तन्क़ीद-निगारी से तौबा
मुझे किताबों पर रिव्यू लिखने में मलका हासिल है। और मैं उन्हें पढ़े बग़ैर ही रिव्यू लिख सकता हूँ। ये ख़ुदा की देन है जिस तरह बा’ज़ लोग शाइ’र या पैदाइशी मुख़्तसर अफ़्साना-नवीस होते हैं। ग़ालिबन मैं एक पैदाइशी तब्सिरा-निगार हूँ।
पिछले दो, तीन साल के ‘अर्से में मैंने अदीब-साज़ी के सिलसिले में जो काम किया है वो आपसे पोशीदा न होगा। मेरा रिव्यू करने का तरीक़ा ये है :
“ख़याल-ए-नौ” का एडिटर जो मेरा दोस्त है मुझे किताबें रिव्यू करने के लिए भेजता है। मैं उनको इधर-उधर उलट कर किसी सफ़्हे को खोल कर दो तीन सत्रों पढ़ता हूँ। मसलन :
उसने कहा, “चाय की प्याली पियो।”
भूरे ख़ान ने कहा, “शुक्रिया मैं अभी-अभी लेमन पी कर आया हूँ।”
और फिर किताब को बन्द करके उस पर तीन-चार सफ़्हे का रिव्यू घसीट देता हूँ। अगर किताब ज़रा अहम हुई तो मैं उसे अपने भान्जे को (जो आठवीं जमा’अत में ता’लीम पा रहा है) पढ़ने के लिए दे देता हूँ और रात को सोते वक़्त उससे कहता हूँ कि मुझे उसका प्लाट सुनाए। अगर उसके पल्ले कुछ न पड़ा तो समझ लेता हूँ कि किताब फ़िल-वाक़िई’ हाई-ब्रो है और अपने रिव्यू में उसे वक़ी’ और आ’लिमाना बताता हूँ। अब तक ये तरीक़ा बहुत कामयाब रहा था। कितना कामयाब आपको उस शोहरत से अन्दाज़ा हो सकता है जो इस सिलसिले में मुझे हासिल है। ख़ुद मेरे रिव्युओं पर रिव्यू लिखे जा चुके हैं। और मुझे अदब का होनहार-तरीन नौजवान नक़्क़ाद तस्लीम किया जा चुका है। “ख़याल-ए-नौ” जो इस वक़्त उर्दू अदब की आवाज़ है। अपने हर शुमारे में मेरी तस्वीर के नीचे ये छापता है। “मिस्टर शद्दाद पश्मी उर्दू के होनहार-तरीन नौजवान नक़्क़ाद” वग़ैरा-वग़ैरा।
लेकिन चन्द दिनों से इसी तन्क़ीद-निगारी की ब-दौलत मैं एक अ’जीब मुसीबत में फँस गया हूँ। मुझे मा’लूम न था कि रिव्युइंग इतनी पुर-ख़तर भी हो सकती है। मेरा ख़याल था कि ये सब गुलाबों की सेज है। अब इसके ख़तरात मुझ पर खुले हैं। सच तो ये है कि इस मुसीबत की वज्ह से हालात इस क़दर नाज़ुक सूरत इख़्तियार कर चुके हैं कि किताबें रिव्यू करना तो रहा एक तरफ़, मैंने घर से बाहर निकलना भी तर्क कर दिया है और अब कराची छोड़कर किसी और जगह कूच करने का इरादा कर रहा हूँ... वो जगह है न जहाँ... वो क्या मिसरा’ है। हम-ज़बाँ कोई न हो और मेज़बाँ कोई न हो। वग़ैरा-वग़ैरा। ठीक उसी जगह मैं जाना चाहता हूँ। सिर्फ़ वो जगह अब मुझे रास आ सकती है। क्या कोई साहब मुझे उस का अता-पता बता सकते हैं कि वो कहाँ है।
