अदबी तंक़ीद और उसलूबियात
बा'ज़ लोग उस्लूबियात को एक हव्वा समझने लगे हैं। उस्लूबियात का ज़िक्र उर्दू में अब जिस तरह जा-ब-जा होने लगा है, इससे बा'ज़ लोगों की इस ज़ेहनीयत की निशान-देही होती है कि वो उस्लूबियात से ख़ौफ़-ज़दा हैं। उस्लूबियात ने चंद बरसों में इतनी साख तो बहरहाल क़ाइम कर ली है कि अब उसको नज़र-अंदाज करना आसान नहीं रहा। उर्दू के एक जदीद नक़्क़ाद जिन्होंने बिल-क़स्द तन्क़ीद को ख़ार-ज़ार बनाया है ताकि लोग आबला पाई की लज़्ज़त से आशना हो सकें, इस बात का अक्सर मातम करते हैं कि जदीदियत एक शोला ब-कफ़ बग़ावत थी, लिसानी नक़्क़ादों ने उसे ठंडा कर दिया।
अव्वल तो उर्दू में लिसानी नक़्क़ाद ही कितने हैं और अगर हैं भी तो उन्होंने उस्लूबियाती मज़्मून ही कितने लिखे हैं। तअज्जुब है कि वो शोला ब-कफ़ बग़ावत जिसकी मुक़द्दस आग को दो दर्जन जय्यद नक़्क़ाद रौशन रखे हुए थे ब-क़ौल हमारे दोस्त के, उसे दो-एक लिसानी नक़्क़ादों की शिकस्ता बस्ता तहरीरों ने ठंडा कर दिया। ये अगर सही है तो फिर यक़ीनन उस्लूबियात में कोई ख़ास बात होगी। क्योंकि जो चीज़ गर्म रुजहानात को ठंडा कर सकती है, वो सर्द ज़मीन में गर्म चिंगारियाँ भी बो सकती है, जब कि हक़ीक़त ये है कि उस्लूबियात ऐसा कोई दावा नहीं करती। एक और करम-फ़रमा हैं जिन्हें ऊँची सतह से बात करने का मरज़ है गोया अनवार उन्हीं पर नाज़िल हो रहे हों। वो अख़्लाक़ियात-ए-तन्क़ीद की दुहाई देते हुए नहीं थकते, हालांकि अदबी रियाकारी को आर्ट बनाने में उन्हें मलका हासिल है। उनके नज़दीक 'दानिश्वरी' यही है कि उस्लूबियात के बारे में जुमला-बाज़ी करते रहें और यूँ अपने एहसास-ए-कमतरी के ज़ख़्मों को सहलाते रहें।
तन्क़ीद-निगार तो खै़र समझ में आता है क्योंकि बुक़रात बनने का उसे हक़ है, लेकिन इस लाइक़-ए-एहतिराम क़बीले में एक सर-बर-आवुर्दा तख़्लीक़-कार भी हैं जो फ़िक्शन में अपनी नाकामियों का बदला अक्सर-ओ-बेशतर तन्क़ीद से लेते रहें और तन्क़ीद में भी लिसानी तन्क़ीद को बुरा-भला कह कर अपनी भिक्षुओं वाली बे-तअल्लुक़ी का सबूत देते रहते हैं। अगर ऐसा करने से इनके फ़िक्शन का भला हो सकता है तो लिसानी तन्क़ीद को इनकी मासूमियत पर कोई एतिराज़ न होना चाहिए। वाज़ेह रहे कि ज़ेर-ए-नज़र मज़मून का रूए सुख़न ऐसे दानिश्वरों से नहीं, क्योंकि ये पहुँचे हुए लोग हैं, ये इस मंज़िल पर हैं जहाँ हर मंज़िल ब-जुज़ ख़ुद-परस्ती के ख़त्म हो जाती है।
यूँ तो इस मज़्मून में ख़ाकसार ने बुनियादी मबाहिस को भी छेड़ा है और उन माख़ज़-ओ-मसादिर का भी ज़िक्र किया है जिनसे मैंने बहुत कुछ हासिल किया है और दूसरे भी चाहें तो हासिल कर सकते हैं। लेकिन ये मज़मून या वो कुतूब जिनका हवाला दिया गया है, भला ऐसों का क्या बिगाड़ सकती हैं जो सब कुछ पहले ही से जानते हैं। ऐसे हज़रात से इस्तिद्आ रहे कि इन औराक़ पर अपना वक़्त ज़ाए न करें। अलबत्ता ये उन लोगों के लिए हैं जो मेरी तरह तालिब-इल्माना तजस्सुस रखते हैं, नए इल्म के जोया हैं या नए लिसानी मबाहिस के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानने के ख़्वाहिश-मंद हैं। तो आईए देखें कि उस्लूबियात क्या है और क्या नहीं है और अदबी तन्क़ीद से इसका क्या रिश्ता है।
उस्लूबियात की इस्तिलाह तन्क़ीद में ज़्यादा पुरानी नहीं। इस सदी की छटी दहाई से उस्लूबियात का इस्तेमाल इस तरीक़-ए-कार के लिए किया जाने लगा है, जिसकी रू से रिवायती तन्क़ीद के मौज़ूई और तअस्सुराती अंदाज़ के बजाए अदबी फ़नपारे के उस्लूब का तज्ज़िया मा'रुज़ी, लिसानी और साइंटिफ़िक बुनियादों पर किया जाता है।
लिसानियात, समाजियात और नफ़्सियात से जो नई रौशनी पिछली दो दहाईयों में हासिल हुई है, बिल-ख़ुसूस नज़रिया-ए-तर्सील (Communication Theory) में जो इज़ाफ़े हुए हैं, उनसे अदबी तन्क़ीद ने गहरा असर क़ुबूल किया है। तन्क़ीद के दो नए ज़ाबिते जो उस्लूबियात और साख़्तियात के नाम से जाने जाते हैं और जिनके हवाले से अदब की दुनिया में नए फ़लसफ़ियाना मबाहिस पैदा हुए हैं, वो उन्हीं असरात का नतीजा हैं। तारीख़ी एतिबार से उस्लूबियात के मबाहिस मुक़द्दम हैं और नज़रिया-ए-साख़्तियात या इससे मुतअल्लिक़ा नज़रियात जो पस-साख़्तियात (Post-Structuralism) के नाम से जाने जाते हैं, बाद में मंज़र-ए-आम पर आए, लेकिन उस्लूबियात को समझे बग़ैर या लिसानियात के बुनियादी उसूल-ओ-ज़वाबित को जाने बग़ैर नज़रिया-ए-साख़्तियात को नीज़ उन तमाम फ़लसफ़ियाना मबाहिस को जो पस-साख़्तियात के तहत आते हैं, समझना मुम्किन नहीं है।
