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नौकरी का इंटरव्यू

भारत चंद खन्ना

नौकरी का इंटरव्यू

भारत चंद खन्ना

MORE BYभारत चंद खन्ना

    इस मज़मून पर बहस करने से पहले ये बता देना ज़रूरी है कि नौकरी के इंटरव्यू दो क़िस्म के होते हैं। एक तो वो जिसमें उम्मीदवार ऐसा नौजवान होता है जिसकी तालीम पर माँ-बाप की कमाई लुट चुकी होती है जिस नौजवान की आइन्दा ज़िंदगी से वालिदैन की हज़ारों उम्मीदें वाबस्ता होती हैं जो उनकी आँखों का तारा ज़िंदगी का सहारा और जान से प्यारा होता है। ये नौजवान बड़ी मुश्किलों से पाला जाता है। उसकी सेहत का ख़ास ख़्याल रखा जाता है। उसकी ख़ुराक भी माँ-बाप के लिए ख़ास अहमिमीयत रखती है। उसे ज़ुकाम हो जाये तो डाक्टर जाता है। ज़ुकाम बढ़कर फ्लू बन जाये तो फेफड़ों का माहिर बुलाया जाता है। बहरहाल ये नौजवान अपनी तालिब इल्मी का ज़माना बड़े आराम से गुज़ारता है। आराम-ओ-राहत का ये ज़माना ऐसे गुज़र जाता है जैसे पटरी से रेलगाड़ी। मुसीबत का दौर उस वक़्त शुरू होता है जब तालीम ख़त्म होजाती है। नौजवानी ख़त्म हो रही होती है और सवाल पैदा होता है कि अब क्या किया जाये? इसका जवाब है, नौकरी। उन सब नौजवानों के लिए जो कई पेशा या तिजारत नहीं करते और तालीम हासिल कर चुके होते हैं। उनकी नजात का सिर्फ़ एक ही रास्ता है और वो है नौकरी। नौकरी हासिल करने के लिए इंटरव्यू में जाना होता है। ऐसे इंटरव्यू के लिए तालीम याफ़्ता लोग जाते हैं और नौकरी के इंटरव्यू की ये पहली क़िस्म है।

    मुतअद्दिद डिग्रियों से मुसल्लह हो कर और इल्म के नूर से रोशन हो कर जब हमने अपने आपको आज़ाद पाया यानी इम्तहानों को पास करने की मुसीबत से जब हमको छुटकारा मिला तो ख़ुशी से हमारे क़दम ज़मीन पर नहीं टिकते थे। जी चाहता था कि कान्वेंट आफ़ मोंटी के शो की तरह हम भी बेख़ुद हो कर चिल्लाऐं कि दुनिया हमारी है। कुछ दिन बल्कि महीने इस आलम में गुज़रे। इसके बाद हमको घरवालों ने बड़ी सलाहियत से इस बात का एहसास दिलाया कि हम सैर-ओ-तफ़रीह और पाँच वक़्त खाने के अलावा और कोई काम नहीं कर रहे थे। ये जान कर हमें बड़ा दुख हुआ, और हम यकलख़्त बेफ़िक्री के आसमान से बेकारी के सख़्त मैदान पर धम से आगए। लेकिन अभी नौजवानी के कुछ वलवले दिल में बाक़ी थे। कुछ गर्मी डिग्रियों की बोहतात ने पैदा कर रखी थी। हमने सोचा कि ये भी कोई बात है, जहाँ चाहेंगे, जब चाहेंगे मुलाज़िम हो जाएंगे।

