मौलवी साहब की बीवी
आप मुझसे मुत्तफ़िक़ हों या न हों मुझे उसकी पर्वा नहीं, मगर मेरा तो ये ख़्याल है कि ‘मियां बीवी’ के ताल्लुक़ात के लिहाज़ से घर की तीन क़िस्में होती हैं। पहली क़िस्म तो ये है कि मियां भी घर को अपना घर समझें और बीवी भी। उस घर को बस ये समझो कि जन्नत है। लेकिन मुश्किल ये है कि ऐसे घर दुनिया में कम होते हैं क्योंकि जन्नत में जानेवाले लोग कम हैं और दोज़ख़ में जानेवाले बहुत ज़्यादा। दूसरी क़िस्म ये है कि अगर मियां घर को घर समझें तो बीवी न समझें और बीवी समझें तो मियां न समझें। ऐसा घर आराफ़ है। तीसरी शक्ल ये है कि न तो मियां घर को घर समझें और न बीवी। ऐसा घर दरअसल घर नहीं बल्कि (Hollywood) हालीवुड है यानी आज मियां उस बीवी के हैं तो कल इस बीवी के और बीवी आज इस मियां की हैं तो कल उस मियां की। ये ज़रूर है कि बा’ज़ दफ़ा एक क़िस्म वाले दूसरी क़िस्म में आना चाहते हैं। लेकिन “अयाज़ क़दर बशनास” की ठोकर खाते हैं और “बाज़ाब्ता पसपा” होजाते हैं।
अब देखना ये है कि एक मज़मून निगार के लिए उन घरों में से ऐसा कौन सा घर है, जिसके हालात लिख कर वो अपने मज़मून को दिलचस्प बना सकता है। इसके मुताल्लिक़ मैं तो क्या आप भी यही कहेंगे कि “क़िस्म दोम के घर” में ऐसी बातें बहुत कुछ मिल जाएँगी। वजह ये है कि “क़िस्म अव्वल के घर” नमूना जन्नत होते हैं। ज़ाहिर है कि जन्नत में सिवाए आराम के और रखा ही क्या है। सुबह हुई मियां-बीवी दोनों उठे। बीवी ने नाशता पकाया, मियां के सामने रखा। इतने में बच्चे उठ बैठे। उनका मुँह हाथ धुलाया, कुछ खिलाया पिलाया, कपड़े बदले। मदरसा भेज दिया। मियां दस बजे दफ़्तर गए। सारे दिन वहाँ सर मग़ज़नी करके शाम को घर वापस आए। दिन-भर बीवी कुछ सीती पिरोती रहीं। शाम को मियां आए। आते आते रास्ता में से दो आने के दहीबड़े लेते आए। बीवी ने “दोना” ले रकाबी में दहीबड़े निकाले। मियां बीवी और बच्चों ने खाए। मियां आराम कुर्सी पर दराज़ हो गए। छोकरे ने हुक़्क़ा भर कर सामने रख दिया। अब ये हुक़्क़ा पी रहे हैं और बीवी से बातें कर रहे हैं। बीवी पान बना बना कर मियां को दे रही हैं। बच्चे बाहर खेलने चले गए हैं। रात हुई सबने मिलकर खाना खाया। अल्लाह का शुक्र अदा किया। मियां ने हुक़्क़ा पिया। बच्चे दालान में और मियां-बीवी कमरे में जाकर सो गए। सुबह हुई, सब उठे और वही पुराना चर्ख़ा चलने लगा। ग़रज़ यूंही सारी उम्र गुज़ार दी। आख़िर मर गए। बच्चों ने ले जाकर दफ़न कर दिया। चलो भई छुट्टी हुई। भला ग़ौर तो कीजिए ये भी कुछ ज़िंदगी हुई। मज़ा तो उस घर में आता है जहाँ कभी तो हिमालया की ठंडी हवा चले और कभी झांसी की लू। कभी अकड़ गए और कभी झुलस गए। ऐसे घरों की अल्लाह के फ़ज़ल से कोई कमी नहीं है। लीजिए सामने वाले घर ही को लीजिए।
ये मौलवी याक़ूब साहब क़िबला का मकान है। मौलवी साहब वाज़ कहते हैं। औरतों की शान में बड़ी बड़ी गुस्ताख़ियाँ करते हैं और ग़ज़ब तो ये है कि जो कुछ कहते हैं कि उस पर घर में आकर अमल भी करते हैं। बीवी को लौंडी समझते हैं और बच्चों को आख़ूर की भर्ती। ख़ुद तो कमाने के क्यों क़ाबिल होने लगे, हाँ बीवी को जो कुछ मैके से मिला है, उसी पर घर चल रहा है। बीवी बड़े घराने की लड़की हैं। शादी के वक़्त बहुत कुछ मिला। कपड़ा लत्ता मिला, गहना पाता मिला। कई दुकानें मिलीं, दो मकान मिले। ग़रज़ इतना मिला कि दस बरस हो गए हैं और उसी पर ये हज़रत मौलवी साहब बने फिरते हैं। अब उनके बस यही दो तीन काम रह गए हैं कि इधर उधर उलटा सीधा वाज़ कहते रहें। घर में आएं तो बीवी को सलवातें सुनाएँ, बच्चियों की ठुकाई करें। ख़ूब पेट भर कर खाना खाएं। तोंद पर हाथ फेरें और शाम ही से इस तरह “सन्नाटें” कि बस सुबह ही की ख़बर लाएं।
