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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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साग़र आज़मी

1944 - 2004 | बाराबंकी, भारत

साग़र आज़मी

ग़ज़ल 8

अशआर 13

इतना नाराज़ हो क्यूँ उस ने जो पत्थर फेंका

उस के हाथों से कभी फूल भी आया होगा

उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ 'साग़र'

जैसे पानी में कोई आग लगाना चाहे

तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा

ताज-महल बन जाए अगर मुम्ताज़ कहाँ से लाऊँगा

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शाम ढले ये सोच के बैठे हम अपनी तस्वीर के पास

सारी ग़ज़लें बैठी होंगी अपने अपने मीर के पास

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शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना उड़ो 'साग़र'

परवाज़ खो जाए इन ऊँची उड़ानों में

पुस्तकें 1

 

चित्र शायरी 3

 

ऑडियो 3

प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे

फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानों में

रात के अँधेरों को रौशनी वो क्या देगा

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