनके जलसे में एक साहिब ने खड़े हो कर कोई एतराज़ करना चाहा, आपने फ़ौरन आवाज़ लगाई, “कट।” वो वहीं बैठ गया।
ख़ान शेर ख़ान गांधी गार्डन के इलाक़े से खड़े हुए हैं और उनके पास चिड़ियाघर का टिकट है। उनकी तक़रीर भी सुनने की होती है।
साहिबान आजकल हर कोई अपनी अपनी बोली बोल रहा है, दहाड़ रहा है, चिंघाड़ रहा है, लेकिन हाथी की तरह उनके खाने के दाँत और हैं और दिखाने के और। क़ौम के लिए क़ुर्बानी देने का वक़्त आएगा तो सबको साँप सूंघ जाएगा। तोते की तरह आँखें फेर लेंगे। दुम दबाकर भाग जाऐंगे। याद रखिए, उन लोगों का आगा शेर का है और पीछा भेड़ का है। बगुला भगतों को वोट मत दीजिए, ख़ाकसार को दीजिए कि शाहीन रा बुलंद अस्त आशियाना।
सबसे मुख़्तसर तक़रीर मिर्ज़ा बरकत उल्लाह बेग की होती है। ये लाटरी के टिकट पर खड़े हैं, “भाई साहिबान, मैं तो सिर्फ़ इतना कहूंगा कि मुझे वोट दीजिए और असैंबली में पहुंचा दीजिए। उसके बाद मैं आपकी ख़िदमत करता हूँ या आपको दग़ा देता हूँ, ये आपकी क़िस्मत की बात है।”
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