ये एतिराज़ अक्सर किया गया है कि इन मुबाहिस से ये मालूम नहीं होता कि उस्लूबियात की सरहद कहाँ ख़त्म होती है और साख़्तियात की कहाँ से शुरू होती है। लेकिन दर अस्ल जो लोग लिसानियात से वाक़िफ़ हैं या बा'ज़ बुनियादी लिसानियाती मालूमात रखते हैं, उनके नज़दीक ये एतिराज़ बे अस्ल है क्योंकि नज़रिया-ए-उस्लूबियात और नज़रिया-ए-साख़्तियात अगर-चे दोनों अपने बुनियादी फ़लसफ़ियाना उसूल-ओ-ज़वाबित लिसानियात से अख़्ज़ करते हैं, लेकिन दोनों का दायरा-ए-अमल अलग-अलग है। उस्लूबियात या अदबी उस्लूबियात अदब या अदबी इज़हार की माहियत से सर-ओ-कार रखती है, जब कि साख़्तियात का दायरा-ए-अमल पूरी इंसानी ज़िंदगी, तर्सील-ओ-इब्लाग़ और तमद्दुन-ए-इंसानी के तमाम मज़ाहिर पर हावी है। साख़्तियात का फ़ल्सफ़ियाना चैलेंज ये है कि ज़ेहन इंसानी हक़ीक़त का इदराक किस तरह करता है और हक़ीक़त, जो मा'रूज़ में मौजूद है, किस तरह पहचानी और समझी जाती है।
ये बात ख़ातिर-निशान रहना चाहिए कि साख़्तियात सिर्फ़ अदब या अदबी इज़हार से मुतअल्लिक़ नहीं बल्कि असातीर, देवमाला, क़दीम रिवायतें, अक़ाइद, रस्म-ओ-रिवाज, तौर-तरीक़े, तमाम सक़ाफ़ती-ओ-मुआशरती मज़ाहिर, मसलन लिबास-ओ-पोशाक, रहन-सहन, ख़ुर्द-ओ-नोश, बूद-ओ-बाश, नशिस्त-ओ-बर्ख़ास्त वग़ैरा यानी हर वो मज़हर जिसके ज़रिए ज़ेहन-ए-इंसानी तर्सील मानी करता है या इदराक हक़ीक़त करता है, साख़्तियात की दिलचस्पी का मैदान है। अदब भी चूँकि तहज़ीब-ए-इंसानी का मज़हर बल्कि ख़ास मज़हर है, इसलिए साख़्तियात की दिलचस्पी का ख़ास मौज़ू है। साख़्तियाती मबाहिस में अदब को जो मर्कज़ियत हासिल है उसकी वजह यही है।
उस्लूबियात का बुनियादी तसव्वुर उस्लूब है। उस्लूब (Style) कोई नया लफ़्ज़ नहीं है। मग़रिबी तन्क़ीद में ये लफ़्ज़ सदियों से राइज है। उर्दू में उस्लूब का तसव्वुर निस्बतन नया है। ताहम ज़बान-ओ-बयान, अंदाज़, अंदाज़-ए-बयान, तर्ज़-ए-बयान, तरज़-ए-तहरीर, लहजा, रंग, रंग-ए-सुख़न वग़ैरा इस्तिलाहें उस्लूब या इससे मिलते-जुलते मा'नी में इस्तेमाल की जाती रही हैं। यानी किसी भी शायर या मुसन्निफ़ के अंदाज़-ए-बयान के ख़साइस क्या हैं, या किसी सिन्फ़ या हैअत में किस तरह की ज़बान इस्तेमाल होती है या किसी अहद में ज़बान कैसी थी और उसके ख़साइस क्या थे वग़ैरा, ये सब उस्लूब के मबाहिस हैं। अदब की कोई पहचान उस्लूब के बग़ैर मुकम्मल नहीं। लेकिन अक्सर इस बारे में इशारों से काम लिया जाता रहा है और तन्क़ीदी रिवायत में इन मुबाहिस के नुक़ूश की निशानदेही की जा सकती है।
इस रिवायत के मुक़ाबले में जदीद लिसानियात ने उस्लूबियात का जो नया तसव्वुर दिया है, उसके बारे में ये बुनियादी बात वाज़ेह होना चाहिए कि उस्लूबियात की रू से उस्लूब का तसव्वुर, उस तसव्वुर उस्लूब से मुख़्तलिफ़ है जो मग़रिबी अदबी तन्क़ीद या उसके असर से राइज रहा है, नीज़ ये उस तसव्वुर से भी मुख़्तलिफ़ है जो इल्म-ए-बदी-ओ-बयान के तहत मशरिक़ी अदबी रिवायत का हिस्सा रहा है। मज़ीद बर-आँ ये उस तसव्वुर से भी मुख़्तलिफ़ है जिसका कुछ न कुछ ज़ेहनी तसव्वुर हम-मौज़ूई तौर पर यानी तअस्सुराती तौर पर क़ाइम कर लेते हैं। मशरिक़ी रिवायत में अदबी उस्लूब बदी-ओ-बयान के पैरायों को शे'र-ओ-अदब में बरुए-कार लाने और अदबी हुस्न कारी के अमल से ओहदा बर-आँ होने से इबारत है, यानी ये ऐसी शय है जिससे अदबी इज़हार के हुस्न-ओ-दिलकशी में इज़ाफ़ा होता है। गोया उस्लूब ज़ेवर है अदबी इज़हार का जिससे अदबी इज़हार की जाज़्बियत, कशिश और तासीर में इज़ाफ़ा होता है, यानी मशरिक़ी रिवायत की रू से उस्लूब लाज़िम नहीं बल्कि ऐसी चीज़ है जिसका इज़ाफ़ा किया जा सके।
पस उस्लूब के क़दीम और जदीद तसव्वुर यानी उस्लूबियात के तसव्वुर में पहला बड़ा फ़र्क़ यही है कि उस्लूबियात की रू से उस्लूब की हैसियत अदबी इज़हार में इज़ाफ़ी नहीं बल्कि असली है, यानी उस्लूब लाज़िम है या अदबी इज़हार का नागुज़ीर हिस्सा है, या उस तख़्लीक़ी अमल का नागुज़ीर हिस्सा है जिसके ज़रिए ज़बान अदबी इज़हार का दर्जा हासिल करती है, यानी अदबी उस्लूब से मुराद लिसानी सजावट या ज़ीनत की चीज़ नहीं जिस का रद्द या इख़्तियार मेकानिकी हो, बल्कि उस्लूब फ़ी-नफ़्सिही अदबी इज़हार के वजूद में पैवस्त है।
उस्लूबियात-ए-वज़ाहती लिसानियात (Descriptive Linguistics) की वो शाख़ है जो अदबी इज़हार की माहियत, अवामिल और ख़साइस से बहस करती है और लिसानियात चूँकि समाजी साइंस है, इसलिए उस्लूबियात उस्लूब के मस्अले से तअस्सुराती तौर पर नहीं, बल्कि मा'रुज़ी तौर पर बहस करती है, निस्बतन क़तईयत के साथ उसका तज्ज़िया करती है और मुदल्लल साइंसी सेहत के साथ नताइज पेश करती है।
उस्लूबियात का बुनियादी तसव्वुर ये है कि कोई ख़्याल, तसव्वुर, जज़्बा, या एहसास ज़बान में कई तरह से बयान किया जा सकता है। ज़बान में इस नौअ की यानी पैराया-ए-बयान के इख़्तियार की मुकम्मल आज़ादी है। शायर या मुसन्निफ़ क़दम-क़दम पर पैराया-ए-बयान की आज़ादी का इस्तेमाल करता है। पैराया-ए-बयान की आज़ादी का इस्तेमाल शऊरी भी होता है और ग़ैर-शऊरी भी और इसमें ज़ौक़, मिज़ाज, ज़ाती पसंद-ओ-नापसंद, सिन्फ़ या हैअत के तक़ाज़ों नीज़ क़ारी की नौईयत के तसव्वुर को भी दख़ल हो सकता है, यानी तख़्लीक़ी इज़हार के जुमला मुम्किन इम्कानात जो वुजूद में आ चुके हैं और वो जो वुक़ूअ-पज़ीर हो सकते हैं, इनमें से किसी एक का इंतिख़ाब करना (जिसका इख़्तियार मुसन्निफ़ को है) दर-अस्ल उस्लूब है।
