ज़रा धूम से निकले
अब तक यही सुनते चले आए हैं कि “शामत-ए-आ'माल मा सूरत-ए-ग़ालिब गिरफ़्त” वो बज़्म हो या तन्हाई...क्लासरूम हो या इम्तिहान का पर्चा, या कोई इंटरव्यू बोर्ड, ग़ालिब ने हर बाहोश को बेहोश बना रखा था। एक से एक नामवर अदबी पहलवान मैदान में आए और ग़ालिब के एक शे'र ने वो चौमुखी घुमाई कि चारों शाने चित्त रहा, अढ़ाई-तीन दर्जन शरहों को ओढ़ना-बिछौना बनाए। दाम-ए-शुनीदन के साथ लाकर दाम-ए-फ़ह्मीदन-व-सन्जीदन बिछाइए। नतीजा वही...में अनक़ा सल्लमहा हैं कि चारों तरफ़ पर फड़ फड़ाकर मंडला रहे हैं...!
और अब भारी भरकम ज़माने ने करवट जो ली तो इसके नीचे चचा ग़ालिब (जिन्हें अब दादा जान के ओह्दे पर परमोट करदेना चाहिए।) दबे पड़े आहें भर रहे हैं और उनकी मारी हुई, सताई हुई मख़्लूक़ च्योंटियों की तरह बिलों से निकल-निकल कर बदले ले रही है एक जश्न की सूरत में... क्यों न हो;
ग़ालिब का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले
वही आ'लम-ए-आब-व-गिल। वही दुनिया, जहाँ से आप ख़वास-व-अ'वाम की नाक़द्री के हाथों ब-ज़ाहिर गर्दन अकड़ाए मगर दरपर्दा रोते हुए रुख़्सत हुए थे। वही हिंद ब ज़बान-ए-हिन्दी आपकी सद-साला बरसी का जश्न मना रहा है। बिल्कुल उसी ज़ोर-शोर से जैसा कि आपके ज़माने में शहर दिल्ली में हुज़ूर बादशाह का जश्न-ए-ताजपोशी मनाया जाता है...!
आपके अशआ'र के क़त्ल के बाद अब ज़माने ने आप पर जफ़ाए तौबा करली है। (काश ग़ालिब किसी रौज़न-ए-ज़िंदाँ बाग़-ए-इरम से झांककर उन ज़ूद पशेमानों के पशेमान होने का जांफ़ज़ा मंज़र देख रहे हों!) तब तो उन्हें चाहिए कि अपने किसी स्टैंर्ड दीवान से ऐसे तमाम अशआ'र पब्लिशर से मिल के चुपके से निकलवा दें, जिनमें उन्होंने ज़माने की कजफ़ह्मी और नाफ़ह्मी की शिकायत की है। क्योंकि अब हमशीरा लता मंगेशकर और बिरादरम तलअ'त महमूद के सदक़े आपकी ग़ज़ल का एक-एक शे'र न सिर्फ़ मुल्क के बच्चे-बच्चे की ज़बान पर है बल्कि उसे ओवरसीज़ भी जाने का शरफ़ हासिल हो चुका है...!
बहर हाल, मुलाहिज़ा फ़रमाइए। अ'क़ीदत के कैसे कैसे तीर हैं जो इस मुबारक मौक़े पर बरसाए जा रहे हैं। मुल्क के इस सिरे से उस सिरे तक चप्पा-चप्पा पर नाज़ुक काग़ज़ के सर-व-क़द पोस्टर यूँ नज़ाकत से चिपके हैं कि हाथ लगाए न बने...! और उस की इबारत....!
कोई पूछे कि ये क्या है तो बताए न बने
आप भी देखिए...
“प्राचीन भारत के महाकवी मिर्ज़ा ग़ालिब की सौवीं मृत्यु शताब्दी के उपलक्ष में भारत के कोने कोने में भिन्न-भिन्न प्रकार के साहित्यिक,सांस़्कृटिक एंव सामाजिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है.....
ग़ालिब ने यक़ीनन एक आह-ए-गर्म(कि जन्नत में ठंडक वैसे ही ज़रूरत से कुछ ज़्यादा है...!) भरके ख़ुद अपने ही शे'र में फ़िल-बदीह ये तरमीम करली होगी;
दे और दिल मुझको जो न दे उनको ज़बाँ और
दिल्ली से लेकर कन्याकुमारी तक, आसाम से गुजरात, काठियावाड़, राजस्थान, पूना, बंबई ,पंजाब हत्ता कि नागालैंड में भी सुख़न फ़हम और ग़ालिब के तरफ़दार पैदा हो गए हैं। हर शहर के हर मोहल्ले और हर गली में ग़ालिब कमेटियाँ बन गई हैं और अब भी रात दिन आठवें पहर बराबर बनती चली जा रही हैं...!