मुसीबत का आग़ाज़ यूँ हुआ कि “ख़याल-ए-नौ” के एडिटर ने मुझे एक नािवल रिव्यू करने के लिए दिया। मेरा भांजा कहीं बाहर गया हुआ था और फिर मैं समझा कि नािवल इतना अहम भी नहीं है। (उसका मुसन्निफ़ कोई ग़ैर-मा’रूफ़ शख़्स था।) मैंने दरमियान से एक सफ़्हा खोला और पढ़ने लगा।
“मैं पागल हूँ मैं पागल हूँ।”, अब्दुल शकूर ने अपने कपड़े फाड़ने की कोशिश करते हुए कहा।
उसके दोस्त हकीम अब्दुल अली ने उसको इससे बाज़ रखने के लिए कश्मकश की।
“कपड़े मत फाड़ो मियाँ अब्दुल शकूर”, मियाँ अब्दुल अली ने कहा, “ये ‘क़मीज़’ जो तुम पहने हुए हो मेरी है।”
मैंने किताब को एक और जगह से उल्टा। यहाँ इस क़िस्म के नादिर जवाहरात जड़े थे अगर अब्दुल शकूर अपने तहतुश्शुऊ’र को किसी तरह अपने ला-शुऊ’र में मुदग़म कर सकता है तो उसकी नफ़्सियाती उलझनों का ख़ात्मा हो जाता। उसको ख़ुद-ब-ख़ुद मुलाज़िमत मिल जाती और उसके दफ़्तर का सुपरिटेंडेन्ट ख़ुद ब-नफ़्स-ए-नफ़ीस मुलाज़िमत को तश्त पर रखे उसके पास हाज़िर होता। उसके मकान का पिछले दो माह का किराया ख़ुद-ब-ख़ुद अदा हो जाता और उसके क़र्ज़-ख़्वाह उसकी ख़ुश-तब’ई से मुतअस्सिर हो कर अपने पिछले कर्ज़े माँगने की बजाए उसे और क़र्ज़ा देने पर इसरार करते। मगर अफ़सोस कि अब्दुल शकूर महज़ दस जमा’अतों तक पढ़ा था। अफ़सोस उसने डाक्टर सिगमंड फ़्रायड की किताब साइकोलाॅजी आफ़ न्यूरासिस नहीं पढ़ी थी। अफ़सोस उसने आंद्रे ज़ेद नहीं पढ़ा था। अफ़सोस वो ब-सद कोशिश जेम्ज़ जॉयस की यूलिसिस को एक सफ़्हे से आगे पढ़ने में कामयाब न हुआ था अगर वो कम-अज़-कम “यूलिसिस” ही आधी तक मुताला’ कर लेता तो उस वक़्त उसकी नफ़्सियाती और जिस्मानी हालत इस क़द्र क़ाबिल-ए-रहम न होती और चाननान उससे यूँ बेवफाई न करती, अब वो इस तरह महसूस कर रहा था जैसे वो पागल हो जाएगा। जैसे उसके पागल हो जाने के सिवा और कोई चारा-ए-कार नहीं है...
ये काफ़ी था और मैं किताब को बन्द करके उस पर रिव्यू लिखने बैठ गया।
पन्द्रह मिनट में मैंने रिव्यू लिख डाला। छः सफ़्हे का रिव्यू। उसमें मैंने लिखा कि इस नािवल में मुसन्निफ़ मुहतरम ज़ुल्फ़िक़ार ख़ान ने एक बेकार ता’लीम-याफ़्ता नौजवान के जज़्बात की फ़्राइडियन नुक़्ता-ए-नज़र से तज्ज़िया-ए-नफ़्सी करने की कोशिश की है मगर वो इसमें ज़ियादा कामयाब नज़र नहीं आते। फिर भी उनकी इस कोशिश को ना-कामयाब भी नहीं किया जा सकता। वो ज़िन्दगी की तल्ख़ हक़ीक़तों की हू-ब-हू अ’क्कासी करते हैं मगर उनकी रूमानियत-परस्ती सब किए-कराए पर पानी फेर देती है। उनकी किरदार-निगारी की तकनीक ख़ारिजी नहीं बल्कि दाख़िली है, या’नी वो अपने किरदारों के छिपे-छिदरे तहतुश्शुऊ’र में घुस कर उनकी ज़बान से बोलते हैं और जब