फ़िराक़ साहब ने अकबर को एशिया के बड़े शा’इरों में शुमार किया है। बहुतों को ये राय मुबालग़ा-आमेज़ महसूस होगी कि एशिया क्या, उर्दू के बड़े शा’इरों में भी अकबर का नाम आ’म तौर पर नहीं लिया जाता। अकबर को शाइ’र की हैसियत से, बहर-हाल जो भी जगह दी जाए कम से कम इस मुआ’मले में किसी इख़्तिलाफ़ की गुन्जाइश नहीं कि हमारी तहज़ीबी तारीख़ में अकबर की शाइ’री का रोल बहुत अहम रहा है।
अकबर की शाइ’री भी तारीख़ और तहज़ीब के सियाक़ में अपनी मा’नवियत का तअ’य्युन करती है, हाली और इक़बाल की तरह। इस लिहाज़ से देखा जाए तो अकबर की बसीरत बर्र-ए-सग़ीर के मुसलमानों की तारीख़ के वास्ते से सामने आती है। उन्होंने अपनी रिवायत को, अपने अ’हद को, अपने मुआ’शरे से वाबस्ता इम्कान को एक हिन्दुस्तानी मुसलमान की नज़र से देखा। अकबर की आ’म तसावीर एक तंग-नज़र, मुल्लायाना मिज़ाज रखने वाले माज़ी-परस्त और रिवायती मिडल क्लास फ़र्द की है। ब-ज़ाहिर उसमें कोई कशिश, रौशनी का कोई नुक़्ता नज़र नहीं आता। मौलाना अ’ब्दुल माजिद दरियाबादी ने अकबर का जो कुल्लिया बयान किया है, वो कुछ इस तरह है,
“दाढ़ी कुछ छोड़ दी, जिसके अक्सर बाल सफ़ेद, चेहरे में कोई ऐसी बात न थी जो उन्हें आ’म से मुम्ताज़ करती। आँखों में चमक अलबत्ता थी। आख़िरी उ’म्र में सेहत गिर गई थी और रोज़ बीमार रहने लगे थे। तबीअ’त बड़ी हस्सास वाक़े’ हुई थी। गर्मी, सर्दी, शोर-ओ-ग़ुल हर चीज़ का असर बहुत ज़ियादा लेते और मा’मूली और बे-ज़रर ग़िज़ाओं से भी शदीद नुक़्सान का वहम क़ाइम कर लेते... ज़ाती हालात के अ’लावा मुल्की-ओ-मिल्ली इन्तिशार भी हज़रत-ए-अकबर की जमइ’य्यत-ए-ख़ातिर को परागन्दा किए हुए था। देख रहे थे कि मुसलमान अपने क़दीम अ’क़ाइद को ख़ैरबाद कह कर तजद्दुद, रौशन ख़याली, नेचरियत और फ़िरंगियत के सैलाब में बहे चले जा रहे हैं और उनके से ज़की-उल-हिसी शख़्स को इससे क़लक़ होना बिल्कुल क़ुदरती था।”
“ग़रज़ उनकी मुस्तक़िल अफ़्सुर्दगी और मुस्तमिर ग़मगीनी, मुतअ’द्दिद और गूना-गूँ ज़ाती-ओ-मिल्ली हालात के मज्मूए’ का नतीजा थी। कोई दूसरा होता तो मिज़ाज में झल्लाहट और तबीअ’त में चिड़चिड़ापन ज़रूर पैदा हो जाता। अकबर के यहाँ ये कुछ न हुआ। अलबत्ता एक मुस्तक़िल उदासी सी रहने लगी और ग़म ग़लत करने का एक नुस्ख़ा उन्होंने अपनी ज़रीफ़ाना शाइ’री को बना लिया।
सर्द मौसम था हवाएँ चल रही थीं बर्फ़बार
शाहिद-ए-मा’नी ने ओढ़ा है ज़राफ़त का लिहाफ़।”
(नुक़ूश, शख़्सियात हिस्सा अव्वल)