एक हंगामा ख़ेज़ शहर के वस्त में एक अ'ज़ीमुश्शान फ़लक बोस इमारत के आगे जम-ए-ग़फ़ीर-व-कसीर जमा था। ख़याल हुआ कि ये इम्पलायमेंट ऐक्सचेंज का दफ़्तर है और ये बेकारों की भीड़ है। मगर पूछने पर पता चला कि कॉफ़ी हाऊस है और यहाँ ग़ालिब कमेटी की मीटिंग है...!
रौज़न से ग़ालिब ने आह-ए-दोम भरी...!
और तौहन-व-करहन बल्कि मजबूरन मोमिन का ये मिस्रा पढ़ा;
उठ जाए काश हम भी जहाँ से हया के साथ
मैं नजमुद्दौला-दबीर-उल-मुल्क असदुल्लाह ख़ान बहादुर निज़ाम जंग-उल-मुतख़ल्लिस ग़ालिब, जिसने सारी उम्र गली कूचे में खड़े होकर किसी से बात नहीं की उसके जश्न की तैयारी एक चाँडू ख़ाने में...!”
घिसते घिसाते धक्के खाते अंदर पहुंचे। हाल अन्वा-व-अक़्साम के जानदारों से लबरेज़ था और कुछ ऐसा शोर बुलंद था कि शहर दिल्ली का ग़दर याद आया। ख़ासी मेहनत दरियाफ़्त के बाद सरिश्ता-ए-मतलब हाथ आया कि ये न शोर-ए-क़यामत है न आसार-ए-ग़दर बल्कि महज़ पुरसुकून और दोस्ताना बहस-व-मुबाहिसा है इस बात पर कि ‘ग़ालिब कमेटी’ कितने अफ़राद पर मुश्तमिल हो।
एक साहब का ख़याल था कि जश्न-ए-सद साला है इसलिए कमेटी भी सद अफ़रादा होनी चाहिए।
दूसरे को इस ‘तुनक बख़्शी’ और तंग दामानी पर सख़्त ए'तिराज़ था। उनका मश्वरा (ब अंदाज़-ए-हुक्म...!)ये था कि जुमला हाज़िरीन(और उनके अ'ज़ीज़-व-अक़ारिब...!)और बेश्तर ग़ाइबीन को इसमें शामिल किया जाए। वर्ना भला जश्न क्या...और जब अख़बारों में नाम न आए तो मीटिंग में शिरकत से फ़ायदा...!
दस्त-व-गिरेबाँ की पैहम-ए-यकजाई-व-जुदाई के बाद यही तजवीज़ मंज़ूर हुई और इसके साथ ही सड़क पर खड़े तमाशबीन और होटल के बैरे और बावर्चियों सबने हाल पर यलग़ार कर दिया और चार सौ बयासी नाम अपने जलवों की ताबानी से निगाहों को ख़ैरा करने लगे...!
चारसौ बयासी नाम...अगर आपके जवाहर-ए-अंदेशा में कुछ गर्मी बाक़ी हो तो तसव्वुर का आ'लम क्या होगा। उन चार सौ बयासी नामों की फ़हरिस्त तैयार करना कांग्रेस आई के टिकट पर इलेक्शन लड़ने से कम नहीं...!
फ़हरिस्त तैयार हुई...
ब लिहाज़-ए-उम्र: रिवायती, ज़ाती और कारोबारी
ब लिहाज़-ए-शोहरत: उ'मूमी, सरकारी और अदबी
ब लिहाज़-ए-दौलत: मनक़ूला और ग़ैर मनक़ूला
वाज़ेह हो कि दौलत ग़ैर मनक़ूला वो रुपया है जिसे रंगा रंग टैक्सों के ख़ौफ़ से पर्दा नशीन बना दिया जाता है और जो अ'लल ऐ'लान एक जगह से दूसरी जगह और एक नाम से दूसरे नाम पर मुंतक़िल न किया जा सके...! किसी गुमनाम गोशे से आवाज़ें बुलंद हो रही थीं कि सर-ए-फ़हरिस्त उनका इस्म-ए-गिरामी हो जो ख़ुद निन्नांवे के फेर में हैं और जिन्होंने जीते जी ख़ुद अपना सद साला जश्न मनाने का तहय्या कर लिया है और इस सिलसिले में अपने बेटों, पोतों और पड़पोतों के साथ मिलकर बाक़ाएदा प्रोग्राम भी मुरत्तब कर लिया है...!