    कुछ इश्तिहारों के जवाब में हमने अर्ज़ियाँ दीं यानी दफ़्तरों के हमने चक्कर काटे, बा’ज़ बा रसूख़ लोगों से हमें मिलाया गया, लेकिन जहाँ जाते जिससे मिलते वो यही बतलाता कि “साहब नौकरी, किसी और चीज़ का ज़िक्र कीजिए। आजकल नौकरी मिलनी बड़ी मुश्किल है।” पाँच-छह महीनों की मुसलसल कोशिश के बाद जबकि मुलाज़मत दिलाने वाले महकमों और मुतअद्दिद दफ़्तरों के कई लोग हमसे काफ़ी मानूस हो चुके थे और हमको भी अपने ही ज़मुरे का एक सख़्त जान जानदार समझने लगे थे, हम इस नतीजे पर पहुँचे कि कौरवों और पाण्डवों के ज़माने में शायद नौकरी मिल जाती हो मगर 1937 में ये शए कम अज़ कम हमारे लिए नायाब हो चुकी थी और इसके बावजूद जिस नौकरी के इश्तिहार को हम देखते हमको ऐसा मालूम होता कि जैसे हमको ही ज़ेहन में रखकर यह इश्तिहार लिखा गया हो। मगर जब इंटरव्यू के लिए पहुँचते तो इंटरव्यू करने वाले अस्हाब की नज़रों हम “ना तजुर्बे कार”, “ख़ाम और कच्चे” समझे जाते। लिहाज़ा मुलाज़मत ज़ेर-ए-बहस के लिए नाक़ाबिल! इन इंटरव्यूओं में हमसे कुछ इस क़िस्म के सवालात किए जाते थे, “चीन का सबसे बड़ा दरिया कौन सा है”, “माउंट ऐवरेस्ट की ऊंचाई क्या है”, “आजकल हिंदुस्तान में कहाँ सैलाब आया हुआ है?” “अमरीका का प्रेज़िडेंट कौन है, डेनमार्क किन चीज़ों के लिए मशहूर है?” और “अगर तुम्हारा हवाई जहाज़ गिर पड़े तो ज़मीन से उठने के बाद सबसे पहला काम तुम क्या करोगे?” वग़ैरा वग़ैरा और जब हम ऐसे सवालों के जवाब ख़ातिर ख़्वाह तौर पर दे देते तो फिर अगर मुलाज़मत स्कूल मास्टरी होती तो पूछा जाता कि पहले कभी स्कूल में पढ़ाया है? और जब हम कहते कि जी नहीं, तो वो कहते कि ख़ुदा हाफ़िज़ तशरीफ़ ले जाइए। अगर काम इंतज़ामी नौइयत का होता तो इंतज़ामी काम का तजुर्बा पूछा जाता। जब हम इस तजुर्बे वाले सवाल को सुन सुनकर तंग आए तो बाद के इंटरव्यू में जब चीन के बड़े दरिया को उबूर करके माउंट ऐवरेस्ट की चोटी पर से होते हुए हिंदुस्तान के सैलाब पर से मंडलाते हुए रुज़वेल्ट से तआरुफ़ कराकर डेनमार्क के पत्थरों का मज़ा चखते हुए और हवाई जहाज़ गिर पड़ने के बाद अपनी पतलून झाड़ते हुए तजुर्बे के मज़मून पर पहुँचते तो हमारा जवाब ये होता कि साहब, इम्तहानों का तजुर्बा हासिल करने के बाद काम का तजुर्बा हासिल करने की कोशिश में अब तक हमारा जो तजुर्बा रहा है वो ये है कि हमको तजुर्बा हासिल करने का मौक़ा देने के लिए कोई तजुर्बेकार तैयार नहीं। ये जवाब देकर और ख़ुदा हाफ़िज़ कहते हुए हम बाहर निकल आए और मुक़ाम-ए-इंटरव्यू से घर तक रास्ता तै करके और इंटरव्यू के कपड़े आइन्दा के इंटरव्यू के लिए हिफ़ाज़त से तह करके अपनी खटिया पर बेकसी और बेबसी की तस्वीर बन पड़जाते।

    बिलआख़िर जब हमारी सब उम्मीदें मिट गईं और तमाम वलवले पाश पाश हो गए तो फिर हमारी बेबसी और बेकसी पर तरस खाकर एक साहब की सिफ़ारिश पर हमारी डिग्रियों की बिना पर नहीं बल्कि महकमा टीम की तरफ़ से खेलने के लिए हमें फस्ट ग्रेड की कलर्की की नौकरी मिली और जब हम दफ़्तर पहुँचे तो बजाय इसके कि हमारी डिग्रियों का लिहाज़ करते हुए हमसे हमदर्दी जतलाई जाती, उस दफ़्तर के सीनियर सेकेंड ग्रेड और थर्ड ग्रेड क्लर्कों ने जिनकी तरक्कियां हमारे टपकने से रुक गई थीं, हमें ऐसी सलवातें सुनाईं कि वो दिन कभी नहीं भूलेगा। बहरहाल रफ़्ता-रफ़्ता उनकी मुख़ासमत कम होती गई और हमने तजुर्बा हासिल करना शुरू किया।

