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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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साढ़े छ:

MORE BYशफ़ीक़ुर्रहमान

    टन से घंटी बजी और मैं थक कर अपने कॉर्नर में स्टूल पर गिरा। यार लोगों ने मालिश शुरू की। बोले घबराने की कोई बात नहीं, अभी दो राउंड और हैं। हिम्मत से काम लो। एक-आध हुक जमा देना और जीत यक़ीनी है। पहले राउंड में यही हुआ करता है। और मैं दिल ही दिल में उस घड़ी को कोस रहा था जब मैंने चचा जान के सामने ख़्वाह-मख़ाह टूर्नामेंट का ज़िक्र कर दिया। अगर वो यहां होते तब किसी चीज़ की परवाह होती, लेकिन अब तो वो बग़ौर मुलाहिज़ा फ़र्मा रहे होंगे और शायद तब्सिरा भी कर रहे हों। उधर वो प्रिंसिपल साहिब, जाने वो कहाँ से टपके। अगर उनसे वाक़फ़ियत होनी थी तो ज़रूर इसी तरह होनी थी क्या? हम भी क़िस्मत के धनी हैं। अब वो दोनों हंस रहे होंगे।

    कल यूंही मुँह से निकल गया। वो पूछने लगे कि कहाँ मिलोगे? मैंने कह दिया जनाब, कल तो बॉक्सिंग का मैच है। बोले, अच्छा हम मैच देखने आएँगे। तुमने एक अरसा से हमें तंग कर रखा है। इस मर्तबा हम ज़रूर तुम्हें लड़ते देखेंगे। मेरा माथा ठनका। बहुतेरी मिन्नतें कीं। आप वहां तशरीफ़ लाइए, शोर मचता है। फ़ुज़ूल सा टूर्नामेंट है। आपको हरगिज़ पसंद आएगा। वक़्त ज़ाए होगा आपका। मैं ख़ुद हाज़िर होजाऊंगा। लेकिन क्या मजाल जो वो माने हों। इधर ये प्रिंसिपल साहब भी शामत-ए-आमाल से तशरीफ़ फ़र्मा थे। कहने लगे कि हम भी ज़रूर देखेंगे।

    कोई मुक़ाबला होता तो बात भी थी। मेरा मुक़ाबिल एक भारी भरकम स्याह फ़ाम गैंडा था जिसके सामने मुझे कम अज़ कम ज़िरह बक्तर पहन कर आना चाहिए था। सोच रहा था कि ये तो वज़न में कम अज़ कम एक दो मन ज़्यादा होगा। आख़िर किस तरह मुझसे उसे लड़ा रहे हैं? आते ही उसने वो उल्टे सीधे हाथ दिए कि चौदह तबक़ रोशन हो गए। अर्श-ए-बरीं तक के तमाम छोटे-बड़े तारे आँखों के सामने नाचने लगे, और इसके बाद तो पीछा छुड़ाना मुश्किल हो गया। मुँह बनाकर दाँत भींच कर जो छलांग मारता तो धमाधम पंद्रह बीस मुक्के यकमुश्त ही लगा जाता। और सोचता रह जाता कि क्या करूँ? अच्छे फंसे अब तो नजात मुश्किल है। कहीं नाक आउट होजाएं और सारी शेख़ी धरी रह जाये।

    ख़ैर, दूसरा राउंड शुरू हुआ और मैंने मुदाफ़अत शुरू कर दी। बाज़ू मोड़ कर चेहरे के दोनों तरफ़ आड़ बना ली। अब वो है कि मुक्के लगा रहा है और मैं रोक रहा हूँ। इस तरह भी कोई ख़ास फ़र्क़ पड़ा। फिर ख़्याल आया कि मैं इससे कहीं हल्का हूँ। ज़रा सी हिम्मत करूँ तो उसे थका लूँगा। अब मैंने क़ुलांचें भरनी शुरू कीं। एक मुक्का दिया और तड़प कर बराबर से निकल गया। जितने में वो मुड़ा है इतने में एक और जड़ दिया और फिर तेज़ी से दूसरी तरफ़ दौड़ गया। ये नुस्ख़ा बहुत कारा॓मद साबित हुआ। इस पर थकावट के आसार नुमूदार होने लगे। सीना है कि धूँकनी बना हुआ है, बाज़ू लटक रहे हैं, टांगें काँप रही हैं। इस राउंड में मैंने उसे बिल्कुल थका मारा। रेफ़री ने मुझे टोका भी कि ये क्या कब्बडी सी खेल रहे हो?

    तीसरे राउंड में उसे अच्छी तरह ज़द्द-ओ-कूब किया। जो जो हरबे याद थे और जिस जिस स्टाइल का ज़िक्र किताबों में पढ़ा था उनके मुताबिक़ उसकी मरम्मत की। जब कभी धम से उसकी लहराती हुई मुलायम तोंद पर मुक्का लगता, तो क़हक़हों का शोर मचता और ख़ूब तालियाँ बजतीं। सबसे ज़ोरदार और देरपा क़हक़हा प्रिंसिपल साहब का था जो फ़िज़ा को ज़ेर-ओ-ज़बर कर देता। मैंने उसे जल्दी नाक आउट नहीं किया, क्योंकि उसकी तोंद पर मुक्का लगने से निहायत प्यारी और तरन्नुम-ख़ेज़ आवाज़ निकलती थी जिससे तमाशाई काफ़ी ख़ुश होते थे। राउंड ख़त्म होने से पहले एक छोटा सा मुमक्का बल्कि “मुक्की” लगा कर उसे नाक आउट कर दिया।

    हमारे कॉलेज के लड़के छलांगें मार कर रिंग में आगए। बड़ा शोर मचा। फिर मैं चचा जान और प्रिंसिपल साहब से मिला। प्रिंसिपल साहब ने तारीफों के पुल बांध दिए, बोले, ''तुमने बड़ी हिम्मत से काम लिया और उसने कमाल-ए-रऊनत से। मैं तुम्हारी वजाहत को देखता था कभी उसकी जहालत को। तुम्हारी मुदाफ़अत भी ज़राफ़त से पुर थी जिससे शरारत टपकती थी।”

    मैंने मोअद्दबाना अर्ज़ किया, ''अफ़सोस कि मैंने अमानत में ख़ियानत कर ली।” वो क़हक़हा लगा कर बोले, “क्या लियाक़त है?”