गोया कि अकबर की बसीरत का ज़ुहूर तारीख़ के अलमियाती एहसास की तह से हुआ है और वो अपनी इज्तिमाई और शख़्सी रिवायत, अफ़्क़ार और अ’क़ाइद, अपने मुहीब और दूर-रस मुआ’शरती वसवसों, अपने कमज़ोर इम्कानात का पूरा ख़ाका एक गहरे अख़्लाक़ी मलाल की बुनियादों पर मुरत्तब करते हैं। जिस ज़रीफ़ाना शाइ’री की शुरू’आत का पस-ए-मन्ज़र ये हो, उस पर गुफ़्तुगू के लिए हमें एक नया सियाक़, एक नया तनाज़ुर इख़्तियार करना होगा। ये बात भी याद रखनी चाहिए कि हमारे अ’हद से बहुत पहले अकबर ने इन्सानी हुक़ूक़ की तफ़्तीश के सिलसिले में ये भेद पा लिया था कि उन्हें हम सन्जीदा तज्रबों से और मज़ाहिया तज्रबों के ख़ाने में अलग-अलग रखकर नहीं देख सकते।
अकबर की बसीरत ने हमारे इज्तिमाई शऊ’र की सिम्त तब्दील कर दी। ये शाइ’री एक तरह की हिक्मत-ए-अ’मली थी और अपने इज़्तिराब, अपनी बरहमी, अपने मलाल और अपनी अफ़्सुर्दगी को छिपाने की और इसी के साथ-साथ जदीद साइन्स और टैक्नालौजी के ख़ुतूत पर उस्तुवार होने वाले तमद्दुन के अस्रार को आ’म करने की। एक मुहीत-ए-गिर्या-दिल और एक आश्ना-ए-ख़न्दालब की रूदाद अकबर की शाइ’री के ज़रीए’ साथ-साथ सामने आता है। लिहाज़ा हम ये भी कह सकते हैं हैं कि अकबर ने मज़ाह और सन्जीदगी के फ़र्क़ को न सिर्फ़ ये कि मिटाया है, अपने अ’हद की हक़ीक़त का एक ऐसा हमा-गीर तसव्वुर भी वज़्अ’ किया है जिसे हम सिर्फ़ जदीद या सिर्फ़ क़दीम नहीं सकते।
पिछले कुछ बरसों में अठारहवीं सदी और उन्नीसवीं सदी की अ’क़्लियत और रौशन-ख़याली के आ’म मैलानात और नई तहज़ीबी निशात-ए-सानिया की रिवायत के सिलसिले में एक ख़ास तरह का रवय्या सामने आया है। ये रवय्या एक बुनियादी तश्कीक का है जिसके मुताबिक़ हक़ीक़त का एक ऐसा तसव्वुर क़ाइम करने की कोशिश की जा रही है, जो यक-रुख़ा न हो और हमारे ज़माने के मिज़ाज से मुनासिबत रखता हो। चुनाँचे ये बात भी कही जा रही है कि हमारी ज़हनी बेदारी का वो दौर जिसे उन्नीसवीं सदी की इस्लाही अन्जुमनों और क़ौमी ता’मीर की सरगर्मियों के हवाले से एक नई निशात-ए-सानिया का दौर समझा जाता है, वो अज़-अव्वल-ता-आख़िर हक़ीक़त नहीं है।
इस हक़ीक़त में हमारे इज्तिमाई ज़वाल की पैदा-कर्दा एक उस्तूर भी छिपी हुई है। सर सय्यद और उनके बा’ज़ मुआ’सिरीन की हक़ीक़त-पसन्दी ने उन्हें इस उस्तूर की मौजूदगी के एहसास से दूर रखा। इसीलिए उनके बहुत से तहज़ीबी मफ़्रूज़े भी ग़लत या बे-बुनियाद हुए।
अकबर की शाइ’री हमें हक़ीक़त और उस्तूर का, तारीख़ की धूप और छाँव का पूरा मन्ज़र दिखाती है। इसीलिए ये शाइ’री एक ख़ास दौर की तारीख़ में पैवस्त होने के बावजूद उस दौर से निकलने और हमारे एहसासात से रिश्ता करने की ताक़त भी रखती है। अ’जीब बात ये है कि जिस शाइ’री पर अपने माज़ी में खोए जाने और अपने हाल के मर्कज़ पर जिन ताक़तों के इन्कारी होने का इल्ज़ाम आइद किया जाता था, वो शाइ’री आज अपनी मा’नवियत के कुछ नए पहलूओं के साथ हमसे मुकालमा करती है। गोया कि अकबर की बसीरत ने सन्जीदा और मज़ाहिया की तफ़्रीक़ को ख़त्म करने के इ’लावा क़दीम और जदीद के मा’नी भी बदल दिए।