दूसरी तरफ़ से इस ख़ूबसूरत शॉर्ट को यूँ वापस किया गया कि “बुजु़र्गी ब-अ'क़्ल-ए-अस्त” लिहाज़ा अव्वलियत का मुस्तहिक़ वो तालिब-ए-इ'ल्म है जो इस साल ग्यारहवीं में अव़्वल आया है...!
चार तन्क़ीदी और बाइस अफ़सानवी मजमूओं के मुसन्निफ़ के होनहार वफ़ा-शिआर शागिर्द ने हक़-ए-शागिर्दी अदा करते हुए अपने उस्ताद का नाम पेश किया तो मास्टर नत्थूलाल प्यारे लाल दुलारे राम को नमक ख़्वार दोस्त ने मास्टर नत्थूलाल प्यारे लाल एंड कंपनी की मुरत्तब की हुई फ़िल्मी गानों और फ़िल्मी कहानियों की तिरसठ ग़ैर मत्बूआ किताबें थैले से निकाल कर मेज़ पर पटक दीं...!
ग़रज़ वो हाव हू मची कि बगै़र बे-तार बर्क़ी के सारे शहर में प्रोग्राम की रनिंग कमेंट्री ब्रॉडकास्ट हो गई और उस फ़हरिस्त को बनाते-बनाते साहब-ए-क़लम की उंगलियाँ फ़िगार और ख़ामा ख़ूँ चुकाँ हो गया और इस काम में इतना तूल-तवील ज़माना गुज़र गया कि अगर ग़ालिब वहाँ होते तो यक़ीनन कहते;
कब से हूँ क्या बताऊँ जहान-ए-ख़राब में
शब हाय लिस्ट को भी रक्खूँगा हिसाब में
इस मरहला-ए-दार व रसन(ब अलफ़ाज़-ए-दीगर और ब लिहाज़ मरहला-ए-गंदुम-व-शकर...!)से बसद ख़राबी गुज़रने के बाद नए फ़ितनों में चर्ख़-ए-कोहन की आज़माइश शुरू हुई। जिसका सलीस उर्दू में तर्जुमा हुआ सद्र व सिक्रेट्री का इंतिख़ाब! और ये अदबी दुनिया का पहला मजमूआ बल्कि मो'जिज़ा था कि ये इंतिख़ाब बगै़र मुख़ालिफ़त, बहस-व-मुबाहिसा गाली-गलोच और हाथापाई के हो गया। हद ये कि मुक़ाबले के रेफ़री के लब पे मुकर्रर-मुकर्रर ये सदा थी.....कि
कौन होता है हरीफ़ लिए मुर्दा-ए-फ़िगन इश्क़
मगर कौन होता.....और क्या पी के होता।(कि आज की दुनिया में इंसान के मैयार को नापने का पैमाना प्याला है। ख़्वाह वो शराब का हो, कॉफ़ी का हो या पानी का...!)
तो अ'र्ज़ ये है कि हाज़िरीन-व-ग़ाइबीन के मिनजुमला चार सौ बयासी अफ़राद में आपका सानी कोई नहीं। बल्कि यूँ समझ लीजिए कि शहर भर बल्कि सूबे भर में आप सेग़ा-ए-वाहिद हैं....कि आप मालिक-व-मुख़्तार हैं एक मोटर के कारख़ाने के। चार कपड़े के कारख़ानों के। तीन शकर के, छः खिलौनों के, दो पेंसिलों के, दो आटे के और दो गत्ते के और ग़ालिब को सारी दुनिया से रूशनास करवाने की टोपी(कि बयालिस बरस की छोटी सी उम्र में इक्कीस मरतबा सहरा बांधते-बांधते आपको इस लफ़्ज़ से नफ़रत हो गई है...!)भी आप ही के सर है। वो यूँ कि दुनिया के हवाई सफ़र पर आप अपने साथ दीवान-ए-ग़ालिब का एक नुस्ख़ा ले गए थे...!
वैसे ये राज़ ब-ज़ाहिर उनके वफ़ादार पी.ए. के सिवा कोई नहीं जानता कि ऐ'न वक़्त पर दीवान-ए-ग़ालिब खो जाने की वजह से उसने “सुनहरी हसीना उर्फ़ चलता फिरता ऐटम बम” पर सुनहरी काग़ज़ चढ़ाकर बक़लम ख़ुद ‘दीवान-ए-ग़ालिब’ लिख दिया था...!
