पूछते हैं वोह कि ग़ालिब कौन है
आज कल शहर में जिसे देखो, पूछता फिर रहा है कि ग़ालिब कौन है? उसकी वलदीयत, सुकूनत और पेशे के मुताल्लिक़ तफ़तीश हो रही है। हमने भी अपनी सी जुस्तजू की। टेलीफ़ोन डायरेक्टरी को खोला। उस में ग़ालिब आर्ट स्टूडियो तो था लेकिन ये लोग महरुख़ों के लिए मुसव्विरी सीखने और सिखाने वाले निकले। एक साहिब ग़ालिब मुस्तफ़ा हैं जिनके नाम के साथ डिप्टी डायरेक्टर फ़ूड लिखा है। उन्हें आटे दाल के भाव और दूसरे मसाइल से कहाँ फ़ुर्सत होगी कि शे’र कहें, ग़ालिब नूर अल्लाह ख़ां का नाम भी डायरेक्टरी में है लेकिन हमारे मुवक्किल का नाम तो असदुल्लाह ख़ां था जैसा कि ख़ुद फ़रमाया है,
असदुल्लाह ख़ाँ तमाम हुआ
ऐ द़रीग़ा वो रिंद-ए-शाहिद बाज़
बेशक बा’ज़ लोग इस शे’र को ग़ालिब का नहीं गिनते। एक बुज़ुर्ग के नज़दीक ये असदुल्लाह ख़ां तमाम कोई दूसरे शायर थे। एक और मुहक़्क़िक़ ने उसे ग़ालिब के एक गुमनाम शागिर्द द़रीग़ा देहलवी से मंसूब किया है लेकिन हमें ये दीवान ग़ालिब ही में मिला है। टेलीफ़ोन डायरेक्टरी बंद करके हमने थाने वालों को फ़ोन करने शुरू किए कि इस क़िस्म का कोई शख़्स तुम्हारे रोज़ नामचे या हवालात में हो तो मुत्तला फ़रमाओ क्योंकि इतना हमने सुन रखा है कि कुछ मिर्ज़ा साहिब को एक गोना बेखुदी के ज़राए शराब और जुए वग़ैरा से दिलचस्पी थी और कुछ कोतवाल उनका दुश्मन था। बहरहाल पुलिस वालों ने भी कान पर हाथ रखा कि हम आश्ना नहीं, न मुल्ज़िमों में उनका नाम है न मफ़रूरों में, न डीफेंस रूल्ज़ के नज़रबंदों में, न अख़लाक़ी क़ैदियों में, न तीन में न तेरह में।
मिर्ज़ा ज़फ़र-उल-हसन हमारे दोस्त ने मिर्ज़ा रुस्वा को रुस्वाई के मुक़द्दमे से बरी कराने के बाद अब मिर्ज़ा ग़ालिब की याद का बीड़ा उठाया है।
मिर्ज़ा को मिर्ज़ा मिले कर कर लंबे हाथ।
पिछले दिनों उन्होंने एक होटल में इदारा यादगार-ए-ग़ालिब का जलसा किया तो हम भी कच्चे धागे में बंधे पहुंच गए। ज़फ़र-उल-हसन साहिब की तआरुफ़ी तक़रीर के बाद सहबा लखनवी ने थोड़ा सा तुन्दि-ए-सहबा से मौज़ू के आबगीने को पिघलाया।
इसके बाद लोगों ने मिर्ज़ा जमील उद्दीन आली से इसरार किया कि कुछ तो कहिए कि लोग कहते हैं। वो न न करते रहे कि है अदब शर्त मुँह न खुलवाओ लेकिन फिर ताब-ए-सुख़न न कर सके और मुँह से घनगनियां निकाल कर गोया हुए। ग़ालिब हर चंद कि उस बंदे के अज़ीज़ों में था लेकिन अच्छा शायर था। लोग तो उसे उर्दू का सबसे ऊंचा शायर कहते हैं। मिर्ज़ा ज़फ़र-उल-हसन क़ाबिल-ए-मुबारकबाद हैं कि उसके नाम पर मंजूम जलसा यानी बैतबाज़ी का मुक़ाबला करा रहे हैं और उसे कसौटी पर भी परख रहे हैं लेकिन उस अज़ीम शायर की शायाँ-ए-शान धूम धामी सद साला बरसी के लिए हिन्दोस्तान में लाखों रुपये के सर्फ़ का एहतिमाम देखते हुए हम भी एक बड़े आदमी के पास पहुंचे कि खज़ाने के साँप हैं और उनसे कहा कि गुल फेंके हैं औरों की तरफ़ बल्कि समर भी। कुछ ग़ालिब नाम आवर के लिए भी होना चाहिए वर्ना,
ताना देंगे बुत कि ग़ालिब का ख़ुदा कोई नहीं है
उन साहिब ने कहा, “आप ग़ालिब का डोमी साइल सर्टीफ़िकेट लाए?”
