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ज़िक्र काहिली का

इब्न-ए-इंशा

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    हमारा शुमार उन लोगों में है जिनका ज़िक्र पतरस ने अपने मज़मून “सवेरे जो कल आँख मेरी खुली” में किया है। अगर ये मज़मून हमारे होश सँभालने से पहले का होता, अगर पतरस मरहूम के नियाज़ भी हासिल रहे होते, तो यही समझते कि उन्होंने ये हमारे बारे में लिखा है। उठना नंबर एक और उठना नंबर दो हमेशा से हमारी ज़िंदगी का मामूल रहे हैं। ये समझा जाये कि हमने पतरस के हीरो की तरह सूरज को कभी तुलूअ होते देखा ही नहीं। कई बार देखा है, फिल्मों में बड़ा अच्छा लगता है।

    जोश और जिगर दोनों बड़े शायर हैं लेकिन हमारा ज़ाती रुजहान हमेशा जिगर की तरफ़ रहा है। शायर की वजह से नहीं बल्कि इसलिए कि हमारी ही तरह के थे। चरिंद परिंद और जोश मलीहाबादी की तरह अलस्सबाह नहीं उठ बैठते थे। अरे भई वही तो वक़्त चिड़ियों के चहचहाने का होता है। जो लोग नूर के तड़के छड़ी लिए बाग़ में जा पहुंचते हैं, वो उन बेज़बानों के मामूलात में मुख़िल होते हैं। जिगर साहिब से भी हम कभी नहीं मिले लेकिन एक-बार उनके क़लम से या किसी और के क़लम से हमने पढ़ा है कि भोपाल में उन लोगों ने यानी जिगर साहिब और उनके दोस्तों ने एक अंजुमन अलकहला क़ायम की थी। कहला, काहिल की जमा है। जो जितना बड़ा ज़िद्दी और ख़ुदाई ख़्वार होता था, उतना ही इस अंजुमन में या क्लब में ज़ी मर्तबत समझा जाता था। अंजुमन के दफ़्तर में एक क़ालीन बिछा था। ये लोग वहां पहुंच कर खड़े खड़े गिर पड़ते थे क्योंकि खड़े से बैठना और बैठने के बाद लेटना एक मेहनत तलब अमर है। नाहक़ का तकल्लुफ़ है और आदाब काहिली के ख़िलाफ़ है। दिन भर ये लोग वहां अपनी काहिली के नशे में गैन पड़े रहते थे। कभी-कभार कोई शख़्स आकर उनके मुँह में पानी डाल जाता था।

    सच ये है कि काहिली में जो मज़ा है वो काहिल ही जानते हैं। भाग दौड़ करने वाले और सुबह सुबह उठने वाले और वरज़िश पसंद इस मज़े को क्या जानें। हाय कमबख़्त तूने पी ही नहीं। देखिए हमारे क़बीले में कैसा कैसा आदमी हुआ है। ग़ालिब भी “बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए” के क़ाइल थे। मीर साहिब यानी मीर तक़ी मीर भी अपने हुजरे में क़ुतुब बने बैठे रहते थे। कभी अपने हुजरे की खिड़की भी खोली क्योंकि खोलना भी एक तरह का काम है बल्कि यहां तक सुना है उधर कभी नज़र उठाकर भी देखा था। एक साहिब ने कहा, “मीर साहिब, ये खिड़की खोल लिया कीजिए, बाहर की हवा आया करेगी और उस तरफ़ बाग़ भी है।” हैरान हो कर बोले, “अच्छा, मेरे कमरे में कोई खिड़की भी है।”

    मीर और ग़ालिब तो ख़ैर पुराने ज़माने के आदमी थे। हमारे हकीम-उल-उम्मत शायर-ए-मशरिक़ अल्लामा इक़बाल के मुताल्लिक़ भी हमने कभी नहीं पढ़ा कि चाक़-ओ-चौबंद आदमी थे। यही मालूम हुआ कि तहमद बाँधे चारपाई पर लेटे राज़ी के नुक्ता हाय दकी़क़ पर ग़ौर करते रहते थे और हुक़्क़ा पीते रहते थे। उस सुबह ख़ेज़ तबक़े ने कोई इतना बड़ा शायर पैदा किया हो तो हमें उसका नाम बताईए, तआरुफ़ कराईए। हमें याद पड़ता है, मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी सौदा ने जो दिल्ली के चोरों पर मसनवी लिखी है, उसमें सुबह उठने वालों को कुछ अच्छे लफ़्ज़ों में याद नहीं किया। मुल्ला मस्जिद का सुबह ख़ेज़िया है, ऐसा ही कोई मिसरा इरशाद किया है। जिसका मतलब ये है कि ये भी उनका यानी ऐसी मसनवी के ममदूहों का साथी है।