रहे सेक्रेटरी...सो हमारा तुम्हारा ख़ुदा बादशाह...जो उनके सेक्रेटरी वो सब के सेक्रेट्री...! इंतिख़ाबात के बाद तजावीज़ पेश हुईं जो जिद्दत और नुदरत के लिहाज़ से कलाम-ए-ग़ालिब से किसी तरह कम नहीं। इनमें से चंद की झलकियाँ आप भी देखिए;
1. फ़िल्म मिर्ज़ा ग़ालिब, शहर-शहर, गली-गली, घर-घर मुफ़्त दिखलाई जाए और एक से ज़्यादा बार देखने वालों के लिए ख़ातिर ख़्वाह इनाम भी मुक़र्रर किया जाए।
2. हमेशा लता मंगेशकर और बिरादरम तलअ'त महमूद को उनके गिराँक़द्र कारनामों के सिले में हुकूमत से पद्मश्री दिलवाई जाए।
3. ग़ालिब की मुख़्तलिफ़ क़द-ए-आदम तसावीर का जलूस निकाला जाए और साथ में रिकार्डिंग भी हो।
4. ग़ालिब की वफ़ात से एक दिन पहले और एक दिन बाद या'नी कुल तीन दिन उनका उ'र्स मनाया जाए और उनके मज़ार पर चादरें चढ़ाई जाएँ। देगें पकें और क़ौव्वाल उनकी ग़ज़लें गाएं और चूँकि उनकी महबूबा एक डोमिनी थी, इसलिए इन तीन दिनों में से किसी एक दिन शहर की तमाम डोमनियों की ख़िदमत में सिपासनामा पेश किया जाए। उनके ए'ज़ाज़ में दा'वतें हों। रहा कलाम, तो वो तो बिला फ़रमाइश ख़ुद ही मुतरिब ब रहज़न-ए-होश, का रोल अदा करेंगी...!
5. मिर्ज़ा ग़ालिब का मज़ार सिर्फ़ एक है और परस्तार हज़ार बल्कि शहर में हज़ारहा। उन अ'क़ीदत-मंदों के जज़्बात और उनकी सहूलत की ख़ातिर हर शहर में एक-एक मज़ार बना दिया जाए जिसमें दीवान-ए-ग़ालिब और उसकी शरह का कम से कम एक नुस्ख़ा दफ़न हो।
6. उनके अशआ'र के पीछे जो हालात छिपे हैं उनमें तहक़ीक़ की जाए और डॉक्ट्रेट की डिग्रियाँ दी जाएँ। मिसाल के तौर पर
किस के घर जाएगा सैलाब-ए-बला मेरे बाद।
इस शे'र के सिलसिले में पूरी छानबीन की जाए कि ग़ालिब के मरने के बाद सैलाब-ए-बला या'नी उनकी महबूबा ने किससे इश्क़ किया और किस घर को तबाह किया।
7. आम ग़ालिब को बेहद पसंद थे। इसलिए आमों का एक बाग़ ‘ग़ालिब बाग़’ के नाम से लगवाया जाए और तुख़्मी आमों की किसी ख़ास क़िस्म का नाम भी ‘ग़ालिब आम’ रख दिया जाए। आमों के मौसम में अ'कीदतमंद बाग़ में जाएँ जश्न-ए-आम मनाएँ।
मगर...इक उम्र चाहिए आम को फल देने तक
और...कौन जीता है उस पेड़ के बढ़ने तलक
तो इस सूरत में इस तजवीज़ पर फ़ौरी अ'मल हो सकता है कि आमों के किसी ठेले वाले के ‘ज़ौक़-ए-अदबी’ और ‘शौक़-ए-ग़ालिबी’ को बेदार करके उससे दरख़्वास्त की जाए कि वो अपने ठेले का नाम ‘ग़ालिब आम स्टाल’ रख ले!(इसके नतीजे में आमदनी में जो इज़ाफ़ा हो उसमें फिफ्टी-फिफ्टी का कांट्रेक्ट करना न भूलिए...!)और ज़्यादा मुनासिब तो ये होगा कि ‘ग़ालिबी’ (ग़ालिब से अ'क़ीदत रखने वाले हज़रात-व-ख़वातीन) ख़ुद ही एक ठेला ख़रीद कर या किराया पर लेकर आमों का बिज़नेस शुरू कर दें। इससे कोई एक पंथ हो या न हो दो तीन काज ज़रूर हो जाएँगे या'नी आम के आम, नाम के नाम और दाम के दाम...!