    ये थी प्रिंसिपल साहब से पहली मुलाक़ात।

    एक शाम को पांव फैला कर और सर कुर्सी की पुश्त पर टिका कर मज़े से पिक्चर देख रहा था। इंटरवल में एक ख़ातून नज़र आईं जो अपने नन्हे बहन भाईयों के साथ बिल्कुल क़रीब ही बैठी थीं। वो बैरे को बुलाना चाहती थीं। किसी चीज़ के लिए बच्चे ज़िद कर रहे थे शायद। लेकिन उनकी आवाज़ या हाथ का इशारा बैरे तक पहुंच सका। आसपास और कोई था। लिहाज़ा उन्होंने मेरी तरफ़ देखा कि मैं उसे बुला दूं। मैंने बड़े इत्मीनान से सिगरेट केस निकाला और एक सिगरेट सुलगा कर कश लगाने लगा। भला मुझे क्या पड़ी जो किसी को बुलाता फिरूँ। जाने ऐसी क्या अशद ज़रूरत थी कि उन्होंने फिर उसे बुलाने की कोशिश की और फिर मेरी जानिब देखा। मैंने जवाबन तीन-चार उम्दा कश लगाए और धुंए के छल्ले बनाने लगा। वो कुछ नाराज़ सी हो कर बैठ गईं। बात आई गई हो गई। लेकिन उसके बाद में अक्सर उन्हें देखा करता। जब अली अल-सुबह कॉलेज जाता तो एक चौक में कभी कभी नज़र आतीं। एक लंबी सी चमकीली कार में। शायद कहीं आसपास उनका कॉलेज था।

    एक मर्तबा मैंने उसी चौक में अपने बालों पर बैठी हुई मक्खी को उड़ाया। वो समझीं सलाम कर रहा है। उन्होंने जवाब में मुझे बुरी तरह देखा। अगले रोज़ फिर मेरा हाथ यूंही हिल गया। उन्होंने बहुत बुरा मनाया। मैंने जल्दी से बिल्कुल उनकी नक़ल उतारी। इसके बाद तो जान-बूझ कर मैंने सलाम करना शुरू कर दिया। ख़फ़ा हुईं। मुँह फेरा, मुँह चिढ़ाया, चुप रहीं, लेकिन आख़िर राह़-ए-रास्त पर आगईं। अब मेरे सलाम का जवाब तो मिलता था, लेकिन बस मुस्कुरा देतीं। आहिस्ता-आहिस्ता अच्छी लगने लगीं और मैं उनका इंतज़ार करने लगा। उनकी कार का नंबर मेरी डायरी में महफ़ूज़ था। एक रोज़ तो मैं बहुत डरा कि कहीं उनसे सचमुच मुहब्बत हो जाये।

    प्रिंसिपल साहब से दूसरी मुलाक़ात कॉन्सर्ट में हुई। हम क्लब में कॉन्सर्ट कर रहे थे। प्रोग्राम के एक हिस्से में क़ुरैशी साहब और मिसेज़ क़ुरैशी की नक़ल उतारी गई। दोनों मियां-बीवी हद दर्जे के क़ुनूती थे। जब देखो बिसूर रहे हैं (और जब देखो तब भी बिसूर रहे हैं)। शैतान का ख़्याल था कि उन का हाज़मा ख़राब है। मैं कहता था कि ये वरज़िश नहीं करते इसलिए ऐसे हैं। दो साल के अर्से में हमने उन्हें सिर्फ तीन मर्तबा मुस्कुराते देखा। वो भी ऐसे मौक़ों पर जब लोग हंसते हंसते बेहोश हो गए थे। तब वो दोनों इस बेज़ारी से मुस्कुराए थे जैसे सब पर बहुत बड़ा एहसान कर रहे हों। क़ुरैशी साहब का पार्ट मैं कर रहा था और मिसेज़ क़ुरैशी शैतान थे।

    साँवले होने की वजह से उन पर पाव भर पाउडर ज़ाए किया था। वो कहते थे (या कहती थीं कि मैं सफ़ेद कपड़े पहनूँगा, जैसे कि अक्सर मिसेज़ क़ुरैशी पहनती थीं। मैंने उन्हें अलैहिदा ले जाकर बताया कि, ''एक बिल्कुल स्याह इंसान सफ़ेद कपड़े पहने जा रहा था। उधर से एक नन्हा सा बच्चा अपने बाप के साथ आरहा था जो फ़ोटोग्राफ़र थे। बच्चा उस शख़्स को देखकर ठिटक गया और अपने वालिद से बोला, ''वो देखिए अब्बा जान एक नेगेटिव(NEGATIVE) जा रहा है।” इस पर उनके कान खड़े हुए और वो बाज़ आगए।

    शैतान दुबले-पुतले थे। चूँकि उनका क़द मुझ जितना था इसलिए उन्हें नीची कुर्सी पर बिठाया गया था ताकि छोटे लगें। क़ुरैशी साहब मुँह लटकाए कोई बीमारियों की किताब पढ़ रहे हैं। दूसरे तरफ़ चेहरा फुलाए मिसेज़ क़ुरैशी बिल्कुल बेज़ार बैठी हैं। सामने किताबों का ढेर लगा है। एक किताब उठाती हैं और फ़ौरन फेंक देती हैं। फिर बेज़ार हो कर बैठ जाती हैं। क़ुरैशी ज़ोर से खाँसते हैं। मिसेज़ क़ुरैशी चौंक पड़ती हैं।

    “ये कमबख़्त ज़ुकाम मुझे दबोच बैठा है। अभी पिछले हफ़्ते तो वर्म-ए-जिगर दफ़ा हुआ था।” वो बोलीं।

    “और मुझे खांसी दम नहीं लेने देती। उधर गला है कि अलग पका धरा है।” क़ुरैशी बोले।

    “आज फिर मेरी पसली में दर्द हो रहा है।”

    “मेरी बाईं आँख रह-रह कर फड़क रही है, ख़ुदा ख़ैर करे।”

    “रात गर्मी किस क़दर थी?”