ये भी वाज़ेह रहे कि उस्लूब का ये तसव्वुर न सिर्फ़ क़दीम रिवायत के उस्लूब के तसव्वुर से मुख़्तलिफ़ है बल्कि जदीद तन्क़ीद के इस दबिस्तां से भी जो नई तन्क़ीद (New Criticism) के नाम से जाना जाता है, बुनियादी तौर पर मुतसादिम है। उस्लूबियात में पैराया-ए-बयान के जुमला मुम्किन इमकानात का तसव्वुर ज़माँ, मकाँ और समाज के तसव्वुर को राह देता है जिसकी नई तन्क़ीद में कोई गुंजाइश नहीं। नई तन्क़ीद का तसव्वुर लिसान-ए-जामिद है, क्योंकि ये यक-ज़मानी है, जबकि उस्लूबियात-ए-ज़बान के माज़ी, हाल, मुस्तक़बिल यानी जुमला इमकानात को नज़र में रखती है, दूसरे लफ़्ज़ों में उस्लूबियात में उस्लूब का तसव्वुर तज्ज़ियाती मा'रुज़ी नौईयत रखने के बावजूद तारीख़ी समाजी जिहत को खुला रखता है, जबकि नई तन्क़ीद में इसकी कोई गुंजाइश नहीं। नई तन्क़ीद की रू से फ़न-पारा ख़ुद मुक्तफ़ी और ख़ुद-मुख़्तार है और जो कुछ भी है फ़न-पारे के वजूद के अंदर है और उससे बाहर कुछ नहीं। उस्लूबियात भी अगरचे मतन पर पूरी तवज्जो मर्कूज़ करती है लेकिन नई तन्क़ीदकी पैदा करदा तारीख़ी और समाजी तहदीद को क़बूल नहीं करती।
अदबी उस्लूबियात तज्ज़ियाती तरीक़ कार के इस्तेमाल से तख़्लीक़ी इज़हार के पैरायों की नौईयत का तअय्युन करके उनकी दर्जा बंदी करती है। वो इस बात की निशानदेही करती है कि फ़नकार ने मुमकिन तमाम लिसानी इमकानात में से अपने तर्ज़-ए-बयान का इंतिख़ाब किस तरह किया और उससे जो उस्लूब ख़ल्क़ हुआ, उसके इम्तियाज़ात या ख़साइस क्या हैं। यानी वो कौन सी लिसानी ख़ुसुसीयात हैं जिनकी वजह से किसी पैराया-ए-बयान की अलग से शनाख़्त मुमकिन है, या लिसानी इज़हार का जो उमूमी फ़ित्री अंदाज़ (Norm) है, उससे किसी मुसन्निफ़ या शायर का कोई पैराया-ए-बयान कितना मुख़्तलिफ़ है, या किसी मख़सूस तर्ज़-ए -इज़हार में कौन-कौन से लिसानी ख़साइस पस-ए-परदा में चले गए हैं और कौन-कौन से पेश-मंज़र में आ गए हैं, उस्लूबियात में ये अमल (Foregrounding) कहलाता है।
ज़बान के फ़ित्री अंदाज़ की दर्जा-बंदी की रौशनी में किसी ख़ास मत्न या मुतून को परखा जा सकता है, या मुंतख़बा मुतून का बाहमी तक़ाबुली मुताला किया जा सकता है। उस्लूबियाती तज्ज़िया ज़बान की किसी भी सतह को लेकर मुम्किन है। लिसानियात में ज़बान की चार सतहें ख़ास हैं।
सौतियात Phonology
लफ़्ज़ियात Morphology
नह्वियात Syntax
मा'नियात Semantics
ज़बान इन चारों से मिल कर मुश्किल होती है। ख़ालिस लिसानियाती तज्ज़ियों में किसी भी सतह को अलग से भी लिया जा सकता है, लेकिन अदबी इज़हार के तज्ज़िये में हर सतह के तसव्वुर में ज़बान का कुल्ली तसव्वुर शामिल रहता है। इस लिए मा'नी लफ़्ज़ है और लफ़्ज़ मा'नी। मा'नी की इकाई कलिमा है और कलिमा लफ़्ज़ या लफ़्ज़ों का मजमूआ है और ख़ुद लफ़्ज़ आवाज़ या आवाज़ों का मजमूआ है। यानी उस्लूबियाती तज्ज़िये में ख़्वाह ऐसा ज़ाहिर न किया गया हो और साइंसी तौर पर महज़ किसी एक सतह का तज्ज़िया किया गया हो, जैसा कि राक़िम-उल-हुरूफ़ ने अपने मज़ामीन उस्लूबियात-ए-अनीस या इक़बाल का सौतियाती निज़ाम में अम्दन किया है। लेकिन ज़बान का कुल्ली तसव्वुर ब-शुमूलएमा'नी के इसमें मुज़्मर (Latent) रहता है, और उसका इख़राज लाज़िम नहीं, जैसा कि नासमझी के बाइस आम तौर पर समझा जाता है।
ग़रज़ उस्लूबियाती तज्ज़िये में उन लिसानी इम्तियाज़ात को निशान-ज़द किया जाना है जिनकी वजह से किसी फ़न-पारे, मुसन्निफ़, शायर, हैअत, सिन्फ़, या अहद की शनाख़्त मुम्किन हो। ये इम्तियाज़ात कई तरह के हो सकते हैं। (1) सौतियाती (आवाज़ों के निज़ाम से जो इम्तियाज़ात क़ाइम होते हैं, रदीफ़-ओ-क़वाफ़ी की ख़ुसुसियात, या मा'कूसियत, हकारियत या ग़नीय्यत के इम्तियाज़ात या मुसम्मतों और मुसव्वतों का तनासुब वग़ैरा।
(2) लफ़्ज़ियाती (ख़ास नौ के अलफ़ाज़ का इज़ाफ़ी तवातुर, अस्मा, अस्माए सिफ़त, अफ़आल वग़ैरा का तवातुर और तनासुब, तराकीब वग़ैरा।
(3) नह्वियाती (कल्मे के अक़्साम में किसी एक का ख़ुसूसी इस्तेमाल, कल्मे में लफ़्ज़ों का वरूबस्त वग़ैरा।
(4) बदीई (Rhetorical) बदी-ओ-बयान की इम्तियाज़ी शक्लें तश्बीह, इस्तिआरा, किनाया, तम्सील, अलामत, इमेजरी वग़ैरा।
(5) उरुज़ी-ए-इम्तियाज़ात (औज़ान, बहरों, ज़िहाफ़ात वग़ैरा का ख़ुसूसी इस्तेमाल और इम्तियाज़ात।
उस्लूबियात के माहिरीन जो साइंसी तरीक़-ए-कार और मा'रुज़ीयत पर ज़ोर देते हैं, लिसानी ख़साइस के इज़ाफ़ी तवातुर और तनासुब को मालूम करने के लिए कमियती आदाद-ओ-शुमार को बुनियाद बनाते हैं। अब तो तज्ज़ियों के लिए कम्प्यूटर के इस्तेमाल से नताइज को और भी ज़्यादा सेहत और तयक़्क़ुन के साथ अख़्ज़ किया जाने लगा है। कुछ माहिरीन सर्फ़ी लिसानी तसव्वुरात को भी तज्ज़िये की बुनियाद बनाते हैं, मसलन तसरीफ़ी (Paradigmatic) और कलिमाती (Syntagmatic) शक्लों का फ़र्क़ या चाम्सकी की तश्कीली ग्रामर की बिना पर ज़ाहिर और दाख़िली साख़्तों का फ़र्क़ और उनके इम्तियाज़ात वग़ैरा।