आप कहेंगे कि जब सारा ख़र्च बीवी की जायदाद से चलता है तो फिर आख़िर बीवी उनसे दबती क्यों हैं, लात मारकर बाहर करें। ख़ुद ही थोड़े दिनों में उनके “ख़न्ने” ढीले होजाएंगे। तो साहब बात ये है कि ये बेचारी बीवी हिन्दुस्तानी बीवी है। विलाएती बीवी होती तो अब तक कभी का “तिया पांचा” होजाता। जितने मियां सर चढ़ते हैं उतनी ही ये ग़रीब दबती है और जितनी ये दबती है उतने ही मियां और शेर होते हैं। बस ये देख लो कि इसी “दबाव दबाव” में इन हज़रत ने सारी जायदाद अपने नाम लिखवा ली। हुआ ये कि एक दिन ये ऐसे बिगड़े ऐसे बिगड़े कि तलाक़ देने पर आमादा हो गए। बीवी बेचारी ये भी नहीं समझी कि अगर ये तलाक़ देंगे तो मेहर कहाँ से अदा करेंगे। उसके लिए तो “तलाक़नी” कहलाना ही बस क़ियामत था। उसके बाद मौलवी साहब ने घर में आना छोड़ दिया। बाहर कमरे में पड़े रहते और वहीं से तलाक़ की धमकी दिया करते। बीवी से बातचीत करना छोड़ दिया था। इसलिए ये गुफ़्तगु बज़रिए ख़त हुआ करती। हमेशा ख़त में “टेप का बंद” ये होता था कि जायदाद मेरे नाम करदो तो मैं घर में आता हूँ नहीं तो अलक़त। बीवी बेचारी ने सारी जायदाद उनके नाम लिख दी और इस तरह मौलवी साहब ने बीवी की “रक़मी गिरफ़्त” से छुटकारा पाया। जब कुछ न होने पर ये ज़ोर था तो समझ लीजिए जायदाद का मालिक होने के बाद उन्होंने क्या कुछ ज़ोर न पकड़ा होगा। पहले ज़बान चलती थी अब हाथ भी चलने लगा। बीवी सब कुछ सहती थीं और इसलिए सहती थीं कि ज़रा कुछ बोली तो घर बिगड़ जाएगा और बच्चियां तबाह होजाएंगी। लीजिए उनकी गुफ़्तगु का कुछ रंग भी देख लीजिए,
मौलवी साहब, क्या पेट से हो?
बीवी, (शर्मा कर) जी हाँ।
मौलवी साहब, फिर कोई लड़की जन देना।
बीवी, ये कुछ मेरे इख़्तियार की बात है।
मौलवी साहब, देखो जी, तुम्हारे ऊपर तले लड़कियां जनने से हम बेज़ार हो गए हैं। अगर अब के भी लड़की हुई तो तुम्हारी ख़ैर नहीं है।
बीवी, ये अल्लाह मियां की देन है। जी चाहे लड़की दे, जी चाहे लड़का।
मौलवी साहब, तुम जानती हो, मुझे लड़कियों से नफ़रत है।
बीवी, ये क्यों?
मौलवी साहब, ये इसलिए कि दूसरे के घर जाती हैं और बाप के हाँ का बहुत कुछ साथ ले जाती हैं।
बीवी, आख़िर इस घर में जो कुछ है वो भी तो लड़की ही की तरफ़ का आया हुआ है। अगर ये माल लड़की को चला जाएगा तो क्या है।
मौलवी साहब ये सुनकर तो आपे में नहीं रहे। कहने लगे, “बदज़ुबान, क्या ये कम है कि तुझ जैसी जाहिल औरत एक आलिम-ए-दीन मतीन के हबाला निकाह में आई हो। क़सम अल्लाह की, मैं तरह दे जाता हूँ वर्ना कभी का चोटी पकड़ कर निकाल दिया होता।”
बीवी ने कहा, “निकाल दो, मैं फिर आजाऊँगी। मुझे तो यहीं मरना भरना है।” उसके बाद जनाब मौलवी याक़ूब साहब क़िबला ने जो कुछ गुलफ़िशानी की, उस पर ड्राप सीन डालना ही ज़्यादा मुनासिब है।
बीवी को इसकी पर्वा नहीं थी कि उस पर क्या ज़ुल्म हो रहे हैं लेकिन बच्चियों की हालत देखकर तड़प जाती थी। ख़ुद पहनने को फटे पुराने पैवंद लगे कपड़े थे। उसका तो उसे रत्ती बराबर ख़्याल नहीं था। हाँ, बच्चियों को नंगा देखकर उसके आँसू निकल आते थे। घर में थी ऐसी कौनसी बच्चों की “लांगाएर” बस दो लड़कियां थीं। एक सात बरस की, दूसरी चार बरस की। मगर मौलवी साहब उन नन्ही सी जानों के मुताल्लिक़ समझते थे कि ख़ूब मोटी ताज़ी हट्टी कट्टी औरतें हैं। घर में झाड़ू दें तो ये दें, घड़ों में पानी भरें तो ये भरें। चिलमें भर कर लाएं तो ये लाएं। ग़रज़ दुनिया का कोई काम न होगा जो इन मासूमों से न लिया जाता हो। फिर उस पर ग़ज़ब ये कि ज़रा देर हुई और “तड़” से थप्पड़ पड़ा। बीवी ये ज़ुल्म देखती थीं और कलेजा मसोस कर रह जाती थीं। मगर क्या करतीं, जानती थीं कि ज़रा कुछ बोलीं और घर का घर वाया हुआ। ख़ुद तो गईं चूल्हे में बच्चे तबाह होजाएंगे।