ये बोले, “नहीं।”
फ़रमाया, “फिर किस बात के रुपये मांगते हो, वो तो कहीं आगरे, दिल्ली में पैदा हुआ, वहीं मर खप गया। पाकिस्तान में शायरों का काल है।”
आली साहिब ने कहा, “अच्छा फिर किसी पाकिस्तानी शायर का नाम ही बता दीजिए कि ग़ालिब का सा हो।”
बोले, “मैं ज़बानी थोड़ा ही याद रखता हूँ। शायरों के नाम, अच्छा अब लंबे हो जाईए, मुझे बजट बनाना है।”
ख़ैर हिन्दोस्तान के शायर तो हिंदुस्तानियों ही को मुबारक हों। ख़्वाह वो मीर हों या अनीस हों या अमीर ख़ुसरो साकिन पटियाली वाक़े यूपी लेकिन ग़ालिब के मुताल्लिक़ एक इत्तिला हाल में हमें मिली है जिसकी रोशनी में उनसे थोड़ी रिआयत बरती जा सकती है। हफ़्त रोज़ा क़ंदील लाहौर के तमाशाई ने रेडियो पाकिस्तान लाहौर से एक ऐलान सुना कि अब उरदुन के मशहूर शायर ग़ालिब का कलाम सुनिए। ये भी था कि “उरदुन को मिर्ज़ा ग़ालिब पर हमेशा नाज़ रहेगा।” तो गोया ये हमारे दोस्त मुल्क उरदुन के रहने वाले थे। तभी हम कहें कि उनका इब्तिदाई कलाम हमारी समझ में क्यों नहीं आता और अरबी फ़ारसी से इतना भरपूर क्यों है और किसी रिआयत से नहीं तो अक़्रिबा परवरी के तहत ही हमें यौम-ए- ग़ालिब के लिए रुपये का बंदोबस्त करना चाहिए कि उरदुन से हमारी हाल ही में रिश्तेदारी भी हो गई है। लेकिन याद रहे कि सद साला बरसी फरवरी में है। फ़िर्दोसी की तरह न हो कि इधर उसका जनाज़ा निकल रहा था। हाथ ख़ाली कफ़न से बाहर था और उधर ख़ुद्दाम-ए-अदब अशर्फ़ियों के तोड़ूँ का रेढ़ा धकेलते ग़ज़नी के दरवाज़े में दाख़िल हो रहे थे।
आली साहिब का इशारा तो ख़ुदा जाने किसकी तरफ़ था। किसी सेठ की तरफ़ या किसी अह्ल-ए-कार की तरफ़। लेकिन मिर्ज़ा ज़फ़र-उल-हसन साहिब ने दूसरे रोज़ बयान छपवा दिया कि हमने हुकूमत से कुछ नहीं मांगा, न उसकी शिकायत करते हैं, जो दे उसका भला जो न दे उसका भी भला। ये शिकवे-शिकायत इदारा यादगार-ए-ग़ालिब के हिसाब में नहीं, मिर्ज़ा जमील उद्दीन आली के हिसाब में लिखा जाये, हम तो पेंसीलें बेच कर यौम-ए-ग़ालिब मनाएंगे।
हमने पहले ये ख़बर पढ़ी तो “पेंसिलीन” समझे और ख़्याल किया कि कहीं से मिर्ज़ा साहिब को “पेंसिलीन” के टीकों का ज़ख़ीरा हाथ आगया है। बाद अज़ां पता चला कि नहीं... वो पेंसिलें मुराद हैं जिनसे हम पाजामों में इज़ारबंद डालते हैं और सुघड़ बीबियाँ धोबी का हिसाब लिखती हैं। ख़ैर मिर्ज़ा ज़फ़र-उल-हसन साहिब का जज़्बा काबिल-ए-तारीफ़ है लेकिन दो मिर्ज़ाओं में तीसरे मिर्ज़ा को हराम होते हम नहीं देख सकते। हुकूमत से ग़ालिब या किसी और शायर के नाम पर कुछ माँगना या शिकवा करना कोई जुर्म तो नहीं, आख़िर ये किसी राजे या नवाब की शख़्सी हुकूमत थोड़ा ही है। ख़ज़ाना-ए-आमिरा का पैसा हमारे ही टैक्सों का पैसा है। अब ये तो ठीक है कि अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू वाले या डाक्टर हमीद अहमद ख़ान इस मौक़े पर कुछ किताबें छाप रहे हैं और मिर्ज़ा ज़फ़र-उल-हसन साहिब मंजूम जलसे का एहतिमाम कर रहे हैं या ग़ालिब को कसौटी पर परख रहे हैं, लेकिन ये तो कुछ भी नहीं। चार किताबों का छपना और मंजूम जलसे में हम ऐसे शायरों का ग़ालिब की ज़मीनों में हल चलाना हक़ से अदा होना तो न हुआ। वो मरहूम तो बड़ी ऊंची नफ़ीस तबीयत के मालिक थे,
मंज़िल एक बुलंदी पर और हम बना लेते
अर्श से परे होता काश कि मकां अपना
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