    दूसरी क़िस्म नौकरी के इंटरव्यू की वो है जिसमें उम्मीदवार अनपढ़ होते हैं। नौकरी जिसकी तलाश की जाती है वो खाना पकाने, बर्तन मांझने या उस क़िस्म के मेहनत मज़दूरी के काम होते हैं। अब वो ज़माना आगया है कि उन कामों के लिए नौकर नौकरी तलाश नहीं करता बल्कि मुलाज़िम की तलाश होने वाला आक़ा करता है। बड़ी तलाश के बाद जब होने वाला नौकर और होने वाली मालकिन या मालिक आमने सामने होते हैं तो कुछ इस क़िस्म का इंटरव्यू अमल में आताहै,

    “क्यों जी नौकरी करोगे?” कहा जाता है।

    “नौकरी तो करूँगा, घर में कितने लोग हैं?” नौकर सवाल करता है।

    जवाब, यही बाल-बच्चे मिला कर कोई छः सात आदमी होंगे।

    सवाल, छः सात आदमी... बच्चे कितने हैं?

    जवाब, तीन बच्चे हैं।

    सवाल, और कोई नौकर है घर में?

    जवाब, हाँ एक बावर्चन है जो खाना पकाती है।

    अब के सवाल किया जाता है कि बर्तन कौन मांझता है और अगर आप जवाब दें कि बर्तन तुम ही साफ़ करोगे तो वो पूछता है कि “अगर मैं बर्तन माँझुंगा तो बाज़ार का काम घर की सफ़ाई और दूसरा चिल्लर काम कौन करेगा?” अब आप चौंकते हैं क्योंकि बाज़ार का काम और घर की सफ़ाई भी तो इस कम्बख़्त के सपुर्द हुई थी। आप सर खुजाते नज़र आते हैं, कोई मौज़ूं जवाब सोच ही रहे होते हैं, इतने में आपकी बीवी मौक़े की नज़ाकत को समझ कर मुदाख़लत करती हैं। वो कहती हैं कि भई घर की सफ़ाई वग़ैरा में घर की औरतें हाथ बटाती हैं और रहा बाज़ार का काम... तो वो इस घर में है ही कितना। यही एक मर्तबा सौदा सुल्फ़ लाना और बस।

    होने वाले नौकर के इस मस्लिहत अंगेज़ जवाब से तशफ्फ़ी नहीं होती। वो पूछता है, “अच्छा साहब आप एक नौकर रखिए या सात, मुझे इससे बहस नहीं। लेकिन “हाँ” करने से पहले मुझे साफ़ साफ़ बता दीजिए कि मुझे क्या-क्या काम करना होगा। अब आप साफ़ साफ़ क्या ख़ाक बताएं। घर के कामों को कौन गिना सकता है और अगर आप वाक़ई साफ़गोई से काम लें तो इंटरव्यू करने वाला नौकर ग़ायब हो जाता है। और अगर गोल मोल जवाब दें तो नौकर वज़ाहत करने को कहता है। आप फिर बग़लें झाँकने लगते हैं। बीवी फिर आपकी मदद को आती हैं, “कहती हैं, तुम तो अजीब आदमी हो नौकरी करने आए हो या वकालत। कह तो दिया कि काम बर्तन मांझना है, इसके अलावा कुछ थोड़ा बहुत बाज़ार का भी होगा।” मगर साहब नौकर भी कोई कच्ची गोलियां खेला हुआ नहीं होता कि इन चिकनी चुपड़ी बातों से फिसल जाये। इसलिए वो फिर सवाल करता है। अच्छा मेम साहिबा, अगर आप साफ़ साफ़ नहीं बता सकतीं तो मैं बताता हूँ मैं सिर्फ़ बर्तन माँझुंगा और बाज़ार से दो वक़्त सौदा ले आया करूँगा। इसके अलावा मैं और कुछ काम नहीं करूँगा। कपड़े नहीं धोऊंगा, राशन के चावल नहीं कूटूँगा, आटा नहीं पिसाऊँगा, क्यों है मंज़ूर? और जब बीवी भीगी बिल्ली की तरह कहती हैं कि हाँ मंज़ूर है, तो आप हैरत से अपनी उंगली दाँतों तले दे लेते हैं क्योंकि ये वो शाज़-ओ-नादिर होने वाला वाक़िया होता है जब कि बीवी शिकस्त तस्लीम करती हैं वर्ना आप जानते हैं कि ज़िंदगी में आपके साथ कई मवाक़े आए और गुज़र गए, कई झपटें हुईं और होके रह गईं। कई झगड़े हुए और होके मिट गए, लेकिन आपको ऐसा वक़्त याद नहीं आता जब बेगम साहिबा ने हार मानी हो। आप सिगरेट सुलगा कर कोने में बैठ जाते हैं। बीवी अब मैदान-ए-अमल में आचुकी होती हैं और आप जानते हैं कि आप जो भी गुलफ़िशानी फ़रमाएँगे इससे गुत्थियाँ सुलझेंगी नहीं बल्कि पुरपेच होती जाएँगी।