ज़बान में इज़हार के इमकानात ला महदूद हैं। कोई भी मुसन्निफ़ मुमकिन इमकानात में से सिर्फ़ चंद का इंतिख़ाब करता है। ये इंतिख़ाब मुसन्निफ़ के लिसानी अमल का हिस्सा है और उसकी उस्लूबियाती शनाख़्त की बुनियाद फ़राहम करता है। उस्लूबियाती तज्ज़िये से मुसन्निफ़ की पहचान बे-ऐनेही उसी तरह मुम्किन है जिस तरह इंसान अपने हाथ की लकीरों से पहचाना जाता है। उस्लूबियात के ज़रिए मुसन्निफ़ के लिसानी इज़हार के उँगलियों की छाप (Fingerpirnts) का पता चलाया जा सकता है, और उसकी शनाख़्त हत्मी तौर पर मुतअय्यन की जा सकती है। अश्ख़ास की तरह अस्नाफ़ का भी मिज़ाज होता है। चुनाँचे उस्लूबियात की मदद से ये भी मालूम किया जा सकता है कि बाहम दिगर मुख़्तलिफ़ अस्नाफ़ का उस्लूबियाती इम्तियाज़ क्या है और पैराया-ए-बयान की सतह पर वो किस तरह एक दूसरे से अलग हैं।
अश्ख़ास और अस्नाफ़ से हट कर उस्लूबियाती तज्ज़िये की एक जिहत और भी है। चूँकि अदबी इर्तिक़ा में इज़हार के लिसानी पैराए अहद-ब-अहद तब्दील होते रहते हैं, उस्लूबियात की मदद से ये मालूम किया जा सकता है कि किस अहद में कौन सा उस्लूब राइज था या किस अहद की ज़बान के लिसानी इख़्तियारात क्या थे। लिसानी इम्तियाज़ात की निशानदेही अदबी इज़हार में तख़्लीक़ी अमल को समझने में अदबी इन्फ़िरादियत की बुनियादों के तअय्युन के लिए भी बेश-बहा मदद फ़राहम करती है। अदबी इज़हार भी बहुत कुछ रक़्स-ओ-मूसीक़ी की तरह है। रक़्स -ओ-सुरूद की ज़ाहिरी सतह पर लुत्फ़-ओ-निशात और कैफ़-ओ-सुरूर की महसूर-कुन फ़िज़ा छाई रहती है जिसमें अक्सर हम ख़ुद-फ़रामोशी के आलम से गुज़रते हैं और खो से जाते हैं। ताहम अगर सतह के नीचे ग़ौर से देखें तो ताल आहंग (Rhythm) और सौती इम्तियाज़ात का (ब-ज़ाहिर पेचीदा लेकिन असलन सादा) जाल सा बिछा हुआ नज़र आएगा, जैसे तरह-तरह के रंगों का कोई मश्जर (Tapestry) हो या जियोमेट्रीकल डिज़ाइन का कोई ख़ूबसूरत रंगा रंग फ़र्श (Mosaic) बना हुआ हो।
अदबी इज़हार में लफ़्ज़ों की ज़ाहिरी सतह के नीचे लिसानी इम्तियाज़ात से तरह-तरह के डिज़ाइन बनते हैं। उनकी पहचान अदबी उस्लूबियात का ख़ास काम है। उरुज़ी तज्ज़िये से अगर किसी शे'री हैअत या सिन्फ़ के बारे में उमूमी नताइज (Generalisation) अख़्ज़ किए जाएँ या किसी मुसन्निफ़ या फ़न-पारे के लिसानी ख़साइस के तअय्युन में मदद ली जाए तो ऐसे तज्ज़िये उस्लूबियात के ज़ैल में आएँगे।
उस्लूबियात में नताइज अख़्ज़ करते हुए इस ख़तरे से आगाह रहना ज़रूरी है कि उस्लूबियाती तज्ज़िया महज़ हैअती तज्ज़िया नहीं जिस पर नई तन्क़ीद का दार-ओ-मदार है, क्योंकि उस्लूबियात की रू से फ़न-पारा सिर्फ़ लफ़्ज़ों का मजमूआ या हैअत महज़ (Verbal Construct) नहीं है, न ही वो किसी भी तरह के पैग़ाम का सेट (Set of Message) या इत्तिला महज़ या मा'नी महज़ (Pure Semantic Information) की मिसाल है, बल्कि इसकी नौईयत इन दोनों के बीच की है और उस्लूबियात इसके लिए (Discourse) की इस्तिलाह वज़ा करती है।
उस्लूबियाती तज्ज़ियों पर जो एतिराज़ात किए जा सकते हैं, इनकी एक ख़ास मिसाल Michael Riffaterre का वो मज़्मून है जिसमें बोदलीयर के सॉनेट Les Chats पर रोमान जैकेट सन और क्लाउड लेवाई स्ट्रास के तज्ज़िये से बहस की गई है। मुलाहिज़ा हो, Structuralism, ED. Jacques Ehrmann, 1966, रफ़ाईटर ने सवाल उठाया था कि उस्लूबियात ये तो बता सकती है कि मुख़्तलिफ़ लिसानी ख़साइस में से किसी फ़न-पारे के अपने इमम्तियाज़ी ख़साइस क्या हैं लेकिन इसका फ़ैसला कैसे किया जाएगा कि वो कौन से ख़साइस हैं जो किसी फ़न-पारे को जमालियाती एतिबार से ज़्यादा मोअस्सिर बनाते हैं और उनका तअय्युन किस तरह किया जाएगा? इसका जवाब बाद के माहिरीन उस्लूबियात ने ये दिया कि ये एतिराज़ ही दर अस्ल ग़लत तवक़्क़ुआत पर मब्नी है, क्योंकि उस्लूबियात इस तरह से जमालियात से इलाक़ा नहीं रखती जिस तरह अदबी तन्क़ीद रखती है। उस्लूबियात के पास ख़बर है नज़र नहीं, जमालियाती क़दर-शनासी उस्लूबियात का काम नहीं।
उस्लूबियात का काम बस इस क़दर है कि वो लिसानी इम्तियाज़ात की हतमी तौर पर निशान-देही कर दे। उनकी जमालियाती तअय्युन क़दर अदबी तन्क़ीद का काम है। इसकी तवक़्क़ो अदबी तन्क़ीद से करना चाहिए न कि उस्लूबियात से। रही ये बात कि उस्लूबियात और अदबी तन्क़ीद में क्या रिश्ता है तो इसको में इससे पहले भी कई बार वाज़ेह कर चुका हूँ कि उस्लूबियात अदबी तन्क़ीद का बदल नहीं है। उर्दू में ये ग़लत-फ़हमी आम है कि उस्लूबियात अदबी तन्क़ीद का बदल है। ग़ालिब ने कहा था, ज़िद की है और बात मगर खू बरी नहीं। उस्लूबियात को अदबी तन्क़ीद का बदल समझ कर इससे भड़कना नासमझी की बात है। और ये अक्सर वो लोग करते हैं जो लिसानियात के तफ़ाइल से नावाक़िफ़ महज़ हैं, या वो लिसानियात और उस्लूबियात से ख़ाइफ़ हैं।