ग़रज़ इसी तरीक़े से किसी न किसी तरह खिंची चली जाती थी। लेकिन आख़िर कहाँ तक, इसी कोफ़्त में बीवी बीमार हुईं। इलाज कराया, कुछ सँभल गईं मगर खांसी बदस्तूर रही और हल्का हल्का बुख़ार भी रहने लगा। एक दिन ये डोली में बैठ अपने भांजा रहीम उद्दीन को साथ ले हकीम अहमद सईद ख़ां के पास नब्ज़ दिखाने गईं। उन्होंने नब्ज़ देखी, क़ारूरा मिला कर देखा और कहा कि “अगर मौलवी याक़ूब साहब आजाते तो अच्छा था। मुझे उनसे तुम्हारे मरज़ की सही कैफ़ियत कहनी थी।” उन्होंने बहुत नीची आवाज़ में कहा, “वो क्यों आने लगे, आपको जो कुछ कहना है मुझसे कह दीजिए। ज़्यादा से ज़्यादा यही कहिएगा न कि मरजाऊँगी। मैं मरने से कब डरती हूँ।”
हकीम जी ने कहा, “बुआ जब तुम सब कुछ सुनने को तैयार हो तो सुनो। तुम्हारा मरज़ बहुत बढ़ गया है। दिक़ है और तीसरी दर्जे पर पहुँचने वाली है। अगर एहतियात नहीं की गई तो ज़िंदगी मुश्किल है। तुम्हें सबसे ज़्यादा आराम की ज़रूरत है। तबीयत पर बार पड़ना इस मरज़ के लिए ज़हर है।” ये कह उन्होंने नुस्ख़ा लिख दिया। कहारों ने डोली उठाई। उन्होंने रहीम उद्दीन को पास बुलाकर कहा कि “मुझे भाई करीम उद्दीन के पास ले चल।” करीम उद्दीन उनके रिश्ते के भाई और रहीम उद्दीन के चचा थे। वकालत करते थे और अपने काम में बड़े होशियार थे। ख़ैर, डोली मतब से उठ कर करीम उद्दीन साहब वकील के दफ़्तर पहुँची। जब बहन के आने की ख़बर हुई तो उन्होंने दफ़्तर में पर्दा कराके बहन को उतरवाया। बिचारे परेशान थे कि या तो मौलवी साहब उनको घर से निकलने नहीं देते थे। रिश्तेदारों से मिलने की बंदी थी या ये इस तरह घर पर आना तो क्या दफ़्तर में आगईं। उनके उतरते ही वकील साहब ने पूछा, “आख़िर ये तो बताओ कि तुम आईं कैसे?”
ये, भाई क्या बताऊं। आज हकीम साहब ने जवाब दे दिया। कहते हैं कि तुम बहुत जीईं बहुत जीईं तो कोई महीना भर जिओगी।
वकील साहब, हकीमों की बात का क्या ठीक, जो जी में आता है कह देते हैं। तुम ख़्वाह-मख़ाह परेशान होती हो।
ये, परेशान वरेशान तो मैं होती नहीं। हाँ, ये ख़्याल है कि मैं न रही तो उन बच्चियों का क्या हश्र होगा। उनकी जो हालत है वो तो तुम भी जानते हो। चाहती हूँ कि मरने से पहले थोड़े दिन उन बच्चियों को ज़रा आराम से रहता देख लूं ताकि मेरे बाद उनको ये तो कभी ख़्याल आए कि माँ ने मरने से पहले हमको थोड़ा बहुत सुख पहुँचाया। वर्ना मेरे बाद दोनों यही कहेंगी कि हमारे लिए तो माँ का होना न होना दोनों बराबर रहे।
वकील साहब, मगर उसके लिए चाहिए रुपये और तुम कौड़ी कौड़ी मौलवी साहब को दे चुकी हो।
ये, इसीलिए तो मैं आई थी कि मेरा रुपया उनसे निकलवा दो।
वकील साहब, ये किस तरह हो सकता है। तुमने अपनी ख़ुशी से जायदाद मुंतक़िल की है। अब उसका इस्तिर्दाद नामुमकिन है।
ये, मैंने ख़ुशी से थोड़ी दी है। उनके ज़ुल्मों से दी है।
वकील साहब, उसका सबूत?
ये, उसका सबूत उनके वो ख़त हैं जो उन्होंने मुझे लिखे हैं। किसी ख़त में लिखा है कि अगर मेरे नाम जायदाद नहीं की तो मैं तलाक़ दे दूँगा। किसी में लिखा है कि तेरा और तेरी बच्चियों का गला घोंट दूँगा, ग़रज़ क्या बताऊं क्या-क्या ज़ुल्म तोड़े हैं।
वकील साहब, वो ख़त हैं कहाँ?