उस शानदार और रिक़्क़त-अंगेज़ सीन में अब्दुल शकूर जो इस नािवल का हीरो है अपने कपड़े फाड़ कर चिल्लाता है। मैं पागल हूँ, मैं पागल हूँ। तो हमें साफ़ तौर पर उसमें मुसन्निफ़ ख़ुद बोलता हुआ नज़र आता है मुहतरम ज़ुल्फ़िक़ार ख़ान में एक ‘ऐब ये है कि वो किरदारों को बाहर से टटोलते हैं और उनके बारे में गहराई से नहीं लिखते। लेकिन उम्मीद है कि अपनी अगली किताब में वो इसके बिल्कुल बर-‘अक्स तकनीक इस्ति’माल करेंगे। उनकी पहली ही किताब से सबकी आँखें खुल गई हैं और अदबी दुनिया में एक हंगामा बरपा हो गया है । सबने महसूस किया है कि एक नया अदीब मनस्सा-ए-शुहूद पर जल्वा-गर हो चुका है। जिसकी अदबी काविशों से उर्दू अदब को चार चाँद लगने की तवक़्क़ो’ है। मगर ज़ुल्फ़िक़ार ख़ान को सँभल-सँभल कर बढ़ना होगा। अभी उन्हें फ़े’ल-निगारिश के मुत’अल्लिक़ बहुत कुछ सीखना है और नफ़्सियात की सब किताबों का मुतािलआ’ करना है। उनके नािवल से गुमान होता है कि अब्दुल शकूर ने (जो ग़ालिबन मुसन्निफ़ ख़ुद है) अभी तक “साइकोलौजी आफ़ न्यूरासिस” नहीं पढ़ी आंद्रे ज़ेद नहीं पढ़ा। मैं मोहतरम ज़ुल्फ़िक़ार ख़ान से पूछने की जसारत करूँगा कि अगर उन्होंने ख़ुद अपने इक़रार के मुताबिक़ न फ़्रायड को पढ़ा है न आंद्रे ज़ेद को और न जॉयस को तो फिर उन्होंने पढ़ा क्या है। क्या इन किताबों के मुतािल’ए के बग़ैर वो हमें कैसे कोई ठोस या जामिद तख़्लीक़ दे सकते हैं। राक़िम-उल-हुरूफ़ ने ख़ुद इन तीनों मुसन्निफ़ों को हाई स्कूल ही में पढ़ डाला था। उस ज़माने में शायद ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ पतंग उड़ाते होंगे या बहराम डाकू उर्फ़ बेवफ़ा मुजाहिद की क़िस्म के नाविलों से अपनी रातों की नींद हराम करते होंगे। मुहतरम ज़ुल्फ़िक़ार ख़ान चीनी क्लासिकल मुसन्निफ़ चिंगफंग फूँ से बेहद मुतअस्सिर मालूम होते हैं। (ये नाम मैंने उसी वक़्त फ़र्ज़ी गढ़ लिया था) और उन्होंने अपने नािवल के प्लाट के सिलसिले में मिस्टर चिंगफंग फूँ के नािवल “चीकू! चीकू” से किसी हद तक इस्तिफ़ादा किया है।
कुछ इस क़िस्म के अल्फ़ाज़ थे मेरे रिव्यू के। लफ़्ज़ों के कुछ हेर-फेर के साथ में इस मौज़ू’ के मुत’अद्दिद रिव्यू पहले कर चुका था और एडिटर “ख़याल-ए-नौ” को ये रिव्यू हवाले कर देने के बा’द मैं इसके और मोहतरम ज़ुल्फ़िक़ार ख़ान के मुत’अल्लिक़ सब कुछ भूल गया।