अक्सर देखा गया है कि किसी भी नए इल्म से पुरानी इजारा-दारियों को ठेस पहुँचती है, चुनाँचे कुछ करम-फ़रमा तंज़-ओ-इस्तह्ज़ा से काम लेते हैं, लेकिन ज़्यादा तादाद उन लोगों की है जो बात को जाने और समझे बग़ैर खुल्लम-खुल्ला ग़ैर-इल्मी या दानिश दुश्मन (Anti-Intellectual) रवैया अपनाते हैं। ऐसे लोग हमारी हमदर्दी के मुस्तहक़ हैं क्योंकि मसाइल-ओ-मबाहिस को समझने की मुख़्लिसाना और ईमान-दाराना कोशिश उन्होंने नहीं की। ये हज़रात शायद नहीं जानते कि ग़ैर इल्मी रवैया इख़्तियार करने और इस नौअ की जुमले-बाज़ी से दर अस्ल ख़ुद उन्हीं की ज़ेहनी कम-मायगी और मायूसी ज़ाहिर होती है। उस्लूबियात ने भी ये दावा नहीं किया कि वो तन्क़ीद है या अदबी तन्क़ीद का बदल है। अलबत्ता इतनी बात साफ़ है कि उस्लूबियात तन्क़ीद की मदद कर सकती है और उसको नई रौशनी फ़राहम कर सकती है।
उस्लूबियात के पास मत्न के साइंसी लिसानी तज्ज़िये का हर्बा है। उसके पास अदबी ज़ौक़ की नज़र नहीं है। जब भी हम किसी फ़न-पारे को पढ़ते हैं तो अपने मिज़ाज, मालूमात और एहसास यानी अपने अदबी ज़ौक़ के मुताबिक़ उसके बारे में कुछ न कुछ तअस्सुर क़ाइम करते हैं। ये जमालियाती तअस्सुर है जो दर-अस्ल अदबी तन्क़ीद का नुक़्ता-ए-आग़ाज़ है। इसकी नौईयत ख़ालिस मौज़ूई है जो हमारी ज़ेहनी कैफ़ियत को ज़ाहिर कर सकती है। ये तअस्सुर सही भी हो सकता है और ग़लत भी। इसके बाद उस्लूबियाती तज्ज़िये का काम शुरू होता है जो ख़ालिस मा'रुज़ी है, यानी उस्लूबियात अदबी तन्क़ीद के हाथ में एक मा'रुज़ी हर्बा है। जैसे-जैसे तज्ज़िये की फ़राहम-कर्दा मा'रुज़ी मालूमात सामने आने लगती हैं, ये मालूम होने लगता है कि इब्तिदाई मौज़ूई तअस्सुर सही ख़ुतूत पर था या ग़लत ख़ुतूत पर।
अगर तअस्सुर ग़लत ख़ुतूत पर था तो उस्लूबियात कोई दूसरा मफ़रूज़ा या उससे बिल-अक्स मफ़रूज़ा क़ाइम करके अज़ सर-ए-नौ तज्ज़िये का आग़ाज़ करके दूसरे मफ़रुज़े को आज़मा सकती है लेकिन जब तौसीक़ हो जाए कि तज्ज़ियाती सफ़र ग़लत राह पर नहीं था, तो तज्ज़ियाती मालूमात से इब्तिदाई जमालियाती तअस्सुर ब-तदरीज ज़्यादा वाज़ेह और शफ़्फ़ाफ़ (Refined) होने लगता है और लिसानी ख़साइस के बारे में नए-नए नुकात सूझने लगते हैं जिनसे बिल-आख़िर हत्मी तौर पर तख़्लीक़ी अमल की लिसानी नौईयत और फ़न-पारे के इम्तियाज़ी नुक़ूश का तअय्युन हो जाता है। इसके साथ-साथ उस्लूबियात का काम निमट जाता है और अदबी तन्क़ीद और जमालियात का काम शुरू हो जाता है। अदब की तहसीन-कारी और तअय्युन क़दर का काम अदबी तन्क़ीद और जमालियात का काम है, उस्लूबियात का नहीं।
उस्लूबियात अदबी तन्क़ीद को लिसानी हुस्न-कारी के राज़ों, लफ़्ज़ों के तख़्लीक़ी इस्तेमाल के नाज़ुक फ़र्क़ और हल्के गहरे लफ़ज़ियाती और मा'नियाती इम्तियाज़ात से आगाह कर सकती है। रिचर्ड दोताँ का इसरार है कि उस्लूबियात ऐसा उन मस्नूई क़ुयूद के बग़ैर कर सकती है जो नई तन्क़ीद के दबिस्ताँ ने आइद की हैं, यानी उस्लूबियात फ़न-पारे का तज्ज़िया ख़ला में नहीं करती। मज़ीद ये कि उस्लूबियात-ए-इबहाम (Ambiguity), अलामत-निगारी (Symbolism), इमेजरी (Imagery), क़ौल-ए-मुहाल (Paradox) या Irony की मौजूदगी की बिना पर तरजीहात क़ाइम नहीं करती, यानी उस्लूबियात अगरचे इन सबसे बहस करती है लेकिन हर्गिज़ ये हुक्म नहीं लगाती कि फ़लाँ पैराया आला है और फ़लाँ अदना, या फ़लाँ उस्लूब बेहतर है और फ़लाँ कमतर, बल्कि उस्लूबियात इज़हार के लिसानी इम्तियाज़ात जैसे वो हैं, उनका तअय्युन करके और उनकी शनाख़्त के काम को पूरा करके अपनी ज़िम्मेदारी से ओहदा बर-आ हो जाती है और अदना-आला का फ़र्क़ क़ाइम करने के लिए अदबी तन्क़ीद के लिए राह छोड़ देती है।
अलबत्ता उस्लूबियात की सबसे बड़ी कमज़ोरी ये है कि बसीत फ़न-पारों के लिए उसका इस्तेमाल निहायत ही मुश्किल है। यानी ग़ज़ल या नज़्म का तज्ज़िया आसान है और नॉवेल और अफ़साने का मुश्किल। नस्र के तज्ज़िये में ये भी दिक़्क़त है कि तस्नीफ़ के किस हिस्से को नुमाइंदा समझा जाए और किसको नज़र अंदाज़ किया जाए। जामे तज्ज़िये के लिए मवाद (Corpus) का महदूद होना उसके हक़ में है। उस्लूबियात पर एतिराज़ का एक दरवाज़ा इस वजह से भी खुल जाता है कि ये मख़सूस इस्तिलाहात का इस्तेमाल करती है जो कुल्लियतन लिसानियात से माख़ूज़ हैं और अदबी नक़्क़ाद अक्सर-ओ-बेशतर उनसे बा-ख़बर नहीं (उर्दू में बे-ख़बरी पर इतराने वालों की कमी नहीं) चुनाँचे तर्सील की अपनी मुश्किलात हैं। जब आम नक़्क़ादों का ये हाल है तो आम क़ारईन से रिश्ते की नौईयत क्या होगी। ज़ाहिर है कि उस्लूबियात आम क़ारी की दस्तरस से बाहर है। क़ारी से रिश्ते का इन्क़िताअ वो क़ीमत है जो उस्लूबियात को अपनी साइंसी बुनियादों की वजह से बहरहाल चुकानी पड़ती है।
अगर ग़ौर से देखा जाए तो हर ज़ाबिता-ए-इल्म या साइंस की अपनी इस्तिलाहात हैं। अगर उस इल्म से इस्तिफ़ादा करना है तो उसकी णण का जानना ज़रूरी है, वरना उस इल्म की कलीद हाथ न आएगी और हम उससे इस्तिफ़ादा न कर सकेंगे। यही हाल उस्लूबियात का भी है। इस्तिलाहात दर अस्ल तसव्वुरात हैं जिन पर किसी भी ज़ाबिता-ए-इल्म की बुनियाद होती है। उन इस्तिलाहात को नर्म करके यानी समझा कर बयान तो किया जा सकता है, लेकिन उनको छोड़ा नहीं जा सकता। चुनाँचे इल्म के साइंसी मिज़ाज की ख़ातिर कुछ तो क़ीमत अदा करनी होगी और कोई क़ीमत इतनी भारी नहीं है कि उसकी ख़ातिर उस्लूबियात के ज़रिए हासिल होने वाली मा'रुज़ी साइंसी बुनियादों को तर्क कर दिया जाए।