ये, मेरे घर में हैं।
वकील साहब, ये बात है तो बहन मैं अभी उसका इंतज़ाम किए देता हूँ, मगर देखना वो ख़त बहुत एहतियात से रखना। उन्ही पर जायदाद के वापस होने का दार-ओ-मदार है और हाँ, तुम में मौलवी साहब के मुक़ाबला पर खड़ी होने की हिम्मत भी है।
ये, अब वो बात गई। अब तक मैं इसलिए दबती थी कि घर न बिगड़ जाये। बच्चियां तबाह न होजाएं। जब ख़ुद ही बीस-पच्चीस रोज़ में मरना है तो कैसा घर और कैसे मौलवी साहब। मिस्ल मशहूर मरता क्या न करता।
वकील साहब, अच्छा, तुम ठहरो। मैं अभी एक नोटिस लिख कर देता हूँ। जाते ही मौलवी साहब को दे देना, उसके बाद जो कुछ होगा वो मैं भुगत लूँगा।
ग़रज़ वकील साहब ने नोटिस लिख कर बहन को दिया और ये डोली में बैठ घर पहुँचीं। मौलवी साहब कुर्सी पर बैठे हुक़्क़ा पी रहे थे। चिलम भरने पर बड़ी लड़की को मारा था। वो बावर्चीख़ाना में बैठी रो रही थी। उसके साथ ही उनको ये भी ताव था कि बीवी इतनी देर से नब्ज़ दिखाने गई हैं, अब तक वापस नहीं आईं। उधर बीवी डोली से उतरकर अंदर आईं और इधर मौलवी साहब ने कहा,
मौलवी साहब, आख़िर कहाँ मर गई थी?
बीवी, बस ज़बान सँभाल के बोलना।
मौलवी, क्या कहा?
बीवी, ये कहा कि ज़बान सँभाल के बात करना वर्ना अच्छा न होगा।
ये पहला मौक़ा था कि मौलवी साहब को इस नमूने का जवाब मिला था। आग ही तो लग गई। मारने को उठे। बीवी ने सेहन में पड़ा हुआ बाँस उठा लिया और कहा, “अगर इधर एक क़दम बढ़ाया तो सर तोड़ दूँगी। मुझे समझ क्या लिया है।”
मौलवी साहब ने कहा, “निकल जा मेरे घर से।” बीवी ने कहा, “घर मेरा है, तुम्हारे बाप का नहीं है। ये लो नोटिस और मकान ख़ाली करो।” नोटिस का नाम सुनकर मौलवी साहब ज़रा चकराए। किसी क़दर दबी ज़बान से कहा, “काहे का नोटिस?”
बीवी ने कहा, “जायदाद वापस करने का।” मौलवी साहब ने बीवी के हाथ से नोटिस लिया, लिखा था,
“जो जायदाद आपने अपनी बीवी ज़ाहिद उन्निसा बेगम साहिबा से अपने नाम मुंतक़िल कराई है वो दाब नाजायज़ से मुंतक़िल कराई है और हमारे पास इस अमर का तहरीरी सबूत मौजूद है कि न सिर्फ़ तलाक़ की बल्कि क़त्ल की धमकियां देकर ये इंतक़ाल जायदाद की कार्रवाई की गई है। इसलिए या तो बराह-ए-करम इस सारी जायदाद को दो रोज़ के अंदर ज़ाहिद उन्निसा बेगम साहिबा के नाम मुस्तर्द कीजिए वर्ना आप पर दीवानी और फ़ौजदारी दोनों क़िस्म की नालिशें की जाएँगी और आप ख़र्चा के ज़िम्मेदार होंगे।”
नोटिस पढ़ कर मौलवी साहब ने कहा,
मौलवी साहब, वो मेरी कौनसी तहरीरें हैं जिसमें मैंने तलाक़ और क़त्ल की धमकी दी है?
बीवी, भूल गए वो ज़माना, जब बिगड़ कर बाहर के कमरे में जा पड़े थे। ख़तों पर ख़त लिखे जाते थे और उस वक़्त तक घर में नहीं आए जब तक सारी जायदाद अपने नाम नहीं लिखवा ली।
मौलवी, (बड़ी नर्मी से) अरे। तो तुमने वो ख़त अब तक अपने पास सैंत कर रख छोड़े हैं। लाओ, मैं भी तो देखूं।
बीवी, अब उनको अदालत में देखना। मैं वो सब काग़ज़ भाई करीम उद्दीन को दे आई हूँ।
मौलवी, (बिगड़ कर) तुम बग़ैर मेरे पूछे करीम उद्दीन के हाँ गईं क्यों?