    “और मच्छरों ने भी क़सम खा रखी थी कि आज ही काटेंगे।” वो बोले।

    “आज का दिन कितना फीका और ग़मगीं है।”

    “और रात किस क़दर उदास और डरावनी थी? कितने तारे टूटे हैं, तौबा इलाही।”

    (तवील ख़ामोशी)

    “सुना है कि अमरीका के शुमाली हिस्से में बड़ा ज़बरदस्त ज़लज़ला आया है। हालात कितने ख़तरनाक होते जा रहे हैं।” मिसेज़ बोलीं।

    “और आस्ट्रेलिया के जुनूब मग़रिबी साहिल पर बड़ा सख़्त तूफ़ान आया है, जिससे लोग बहुत सहमे हुए हैं।”

    “मैंने एक अख़बार में पढ़ा था कि अनक़रीब दुनिया से कोई सय्यारा टकराएगा और बेचारी दुनिया चकनाचूर हो जाएगी। कैसी कैसी मुसीबतें नाज़िल होने वाली हैं।”

    “मुझे भी हफ़्ता भर से तरह तरह के डरावने ख़्वाब रहे हैं। रात तो एक लंबे से ऊंट ने मुझे निगल ही लिया था।”

    (एक और वक़फ़ा)

    बाहर से नौकर के हँसने की आवाज़ आती है। मिसेज़ क़ुरैशी की तेवरी चढ़ जाती है। हाथ पैरों में तशंनुज सा आजाता है, जैसे अभी कोई दौरा पड़ेगा। ग़ुस्से से कहती हैं, ''ये कमबख़्त हर वक़्त हँसता रहता है, शायद उसे मौत याद नहीं।”

    “जो ज़्यादा हंसते हैं, वही रोते भी हैं। इंशाअल्लाह जल्द मुसीबत में गिरफ़्तार होगा। भूल जाएगा सब चौकड़ी।”

    लोग हंस रहे थे। इतने में एक ख़ास क़िस्म के फ़लक शि्गाफ़ क़हक़हे की आवाज़ आई। चौकन्ना हो कर जो देखता हूँ तो सामने प्रिंसिपल साहब बैठे हैं। उनकी नोकदार मूँछें बिजली की रोशनी में चमक रही थीं। मूँछें हस्ब-ए-मामूल ताव शुदा थीं और यूं ऊपर की तरफ़ उठी हुई थीं जैसे घड़ी की सुइयां ग्यारह बज कर पाँच मिनट पर होती हैं। उनके साथ एक ख़ातून बैठी थीं। गौर से देखा तो ये वही ख़ातून थीं जिनसे हर रोज़ उस चौक में झड़प होती थी। मैं बिल्कुल घबरा गया। कुछ अपना पार्ट भी पूरी तरह याद नहीं किया था और प्राम्प्टर के सहारे काम चल रहा था। अब उन्हें देख कर इधर-उधर की हाँकनी शुरू कर दीं। फ़िक़रे ग़लत-सलत बोल रहा था। ये ग़ालिबन प्रिंसिपल साहब की साहबज़ादी होंगी या भतीजी वग़ैरा हों। या शायद यूंही इत्तफ़ाक़िया तौर पर बैठ गई हों।

    अजब मुसीबत है। मैं हूँ कि बहक रहा हूँ, प्राम्प्टर चीख़ चीख़ कर पार्ट बता रहा है। उसकी आवाज़ लोग सुन रहे हैं और ख़ूब हंस रहे हैं। उन्हें पता ही नहीं कि मुआमला किया है। शायद इसलिए हंस रहे हैं कि जो कुछ हो रहा है इसी तरह होना था। उधर प्रिंसिपल साहब के फ़लक शि्गाफ़ क़हक़हों से फ़िज़ा की धज्जियाँ उड़ रही हैं। अभी ये ड्रामा तिहाई भी ख़त्म हुआ था कि मजबूरन पर्दा गिरा दिया गया। स्टेज पर किसी साहब को वायलिन देकर भेज दिया गया। लड़कों ने मुझे झिंझोड़ डाला, धमकाया, चुमकारा, मिन्नतें कीं, लेकिन मैं मचल गया कि अब स्टेज पर नहीं जाऊँगा। मुझे अपना पार्ट याद नहीं। बाहर लोग शोर मचा रहे थे। आख़िर तंग आकर शैतान बोले, “तुम्हारी सज़ा ये है कि तुम ख़ुद स्टेज पर जा कर उनसे कहो कि मुझे माफ़ कीजिए, मैं अपना पार्ट भूल गया हूँ।”

    उन्होंने धकेल कर मुझे स्टेज पर ला खड़ा किया। समझ में नहीं आता था कि क्या कहूं। फिर यकायक कुछ सूझ गया और मैंने बड़े इत्मीनान से कहा, “ख़वातीन-ओ-हज़रात, ये जो कुछ आपने देखा महज़ नमूना था जिसे उमूमन ट्रेलर कहा जाता है। पूरा ड्रामा आपको फिर कभी दिखाया जाएगा। इसी ट्रेलर से अंदाज़ा लगा लीजिए कि असल चीज़ कितनी ज़ोरदार होगी।” लोग हँसने लगे, लेकिन प्रिंसिपल साहब के बुलंद और देरपा क़हक़हे सारे गुल ग़पाड़े पर फ़ौक़ियत रखते थे और उनकी मूँछें बिजली की रोशनी में बहुत प्यारी लग रही थीं। आख़िर मैंने शैतान को सारी बात बता दी। वो बहुत हँसे। फिर पूछने लगे, “क्या वाक़ई तुम्हें मुहब्बत हो गई है?”

    मैंने कहा, “हाँ कुछ-कुछ हो गई है।”

    बोले, “उनका नाम क्या है?”

    मैंने कहा, “पता नहीं।”

    पूछा, “रहती कहाँ हैं?”

    “ये भी पता नहीं, अलबत्ता उनकी कार का नंबर ज़बानी याद है।”

    “कभी बात की है?”

    “नहीं तो।” मैंने सच कह दिया।

    “उनके अब्बा की तारीफ़?”