ख़ालिस उस्लूबियाती मुताले बिल-उमूम उस्लूबियाती शनाख़्त को मुक़द्दम समझते हैं और किसी भी मुसन्निफ़ या फ़न-पारे के लिसानी इम्तियाज़ात को निशान-ज़द कर देने (Fingerprinting) के बाद किसी नौअ की राय-ज़नी नहीं करते, ताहम ऐसे मुतालआत की भी कमी नहीं, जिनमें आदाद-ओ-शुमार और इज़ाफ़ी तवातुर (Relative Frequency) से अख़्ज़ होने वाले उस्लूबियाती हक़ाइक़ को मुसन्निफ़ की साईकी से या उसकी नफ़्सियाती और ज़ेहनी तरजीहात से मरबूत करके देखा गया है और नताइज अख़्ज़ किए गए हैं कि तजुर्बे की लिसानी तक़्लीब किस तरह हुई है। मुलाहिज़ा हो,
LEO SPITZER, LINGYISTICS AND LITERARY HISTORY, 1968
या ये कि उस्लूबियाती इम्तियाज़ात का मुसन्निफ़ की आईडियाेलोजी से क्या तअल्लुक़ है, या उसका नज़रिया-ए-हयात क्या है, या हक़ीक़त के तईं उसका रवैया क्या है। मुलाहिज़ा हो,
ERICHAUERBACH, MIMESIS. 1953
या लिसानी इम्तियाज़ात का जमालियाती और जज़्बाती तासीर से क्या रब्त है। मुलाहिज़ा हो,
(हवाला-ए-मा-सबक़ MICHAEL RIFFATERRE)
बहरहाल इस बारे में मुतअद्दिद रवैये और रुजहानात हैं। एक आम रवैया वो है जिस को रेने वेलेक The Imperialism of Modern Linguistic कहता है, यानी उस्लूबियात के हुदूद को इस क़दर वसीअ करना कि अदबी तन्क़ीद में जो कुछ है, उस्लूबियात का उस पर इतलाक़ हो सकता है या ये कि उस्लूबियात को हर दौर की दवा समझ लिया है। ज़ाहिर है ये रवैया ग़लत है। उस्लूबियात बस उस हद तक मुफ़ीद है जिस हद तक वो मुफ़ीद है इस मस्अले से बहस करते हुए Stanely fish ने
(WHAT IS STYLISTICS AND WHY ARE THEY SAYING SUCH TERRIBLE THINGS ABOUT IT APPROACHES TO POETICS, ED., SEYMOUR CHATMAN. 1973)
में वज़ाहत की है कि अस्ल उस्लूबियात जिसको वो Affective Stylistic कहता है, ये है कि क़ारी जब मत्न का मुताला करता है तो उस्लूब और मानी का मुताला अलग-अलग नहीं करता, बल्कि लफ़्ज़, कलिमा, हैअत, मा'नी, सब मजमूई तौर पर ब-यक-वक़्त क़ारी के ज़ेहन पर असर-अंदाज़ होते हैं गोया क़ारी का ज़ेहनी रद्द-ए-अमल (Response) कुल्ली रद्द-ए-अमल (Total Response) होता है जुज़्वी नहीं। उस्लूब और मा'नी की बहस को अलग करना मुम्किन ही नहीं, इसलिए अस्ल उस्लूबियात वही है जो क़ारी के कुल्ली रद्द-ए-अमल (Total Response) का अहाता करती हो। ग़रज़ दोनों तरह की आरा मिलती हैं और हर फ़रीक़ ने अपने दावे के हक़ में मुदल्लल बहस की है। इस मुक़दमे की वज़ाहत के लिए कि उस्लूब को मा'नी से अलग नहीं किया जा सकता, देखिए,
BENNISON GRAY. STYLE: THE PROBLEM AND ITS SOLUTION, 1969. AND STYLISTICS: THE END OF A TRADITION, JOURNAL OF AESTHETICS AND ART CRITICISM, 31, 1973.
इसके बर-अक्स इस मुक़दमे की मुदल्लल बहस के लिए उस्लूब की बहस अलग से मुम्किन है, और ख़ास उस्लूबियाती तज्ज़िये अदबी जवाज़ रखते हैं। मुलाहिज़ा हो,
E. D. HERISCH, STYLISTICS AND SYNONYMITY IN THE AIMS OF INTERPRETATION. 1976
यहाँ मुख़्तसर वज़ाहत उर्दू और उस्लूबियात के ज़िम्न में भी ज़रूरी है। उर्दू में उस्लूबियात का ज़िक्र अगरचे बिल-उमूम किया जाने लगा है और आम नक़्क़ाद भी इक्का-दुक्का लिसानियाती इस्तिलाहें इस्तेमाल करने लगे हैं लेकिन दर हक़ीक़त उर्दू में उस्लूबियात का सरमाया ज़्यादा वक़ीअ नहीं है। अगरचे लिसानियात जानने वालों की तादाद उर्दू में ख़ासी है, मगर ऐसे लोगों की तादाद बहुत कम है जो लिसानियात को अदबी मुताले में बरत सकने पर क़ादिर हों। उर्दू में इस नौअ के मुतालिआत का आग़ाज़ मसऊद हुसैन ख़ाँ ने किया। मुग़्नी तबस्सुम उसे अपनी तन्क़ीद में इस्तेमाल करते हैं। मिर्ज़ा ख़लील बेग ने भी मुतअद्दिद तज्ज़िये किए हैं लेकिन ये सारा काम ज़्यादा-तर सौतियात के हवाले से है और किसी क़दर उरूज़ के हवाले से। ज्ञान चंद जैन लिसानियात के माहिर हैं लेकिन रिवायती तन्क़ीद ही को तन्क़ीद समझते हैं, जब कि शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी बाक़ायदा लिसानियात से इलाक़ा नहीं रखते, लेकिन उनके लिसानी और उरुज़ी मबाहिस में उस्लूबियात का असर मिलता है।
यहाँ उस मज़्मून का ज़िक्र ज़रूरी है जो ज्ञान चंद जैन ने लिखा था, उस्लूबियाती तन्क़ीद पर एक नज़र(नयादौर, लखनऊ, अक्तूबर1984) और जिसका जवाब मिर्ज़ा ख़लील बेग ने दिया था, उस्लूबियाती तन्क़ीद पर एक तिरछी नज़र(नया दौर, लखनऊ, अप्रैल 1989) ज्ञान चंद जैन ने उर्दू के गिनती के नमूनों को सामने रखा, और उस्लूबियात से बहैसियत-ए-ज़ाबिताए-इल्म के बहस नहीं की, न ही उस्लूबियात और अदबी तन्क़ीद का रिश्ता उनके पेश-ए-नज़र रहा, जिसकी उनसे तवक़्क़ो थी। बा'ज़ कमज़ोर नमूनों के पेश-ए-नज़र ये बहस की जा सकती है कि उस्लूबियात का इतलाक़ ठीक हुआ है कि नहीं लेकिन उससे ज़ाबिता-ए-इल्म की मा'रुज़ी बुनियाद पर कोई हर्फ़ नहीं आता। राक़िम-उल-हुरूफ़ के नाम अपने ख़त में जैन साहब ने वज़ाहत की कि इस बारे में उनकी मालूमात मुकम्मल नहीं थीं और उन्हें सिर्फ़ टर्नर की किताब दस्तयाब हो सकी। हक़ीक़त ये है कि इस मौज़ू पर टर्नर की किताब न सिर्फ़ नाकाफ़ी है बल्कि इस एतिबार से नाक़िस है कि उसका अस्ल मौज़ू उस्लूबियात और अदबी तन्क़ीद है ही नहीं।