जब ये रिव्यू “ख़याल-ए-नौ” मैं छपा तो इससे तीन चार रोज़ बा’द मुझे मोहतरम ज़ुल्फ़िक़ार कान का ख़त मौसूल हुआ। जिसमें उन्होंने मेरे हौसला-अफ़्ज़ा रिव्यू का शुक्रिया अदा किया था और मुझे यक़ीन दिलाया था कि उन्होंने चिंगफंग फँू की कोई किताब नहीं पढ़ी। और अगर उनके नािवल की मिस्टर चिंगफंग फूँ के नािवल से कुछ मुशाबहत है तो उसे महज़ इत्तिफ़ाक़ पर महमूल किया जा सकता है। आगे चल कर उन्होंने मुझसे दरख़्वास्त की थी कि आया मैं उनको मिस्टर चिंगफंग फूँ के पब्लिशर के पते से आगाह कर सकता हूँ। जिससे अ’ज़ीम चीनी मुसन्निफ़ के नािवल “चीकू” का अंग्रेज़ी ज़बान का एडिशन दस्तयाब हो सके।
मैंने जवाबन लिख भेजा।
“चीकू! चीकू तो मैंने अस्ल चीनी ज़बान में पढ़ा था। जहाँ तक मुझे इ’ल्म है अभी नावल का अंग्रेज़ी ज़बान में तर्जुमा नहीं हुआ।”
मेरा ख़याल था मु’आमला यहीं पर ख़त्म हो जाएगा। दूसरे दिन मैं अभी बिस्तर से निकल कर शेव ही कर रहा था कि किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी। मैं समझा शायद दूध वाला होगा। मुँह साबुन के झाग में लिथड़ा हुआ हाथ में ब्रश। इस हुलिये में मैंने दरवाज़े को थोड़ा सा खोल कर मुहतात अन्दाज़ में बाहर सर निकाला।
“क्या आप ही शद्दाद पश्मी हैं?”, एक खप्पे-दार मूँछों वाला ख़तरनाक शक्ल का इन्सान दरवाज़े के पास खड़ा था।
“हाँ मुझे यही कहा जाता है। दोस्त अहबाब सिर्फ़ पश्मी कहते हैं”, मैंने मुस्कुराने और ख़ुरखुर्राने की कोशिश करते हुए कहा, “आपकी ता’रीफ़? कैसे आना हुआ?”
“मैं ज़ुल्फ़िक़ार ख़ान हूँ और आपके हौसला-अफ़्ज़ा रिव्यू का शुक्रिया अदा करने आया हूँ।”
मैं इसको अच्छे अख़्लाक़ में शुमार नहीं करता कि मुसन्निफ़ लोग बिल्कुल ही तब्सिरा-निगार के पीछे पंजे झाड़कर पड़ जाएँ और ख़त-ओ-किताबत पर इक्तिफ़ा न करके उसके घर का खोज जा निकालें। मैं ज़ाती तजरबे की बिना पर कह सकता हूँ कि सुब्ह ही सुब्ह ज़ुल्फ़िक़ार ख़ान की क़िस्म के मुसन्निफ़ को अपने दरवाज़े के बाहर खड़ा देखना किसी तब्सिरा-निगार के दिली-सुकून में इज़ाफ़े का मोजिब नहीं बन सकता। मैंने साबुन की झाग में से अपने जबड़े चीर कर उस पर ये ज़ाहिर किया कि मैं उसे देखकर बहुत ख़ुश हुआ हूँ।
मैंने कहा, “ख़्वाह। ज़ुल्फ़िक़ार साहिब। आइए-आइए अन्दर तशरीफ़ लाइए। आपकी किताब कई हैसियत से ग़ैर-मा’मूली थी।”
वो अन्दर आकर कुर्सी पर बैठ गया और मैं हाथ में ब्रश पकड़े उसके सामने सोफ़े पर।
“हाँ तो वो आपकी किताब ख़ूब थी।”
“आप शेव तो कर लीजिए।”, उसने मुस्कुराते हुए कहा\
मैं जानता था कि इस शख़्स की मौजूदगी में मेरे लिए शेव करना ना-मुम्किनात में से है। शेव करने के लिए दिली-सुकून और रुहानी इत्मीनान ज़रूरी है... मेरा ख़याल था कि इस तरह शायद मुझे उससे जल्द छुटकारा हासिल हो जाए।
“शैव कर लूँगा। आप फ़रमाइए। इतने सवेरे-सवेरे...”