इसी तरह अकबर ने तारीख़ को बेशक एक हवाले के तौर पर बरता है। अपने अ’हद के सियासी और समाजी वाक़िआ’त, ईजाद होने वाली नई-नई चीज़ों और मुआ’शरती सूरत-ए-हाल का बयान अकबर ने तक़रीबन वैसे ही दो-टूक अन्दाज़ में किया है जिस तरह सर सय्यद, हाली और आज़ाद ने। मगर सर सय्यद, हाली और आज़ाद ने तारीख़ी हक़ीक़त का जो मफ़्हूम मुक़र्रर किया था, अकबर उसकी ब-निस्बत एक मुख़्तलिफ़ तसव्वुर उस हक़ीक़त का रखते हैं। उनके बयानात ग़ैर-मुब्हम होने के बावजूद एक अ’लामती सत्ह भी रखते हैं और उन का मज्मूई’ तनाज़ुर एक ऐसी वुसअ’त रखता है जो तारीख़ की हद-बन्दियों को क़ुबूल नहीं करती और एक मख़्सूस दौर की तारीख़ को इन्सानी तजरबे की एक ख़ास शक्ल के तौर पर देखती है। इसका मुहासबा वो रिवायत और तजरबे और इम्कान के एक मुसलसल और मुतहर्रिक पस-ए-मन्ज़र में करते हैं।
यही वज्ह है कि तारीख़ को एक ख़ास हवाले के तौर पर बरतने की जो कोशिश अकबर ने की, उसका सुराग़ न तो सर सय्यद के यहाँ मिलता है न हाली और आज़ाद के यहाँ, ख़ास तौर पर नज़्म-ए-जदीद के सिलसिले में उनके ईक़ानात और सरगर्मियों के सियाक़ में। अकबर ने जो सत्ह इख़्तियार की वो न तो सिर्फ़ माद्दी मक़ासिद की पाबन्द है, न उन्नीसवीं सदी की अ’क़्लियत की। ये सत्ह तारीख़ को एक सय्याल मज़हर के तौर पर देखने से पैदा होती है। अकबर हक़ीक़त की तरह वक़्त का भी एक फ़लसफ़ियाना तसव्वुर रखते हैं’
इन अस्बाब ने अकबर की शाइ’री के मक़ासिद को भी वसीअ’ किया है। जो काम उन्नीसवीं सदी के मुस्लिहीन तारीख़ी हक़ीक़त और अ’क़्लियत के वास्ते से लेना चाहते थे, अकबर ने अपनी शाइ’री के ज़रीए’ उससे कहीं बड़ा काम लेने की कोशिश की। अकबर की शाइ’री न तो साइन्सी कामरानियों का इश्तिहार थी, न तारीख़ की सत्ह के ऊपर तैरती हुई हक़ीक़तों का मुरक्कब। तारीख़ के जब्र से अपनी बसीरत को रिहा करने में अकबर को जो कामयाबी नसीब हुई, वो इसीलिए कि अकबर ने सिर्फ़ मुस्लेह बनने की कोशिश नहीं की। उन्होंने अपनी बसीरत का फ़रीज़ा एक दूरबीं और दानिश-मन्द तख़्लीक़ी इन्सान के तौर पर अदा किया। शऊ’र की ये जिहत अकबर को एक ऐसा इम्तियाज़ अ’ता करती है जिससे उनकी मुआ’सिरियत बहरा-वर नहीं हो सकी।