    अब नौकर साहब पूछते हैं कि काम के औक़ात क्या होंगे। बीवी ये सुनकर ज़रा झुंजलाती हैं और चाहती हैं कि वही इताब, वही ग़ुस्सा दिखाएं और वैसी ख़शमगीं होजाएँ जिस तरह आपसे दौरान-ए-गुफ़्तगू में होजाया करती हैं, लेकिन घर के कामों का ख़्याल आते ही सँभल जाती हैं और फिर जवाब देती हैं। ये कोई दफ़्तर या स्कूल नहीं जो काम के औक़ात बतलाए जाएँ। यहाँ ये तो नहीं हो सकता कि घंटा बजा और लड़के जमातों में बैठे और फिर जब घंटी बजी तो बच्चे घरों को चल दिए। घरों के काम तो सुबह शुरू हो कर रात को ख़त्म होते हैं, ये तो तुम जानते ही हो। इस पर भी मौसूफ़ की तसल्ली नहीं हुई। अब के पूछते हैं, ये तो ठीक है लेकिन फिर भी वक़्त मुक़र्रर होना चाहिए ताकि हम लोगों को भी कुछ वक़्त आराम का मिले।

    इस मौज़ू पर कुछ और बहस हुई है और ये वक़्त का मुआमला भी तै हो गया। मालूम होता है जब कि एक और शर्त ये पेश की जाती है नौकर साहब जो हफ़्ते में एक दिन सिनेमा देखने के आदी हैं और बचत की ख़ातिर मेटिनी शो को ज़ीनत बख़्शा करते हैं, अतवार या शुक्रवार के दिन दोपहर में डेढ़ बजे से छः तक छुट्टी मनाएंगे। बीवी ये शर्त भी मान लेती हैं और चीख़ कर पूछती हैं कि क्या और भी कुछ पूछना बाक़ी है। जवाब मिलता है कि जी हाँ, अभी कुछ और बातें पूछनी हैं, मसलन एक तो ये कि उनको इस घर का रिवाज मालूम नहीं कि यहाँ क्या और कब नाशता किया जाता है। कब और किस तरह खाना खाया जाता है और चाय किस वक़्त पी जाती है? इन बातों का मतलब ये समझाया जाता है कि वो ठीक आठ बजे चाय या काफ़ी पीने के आदी हैं और चार बजे दिन के वक़्त भी उनको उस चीज़ की ज़रूरत महसूस होती है और ये भी एक अजीब वाक़िया है कि अगर एक चाय पीने का आदी हो तो नौकर काफ़ी नोश मिलते हैं और वो भी बला नोश होने के अलावा।

    इस मज़मून पर भी कुछ बातें होती हैं और ये अमर भी तै पा जाता है। बीवी जवाब देने की नहीं बल्कि सवाल करने की आदी हैं। सवालों के इस घनचक्कर से उनका सर चकराने लगता है। आप कोने में बैठे उस चीज़ को महसूस करते हैं लेकिन उस वक़्त गुफ़्तगू होने वाले नौकर और मालकिन के दरमियान है और आप ये बख़ूबी जानते हैं कि इस मौक़े पर दख़ल देना छुट्टी के दिन को सत्यानास करने के बराबर होगा। इसलिए आप दम-ब-ख़ुद और ख़ामोश रहिए और अगर ज़रूरत महसूस हो तो एक सिगरेट और सुलगा लेते हैं। अब ये ख़ुदाई फ़ौजदार पूछता है कि उसके रहने के लिए कौन सी जगह घर में रखी गई है। ख़ुशक़िस्मती से घर में गला की कोठरी के साथ एक कमरा है और ये नौकर को दिया जा सकता है।