“हाँ वो चीनी किताब “चीकू! चीकू” आपके पास ज़रूर होगी। आपने अपने रिव्यू में उसका हवाला दिया है। वो नहीं तो चिंगफंग फूँ का कोई दूसरा शाहकार।”
“वो किताब “चीकू! चीकू” हाँ मुझे याद आया मैं कल ही तो उसे पढ़ रहा था। मिस्टर चिंगफंग फूँ - यही नाम है ना! इस वक़्त चीन के क्लासिकी रिवायत में लिखने वालों में सबसे ज़ियादा मुमताज़ है, वो जो मैंने आपकी किताब पर अपने रिव्यू में लिखा था कि उसकी चिंगफंग फूँ की किताब से मुशाबहत है तो”
“आपने चीनी ज़बान कब सीखी थी।,” मिस्टर ज़ुल्फ़िक़ार ने बात काटते हुए, संजीदगी से कहा।
“ग़ालिबन उस वक़्त जब मैं लकड़ी के घोड़े पर सैर किया करता हूँगा।”
मैंने इस सवाल में पेश-ज़नी को नज़र-अन्दाज़ करके उतनी ही संजीदगी से दूर एक मुफ़क्किराना तौर पर देखते हुए जवाब दिया, “ग़ालिबन 1928 में। मैं उस वक़्त आठवीं जमा’अत में पढ़ता था।”
मिस्टर ज़ुल्फ़िक़ार ने क़त’-कलामी करके मुझे मज़ीद दारोग़-गोई से बचाते हुए पूछा, “आपने लिन यूटांग की किताबें पढ़ी हैं। वो सब तो अंग्रेज़ी में भी तर्जुमा हो चुकी हैं।”
मैंने जवाब दिया, “हाँ अच्छा लिखता है, मगर ख़ारिजी स्कूल का मुसन्निफ़ है मेरा मतलब है उसमें दाख़िलियत नहीं। फिर भी बुरा नहीं । मैंने तो उसकी किताबें अस्ली ज़बान में पढ़ी हैं। तर्जुमे में दर-अस्ल वो बात नहीं रहती।”
“और पिंग-पांग के मुत’अल्लिक़ आपका क्या ख़याल है”, ज़ुल्फ़िक़ार ख़ान ने पूछा।
“अच्छा लिखता है”, मैंने जवाब दिया। अगरचे मैंने उसका नाम कभी नहीं सुना था। चीन की अ’वामी ज़िन्दगी का इस वक़्त वो वाहिद ‘अक्कास है। मगर रूमानियत-पसन्दी उस की तख़्लीक़ात में जो ख़ारिजियत... अर्र... रूमानियत का रंग ले आती है। वो मेरी राय में उसकी अस्ली ख़ूबियों में से बहुत कुछ मनफ़ी कर लेता है। फिर भी वो इस वक़्त चीनी अदब का आंद्रे ज़ेद है।”
“मु’आफ़ कीजिए।”, मिस्टर ज़ुल्फ़िक़ार ख़ान ने यक-लख़्त उठते हुए कहा।
“आठ बजे मुझे एक ज़रूरी काम पर जाना है। अब इजाज़त चाहता हूँ। पिंग-पांग के मुत’अल्लिक़ आपके इन इरशादात को मैं यहाँ के हर अदीब तक पहुँचाने की कोशिश करूँगा। ख़ातिर जमा’ रखिए और वैसे जाते-जाते ये ‘अर्ज़ कर दूँ कि पिंग-पांग एक खेल का नाम है। जो गेंद से मेज़ पर खेला जाता है।”
“मेरा मतलब तरीक़ा-ए-फ़िक्र की मुशाबहत से था। आप समझते हैं न सबजेक्टिव (Subjective) तरीक़े न कि आबजेक्टिव (Objective) आप समझते हैं ना।”
मैंने बाज़ू हिलाकर उसे अपना मतलब समझाने की कोशिश की और इस कोशिश में ब्रश से अपनी नाक पर सफ़ेदी करने में कामयाब हो गया।
“वो किताब तो आपके पास होगी ही बात ये है कि हम नए अदीबों को चीनी ही फ़नकारों के शाहकार पढ़ने चाहिएँ। नेपटर रोड पर एक चीनी दन्दान-साज़ आह फुंग मेरा दोस्त है। मैं उससे अगले ही रोज़ दो डाढ़ें निकलवा चुका हूँ।”
मिस्टर ज़ुल्फ़िक़ार ख़ान ने हल्क़ खोल कर और उँगली डाल कर मुझे निकली हुई डाढ़ों की जा-ए-वक़ू’ दिखाने की कोशिश की।
“मेरा इरादा है कि आह फुंग की मदद से मैं “चीकू! चीकू!” का उर्दू तर्जुमा करूँ। वर्ना आप तो हैं ही।”
“हाँ ज़रूर कीजिए। हमें उर्दू-दाँ तब्क़े को चीनी अदब से रू-शनास कराना चाहिए। ज़रूर कीजिए।”, मैंने कहा।
“अच्छा तो मुझे वो किताब एक-दो दिन के लिए ‘इनायत कर दीजिए!”