    “अच्छी तरह तो पता नहीं, लेकिन कुछ अंदेशा सा है कि कहीं प्रिंसिपल साहब ही हों।” बोले, “हद हो गई, अंदेशा सा है? और जो प्रिंसिपल साहब हुए फिर? तुम तो फ़र्हाद वग़ैरा की क़िस्म के इंसानों को भी मात कर गए। ऐसा इश्क़ तो हुआ करता था, कहीं सन् सोलह सौ... सोलह सौ पच्चीस में, ये ख़्वाह-मख़ाह की मुहब्बत तब हुआ करती थी जब मशरिक़ में लड़कियां नहीं थीं। मेरा मतलब है सारा दिन छुपी बैठी रहती थीं, कहीं किसी को इत्तफ़ाक़ से देख पाया और फ़ौरन मुहब्बत शुरू कर दी... और अब, आजकल तो ख़ुदा का फ़ज़ल है। इस ज़माने में उस क़िस्म के दक़यानूसी ख़्यालात बिल्कुल बे मौसमे हैं।”

    “मुझे तो हर रात उनके ख़्वाब दिखाई देते हैं। ख़्वाबों में उनसे बातें करता रहता हूँ।”

    “ख़ूब, तो ख़्वाब दिखाई देते हैं। इसमें तुम्हारा क़सूर नहीं। अगर रात को दस्तरख़्वान पर ज़रा देर लगादी जाये तो फिर ख़्वाब नहीं नज़र आएँगे, तो और क्या होगा? ज़रा भूक रखकर खाया करो, तब देखेंगे क्या नज़र आता है। मुझे तो सो कर ज़रा सुद्ध नहीं रहती। सुबह हज्जाम ही जगाता है, कभी परियाँ नहीं जगातीं।” वो बोले।

    “आजकल तो तक़रीबन हर रोज़ उन्हें देखता हूँ, उसी चौक में, वो मुझे देखकर मुस्कुराया करती हैं, और...।”

    “तुम्हारी ही हिम्मत है जो इतनी गर्मियों में मुहब्बत का नाम लेते हो। मुझे तो इन दिनों मुहब्बत का ज़िक्र सुनते ही पसीना आजाता है। मेरी मानो तो अपनी इस अजीब-ओ-ग़रीब मुहब्बत को थोड़े दिनों के लिए मुल्तवी कर दो। तीन-चार महीनों की बात है। मौसम ख़ुशगवार हो जाएगा, तब जो मर्ज़ी आए करना।”

    मैंने एक लंबी आह भरी और छत की तरफ़ देखकर कहा, “रोफ़ी, तुम कैसी बातें कर रहे हो आज? मुहब्बत भी कहीं मुल्तवी हुई है भला? इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब, वग़ैरा वग़ैरा।”

    “मेरा ज़ाती नज़रिया तो यही है कि एक तंदुरुस्त इंसान को मुहब्बत कभी नहीं करनी चाहिए। आख़िर कोई तुक भी है इसमें? ख़्वाह-मख़ाह किसी के मुताल्लिक़ सोचते रहो, ख़्वाह वो तुम्हें जानता ही हो। भला किस फार्मूले से साबित होता है कि जिसे तुम चाहो वो भी तुम्हें चाहे। मियां, ये सब मनगढ़त क़िस्से हैं। अगर जान-बूझ कर ख़ब्ती बनना चाहते हो तो बिस्मिल्लाह किए जाओ मुहब्बत। हमारी राय तो यही है कि सब्र करलो।”

    मुझे ग़ुस्सा आगया। ये शख़्स हमेशा मस्ख़रा बना रहता है। “तुम बिल्कुल ख़ुश्क इंसान हो, बल्कि गर्म ख़ुश्क हो। बिल्कुल ग़ैर रूमानी क़िस्म के। तुमसे ऐसी बातें करनी फ़ुज़ूल हैं। तुम हरगिज़ नहीं समझ सकते।” मैंने झल्लाकर कहा।

    “और तुम बहुत समझ सकते हो। कम अज़ कम तुम्हें इस क़िस्म की बातें नहीं करनी चाहिऐं। एक छः फुट के तंदुरुस्त इंसान को कोई हक़ नहीं कि वो मुहब्बत करे, और इस सूरत में जब कि वो सुबह से शाम तक वरज़िश करता हो। तुम्हारी सेहत हरगिज़ मुहब्बत के क़ाबिल नहीं। तुम तो जा कर वरज़िश करो।” मैं ग़ुस्से से तिलमिला उठा और बग़ैर एक लफ़्ज़ कहे वापस चला आया।

    यकायक वो ख़ातून ग़ायब हो गईं। अगले हफ़्ते पता चला कि प्रिंसिपल साहब का तबादला हो गया है और वो ख़ातून वाक़ई उनकी साहबज़ादी थीं। बड़ा अफ़सोस हुआ। दिन भर सोचता रहा, अगर पता होता कि ये उनकी साहबज़ादी हैं तो यूं हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता। अब तो वो सब कहीं दूर चले गए होंगे। शैतान के पास गया। सारी बात बताई और पूछा कि अब क्या किया जाये? वो बोले, “भले आदमी, अक़ल के नाख़ुन ले। कभी बात की थी कुछ और। ख़्वाह-मख़ाह अफ़सोस करने से फ़ायदा? दुनिया बहुत वसीअ है और हादिसे भी होते रहते हैं। क्या पता कल तुझे कोई और चीज़ नज़र आजाए, इससे बेहतर। बाक़ी रहा तबादला, सो इस पर किसी का ज़ोर नहीं, ये दुनिया का दस्तूर है। हमने सब्र किया, तू भी कर। इन्ना लिल्लाहे इन्ना...”