बीवी, मेरा दिल चाहा।
मौलवी, याद रखना, चुटिया पकड़ कर घर से निकाल दूँगा।
बीवी, में भी देखूं, कैसे निकालते हो। अजी तुमको निकलना पड़ेगा। अब गए वो दिन जब ख़लील ख़ां फ़ाख़्ता उड़ाते थे।
आख़िर मौलवी साहब करते तो क्या करते। वो तो नोटिस ले बाहर गए और यहाँ उनकी बीवी ने मौलवी के रेशमी शिमले फाड़कर बच्चियों के कपड़े सीने शुरू किए। दोनों बच्चियों को नहला-धुला कपड़े पहना ख़ास भले आदमियों की बच्चियां बना दिया। मौलवी साहब इस वकील के हाँ गए, इस वकील के हाँ गए। सब ने यही जवाब दिया कि मुआमला झगड़े का है। वाक़ई अगर आपने क़त्ल की धमकी देकर जायदाद अपने नाम लिखवाई है तो जायदाद तो गई एक तरफ़ जेल चले जाने में कोई कसर नहीं है। बेहतर यही है कि जायदाद बीवी के नाम मुंतक़िल कर दो और इस मुआमला को रफ़ा दफ़ा करो।
इधर मौलवी साहब वकीलों से मश्वरा करते फिर रहे थे और इधर बीवी को ये ख़्याल हुआ कि अगर मियां ने आकर और ज़बरदस्ती संदूक़ची खोल कर ख़त निकाल लिए तो क्या होगा। ये सोच कर उन्होंने बड़ी लड़की को भेज कर डोली मँगवाई और सीधी करीम उद्दीन साहब वकील हाँ पहुँचीं और सब के सब ख़त ले जा उनके हवाले किए। सारा वाक़िया बयान कर दिया। वकील साहब ने ख़त देखे और कहा, “बहन ये ख़त तो ऐसे हैं कि मिनट भर में मौलवी साहब का खाया पिया सब उगलवा लूँगा, मगर एक डर है। अगर उन्होंने तुमको दबाया और तुम दब गईं तो मेरी सब की कराई मेहनत अकारत जाएगी। मौलवी साहब को मैं अच्छी तरह जानता हूँ। वो तुम पर ज़ुल्म तोड़ने में कोई कसर उठा न रखेंगे। पहले अपने दिल को मज़बूत करलो। उस वक़्त ये कार्रवाई शुरू करो।”
उन्होंने कहा, “भाई, अब मैं जान से बेज़ार हो गई हूँ। ज़्यादा से ज़्यादा यही होगा कि घर बिगड़ जाएगा। बिगड़ जाने दो। अब ही ऐसा कौनसा बना हुआ है, मगर मुझे एक डर है।”
वकील साहब ने पूछा, “वो क्या?”
उन्होंने कहा, “मुझे डर ये है कि वो मेरी दोनों बच्चियों को मुझसे छीन लेंगे और छीन ही क्या लेंगे छीन कर उन पर ज़ुल्म तोड़ेंगे। इसका ख़्याल आता है तो दिल लरज़ जाता है।”
वकील साहब ने कहा, “इस से तुम मत डरो। बच्चियों का हक़-ए-हिफ़ाज़त तुमको हासिल है। 12 बरस की उम्र तक तो वो उनको हाथ भी नहीं लगा सकते।” ये सुनकर बी ज़ाहिद उन्निसा बेगम का दिल शेर हो गया। डोली में सवार हो बड़ी दिलजमई से घर आईं। यहाँ आकर देखा तो घर का रंग ही कुछ और पाया। ट्रंक टूटे सेहन में पड़े हैं। संदूक़चे और संदूकचियों का ढेर दालान में है, सामान बिखरा हुआ है। मौलवी साहब सेहन में बड़े ज़ोरों से टहल रहे। छोटी लड़की सहमी हुई सहनची के एक कोने में दुबकी बैठी है। बड़ी लड़की बावर्चीख़ाने में बैठी रो रही है और सर से तुलल तुलल ख़ून बह रहा है। ये हाल देखकर बीवी समझ गईं कि मौलवी साहब शिकस्त खा चुके हैं। अब ये उनका आख़िरी हमला है। अगर उसको सह लिया तो बस फ़तह ही फ़तह है। ये अभी सोच ही रही थीं कि हमला शुरू हो गया और मौलवी साहब ने बड़ी गरजदार आवाज़ कहा,
मौलवी साहब, तुम कहाँ गई थीं?
बीवी, वकील साहब के पास।
मौलवी साहब, क्यों गई थीं?
बीवी, ख़त देने।
मौलवी साहब, तुम नाशज़ा हो।
बीवी, मैं नाशज़ा नहीं, ज़ाहिद उन्निसा हूँ। नाशज़ा होगी कोई और...