    ये जान कर ख़ुशी हुई कि अह्ल-ए-मग़रिब में सारे लोग मूजिद और साइंसदान ही नहीं हैं बल्कि बहुत से हमारे क़बीले के हैं। बल्कि ऐसे कि हमारे क़बीले के लिए बाइस-ए-नाज़िश। एक अख़बार में पढ़ा कि वहां काहिलों के बाक़ायदा क्लब हैं जिनमें काहिल लोग बवजह काहिली कभी नहीं जाते। जो शख़्स चला जाये उसे मुस्तइद जान कर उसका नाम काट दिया जाता है। हमने जोश मलीहाबादी साहिब का वो निज़ाम-ए- औक़ात पढ़ा कि फ़ुलां वक़्त से फ़ुलां वक़्त तक ये बाग़ में मिलेगा और फ़ुलां वक़्त उसे मयख़ाने में तलाश कीजिए और फ़ुलां वक़्त जाने कहाँ। उस क्लब वालों ने जिनका नाम BORN-TIRED-ASSOCIATION यानी पैदाइशी थके मांदों की अंजुमन है, मिसाली ज़िंदगी का निज़ाम-ए-औक़ात ये मुक़र्रर किया है कि चौबीस में से दस घंटे तो सोना ही चाहिए। बाक़ी रहे चौदह घंटे उनमें आठ घंटे आराम के लिए वक़्फ़ रहने चाहिऐं यानी आदमी लेटा अकड़ता रहे, कुछ काम करे।

    बाक़ी रहे छः घंटे उसमें से चार घंटे खाने के लिए वक़्फ़ रहने चाहिऐं। खाना और जुगाली करना भी तो एक ज़िंदगी की इशरतों में से है। निवाले ज़हर मार करना तो खाने की तारीफ़ में नहीं आता। बाक़ी रहे दो घंटे। ये अंजुमन तो उनमें भी किसी किस्म के काम का टंटा पसंद नहीं करती लेकिन ख़ैर कोई उनमें काम करना चाहे तो एतराज़ भी नहीं करती। हमारे ख़्याल में तो इसमें से भी कुछ वक़्त नहाने शेव करने और हाजात ज़रुरिया और ग़ैर ज़रुरिया की मद में निकल जाता है। बशर्ते कि ये मग़रिब के काहिल लोग उन तकल्लुफ़ात को ज़रूरी समझें।

    याद रहे कि उस कलब के 35 हज़ार मेंबर हैं। सच ये है कि हमें तो अंजुमन साज़ी भी तकल्लुफ़ और काहिली के उसूलों के मुनाफ़ी मालूम होती है। फ़ार्म भरना, फ़ीस देना, दस्तख़त करना वग़ैरा। एक-बार तीन काहिलों में मुक़ाबला हुआ था कि हर शख़्स अपनी अपनी काहिली का कोई क़िस्सा सुनाए जो सबसे ज़्यादा काहिल हो वो इनाम पाए। एक ने अपना क़िस्सा बयान किया कि बेर को उठा कर मुँह में डालने के लिए भी किसी राहगीर की ख़िदमात हासिल कीं। दूसरे ने इससे ज़्यादा दून की ली... तीसरे के सामने शम्मा पहुंची तो बोला, यारो, क़िस्से तो कई एक हैं लेकिन कौन सुनाए? पस इनाम का हक़दार यही तीसरा ठहरा।

    हमारे हाँ क्लब का मतलब सिर्फ़ नाइट क्लब समझा जाता है या शराबनोशी और रक़्स-ओ-तफ़रीह का अड्डा। ये बात नहीं, मग़रिब के मुल्कों में शाम को घर में घुसे बैठे रहना अच्छा नहीं समझा जाता। ईरान और तुर्की तक में लोग शाम उतरते ही सैर-ओ-तफ़रीह के लिए निकल पड़ते हैं और शाम का चूगा भी बाहर ही खाते हैं। जो क्लबों के मेंबर हैं, वो वहां जाकर कुछ खेलते हैं, कुछ पढ़ते हैं, कुछ गप करते हैं। मग़रिब में पीना पिलाना भी आदाब-ए-ज़िंदगी में दाख़िल है। लिहाज़ा पी भी लेते हैं और कभी-कभार ज़्यादा भी पी लेते हैं। बा’ज़ तो अपने पांव चल कर घर पहुंच जाते हैं। बा’ज़ को डंडा डोली कर के लाना पड़ता है।

    आप में से बहुत सों ने राबर्ट लुई इस्टीवेनसन की कहानी “ख़ुदकुशी का क्लब” पढ़ी होगी। मौलाना अब्दुल मजीद सालिक ने इसी नाम से इसका तर्जुमा किया था। उस क्लब के मेंबर बनने वाले अपनी जान से बेज़ार बेशक होते थे लेकिन अपनी जान आप लेते डरते थे।

    ख़ुदकुशी के लिए हिम्मत चाहिए। उस क्लब का काम उनकी बेज़रर मौत का इंतज़ाम करना होता था। अख़बार में आता था कि फ़ुलां शख़्स कार के नीचे आया और मर गया। फ़ुलां दरिया में डूबा पाया गया, शायद मख़मूरी में पुल से गुज़र रहा था, पांव रपट गया। किसी के साथ कोई और हादिसा गुज़रा, लेकिन असल में ये सारे उस क्लब के कारनामे होते थे। ख़ैर, वो तो एक क़िस्सा था। हमें मालूम नहीं ख़ुदकुशी के क्लब सचमुच होते हैं या नहीं होते लेकिन इसी तरह एक कहानी सर आर्थर कानन डायल की भी है जिसमें शरलाक होम्ज़ साहिब अपना कारनामा दिखाते हैं। उसका नाम है “लाल सर वालों की अंजुमन।” सिर्फ़ सुर्ख़ बालों वाले उसकी ख़िदमात से मुतमत्ते हो सकते थे। शरलाक होम्ज़ के तफ़तीश करने पर ये सारा कारख़ाना फ़राड साबित हुआ लेकिन गंजों के क्लब वाक़ेअ हैं।

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