8. शराब से भी ग़ालिब को इश्क़ रहा है। लिहाज़ा इस जज़्बा-ए-सादिक़ की क़द्र करते हुए किसी शराब को उनके नाम से मंसूब किया जाए और चूँकि वो ख़ुद ही फ़रमा चुके हैं कि ‘इक गु ना बेख़ुदी मुझे दिन रात चाहिए...’ इसलिए एक बार जिसमें चौबीस घंटे शराब मिला करे खोल कर उसे “खुम ख़ाना-ए-ग़ालिब” का नाम दिया जाए। हमारी अ'ज़ीमुश्शान मुफ़लिसी के बाइ'स अगर आ'ला दर्जे का बार और आ'ला दर्जे की शराब मुम्किन न हो तो ‘ग़ालिब मार्का ठर्रा’ और ‘ग़ालिब चाँडू ख़ाना’ भी काम दे जाएगा...!
9. ग़ालिब ने जेल की सैर भी की थी। लिहाज़ा किसी एक जेलख़ाने या उसकी एक कोठरी का नाम ‘ज़िंदाँ-ए-ग़ालिब’ रख दिया जाए और हिंदुस्तान की तमाम जेलों में दो-दो चार-चार नए क़ैदी दाख़िल करके यौम-ए-ग़ालिब मनाया जाए।
10. सहरा नवर्दी और आवारा गर्दी के ग़ालिब इस हद तक दीवाने थे कि इसी हसरत में मरने के बाद भी कफ़न के अंदर पैर हिलते रहे। उस हसरत को पूरा करने की ख़ातिर ग़ालिब के सेहतमंद और तवाना और क़वी परस्तार साल भर तक (कि जश्न के साल भर तक मनाए जाने की अफ़्वाह है...!)रोज़ाना आधी रात के बाद दस किलोमीटर की पदयात्रा करें...!
11. वो न सिर्फ़ घूमने के शौक़ीन थे बल्कि ऐसी राहों को पसंद करते थे जो पुर-ख़ार और आड़ी-टेढ़ी हों। लिहाज़ा किसी कच्ची धूल में अटी, ऊबड़ खाबड़, नुकीले पत्थरों से भरी सड़क का नाम ‘ग़ालिब रोड’ या ‘कू-ए-ग़ालिब’ रख दिया जाए और उस रास्ते के दोनों तरफ़ बबूल और दीगर तमाम कांटेदार दरख़्त कसरत से लगाए जाएँ ताकि उनके कांटे सड़क पर बिखरे रहें और ग़ालिब का जी उन्हें देख-देख कर ख़ुश होता रहे;
जी ख़ुश हुआ है राह को पुरख़ार देख कर
12. ग़ालिब के बा'ज़ अशआ'र से इस हक़ीक़त का इन्किशाफ़ भी होता है कि वो अक्सर सहराओं की तरफ़ निकल जाते थे;
होता है निहाँ गर्द में सहरा मेरे आगे
लिहाज़ा राजस्थान के रेगिस्तान को सहरा-ए-ग़ालिब का नाम दिया जा सकता है।
13. रोने-धोने से ग़ालिब को ख़ास शग़फ़ रहा है। कभी उनके आँसुओं से घर तबाह हो गया। कभी आँसूओं के सैलाब में तकिया की रुई और आसमान फेन बन-बन कर तैरते रहे। आँसुओं से इस वालिहाना इश्क़ की सूरत में किसी वाटर वर्क़्स, तालाब या दरिया को भी ग़ालिब से वाबस्ता किया जाना चाहिए।
ऐसे वक़्ती काम तो अनगिनत हो सकते हैं। लेकिन सबसे अहम और अबदी काम और नेकी ये होगी कि ग़ालिब के अशआ'र निसाब से हटा दिए जाएँ कि उनका समझना भी मुश्किल और समझाना भी...! और ग़ालिब ने अपनी ज़िंदगी में किसी को हत्तल इम्कान तकलीफ़ नहीं पहुँचाई। अब मुसलसल हज़ारों लाखों मुतनफ़्फ़िसों को यूँ आ'लम-ए-कर्ब व सकरात में मुब्तिला देखकर और अपने कलाम की शहादत को महसूस करके वो तड़प जाते हैं...
ख़ुदारा उन्हें बरसों की इस तड़प से निजात दिलवाइए कि ये जश्न है...!
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