इस सिलसिले में एक अहम बात ये है कि सर सय्यद, हाली, आज़ाद, शिबली और नज़ीर अहमद ये सब के सब ग़ैर-मा’मूली लोग थे, मगर एक शिबली को छोड़कर इनमें से किसी ने भी मग़रबियत के सैल-ए-बे-अमाँ में अपनी मसर्रत का सिरा ढूँडने की जुस्तजू नहीं की। आ’म इन्सानी मक़ासिद और इज्तिमाई मफ़रूज़ों ने किसी को इतनी मोहलत ही नहीं दी कि फ़ौरी मसाइल से हट कर किसी और मस्अले की तरफ़ मुतवज्जह होता। लेकिन अकबर की अस्ल हैसियत एक शाइ’र की थी और अपने इस हुनर का वो ज्ञान भी रखते थे। चुनाँचे उन्होंने न तो राइज उल-वक़्त रवय्यों से समझौता किया, न अपनी शाइ’री के ज़रीए’ उस क़िस्म के ख़यालात आ’म किए जो अन्जुमन-ए-पंजाब के मुनाज़िमों में पसन्द किए जाते थे। इस सिलसिले में अकबर के इम्तियाज़ात हस्ब-ए-ज़ेल हैं,
(1) अकबर ने अपनी रिवायत और अपने अ’हद की ज़ेह्नी ज़िन्दगी के लिए नई अ’लामतें वज़्अ’ कीं। रेल, इन्जन, गज़ट, अख़बार, होटल, टाइप, पाइप, कॉलेज, डबल-रोटी अश्या भी हैं और अ’लामतें भी। अकबर ने इन्हें अ’लामतों ही के तौर पर देखने की कोशिश की। चुनाँचे इन पर इज़हार-ए-ख़याल के लिए भी उन्होंने एक तख़्लीक़ी उस्लूब इख़्तियार किया।
(2) अकबर ने अपनी शाइ’री से नए वाक़िआ’त और ईजादात के हवास से अपने इन्फ़िरादी और मुआ’शरती रद्द-ए-अ’मल का तअ’य्युन किया है। इस रद्द-ए-अ’मल की सत्ह जज़्बाती है, इसीलिए अकबर ने ज़ेह्नी हक़ीक़तों को तारीख़ के ठोस हवालों से मिलाकर देखना चाहा है।
(3) अपने शाइ’राना तख़य्युल की मदद से अकबर ने इन्सानी तजरबे में आने वाली, आ’म अश्या पर ब-क़ौल-ए-अ’सकरी इन्सानी जज़्बे की मुहर लगाई है।
(4) अपने मुआ’सिरीन में अकबर ने सबसे पहले ये समझने और समझाने की कोशिश की कि हक़ीक़त का कोई भी मज़हर वो चाहे कितना ही मुतय्यन और ठोस क्यों न हो, अपने मा’नी और मक़्सद की तलाश इन्सानी तज्रबे के सियाक़ में करता है और इस सियाक़ में आने के बा’द हमारी बहुत सी अश्या का मक़्सद और अ’मल तब्दील हो जाता है। ये अश्या हमारी दाख़िलियत पर असर-अन्दाज़ होने लगती है।
(5) जैसा कि पहले ही अ’र्ज़ किया जा चुका है, अकबर ने नई और पुरानी हक़ीक़तों को नई और पुरानी क़द्रों की कश्मकश के तौर पर देखा था और इसी हिसाब से तारीख़ के नए मज़ाहिर को मुरत्तब करना चाहा था।
अकबर नए मज़ाहिर के शोर-शराबे में अपनी रिवायत और निज़ाम-ए-अक़्दार, या यूँ कहना चाहिए कि अपनी मशरिक़ियत के एहसास से ला-तअ’ल्लुक़ नहीं हुए। ला-तअ’ल्लुक़ तो सर सय्यद, हाली और आज़ाद भी नहीं हुए थे, मगर उनकी मशरिक़ियत, नए मक़ासिद के सैलाब में एक हद तक पीछे चली गई थी और कुछ ज़िम्नी सी चीज़ हो कर रह गई थी। उनके सामने मसअला अपनी मशरिक़ियत के तहफ़्फ़ुज़ का नहीं था, बल्कि नए तहज़ीबी असालीब की रौशनी में एक नए रवय्ये की तश्कील का था। और इस रवय्ये की तश्कील करते वक़्त उनके सामने इस तरह का कोई भी सवाल नहीं था कि ये रवय्या उनके माज़ी से कितनी मुनासिबत रखता है, रखता भी है या नहीं? शिबली की मशरिक़ियत एक तहज़ीबी और मुआ’शरती मस्अले के तौर पर सामने आई थी। अकबर ने उसे फ़लसफ़ियाना और तख़्लीक़ी सवाल बना दिया।