    “आह प्रिंसिपल साहब।” मैंने एक सर्द आह भरी। इन दिनों सर्द और गर्म दोनों आहें बड़ी आसानी से भर सकता था। काफ़ी प्रैक्टिस थी।

    “अब आह प्रिंसिपल साहब या हाय प्रिंसिपल साहब कहने से कोई फ़ायदा नहीं। प्रिंसिपल साहब की ज़ात से तुम्हें कोई दिलचस्पी नहीं थी। वैसे वो कुछ इतने दूर भी नहीं गए। और अगर तुम उनकी निगाहों में आगए हो तो वो तुम्हें नहीं भूलेंगे और शायद कभी याद ही फ़र्मा लें।”

    मैं सोचने लगा, शायद याद ही फ़र्मा लें।

    और सचमुच उन्होंने याद फ़र्मा लिया। एक टूर्नामेंट के सिलसिले में मदऊ किया और ये भी लिखा कि कोठी में काफ़ी जगह है, मेरे पास ठहरना। मैं बहुत ख़ुश हुआ। उस रोज़ ख़ूब अकड़ कर चला, मुट्ठीयाँ भींच कर सीना निकाल कर। मेरे लबों पर मुस्कुराहट थी। अब बहुत जल्द उन ख़ातून का अच्छी तरह से मुँह चिड़ाऊँगा और उन्हें सलाम का जवाब भी देना पड़ेगा और ये कि में एक ज़िम्मेदार अक़लमंद लड़का हूँ। लोग मुझे बहुत अच्छा समझते हैं, तभी तो प्रिंसिपल साहब महज़ दो-तीन मर्तबा देखने के बाद इतने मुतास्सिर हो गए। वर्ना शैतान भी तो हैं... साँवले रंग के, शुतुरमुर्ग की क़िस्म के इंसान। चेहरे पर ज़हानत है कुछ और, बिल्कुल कोरे दिखाई देते हैं। उन्हें तो किसी ने पसंद नहीं किया।

    शायद प्रिंसिपल साहब उस शाम को मुझे लड़ता देखकर ख़ुश हो गए। उन्होंने ज़रूर मेरा नाम अख़बारों में पढ़ा होगा। बस मरऊब हो गए हैं। विलाएत में तो खिलाड़ियों की बहुत क़दर होती है। क्या स्पिरिट दिखाई है उन्होंने, वल्लाह, और फिर मैं हूँ किससे कम? एम.ए, का तालिब-इल्म, हमेशा चोटी के लड़कों में शुमार होता हूँ। चंद महीनों में एम.ए. पास करलूंगा। फिर मर्कज़ी मुक़ाबले के इम्तिहान में शरीक हूँगा।

    तब सबको पता चलेगा कि में महज़ एक खिलाड़ी ही नहीं हूँ। मुझमें कई और खूबियां भी हैं जिनके सामने प्रिंसिपल साहब जैसे नक़्क़ाद ने हथियार डाल दिए।

    मैंने तैयारियां शुरू कर दीं। पाँच-छः रोज़ के बाद जाना था। मुतवक़्क़े गुफ़्तगु की स्कीम बनाई कि वो तक़रीबन कैसी कैसी बातें कर सकते हैं और उनके दंदान शिकन जवाब क्या-क्या हो सकते हैं। उनके सामने घबराने का तो सवाल ही था। स्पोर्टस मैन कभी घबराते हैं क्या?

    शैतान ने बड़ी बदतमीज़ी दिखाई कि मुबारकबाद तक दी। मैंने सोचा रश्क रहा होगा जनाब को। लेकिन इत्तफ़ाक़ से जिस शहर में प्रिंसिपल साहब थे, वहीं शैतान चंद दिनों की छुट्टी पर जा रहे थे, चुनांचे हम इकट्ठे रवाना हुए। मैंने धारियों वाला बहुत अच्छे रंग का सूट पहन रखा था और वैसे ही रंग की फूलदार बो लगा रखी थी। बो कुछ तंग थी, उसका एक सख़्त सा हिस्सा बुरी तरह चुभ रहा था। मेरी गर्दन बिल्कुल अकड़ी हुई थी। ज़रा भी हिला सकता था। बार-बार उसे ढीला करता और वो गर्दन में फिर पैवस्त हो जाती।

    शैतान बोले, “अगर मैं तुम्हारी जगह हूँ तो इस कमबख़्त को फेंक दूं एक तरफ़, आख़िर किस हकीम ने कहा है कि ज़रूर बो लगाई जाये।” मुझे शुब्हा हुआ कि हसद से जल रहे हैं।

    “और अपनी तरफ़ से दिल में ख़ुश हो रहे होंगे कि बड़े तीर मारने जा रहे हो।” वो बोले, और मेरा शुब्हा यक़ीन में तबदील हो गया। मुझे शैतान के अज़ीज़ों के हाँ ठहरना पड़ा। अगले रोज़ प्रिंसिपल साहब से मिलना था। लिबास का इंतख़ाब करने लगा और शैतान की राय ली। वो बोले, “कुछ पहन लो, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।”

    “फ़र्क़ क्यों नहीं पड़ेगा। मेरे ख़्याल में तो ये धारियों वाला सूट और ये बो सबसे।”

    “ख़्वाह नेकर पहन कर चले जाओ या तहमद बांध लो। अब कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।”

    “आख़िर क्यों नहीं पड़ेगा? लिबास की तमीज़ भी तो कोई चीज़ है।”

    “लिबास का ख़्याल छोड़ो, वो पहले से फ़ैसला कर चुके हैं।”

    “तो गोया मुझे तफ़रीहन बुलाया गया है।”

    “यक़ीनन।”

    “रोफ़ी तुम एक ज़ूद-रंज और चिड़चिड़े इंसान हो। पहले मेरा ख़्याल था कि तुम्हें रश्क रहा है। अब मालूम हुआ कि हसद से तुम्हारा बुरा हाल है।”

    और उन्होंने एक ज़ोरदार क़हक़हा लगाया।

    “आख़िर हँसने की क्या बात है इसमें?” मैंने पूछा।

    “प्रिंसिपल साहब को जो कुछ चाहिए वो तुम्हारे हाँ मौजूद है। तुम्हारे अब्बा की तनख़्वाह काफ़ी है। तुम्हारे हाँ अच्छी सी कार है। तुम्हारी जायदाद भी है और बिल्कुल मुख़्तसर-सा कुम्बा है। बस इन सब बातों की जांच पड़ताल के बाद प्रिंसिपल साहब राज़ी हो गए हैं और तुम ख़्वाह-मख़ाह बीच में ताव खा रहे हो।”

    “लेकिन कार तो अब्बा की है, इस से मेरा ताल्लुक़?”