राक़िम-उल-हुरूफ़ ने अपने ज़ेर-ए-नज़र मज़्मून में मसादिर-ओ-मआखिज़ का ज़िक्र क़दरे तफ़सील से अम्दन किया है ताकि अदबी तन्क़ीद के संजीदा तालिब इल्म को मालूम हो कि उस्लूबियाती मबाहिस का दायरा कितना वसीअ है और उनकी सरहदें कितनी फैली हुई हैं। उन मबाहिस या उनके मबादियात को जाने और समझे बग़ैर उस्लूबियात से मुतअल्लिक़ कोई संजीदा गुफ़्तगू मुम्किन ही नहीं, चूँकि ख़ाकसार से अक्सर उस्लूबियात और साख़्तियात के हवाले से अदबी तन्क़ीद के बारे में पूछा जाता है, ज़रूरी है कि मुख़्तसरन ही सही, ख़ाकसार अपने मौक़िफ़ की वज़ाहत भी कर दे।
इस बारे में सबसे अहम ये है कि उर्दू में उस्लूबियाती तौर पर जो कुछ भी लिखा गया है राक़िम-उल-हुरूफ़ का मामला इससे अलग है। मसऊद हुसैन ख़ाँ का तअल्लुक़ चूँकि अदबी तन्क़ीद से नहीं था, उन्होंने जो नमूने पेश किए वो मेकानिकी थे और अदबी तअय्युन क़दर में इससे कोई मदद नहीं मिलती। राक़िम ने मुजर्रद किसी फ़न-पारे यानी ग़ज़ल, नज़्म या अफ़साने का बतौर अदबी इकाई के उस्लूबियाती तज्ज़िया नहीं किया। ऐसा तज्ज़िया मुसन्निफ़ के पूरे तख़्लीक़ी अमल को नज़र में रख कर ही मुम्किन है।
तफ़सील के लिए तो दफ़्तर दरकार है, मसलन अर्ज़ करता हूँ, ख़्वाह राजिंदर सिंह बेदी के फ़न की इस्तिआराती और असातीरी जड़ें हो या इंतिज़ार हुसैन का फ़न: मुतहर्रिक ज़ेहन का सय्याल सफ़र नीज़ इक़बाल की शायरी का सौतियाती निज़ाम या उस्लूबियात-ए-इक़बाल: नज़रिया-ए-इस्समियतओ-फ़े'लियत की रौशनी में या नज़ीर अकबराबादी: तहज़ीबी दीद बाज़ या उस्लूबियात-ए-अनीस या उस्लूबियात-ए-मीर। ख़ाकसार ने कभी किसी फ़न-पारे से मुजर्रद बहस नहीं की, बल्कि मीर, अनीस, नज़ीर, इक़बाल, बेदी या इंतिज़ार हुसैन की तख़्लीक़ी शख़्सियत के तनाज़ुर में गुफ़्तगू की है और शायर या मुसन्निफ़ की तख़्लीक़ी इन्फ़िरादियत या उस्लूबियाती शनाख़्त के तअय्युन की कोशिश की है, और कहीं इन्फ़िरादी फ़न-पारे के तज्ज़िये की बहस आई भी है तो वो या तो अदबी इन्फ़िरादियत और तख़्लीक़ी अमल के लिसानी इम्तियाज़ात के ज़िम्न में है या फिर किसी अदबी मस्अले को वाज़ेह करने के लिए उस्लूबियाती तज्ज़िये से मदद ली है, जैसा कि प्रेम चंद के फ़न में Irony का उंसुर या नया अफ़साना: अलामत, तम्सील और कहानी का जौहरवाले मज़्मून में किया गया है।
इतनी बात ज़ाहिर है कि किसी फ़न-पारे का मुजर्रद उस्लूबियाती तज्ज़िया करना जितना आसान है, फ़न-पारे या फ़न-पारों को मुसन्निफ़ या शायर की तख़्लीक़ी कैफ़ियत से जोड़ना और इन्फ़िरादी लिसानी इम्तियाज़ात की निशान-देही करना या किसी सिन्फ़ या अहद के तनाज़ुर में उनका तज्ज़िया करना उतना ही मुश्किल और सब्र-आज़मा काम है। ख़ाकसार ने जो भी बुरा-भला काम किया है, वो उसी नौईयत का है। ये बुनियादी फ़र्क़ है और इस तन्क़ीदी फ़र्क़ को चूँकि बिल-उमूम महसूस नहीं किया जाता और सारी लिसानी तन्क़ीद को एक ही लाठी से हाँक दिया जाता है, इसलिए इसकी वज़ाहत ज़रूरी थी।
दूसरा अहम फ़र्क़ ये है कि जहाँ दूसरों ने ज़्यादा तर शायरी की तन्क़ीद से सरोकार रखा, ख़ाकसार ने फ़िक्शन के मुताले में भी उस्लूबियात से काम लिया है और उसके जो भी अच्छे-बुरे नमूने पेश किए हैं, वो सबके सामने हैं।
तीसरी बात ये है कि ख़ाकसार ने अगरचे सौतियात से मदद ली है, लेकिन सिर्फ़ सौती सतह पर तकिया नहीं किया बल्कि लफ़ज़ियाती और नहवियाती सतहों से भी मदद ली है। ज़ाकिर साहब की नस्र और ख़्वाजा हसन निज़ामी वाले मज़ामीन से क़त'-ए-नज़र उस्लूबियात-ए-इक़बाल और उस्लूबियात-ए-मीर के तज्ज़ियात में सारी बहस ही लफ़ज़ियाती और नहवियाती है। ऐसा न होता तो वो नताइज सामने न आते जो अख़्ज़ किए गए हैं।
चौथी और आख़िरी बात ये है कि ख़ाकसार ने अगरचे बा'ज़ तज्ज़िये बिला-शुबहा इंतिहाई तकनीकी पेश किए हैं (मसलन इक़बाल की शायरी का सौतियाती निज़ाम या उस्लूबियात-ए-अनीस) लेकिन ये ख़ाकसार का आम अंदाज़ नहीं है। चंद तकनीकी तज्ज़िये इसलिए ज़रूरी थे कि ये साबित किया जा सके कि तन्क़ीद को, जो मौज़ूई और ज़ेहनी अमल है, साइंसी मा'रुज़ी बुनियादों पर उस्तवार किया जा सकता है। मुझे एतिराफ़ है कि ये तज्ज़िये आम क़ारईन के लिए नहीं थे। लेकिन ये तज्ज़िये अम्दन किए गए थे और इनका मक़सद तन्क़ीद की साइंसी मा'रुज़ी बुनियादों को वाज़ेह करना था। बिल उमूम ख़ाकसार ने एक अलग राह इख़्तियार की है और उस्लूबियात को अदबी तन्क़ीद में ज़म करके पेश किया है। ऐसा मेरे अदबी मिज़ाज की वजह से भी है।