    ये मुआमला भी रफ़ा दफ़ा हो जाता है। लेकिन क्या आप ये समझते हैं कि इंटरव्यू ख़त्म हो गया? जी नहीं। हरगिज़ नहीं, मज़दूरों की यूनियन का ये मुअज़्ज़िज़ रुक्न फिर मुख़ातिब होता है और पूछता है कि क्या देंगे आप? और आप कोने में अपनी कुर्सी पर बैठे काँप जाते हैं। आपको अपने बचपन और बुज़ुर्गों का वो ज़माना याद आजाता है जब तीन चार रुपये माहाना पर अच्छे अच्छे जफ़ाकश मेहनती और वफ़ादार नौकर मिल जाते थे और नौकर भी ऐसे कि जिस घर में रह गए वहीं उम्रें गुज़ार देते थे। फिर पहली जंग छिड़ी लोग भर्ती होने शुरू हुए। वो जंग ख़त्म हुई लेकिन उस वक़्त तक हिटलर जन्म ले चुका था।

    हालात ज़माना ख़ुशगवार थे कि उस ताक़त के मुतलाशी ने दुनिया को फ़तह करने की धुन में पूरे आलम को जंग की आग में घसीट लिया। उसका अपना हश्र तो जो होना था हुआ लेकिन दूसरी आलमगीर जंग के बाद से दुनिया के अवाम की जो हालत हुई है वैसी शायद पहले कभी हुई थी। जिस चीज़ की ज़रूरत हो वो नहीं मिलती, अगर मिलती भी है तो ऐसे दामों कि आम इंसान उसको ख़रीद सके। ग़ल्ला महंगा हो गया, रेडियो, बर्तन, मोटरें, पेट्रोल, किराया, मकान, दूध, पंखे, घड़ियाँ, दवाइयां, सिनेमा, बिजली बल्कि फ़क़ीर तक जो एक आना मिलने पर भी गालियों पर उतर आता है। हत्ता कि पानी तक महंगा हो गया और नौकर, ये शए पहले तो दुनिया की मार्किट से ग़ायब हो गई और अब जो कभी-कभार नज़र जाती है तो इतनी महंगी कि आम इंसान के बस की नहीं होती। इसलिए जब नौकर ये सवाल करता है तो बजा तौर पर आप अपनी बोसीदा कुर्सी में अपनी नाज़ुक माली हालत का ख़्याल करते हुए काँपने लगते हैं, बीवी भी ठिटकती हैं। जो उसको एक जगह रखने की ख़ातिर सवाल करती हैं कि वो क्या तनख़्वाह लेने के आदी हैं।

    नौकर साहब जवाब देते हैं कि पहले वो एक अंग्रेज़ के हाँ मुलाज़िम थे और सिर्फ़ पानी भरने के पैंतालीस रुपये पाते थे। फिर एक और साहब के हाँ थे, जहाँ खाना पकाने के लिए उनको पच्चास रुपये मिलते थे। उसके बाद जब जंग में शरीक हुए तो उनकी तनख़्वाह पछत्तर हो गई थी... और ये सुनकर आप सन्न हुए जाते हैं कि जब आपने मुलाज़मत शुरू की थी तो आपकी तनख़्वाह भी लगभग पछत्तर थी! इस दौरान में बीवी गला साफ़ करते हुए फ़रमाती हैं कि उनका घर रूस और कोरिया का मैदान नहीं और ये नौकरी जंगी ख़िदमत कहलाई जा सकती है, ये तो घर की नौकरी है। बर्तन साफ़ करने और बाज़ार से सौदा वग़ैरा लाने की। इस मौक़े पर अंग्रेज़ों के लिए पानी भरने या जंग में गोलियां चलाने की मिसालें देने की ज़रूरत नहीं और... और... इस नौकरी के लिए वो ज़्यादा से ज़्यादा (बीवी सोचती हैं कि बीस कहूं या पच्चीस और आख़िर हिम्मत करके और सख़ावत के सैलाब बहाते हुए कहती हैं कि वो) पच्चीस रुपये दे सकेंगी।