    “कुछ भी समझ लो, लेकिन उन्हें तो यही चाहिए था।”

    “और अगर ये सब बातें हम में होतीं तो?”

    “तो यही कि तुम दिन रात मुक्केबाज़ी करते। तैरने में कपों की गठरी जीत लेते। एम.ए छोड़कर कुछ और भी कर लेते। तब भी तुम्हें कोई पूछता।”

    “झूट है।” मैंने जोश से कहा, “भला अब्बा की चीज़ों का मुझसे ताल्लुक़? मेरे पास तो अपनी क़ाबिलीयत है, बुलंद इरादे हैं, हिम्मत है।”

    “तुम्हारे पास सब कुछ होगा, लेकिन तुम्हारा इंतख़ाब महज़ कार वग़ैरा की वजह से हुआ है। कोई नई बात नहीं, उमूमन यूंही हुआ करता है।” मुझे बड़ा ग़ुस्सा आया। जी चाहा कि शैतान को नाक आउट कर दूं। यूंही अंट संट हाँक रहे हैं।

    “प्रिंसिपल साहब बहुत बड़े आलिम हैं। निहायत वसीअ ख़्यालात के इंसान हैं। तुम उन पर इतना बड़ा इल्ज़ाम लगा रहे हो। ये कभी नहीं हो सकता। वो मुझे महज़ मेरी ख़ूबियों की वजह से पसंद करते हैं।”

    “ख़ैर, तुम मुसिर हो तो करते होंगे।”

    मुझे फिर ग़ुस्सा आगया, “आख़िर क्या सबूत है तुम्हारे पास?”

    “सबूत? सबूत यही है कि कल प्रिंसिपल साहब से अपने घर के मुताल्लिक़ ज़रा उखड़ी उखड़ी बातें करके तो देखो, फिर पता चल जाएगा।”

    “और जो तुम्हारी बातें ग़लत साबित हुईं तो?”

    “तो जो चोर की सज़ा, वो मेरी सज़ा। उम्र भर तुम्हें एक नसीहत कर जाऊं तो नाम बदल देना।” मैं सोचने बैठ गया। बताने को तो ग़लत बातें बता दूं, लेकिन उसके नताइज जाने कैसे निकलें। कहीं अम्मा को पता चल जाये।

    “प्रिंसिपल साहब तो अब्बा से मिले होंगे?” मैंने पूछा।

    “नहीं, सिर्फ़ चचा जान से मिले थे, वो भी सरसरी तौर पर।”

    ज़रा सी मज़ीद बहस के बाद मैंने फ़ैसला कर लिया कि प्रिंसिपल साहब को ग़लत बातें बताऊँगा। मुझे पुख़्ता यक़ीन था कि वो उन बातों का इतना सा भी ख़्याल नहीं करेंगे। वो मुझे पसंद करते हैं, भला इसमें मोटर और जायदाद का क्या सवाल है।

    शैतान मुझसे हाथ मिला कर बोले, “आज़माइश शर्त है।”

    शाम को उनके हाँ जाना था। मैंने वही धारियों वाला सूट पहना। फूलदार बो लगाई जिसने मेरी गर्दन को जकड़ कर रख दिया। प्रिंसिपल साहब ने अपनी कार भेजी थी। मैंने शैतान को भी साथ घसीटा कि चलो तुम भी ये तमाशा देख लो। मुझे ड्राइंगरूम में बिठाया गया। शैतान बहाने से उनकी लाइब्रेरी में घुस गए जो साथ ही थी। मैं बड़ी हैरानी से चारों तरफ़ देख रहा था। तीन रेडियो रखे थे। एक को इस्तेमाल करते होंगे, दो शायद बिगड़े हुए हों। छोटे छोटे कुत्ते, बिल्लियां, तोते, बुत, अजीब-ओ-ग़रीब तस्वीरें। अँगीठी, मेज़ें, अलमारियां, सबकी सब ऐसी चीज़ों से लदी हुई थीं। लेकिन साफ़ मालूम होता था कि ये सब कुछ आज ही रखा गया है।

    ख़ुशबू की एक ज़बरदस्त लपट आई और प्रिंसिपल साहब दाख़िल हुए। एक बहुत ही चमकीले सूट में मलबूस। बाल बहुत अच्छे बने हुए थे, बल्कि इस्त्री किए गए थे। उनकी दोनों नोकदार बढ़िया मूँछें बिजली की तेज़ रोशनी में निगाहों को खैरा किए देते थीं। वो हस्ब-ए-मामूल छत की जानिब इशारा कर रही थीं जैसे किसी टाइम पीस में ग्यारह बज कर पाँच मिनट हुए हों। जाने उन्होंने रोग़न मूंछ इस्तेमाल किया था या कोई ख़ास मूंछ क्रीम लगा कर आए थे।

    मुझे देखकर तो वो जैसे आपे से बाहर हो गए। मुस्कुराए, हँसे, चिल्लाए, मेरे हाथ को दस हार्स पावर से यूं भींचा कि जैसे तोड़ कर दम लेंगे। उनका मेक-अप देख देखकर मैं हैरान हो रहा था। भला ये इंटरव्यू किस का हो रहा है। मेरा या उनका?

    बोले, “कम अज़ कम एक माह तो तुम यहां ज़रूर ठहरोगे। नहीं? वाह ये भी कोई बात है। तुम्हें जाने कौन देता है। मैं कोई बहाना नहीं सुनूँगा। गैरहाज़िरी लगेगी? लग जाये, क्या पर्वा है? खेलने के लिए यहां बेशुमार क्लब हैं। क्रिकेट है, बॉक्सिंग है, टेनिस है, सब कुछ है।”

    जिस तेज़ रफ़्तारी से वो बातें कर रहे थे मैं उनसे मरऊब होता जा रहा था। वो कमबख़्त बो गर्दन में बुरी तरह चुभ रही थी। उसे ठीक करते करते तंग चला था।

