शैख़ सिल्ली
शेख़ सिल्ली कि जो शैख़ चिल्ली के पड़ पोते कहलाते थे, दूर की कौड़ी लाने में यकताए रोज़गार थे। एक दिन बेगम से कहने लगे, “प्लान बनाओ वर्ना तबाह होने के लिए तैयार हो जाओ।” बेगम समझें शैख़ साहब फैमली प्लैनिंग का ज़िक्र कर रहे हैं। हवा में हाथ नचाते हुए बोलीं, “शर्म नहीं आती, इस उम्र में फैमली प्लैनिंग का ज़िक्र करते हुए। ग्यारह बच्चे पैदा करने के बाद जब तबीयत ऊब गई तो तौबा की सूझी।”
शैख़ साहब ने बेगम की नासमझी पर सर पीटने के बाद जवाब दिया, “हमें आज तक पता न चला ख़ुदा ने किस मस्लहत की बिना पर तुम्हें अ’क़्ल से महरूम रखा। हम फैमली प्लैनिंग का नहीं सात साला प्लान का ज़िक्र कर रहे हैं। औलाद के मुतअ’ल्लिक़ हमारा जो नज़रिया है उससे सारी दुनिया बख़ूबी वाक़िफ़ है। दरअसल ग़ालिब का जो अ’क़ीदा आमों के बारे में था, हमारा वही बच्चों के बारे में है। या’नी ज़्यादा हों और मीठे हों। मीठे या’नी 'स्वीट'। हम बच्चों की तादाद से कभी नहीं घबराए। अगर एक बच्चा भी लायक़ साबित हो निन्नानवे लायक़ बच्चों की तलाफ़ी हो जाती है।”
“फिर ये सात साला प्लान क्या ?”
“तौबा तौबा, बद मज़ाक़ी की हद हो गई। तुम प्लान को बला समझती हो। यही वजह है हमारे यहां ज़बूँहाली ने डेरा डाल रखा है। तुमने शायद वो शे’र नहीं सुना;
यारान-ए-तेज़गाम ने मंज़िल को जा लिया”
हम...
बेगम ने शैख़ साहब की बात काटते हुए सवाल किया, ‘‘कौन से यारान-ए-तेज़गाम ने?” शैख़ साहब ने झल्लाकर कहा, “लाहौल वल्लाह, अ’जीब नामा’क़ूल औरत हो। कितने बेहूदा सवाल करती हो, अरे भई उन्होंने जिन्हें ख़ुदावंद करीम ने तौफ़ीक़ दी कि सात साला प्लान बनाएँ।”
“इससे उन्हें क्या फ़ायदा हुआ?”
“उनके वारे न्यारे हो गए। इन दिनों वो करोड़पती कहलाते हैं। शानदार कोठियों में रहते हैं, पुर तकल्लुफ़ कारों में घूमते हैं। मतलब ये कि बड़े ठाठ से ज़िंदगी बसर कर रहे हैं। हालाँकि वो कभी हमसे भी ज़्यादा मुफ़लिस और क़ल्लाश थे।”
“अगर ये बात है तो आप भी अल्लाह का नाम लेकर सात साला प्लान बना डालिए। शायद इससे ही हमारे दिन फिरें।”
“अभी बनाते हैं, तुम हिम्मत करके एक काग़ज़ और क़लम ले आओ।”
काग़ज़ को मेज़ पर रखते हुए शैख़ साहब ने बेगम को मुख़ातिब करते हुए कहा, “अच्छा, पहले इस प्लान का ज़रा ख़ाका सुन लो।”
“फ़रमाई।”
“हम अपने ग्यारह बच्चों को विलाएत भेजेंगे।”
“क्रिकेट टैस्ट मैच में हिस्सा लेने के लिए?”
“तुम भी उल्टी खोपड़ी की हो, क्रिकेट टैस्ट मैच में हिस्सा लेने के लिए नहीं, ऑक्सफ़ोर्ड यूनीवर्सिटी में आ’ला ता’लीम हासिल करने के लिए।”
“इसके लिए रुपया कहाँ से आएगा?”
“इसकी फ़िक्र न करो। हम अपनी ज़मीन बेच देंगे, फिर भी काम न बना तो घर का अस्बाब फ़रोख़्त कर देंगे।”
“ये मसला तो हल हुआ आगे चलिए।”
’’हम अपना बोसीदा मकान मिस्मार कर देंगे, उसके बजाय आलीशान कोठी ता’मीर करेंगे।”
“कोठी के लिए...”
“रुपया कहाँ से आएगा, तुम यही बात कहना चाहती हो ना। कोई न कोई ख़ुदा का बंदा दे ही देगा। आख़िर हिन्दोस्तान में पचपन करोड़ इन्सान रहते हैं। ये सब तो बख़ील हो नहीं सकते। बिलफ़र्ज़ हमें किसी ने रुपया न दिया, हम ग़ैर ममालिक में रहने वालों से अपील करेंगे कि इस कार-ए-ख़ैर में हमारा हाथ बटाएं। बहरहाल मायूस होने की क़तई ज़रूरत नहीं।”
“कोठी भी बन गई, अब और क्या बनाने का इरादा है?”
“इसके बाद हम एक डीलक्स कार ख़रीदेंगे। ये माहाना क़िस्तों पर ख़रीदी जाएगी, जिन्हें हमारा कोई न कोई दोस्त अदा करेगा।”
“फ़र्ज़ कीजिए, हमारा कोई दोस्त क़िस्तें अदा करने पर रज़ामंद नहीं होता फिर?”