फ़िक्शन पर तन्क़ीद के अलावा इस नौअ की निस्बतन तफ़सीली मिसाल उस्लूबियात-ए-मीर वाला मक़ाला है, जिससे ये बात वाज़ेह हो जाएगी कि मेरा आम अंदाज़ उस्लूबियात और अदबी तन्क़ीद को मिला कर बात करने का है। उस्लूबियात-ए-मीर में सारे अदबी मबाहिस अपनी ज़ेहनी ग़िज़ा उस्लूबियाती तज्ज़िये से हासिल करते हैं और ये उस्लूबियाती तज्ज़िया नह्वी भी है, सर्फ़ी भी और सौतियाती भी, लेकिन तज्ज़िया ज़्यादा तर आँखों से ओझल रहता है और अगर कहीं सतह पर ज़ाहिर हुआ भी है तो तकनीकी मालूमात से गिराँ-बार नहीं होता और क़ारी का दामन कहीं भी हाथ से नहीं छूटता। मैं इसको जामे अदबी उस्लूबियात कहता हूँ।
यानी अदबी मुताले में मेरा ज़ेहनी रद्द-ए-अमल (Response) कुछ इस तरह का है कि मैं उस्लूब और मा'नी का मुताला अलग-अलग नहीं करता। बल्कि सौत, लफ़्ज़, कलिमा, हैअत, मा'नी मजमूई तौर पर ब-यक-वक़्त कारगर रहते हैं और किसी नुकते को वाज़ेह करने या उनका सुराग़ लगाने के लिए किसी एक लिसानी सतह को अलग करने की कोई ख़ास ज़रूरत पेश न आए तो मेरा ज़ेहनी रद्द-ए-अमल कुल्ली होता है जुज़्वी नहीं और किसी एक सतह को अलग करना ज़रूरी भी हो तो इस अमल के दौरान बहर-हाल ये एहसास हावी रहता है कि सतहों का अलग करना मबहस की तह तक पहुँचने के लिए है वरना ब-ज़ातेही ये एक मस्नूई अमल है और हर सतह यानी जुज़ अपने कुल के साथ मिल कर लिसानी वहदत बनता है और तरसील हिज़्ज़-ए-मा'नी में कारगर होता है।
गोया उस्लूबियात मेरे नज़दीक महज़ एक हर्बा है, कुल तन्क़ीद हर्गिज़ नहीं। तन्क़ीदी अमल में इससे बेश-बहा मदद ली जा सकती है। इसलिए कि तअस्सुराती और जमालियाती तौर पर जो राय क़ाइम की जाती है, उस्लूबियात उसका खरा-खोटा परख कर तन्क़ीद को ठोस तज्ज़ियाती साइंसी मा'रुज़ी बुनियाद अता कर सकती है। वाज़ेह तकनीकी तज्ज़ियों का जवाज़ फ़क़त इतना है कि इनसे तन्क़ीदी नताइज अख़्ज़ किए जा सकते हैं। लेकिन अगर उस्लूबियात का जो हर ज़ेहन में ज़ा-गुज़ीं हो गया है तो ग़ैर-तकनीकी तज्ज़िया मत्न की क़िराअत के दौरान ज़ेहन-ओ-शऊर में एहसास की रौ के साथ-साथ चलता है और मैं इसी को जामे अदबी उस्लूबियात कहता हूँ।
ये भी हक़ीक़त है कि मुझे अपने तन्क़ीदी अमल में ज़बान की ज़ाहिरी सतहों को कुल्ली मा'नियाती निज़ाम के साथ-साथ लेकर चलने में साख़्तियात से भी मदद मिलती है, जिसकी खुली हुई मिसालें सानिहा करबला ब-तौर शे'री इस्तिआरा या फ़ैज़ का जमालियाती एहसास और मा'नियाती निज़ाम या फ़िक्शन पर ख़ाकसार के मज़ामीन में मिल जाएँगी। लेकिन साख़्तियात एक अलग मौज़ू है और इसको किसी दूसरे वक़्त के लिए उठा रखा जाता है।
जहाँ तक मसादिर का तअल्लुक़ है, उस्लूबियात पर अंग्रेज़ी और फ़्राँसीसी में सैकड़ों मज़ामीन और किताबें हैं। इनमें लिसानियात के माहिरीन की तसानीफ़ भी हैं और अदबी नक़्क़ादों की भी। उस्लूबियात के मौज़ू पर कई बैन-उल-अक़्वामी सेमिनार और कॉन्फ़्रैंसें मुंअक़िद हो चुकी हैं जिनकी रूदादों में वो अहम मक़ालात भी मिलेंगे जिन्होंने इन मबाहिस को आगे बढ़ाने और उस्लूबियात को एक ज़ाबिता-ए-इल्म की हैसियत से मुस्तहकम करने में क्लीदी किरदार अदा किया है। ज़ैल के मजमूआहाए मज़ामीन इस बारे में कुतुब-ए-हवाला का दर्जा रखते हैं। उस्लूबियात को जानने के लिए इनसे और ऊपर जिन किताबों का हवाला दिया गया है, उनसे रुजूअ करना बहुत ज़रूरी है,
(1) THOMAS A. SEBEOK. ED., STYLE IN LANGUAGE, 1960
(2) ROGER FOWLER, ED., ESSAYS ON STYLE AND LANGUAGE, 1966
(3) GLEN A. LOVE, AND MICHAEL PAYN, EDS., CONTEMPORARY ESSAYS, ON STYLE, 1969,
(4) DONALD C. FREEMAN, ED., LINGUISTIC AND LITERARA STYLE, 1970
(5) SEYMOUR CAHTMAN, ED., LITERARY STYLE: A SYMPOSIUM, 1971
(6) HOWARDS. BABB, ED., ESSAYS IN STYLISTIC ANALYSIS, 1972
उस्लूबियात पर बा'ज़ तआरुफ़ी किताबें भी लिखी गई हैं, इनमें से मेरे नज़दीक ज़ैल की किताबें अहम हैं,
(1) EPSTEIN, E. L., LANGUAGE AND STYLE, LONDON, 1978
(2) ENKVIST, SPENCER AND GREGORY, LINGUISTICS AND STYLE, OXFORD, 1964
(3) WIDDOWSON, H. G., STYLISTICS AND THE TEACHING OF LITERATUE, LONDON, 1988.
(4) CHAPMAN RAYMOND, LINGUISTICS AND LITERATURE, LONDON, 1975
(5) ENKVIST, N. E., LINGUISTIC STYLISTICS, HAGUE, 1973.
(6) HOUGH, G., STYLE AND STYLISTICS, LONDON, 1969,
उस्लूबियात को किसी ख़ास मुल्क, क़ौम या नज़रिये से वाबस्ता करना भी बे-ख़बरी की वजह से है। इसको तरक़्क़ी देने वालों में सब शामिल रहे हैं। उस्लूबियात पर लिखने वालों में रूसी हैअत-पसंदों (Russian Formallists) ने भी नुमायाँ हिस्सा लिया है और फ़्राँसीसी, बर्तानवी, जर्मन और अमेरिकी माहिरीन-ए-लिसानियात भी पेश-पेश रहे हैं। इनमें मुम्ताज़-तरीन नाम रोमान जैकब सन, ल्योस्पिट्ज़र, माइकल रिफ़ाइटर, स्टीफ़फ़िन अलमान और रिचर्ड ओहमान के हैं। इनके और दूसरे बहुत से अहम नाम लिखने वालों के मक़ालात और मबाहिस उन किताबों में देखे जा सकते हैं जिनका ज़िक्र इस मज़्मून में किया गया है।
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