“कौन सी किताब!”, मैं उस किताब के मुत’अल्लिक़ भूल गया था।
“वही चीकू! चीकू!” चिंग फंग फूँ का शाहकार।”
“वो किताब हाँ मैंने ख़ुदा जाने उसको कहाँ रख दिया है।”, मैंने कहा, “परसों भी तो वो मेरे पास ही थी। दर-अस्ल ये मेरा भान्जा है न अ’जीब ना-मा’क़ूल लड़का है। मेरी किताबें यहाँ से उठाकर ले जाता है और भैंस के आगे डाल देता है।”
“भैंस के आगे!”, मिस्टर ज़ुल्फ़िक़ार ने कुर्सी पर से हड़बड़ाकर उठते हुए एहतिजाज किया।
“हाँ भैंस के आगे। ये उसकी “हाबियों” में से एक है।”
“मगर िपंग-पांग एक चीनी मुसन्निफ़ भी तो है। आप मज़ाक़ तो नहीं कर रहे।”
“ज़ुल्फ़िक़ार साहिब ठहरिए चाय तो पीते जाइए।”, मगर मेरा मुलाक़ाती दरवाज़ा खोल कर बाहर जा चुका था।
साबुन मेरे गालों पर सूख चुका था और ज़ुल्फ़िक़ार ख़ान के चले जाने के बा’द मुझे एक मुब्हम सा एहसास हुआ कि रिव्युअर की हैसियत से मेरा कैरियर अब ख़त्म हो गया है
मिस्टर ज़ुल्फ़िक़ार ख़ान अपने वा’दे का पक्का साबित हुआ। क़ाबिल से क़ाबिल-तरीन ढिंडोरची भी इस ख़ूबी से इस काम को सर-अंजाम न दे सकता जिस ख़ूबी से इसे ज़ुल्फ़िक़ार ख़ान ने किया। एक हफ़्ते के अन्दर-अन्दर शह्र का हर अदना आदमी। काफ़ी हाऊस का हर जर्नलिस्ट इस क़िस्से को जानता था और “पिंग-पांग” के मुत’अल्लिक़ मेरी राय को क़हक़हों के दरमियान अदबी महफ़िलों में दुहराया जाता था। कम-अज़-कम उर्दू के दो माह-नामों “सुब्ह” और “स्क्रीन” के तन्क़ीद-निगारों ने तवील मक़ालों में मेरी ख़ूब ख़बर ली (तन्क़ीद निगारों को ऐसा नहीं करना चाहिए था। काश हम लोगों में यूनियन अपरट होता) महीने के अन्दर-अन्दर सारी अदबी दुनिया इस मज़ाक़ से वाक़िफ़ हो गई थी और जब कि तीन माह बा’द भी लोग मुझे देखते हैं तो उनकी बाछें चरने लगती हैं और वो मुझसे पूछते हैं।
“पिंग-पांग” के मुत’अल्लिक़ आपकी क्या राय है!”
मेरे लिए घर से बाहर निकलना दूभर हो गया है।
मेरा दोस्त “ख़याल-ए-नौ” का एडिटर अब मुझे अपने रिसाले के लिए रिव्यू लिखने की दा’वत नहीं देता। मैं अब इस जगह से कूच करने का इरादा कर रहा हूँ। उस जगह जहाँ हम-ज़बान कोई न हो। और मेहमान कोई न हो वग़ैरा-वग़ैरा, और वहाँ ज़ुल्फ़िक़ार ख़ान भी न हो।
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