“तुम ऐसी फ़ुज़ूल बात फ़र्ज़ ही क्यों करती हो। ये क्यों नहीं फ़र्ज़ करतीं कि हमारे इतने दोस्त रज़ामंद हो जाऐंगे कि हमें हरमाह बज़रिया क़ुरआ अंदाज़ी फ़ैसला करना पड़ेगा कि उनमें से कौन क़िस्त अदा करेगा। बसूरत-ए-दीगर हम अस्सी हज़ार रुपया क़र्ज़ ले लेंगे।”
“कार लेने के बाद हमारा अगला प्रोग्राम क्या होगा?”
“अगला प्रोग्राम पैदावार बढ़ाना होगा। तुम शायद पूछना चाहोगी ज़मीन बेचने के बाद हम फ़सलें कहाँ उगाएँगे। इस सवाल का साफ़ और सीधा जवाब है अपनी कोठी के आँगन में और कोठी की छत पर।”
“कोठी की छत पर आप हल चलाऐंगे क्या?”
“हल नहीं ट्रैक्टर।”
“फिर तो छत का ख़ुदा हाफ़िज़ है।”
“कोई मज़ाइक़ा नहीं, हम ट्रैक्टर ज़रा आहिस्ता चलाऐंगे।”
“लेकिन छत पर जगह ही कितनी होगी?”
“इसका वहम न करो। हम जदीद खाद का इस्तेमाल कर के थोड़ी ज़मीन में ज़्यादा पैदावार हासिल कर लेंगे। तीन साल के बाद हमें फ़सल से इतनी आमदनी हो जाएगी कि हम अपना सारा क़र्ज़ अदा कर सकेंगे। इसके बाद आने वाले चार बरसों में हमारी ख़ुशहाली का वो ठिकाना होगा कि लोग हम पर रश्क किया करेंगे।”
“तो ये है आपकी सात साला प्लान का मुकम्मल ख़ाका।”
“अभी मुकम्मल कहाँ है, हमने तुम्हें ये तो बताया नहीं कि कोठी के दो कमरों में पोल्ट्रीफार्म खोला जाएगा। पाँच सौ मुर्ग़ियां पाली जाएँगी। हर एक मुर्ग़ी औसतन दस चूज़ा...”
“आप तो अपने पड़दादा शैख़ चिल्ली की तरह हवाई क़िले बनाने लगे।”
“पड़दादा जान तो बड़े सादा-लौह थे। अगर कोई बाक़ायदा प्लान बनाते तो आज हमारे ख़ानदान की हालत इतनी पतली न होती। हाँ, तो हम कह रहे थे एक चूज़ा दो रुपये में फ़रोख़्त किया जाएगा। अब हमारे पास दस हज़ार रुपया हो जाएगा।”
“इससे शायद आप भेड़ें ख़रीदेंगे?”
“हाँ, और भेड़ों के ऊन फ़रोख़्त करके जो रुपया आएगा उससे हम एक नई क़िस्म का कारख़ाना लगाएँगे।”
“ये कारख़ाना कौन सा माल तैयार करेगा?”
“ये कारख़ाना छोटे छोटे कारख़ाने तैयार करेगा, जैसे सीमेंट तैयार करने का कारख़ाना, ब्लेड बनाने का कारख़ाना, खांड बनाने का कारख़ाना, मोटरें बनाने का कारख़ाना वग़ैरा वग़ैरा। आइन्दा जिस शख़्स को कारख़ाना लगाना मक़सूद होगा वो हमारे कारख़ाने से बना बनाया कारख़ाना आकर ले जाया करेगा।”
“तब तो हम करोड़पती हो जाऐंगे।”
“इसमें क्या शक है?”
“इस प्लान को अ’मली जामा कब पहनाया जाएगा?”
शैख़ साहब ने यकलख़्त एक क़हक़हा लगा कर कहा, “अ’मली जामा, बेगम क्या तुम वाक़ई समझती हो, प्लानों को अ’मली जामा पहनाया जाता है। तुम बड़ी सादा-लौह हो। हम शैख़ चिल्ली के पड़पोते सही लेकिन इतना तो हम भी जातने हैं प्लान सिर्फ़ काग़ज़ पर बनाए जाते हैं। जानती हो अगर हम इस प्लान पर अ’मल करेंगे, हमारा क्या हश्र होगा। हमें ज़मीन औने-पौने फ़रोख़्त करनी पड़ेगी। कोई शख़्स हमें क़र्ज़ देने पर आमादा न होगा। हमारा कोठी बनाने का ख़्वाब शर्मिंदा-ए-ता’बीर न होगा। अगर हम अपना बोसीदा मकान गिरा देंगे हमें फ़ुटपाथ पर बसेरा करना पड़ागे। हमारे बच्चे फ़ीस अदा न कर सकेंगे और उन्हें ऑक्सफ़ोर्ड से निकाल दिया जाएगा। मुख़्तसर ये कि हमारी हालत पहले से भी बदतर हो जाएगी।”
“अगर ये मुआ’मला है तो इतनी नाफ़ ज़नी की क्या ज़रूरत थी?”
“बेगम दिल्ली में एक बहुत बड़े शायर हुए हैं’’, उन्होंने फ़रमाया था;
दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख़्याल अच्छा है
“फिर भी उसे अ’मली जामा पहनाने में हर्ज क्या है?”
“ज़रूर जानना चाहती हो?”
“हाँ।”
“हर्ज सिर्फ़ इतना है जब हमारा सात साला प्लान फ़ेल हो जाएगा तो हम दोनों को ये नारा लगाना पड़ेगा,
“प्लान बनाओ और तबाह हो जाओ।”
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