इस पर मौलवी साहब ने एक बड़ी ज़बरदस्त गाली दी। गाली देना था कि बीवी तो मारने मरने तो तैयार हो गईं और बड़ी लड़की का हाथ पकड़ कर दरवाज़ा की तरफ़ चलीं। मौलवी साहब ने पूछा, “कहाँ जाती है?” उन्होंने कहा, “जाती कहाँ हूँ, थाना जाती हूँ। अभी जाकर रपट लिखवाती हूँ कि तुमने इस मासूम बच्ची का सर फोड़ दिया।”
मौलवी साहब ने ज़रा दब कर कहा, “मैंने मारा तो अच्छा किया, मेरी बच्ची है।”
बीवी ने बिगड़ कर जवाब दिया, “अगर हिम्मत है बच्ची का गला घोंट दो, मैं भी देखूं तुम्हें फांसी होती है या नहीं। ये भी अच्छी हुई कि हमारी बच्ची है। हम जी चाहे मारें जी चाहे लहूलुहान करें, जी चाहे गला घोंट दें। हमसे पुरशिश नहीं हो सकती। ख़ैर जो कुछ तुम्हें कहना है कोतवाली में जाकर कहना। हटो मेरा रस्ता छोड़ो नहीं तो अभी गुल मचाकर मुहल्ला भर को इकट्ठा करलूंगी।”
मौलवी साहब ने जब ये रंग देखा तो ख़ुशामद पर उतराए। कहने लगे, “तुम ख़्वाह-मख़ाह बिगड़ती हो। इस लड़की से पूछो जो मैंने उसको मारा हो। हुआ ये कि मैं इसके कपड़े का ट्रंक खोल रहा था, ये आकर छीनने लगी। मैंने धक्का दिया, ये गिरी। इसका सर सिल पर पड़ा। यूंही थोड़ी सी खाल छिल गई है। लाओ ज़रा धो डालें। अभी अच्छी हुई जाती है।”
बीवी ने जो ये रंग देखा तो ज़रा ठंडी पड़ीं। मियां-बीवी ने मिलकर लड़की का ज़ख़्म धोया, पट्टी बाँधी। बीवी समझीं कि मियां दब गए। मियां समझे, “अल-हर्ब ख़ुदअ” अब मुक़ाबले से नहीं धोका देकर बीवी के पाँव मैदान-ए-जंग से उखाड़ दो। ये सोच कर कहने लगे,
“बीवी ये तुम्हें क्या हो गया है। या तो मेरी ऐसी फ़रमांबर्दार थीं कि सुब्हान-अल्लाह या एक दफ़ा ही आस्तीनें चढ़ाकर मेरे मुक़ाबले पर तैयार हो गईं और ख़ुदा और रसूल के अहकाम को यकलख़्त दिल से भुला बैठीं। बीवी ने कहा, “क्या करूँ, इन बच्चियों की तकलीफ़ मुझसे नहीं देखी जाती। मेरा क्या है, आज मरी कल दूसरा दिन। चाहती हूँ कि मरने से पहले उनको अच्छी हालत में देख लूं।”
मियां ने कहा, “तुमने मुझसे पहले ही क्यों न कहा। लाओ अब जो कुछ कहो इन बच्चियों के लिए ला दूँ।”
बीवी ने कहा, “इस वक़्त और क्या मंगाऊँ। थोड़ी सी मिठाई ला दो। बच्ची के चोट लगी है। खाकर ख़ुश हो जाएगी।” ये सुनकर मौलवी साहब मिठाई लाने गए। उनको गए हुए थोड़ी ही देर हुई थी कि किसी ने दरवाज़े पर आवाज़ दी। बड़ी लड़की देखने दरवाज़े पर गई और आकर माँ से कहा कि “मामूं करीम उद्दीन आए हैं और आपसे बात करना चाहते हैं।” उन्होंने कहा, “जा, अंदर बुला ला। उनसे यहाँ कौन छुपने वाला है।” ग़रज़ बच्ची बाहर गई और मामूं को लेकर अंदर आई।
करीम उद्दीन, बहन, मैं कचहरी जा रहा था। सोचा कि लाओ, वकालतनामा पर तुम्हारे दस्तख़त ले लूं। मौलवी साहब बग़ैर लड़े शायद यूं जायदाद न दें।
ज़ाहिद उन्निसा, भाई, इसकी अब ज़रूरत नहीं रही। वो तो अब बिल्कुल सीधे हो गए हैं। देखो न बच्चियों के लिए मिठाई लेने बाज़ार गए हुए हैं।
करीम उद्दीन, अच्छा, तो मौलवी साहब ने अब ये रंग इख़्तियार किया है। तुम समझीं भी कि आख़िर इस से उनका क्या मतलब है?
ज़ाहिद उन्निसा, मैं तो कुछ नहीं समझी।
करीम उद्दीन, मतलब ये है कि वो अब ख़ुशामद से काम निकालना चाहते हैं। वकीलों के पास गए थे। उन्होंने जवाब दे दिया और साफ़ साफ़ कह दिया कि जायदाद वापस करनी होगी। इसलिए उन्होंने ख़ुशामद का जाल फैलाया है और मज़ा ये है कि थोड़ी सी देर में तुम इसमें फंस भी गईं।
ज़ाहिद उन्निसा, फिर अब मैं क्या करूँ?
करीम उद्दीन, मैं क्या बताऊं कि क्या करो, लेकिन मेरी ये बात याद रखना कि भूले से भी कोई तहरीर उनको न दे बैठना। जायदाद अपनी कर लो। उसके बाद जो चाहे करना।
ज़ाहिद उन्निसा, भाई, आपने मेरी आँखें खोल दीं। लाइए वकालतनामा दीजिए, मैं दस्तख़त कर दूँ।