    “मैंने छः बुर्जी कलब मैं तुम्हें खेलते देखा। प्रोफ़ेसर गराओचू तुम्हारी बड़ी तारीफ़ कर रहे थे। अख़बारों में कितनी मर्तबा तुम्हारे मुताल्लिक़ पढ़ा। ख़ूब, तो एम.ए का इम्तिहान दे रहे हो। हमने तुम्हारी लियाक़त की शोहरत भी सुनी है। ये सारी खूबियां तुम में इकट्ठी कैसे हो गईं? एम.ए कोई मज़ाक़ थोड़ा ही है और फिर ज़हीन लड़के तो खेलने में उमूमन फिसड्डी होते हैं। जाने तुम ये सब कुछ किस तरह कर लेते हो?” उन्होंने जोश में आकर मेरे कंधे मसल डाले।

    मैं सोचने लगा कि शैतान बिल्कुल झूट बोलते थे। प्रिंसिपल साहब तो मेरी खूबियां बयान कर रहे हैं। भला उन्होंने हमारे घर के मुताल्लिक़ भी पूछा है कहीं? मुझे शर्मिंदा होना चाहिए। तौबा तौबा कैसी कैसी फ़ुज़ूल बातें मैं उनसे मंसूब करता रहा हूँ... अस्तग़फ़िरुल्ला।

    “तो कम अज़ कम एक माह यहां रहोगे। मुझे तो फ़क़त दो मर्तबा कार की ज़रूरत पड़ती है। दिन-भर ये यूंही खड़ी रहती है। तुम उसे ख़ूब लिए फिरना। ये कार कैसी है? यही जिसमें तुम आए हो। ब्यूक का नया मॉडल है। पहले हमारे हाँ डाज थी। वो अच्छी थी। जी चाहा कि पोनटेक ले लूं। स्टूडी बेकर पर भी दिल ललचाया, बड़ी उम्दा कार होती है, लेकिन आख़िर यही ले ली। भला तुम्हारे हाँ कौन सी कार है?” मैं चौंक पड़ा। सोचने लगा कि अब क्या कहूं। बो ज़ोर से चुभी। मैंने जल्दी से उसे ठीक किया, फिर अजब सा मुंह बना कर कहा, “हमारे हाँ? हमारे हाँ तो कोई कार नहीं।”

    “क्या कहा, कोई कार नहीं?”

    “जी नहीं... हमारे हाँ कोई कार थी ही नहीं। अलबत्ता मुरब्बों पर चंद ऊंट ज़रूर हैं?”

    “लेकिन मुझे बताया गया था कि तुम्हारे हाँ कार है।” उन्होंने यूं मुँह बनाया कि जैसे बच्चे कुनैन मिक्सचर पी कर बनाया करते हैं।

    “जी हाँ, किसी ने ग़लत बता दिया होगा।” मैंने कहा।

    उनकी दोनों तनी हुई ताव शुदा मूँछें यकलख़्त ढीली पड़ गईं और अब वो बिल्कुल ख़त-ए-मुसतक़ीम बना रही थीं, जैसे घड़ी की सुइयां सवा नौ बजे होती हैं।

    “आप ख़ामोश हो गए।” मैंने मुअद्दबाना कहा, “क्या हुआ कार हुई हुई, इससे फ़र्क़ क्या पड़ता है?”

    “हाँ हाँ कोई बात नहीं, वो तो यूंही पूछ रहा था... लेकिन मुझे... मुझे किसी ने बताया था कि तुम्हारे हाँ कार है, ख़ैर।” उनका जोश-ओ-ख़रोश कुछ कम हो गया था। अपनी उंगलियां चटख़ाने लगे। फिर बोले, “आजकल अब्बा कहाँ हैं?”

    “पेंशन हो गई है, कश्मीर गए हुए हैं।” हालाँकि पेंशन मिलने में अभी कई साल बाक़ी थे।

    “ओफ़्फ़ो पेंशन पर हैं, लेकिन मुझसे किसी ने कहा था अभी सर्विस में हैं।”

    “यूंही किसी ने कह दिया होगा।” प्रिंसिपल साहब ने फिर बहुत बुरा मुँह बनाया।

    “और हाँ तुम्हारी ज़मीनें?”

    “अच्छा मामूं जान के मुरब्बों का ज़िक्र हो रहा है। दरअसल वो हमारे नहीं, सारी जायदाद मामूं जान की है।”

    “वो ज़मीनें भी तुम्हारी नहीं?” वो चिल्ला कर बोले, “ग़ज़ब ख़ुदा का, तो क्या सचमुच वो किसी और की हैं?”

    “जी हाँ, सचमुच जाने किस ने आपको सारी बातें ग़लत बता दीं।”

    “लाहौल विला क़ुवत, कार वाली बात भी ग़लत, सर्विस वाली भी ग़लत, जायदाद वाली भी ग़लत, लाहौल विला क़ुवत।”

    “मैं इस मर्तबा एम.ए के इम्तिहान की तैयारी...” मैंने शुरू किया।

    “लाहौल विला... अभी एम.ए के इम्तिहान में बड़े दिन हैं, उसे छोड़ो। तुम्हारे छोटे भाई कहाँ हैं आजकल?”

    “कौन से छोटे भाई का ज़िक्र कर रहे हैं आप?” मैंने मासूमियत से पूछा।

    “लाहौल विला... तुम्हारे छोटे भाई का।”

    “जनाब हम कुल आठ भाई हैं।” मैंने बड़े इत्मीनान से जवाब दिया।

    उन्होंने एक चीख़ सी मारी, “आठ भाई हैं? लेकिन मुझे तो बताया गया था कि... (ज़ोर से) तो गोया सचमुच आठ भाई हैं, और कार वाली बात भी ग़लत है? लाहौल विला क़ुवत।”

    प्रिंसिपल साहब का चेहरा दफ़्अतन उतर गया। उनकी चमकदार मूँछें और नर्म हो गईं और यकलख़्त ढलक सी गईं, जैसे घड़ी की सुइयां आठ बज कर बीस मिनट पर होती हैं।

    “तो गोया मुझे बिल्कुल ग़लत बातें बताएं गई हैं। यक़ीन नहीं आता... लाहौल विला... सचमुच तुम्हारे हाँ कार नहीं है? अजब तमाशा है। मुझे तो बड़े मोतबर ज़राए से मालूम हुआ था कि...”