    इस पर जब हक़ारत से नौकर कहता है कि जी सिर्फ़ पच्चीस तो बीवी समझाती हैं कि इस पच्चीस के साथ साथ मौसूफ़ चालीस पच्चास का खाना चाय वग़ैरा भी पाएँगे और इस तरह उनकी कमाई पछत्तर के लगभग ही पड़ेगी। इस जवाब का नौकर के पास कोई जवाब नहीं होता लेकिन स्मिथ के स्कूल मास्टर की तरह वो बहस जारी रखता है और कभी डरा धमका कर तो कभी ग़रीबी, महंगाई और बीवी-बच्चों की इफ़रात बताते हुए अपनी तनख़्वाह सत्ताईस रुपये तक ठहरा लेता है और वो ख़ूब जानता है कि सिनेमा और सिगरेट का ख़र्च वो गोश्त के बजाय छिछड़े लाकर दूध में पानी मिलाकर और मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से घर वालों की आँखों में धूल डाल कर निकाल लेगा।

    इस नौबत पर ऐसा मालूम होता है कि इंटरव्यू ख़त्म हो गया और नौकर ने मालिक और नौकरी दोनों पसंद करलिए, लेकिन आपकी हैरत की इंतहा नहीं रहती जब कि 27 रुपये माहाना पर रखा हुआ नौकर ये पूछता है कि बाज़ार से सौदा वग़ैरा लाने के लिए कौन सी सवारी का आपके घर में इंतज़ाम है और आप बहालत मजबूरी इंटरव्यू में शरीक होते हैं क्योंकि घर में मोटर, तांगा या टमटम नहीं हैं। बल्कि सिर्फ़ एक साइकिल है जिसे आप जान से भी अज़ीज़ समझते हैं। आप जानते हैं कि “सहगल के गीत की चवन्नी की तरह वो जो गई तो गया सहारा, जान गई।” इसलिए आप जवाब देते हैं कि मियां छोकरे क्या तुमने हमको आग़ा ख़ां समझ रखा है जो बेतुके सवालात किए जा रहे हो। तुम नौकरी की तलाश में हो या बादशाहत ढूँढते हो। यहाँ तो बाज़ार जाने के लिए कोई सवारी नहीं है।

    वह आदमी समझदार है ये जान कर कि इन तिलों में तेल नहीं, कहता है कि साहब मुझे क्या अगर सवारी होगी तो बाज़ार से लौटने में देर हुआ करेगी और घर के काम में हर्ज होगा। मैंने आपके फ़ायदे के लिए ही ये पूछा था।

    बीवी कहती हैं कि जब कभी घर में साइकिल मौजूद हो उसका इस्तेमाल किया जा सकता है। इस क़तई फ़ैसले के बाद अब कुछ और कहने सुनने की गुंजाइश नहीं रहती हालाँकि आप जानते हैं कि ये नौकरों के पाया के लोग किस तरह साइकिल चलाते हैं। एड़ियाँ पैडल पर होती हैं, साइकिल तेज़ी से चल रही होती है और वो सिनेमा के इश्तिहार और ऐसी ही जाज़िब-ए-नज़र चीज़ों पर आँखें चस्पाँ किए रहते हैं। साइकिल मोटर से टकरा जाये तो उनकी बला से क्योंकि नुक़्सान मालिक का होगा और बहरहाल जनता मोटर वाले को पकड़ कर हवालात में पहुँचा आएगी। उन मुआमलात में आम तसव्वुर यही है कि क़सूर मोटर वाले का ही होता है।

    बहरहाल ये इंटरव्यू ख़ैर ख़ैर कर के ख़त्म होता है। नौकर साहब मुलाज़िम हो जाते हैं और बीवी का जवाब दे देकर गला बैठ जाता है। ऐसे इंटरव्यू की एक ख़ास बात ये होती है कि नौकरी ढूँढने वाले सवालात करते हैं और नौकर रखने वालों को जवाब देने होते हैं। मैं अक्सर सोचा करता हूँ कि काश, मुझे भी कभी ऐसे इंटरव्यू करने का मौक़ा परमात्मा दे कि जिसमें मैं सवाल कर सकूँ। अब तक तो सूरत-ए-हाल ये रही है कि तालीम के ज़माने से जो जवाबात देने शुरू किए तो मुलाज़मत हासिल करने के लिए और शादी के बाद से बीवी के अलावा नौकर के सवालात के जवाब दे रहा हूँ।

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