ग़रज़ वकालतनामा पर दस्तख़त ले वकील साहब तो उधर गए और इधर मौलवी साहब एक आने की जलेबियां लेकर घर में घुसे। आते ही बच्चियों को बुलाया और दो जलेबियां दोनों को दीं, पाँच छः ख़ुद खाईं, दो बीवी को दीं। उसके बाद मिठार मिठार कर बातें करते रहे। जब समझे कि बीवी फंदे में फंस गईं तो कहने लगे, “अच्छा, वो ख़त तो दिखाओ, ज़रा मैं भी तो देखूं कि ग़ुस्से में मैंने तुम्हें क्या लिख दिया था।” बीवी ने कहा, “ख़तों का ज़िक्र तो जाने दो। वो तो गए अदालत में। अब सीधी तरह तुम सारी जायदाद मेरे नाम कर दो और उसके बाद बात करो। क्या एक आना की जलेबियां लाकर तुम मुझे उसके शीरे में फँसाना चाहते हो। मैं तुम्हारी बातें ख़ूब समझती हूँ।”
ये सुनना था कि मौलवी साहब का पारा फिर बढ़ गया। कहने लगे, “ओहो, अभी दिमाग़ दुरुस्त नहीं हुआ। ज़रा कुंदी किए देता हूँ। सारे नख़रे नाक के रस्ते निकल जाऐंगे।”
ये पूरी तरह कुछ अमली कार्रवाई करने को उठे भी न थे कि बीवी ने शोर मचाना शुरू कर दिया, “लोगो बचाओ बचाओ। मौलवी साहब मुझे मारे डालते हैं।” मकान था ऐन रास्ते पर। रास्ते वालों ने जो गुल व शोर सुना तो दरवाज़े पर जमा हो गए। एक-आध पुलिस वाला भी आगया। मजमे में से एक ने बढ़कर कुंडी खटखटाई और पूछा, “ये क्या गुल हो रहा है।”
अब मौलवी साहब घबराए कि बैठे बिठाए अपने ख़िलाफ़ एक सबूत और खड़ा कर लिया। बाहर निकले, लोगों को कह सुनकर टाला। अंदर आकर बीवी से कहा कि “अभी मेरे घर से निकल जा।” बीवी अड़ गईं कि यू तो मैं जाती नहीं। धक्के देकर निकालना है तो निकालो। क़ियामत हो जाएगी मगर मकान का क़ब्ज़ा तो मैं नहीं छोड़ूँगी। आख़िरी बीवी जीतीं और मियां हारे। कचहरी गए, स्टैंप ख़रीदा और बीवी की सारी जायदाद उनके नाम मुंतक़िल करके काग़ज़ की रजिस्ट्री करा दी। दस्तावेज़ लाकर बीवी के मुँह पर मारी और कहा, “ले, नेकबख़्त सँभाल अपनी जायदाद। अब मेरा तेरा कोई वास्ता नहीं लेकिन याद रख कि बच्चियों की शक्ल देखने को तरस जाएगी।”
बीवी ने कहा, “अजी रहने दो ये बातें। 12 बरस की उम्र तक तो मुझसे उनको कोई छुड़ा नहीं सकता और 12 बरस कैसे मैं तो अब थोड़े दिनों में ख़त्म हुई जाती हूँ। इसके बाद तुम जानो और तुम्हारी औलाद जाने। हाँ ये ज़रूर है कि ऐसा इंतज़ाम करके जाऊँगी कि उनके पैसे को तुम हाथ न लगा सको।”
मौलवी साहब ने जल कर कहा, “ये बात है तो मैं तुझे तलाक़ ही दे देता हूँ।” बीवी ने कहा, “दे दो। मैं क्या इस से डरती हूँ। मगर मेरे मेहर का पहले इंतज़ाम कर दो, नहीं तो याद रखना, पंद्रह रुपये महीना दूंगी मगर तुमको दीवानी की जेल में सड़ाऊँगी।” ये हमला ऐसा सख़्त था कि मौलवी साहब तो मौलवी साहब कोई ख़ास साहब भी होते तो बस “चकित” थे। आख़िर बड़बड़ाते हुए मौलवी साहब घर से चले गए और बीवी बच्चियों को गले लगा कर ख़ूब रोईं।
रात को मौलवी साहब घर पर आए, खाना मांगा। बीवी ने कहा, “ठहरो, पहले बच्चियां खालें, उसके बाद तुम्हें मिलेगा।” भला इस बात की मौलवी साहब ताब ला सकते थे। बिगड़ कर घर से निकल गए और किसी दोस्त के हाँ खा-पी कर वहीं रात गुज़ार दी। दूसरे दिन बीवी ने करीम उद्दीन साहब को बुलाया और कहा कि “मेरी एक दुकान बिकवा दो।” उन्होंने कहा कि “आख़िर इसकी क्या ज़रूरत है?” उन्होंने जवाब दिया कि “मरने से पहले मैं चाहती हूँ कि अजमेर शरीफ़ और दिल्ली की दरगाहों की ज़ियारत कर आऊँ और बच्चियों को भी कुछ गहना कपड़ा बनवा दूं। उसके बाद ये बच्चियां जानें और उनके बाप जानें। और हाँ, मेरी तरफ़ से कोई ऐसा काग़ज़ भी लिख देना कि मेरे बाद मेरी सारी जायदाद बच्चियों को पहुँचे और मौलवी साहब को एक हब्बा न मिले। अगर मेरी जायदाद में वो अपना शरई हिस्सा लेना चाहें तो पहले मेरा मेहर अदा करें।”