    “क़िबला गुस्ताख़ी माफ़, आप पाँच मिनट में सात-आठ मर्तबा लाहौल पढ़ गए हैं।”

    “ओहो, ख़्याल नहीं रहा लेकिन सोचो तो सही ज़रा, सबकी सब बातें ग़लत बताई गईं।”

    प्रिंसिपल साहब ने साफ़ ज़ाहिर कर दिया था कि वो कितने पानी में हैं।

    मैंने बड़ी संजीदगी से कहा, “आप बुरा मानिए, मुझमें नक़ाइस निकालिये। भला अब्बा जान की कार हो या उनकी जायदाद, इससे मेरी ख़ूबियों में तो कोई इज़ाफ़ा नहीं हो सकता। मैं एम.ए का इम्तिहान देने वाला हूँ, ज़रूर पास हो जाऊँगा। इसके बाद कई मुक़ाबलों में शामिल हो सकता हूँ। अभी अभी आपने मुझे ज़हीन कहा है, मेरे इरादे बुलंद हैं, मुझमें हिम्मत है, आप मेरे पुराने सर्टीफ़िकेट देख लीजिए, और वो...।”

    “हाँ हाँ, ये सब ठीक है। ख़ुदा करे तुम कामयाब हो जाओ, लेकिन मुझे तो एक मोतबर ज़रिये से मालूम हुआ था कि तुम्हारे हाँ... वैसे तुम भी सच कह रहे। लेकिन वो... यानी कि... मुझे सचमुच ग़लत बताया गया।”

    “आप कार का ज़िक्र बार-बार करते हैं, सो में सच अर्ज़ करता हूँ कि चंद ही सालों में एक छोड़ दो कारें ले लूँगा और वो मेरी होंगी। आप मेरे मुताल्लिक़ भी तो कुछ पूछिए। आपने अक्सर अख़बारों में मेरे मुताल्लिक़ पढ़ा होगा।”

    “उसे छोड़ो, खेल कूद बेकार चीज़ है और ये ड्रामा वग़ैरा मसख़रों का काम है। बाक़ी रहा एम.ए में पढ़ना, सो ये एक मामूली सी बात है। हज़ारों लड़के एम.ए में पढ़ते हैं।” वो बेज़ार हो कर बोले।

    “लेकिन जनाब मेरे पास हौसला, उम्मीदें हैं, मुस्तक़िल मिज़ाजी है, बुलंद इरादे हैं।”

    “होंगे, ख़ुदा करे हों... जाने मुझे ये बातें क्यों ग़लत बताई गईं। अगर कहीं मुझे पहले पता चल जाता कि तुम्हारे हाँ...।”

    इसके बाद वो कुछ देर तक कमरे में टहले। उन्होंने एक सिगरेट पिया (अकेले अकेले)। कुछ देर सर झुकाए सोचते रहे। तीन-चार मर्तबा मुझे देखा भी। देर तक मराक़बे में रहे, फिर बोले, “मैं कल कहीं बाहर जा रहा हूँ। बड़ा ज़रूरी काम है। कई रोज़ तक सकूँगा। तुम यहां अकेले उदास हो जाओगे। वैसे तुम्हारा इरादा कब है वापस जाने का?”

    “चला जाऊंगा।”

    “हाँ, मैं कम अज़ कम हफ़्ता भर बाहर रहूँगा। यहां नन्हा होगा। उससे तुम्हारा क्या जी बहलेगा। फिर तुम्हारी ग़ैर हाज़रियां भी लग रही हैं। अच्छा, तो बहुत देर हो गई, कहो तो मोटर निकलवा दूं। वैसे रास्ता लंबा तो नहीं है, कुल दस-पंद्रह मिनट का है। मेरे ख़्याल में पैदल बेहतर रहेगा।”

    “अच्छा।”

    उन्होंने एक ढीला सा हाथ मेरे हाथ में दे दिया। हाथ मिलाकर बल्कि हाथ छुवा कर मैंने मुअद्दबाना सलाम अर्ज़ किया और चल पड़ा। दरवाज़े से मुड़कर जो देखता हूँ तो वो दोनों नोकदार मूँछें बिल्कुल लटक रही थीं। प्रिंसिपल साहब की बढ़िया मूंछों में साढे़ छः बज चुके थे। दरवाज़े पर शैतान मिले। हम दोनों हाथ में हाथ डाल कर चलने लगे। बो एक मर्तबा फिर चुभी, इस दफ़ा मैंने उसे नोच कर प्रिंसिपल साहब के लॉन में फेंक दिया। कोठी के दरवाज़े पर शैतान ने एक ज़बरदस्त फ़लक शि्गाफ़ क़हक़हा लगाया और मुझे भी उनका साथ देना पड़ा। हम कितने ज़ोर से हँसे? इसका अंदाज़ा तो नहीं, अलबत्ता आसपास के दरख़्तों पर जितने परिंदे बसेरा कर रहे थे वो सब के सब उड़ गए।

    इन बातों को एक अरसा गुज़र गया है। अब किसी चौक में गुज़रती हुई कार को देखकर हरगिज़ नहीं ठहरता। किसी ख़ातून को देखकर अगर मेरे बालों पर मक्खी बैठी भी हो तब भी नहीं उड़ाता। कभी किसी ख़ातून को सलाम करने की कोशिश करता हूँ। रात को हमेशा भूक रखकर सोता हूँ। और जब कभी खेल कूद के बाद ज़्यादा थक जाता हूँ तो आँखें मुँदने लगती हैं। ग़नूदगी सी तारी हो जाती है। पुरानी यादें ताज़ा होने लगती हैं। नज़रों के सामने स्याही और सफ़ेदी के टुकड़े नाचने लगते हैं। कुछ तस्वीरें बन जाती हैं। फिर वो मुतहर्रिक होजाती हैं। तब सामने रखे हुए टाइम पीस के गिर्द एक हाला बन जाता है।

    कभी कभी शाम को साढे़ छः बजे एक जोड़ी बढ़िया, नोकदार, चमकीली, ताव शुदा मूँछें याद आजाती हैं, जिन पर पहले ग्यारह बज कर पाँच मिनट थे। फिर सवा नौ और इसी तरह आख़िर में साढे़ छः बज गए थे।

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