ग़रज़ एक दुकान चार हज़ार में बिकी। बीवी ने बच्चियों के ख़ूब दिल खोल कर कपड़े बनवाए। थोड़ा बहुत ज़ेवर भी ख़रीदा। अपनी हैसियत भी कुछ दुरुस्त की और अजमेर शरीफ़ जाने की तैयारियां शुरू कर दीं। मौलवी साहब को ख़बर हुई वो पेट पकड़े घर आए। बीवी को पहले डराया, धमकाया फिर ख़ुशामद की। मगर यहाँ का रंग ही बदल चुका था। आख़िर इस पर उतर आए कि “मुझे भी साथ ले चलो। तुम्हारी वजह से मैं भी ज़ियारत करलूंगा। दूसरे किसी ग़ैर महरम के साथ जाना शरअन मना है।” मगर बीवी क्या मानने वाली थीं, कहने लगीं कि “तुम्हें रहना है तो घर में रहो। मैं अकेली ही जाऊँगी, ज़्यादा हुआ तो रहीम उद्दीन को साथ ले लूँगी। बच्चियां मेरे साथ जाएँगी। तुम मेरे आने तक घर की हिफ़ाज़त करते रहो।” बेचारे मौलवी साहब करते तो क्या करते उन्होंने भी ग़नीमत समझा कि “चलो यहाँ ठहरने को ठिकाना और खाने को रोटी तो मिल जाएगी। अगर ये नेकबख़्त घर ही से निकाल देती तो मैं इसका क्या बना लेता।”
क़िस्सा मुख़्तसर ये कि बच्चियों और रहीम उद्दीन को लेकर बी ज़ाहिद उन्निसा अजमेर शरीफ़ पहुँचीं। वहाँ कई दिन रहीं, ख़ूब ख़ैर ख़ैरात की। वहाँ से निकल दिल्ली पहुँचीं। कई दिन दरगाहों की ज़ियारत में गुज़ारे। आख़िर एक दिन ख़्याल आया कि दिल्ली में बड़े बड़े हकीम हैं। चलो देखें तो ये मेरी बीमारी को क्या कहते हैं। रेशमी बुर्क़ा ओढ़ मोटर में बैठ हकीम ज़फ़र उल्लाह ख़ां के मतब में गईं, नब्ज़ दिखाई। उन्होंने नब्ज़ देखकर कहा कि “वाह भई वाह, ये तुमको मेरे पास आने की क्या ज़रूरत थी। तुम्हारी नब्ज़ तो ऐसी है कि हज़ारों में एक आदमी की होगी। तुम मेरा इम्तहान लेने आई हो या मज़ाक़ करने।”
ज़ाहिद उन्निसा ने कहा, “हकीम साहब, ये आप क्या फ़रमा रहे हैं। मैं बेचारी आपसे क्या मज़ाक़ करूँगी। हमारे शहर के हकीम साहब ने मेरे मुताल्लिक़ ये हुक्म लगाया था कि मैं एक महीना से ज़्यादा नहीं जीने की। उसमें से भी बाईस दिन गुज़र चुके हैं।”
हकीम जी, और वो हकीम साहब हैं कौन?
ज़ाहिद उन्निसा, हकीम अहमद सईद ख़ां।
हकीम जी, ताज्जुब है। हकीम अहमद सईद ख़ां को मैं भी जानता हूँ। अच्छे हकीम हैं और हाँ, उन्होंने मरज़ क्या बताया था?
ज़ाहिद उन्निसा, दिक़।
हकीम जी, क्या तुम पर कोई मुसीबत पड़ी थी?
ज़ाहिद उन्निसा, जी मुसीबत की कुछ न पूछिए। सारी उम्र मुसीबत ही में गुज़री है।
हकीम जी, और अब?
ज़ाहिद उन्निसा, अब मैं बिल्कुल आज़ाद हूँ। ग़म को पास तक नहीं फटकने देती।
हकीम जी, ओहो, ये बात है। बीबी, ख़ुदा का शुक्र करो या तो मुसीबत से रिहाई पाने के बाद तुम्हारी तबीयत मरज़ पर ग़ालिब आगई या तशख़ीस मैं हकीम अहमद सईद ख़ां से कुछ ग़लती हुई। बहरहाल मैं तुम्हें यक़ीन दिलाता हूँ कि दिक़ तो क्या कोई मरज़ भी तुमको नहीं है।
ज़ाहिद उन्निसा, तो अब मैं एक महीने में नहीं मरूँगी?
हकीम जी, बीबी, मरना-जीना तो ख़ुदा के हाथ है। मगर बज़ाहिर तो ये मालूम होता है कि महीने भर तो क्या शायद और पच्चास साठ बरस तक घसीट जाओ। अच्छा, ख़ुदा-हाफ़िज़। लाओ दूसरी डोली लाओ।
मतब से रुख़सत हो कर बी ज़ाहिद उन्निसा ख़ुशी ख़ुशी महबूब होटल में आईं। बच्चियों को गले लगाकर ख़ुशी के आँसू ख़ूब बहाए। चांदनी चौक में फिर कर बहुत सारा सामान ख़रीदा। मियां को अपने आने का तार दिया। रात की गाड़ी में रवाना हुईं। दूसरे दिन शाम के चार बजे अपने शहर पहुँचीं। लेने के लिए स्टेशन पर मौलवी साहब मौजूद थे। खुले ताँगा में बुर्क़ा ओढ़ कर बैठीं। मौलवी साहब को भी लाहौल पढ़ कर उसी ताँगा में बैठना पड़ा। घर पहुँच कर मियां को सौग़ातें दीं। दूसरे दिन घर का ये सामान निकाला, वो सामान ख़रीदा और थोड़े ही दिनों में घर की रंगत बदल गई। बीवी तो पहले से घर को घर समझती ही थीं। मियां भी घर को घर समझने लगे। चलो घर जन्नत होगया।
अब इस घर में कोई ऐसी चीज़ नहीं रही जो देखने या लिखने के क़ाबिल हो। भला “काम जन्नत में है क्या हमसे गुनहगारों का।” अब मियां जानें बीवी जानें और उनका घर जाने। अच्छा, मौलवी याक़ूब साहब और ज़ाहिद उन्निसा बेगम साहिबा आदाब अर्ज़ करता हूँ, ख़ुदा-हाफ़िज़।
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