यही वज्ह है कि अकबर के यहाँ ज़वाल और कमाल के मअ’नी वो कुछ नहीं हैं जैसे कि मिसाल के तौर पर सर सय्यद, हाली और आज़ाद के यहाँ थे। फ़िराक़ साहब ने पूरे एशिया के सियाक़ में अकबर की अहमियत पर जो ज़ोर दिया है, उसका नुमायाँ-तरीन पहलू यही है कि अकबर ने मग़रिब-ओ-मशरिक़ की आवेज़िश का इदराक एक महदूद क़ौमी नज़रिए के मुताबिक़ नहीं बल्कि एक एशियाई की हैसियत से किया था। मग़रिब में टेक्नालौजी की तेज़ रफ़्तारी ने सारफ़ी Consumer मुआ’शरे को बढ़ावा दिया है, इसकी तरफ़ इशारा करने वाले ग़ालिबन पहले उर्दू शाइ’र अकबर ही हैं।
ग़ालिब तक, मुग़ल अशराफ़िया की अपनी ज़िन्दगी के बावजूद तार-ए-बर्क़ी और रेल यहाँ तक कि फ़िरन्गी औ’रतों के लिबास और वज़्अ’-क़ता’ को भी एक तरह की मरऊ’बियत के साथ देखते थे। हमारे सबसे बड़े मुस्लिहों और मे’मारों का रवय्या मग़रिबी कल्चर की तरफ़ नियाज़-मन्दी ही का था। राजा राम मोहन राय और सर सय्यद दोनों अपने अपने दौर के सबसे बड़े हक़ीक़त-पसन्द और ख़्वाब-परस्त थे, जिन्होंने ज़िन्दगी का नस्ब-उल-ऐ’न यही मुक़र्रर किया था कि हक़ाइक़ के वास्ते से एक अ’ज़ीमुश्शान इज्तिमाई ख़्वाब की ता’बीर तलाश की जाए। मगर दोनों पर हुसूल-ए-ता’बीर का जोश इस हद तक हावी था कि उन्होंने मशरिक़ की इन्फ़िरादियत और मशरिक़ियत के हुदूद तक का लिहाज़ नहीं किया।
उन्नीसवीं सदी के निस्फ़-ए-आख़िर में एशिया की तहज़ीबी और इक़्तिसादी आज़ादी, सारफ़ी तमद्दुन के आशोब से मशरिक़ की नजात और ब-हैसियत एक हिन्दुस्तानी मुसलमान के अपने तर्ज़-ए-एहसास की हिफ़ाज़त के सिलसिले में अकबर की ज़ेह्नी और जज़्बाती जुस्तजू सबसे ज़ियादा पेश-पेश रही। उनकी तबीअ’त में वो नीम-फ़लसफ़ियाना अफ़्सुर्दगी हमेशा से थी जो कामरानियों के जश्न में उदासी की परछाईंयों को भी देख लेती है, जो क़ौमी ता’मीर के नशे में अपनी इज्तिमाई तख़्रीब के अन्देशों को भी समझती है, चुनाँचे अकबर ने मग़रिब के रास्ते से मशरिक़ में दर आने वाली हक़ीक़तों और चीज़ों पर एक गहरे और मुतवाज़िन एहसास के साथ नज़र डाली। अंग्रेज़ों की क़ुदरत-ए-ईजाद से सेह्र-ज़दा नहीं हुए और उनकी इख़्तिराआ’त को अपनी तहज़ीबी ज़िन्दगी के मुतसादिम अ’लामतों के तौर देखा,
ऐ शैख़ जब नकेल नहीं दस्त-ए-क़ौम में
फिर क्या ख़ुशी जो ऊँट तिरे रेल हो गए
हज़रत-ए-ख़िज़्र टिकट मुझको दिला दें अकबर
रह-नुमाई के लिए है मुझे काफ़ी इन्जन
मालगाड़ी पे भरोसा है जिन्हें ऐ अकबर
उनको क्या ग़म है गुनाहों की गिराँ-बारी का
मुहावरात को बदलें ब-राह-ए-रेल जनाब
टिकट-ब-दस्त कहें अब बजाए पा-ब-रिकाब
क्योंकर ख़ुदा के अ’र्श के क़ाइल हों ये अ’ज़ीज़
जुग़राफ़िए में अ’र्श का नक़्शा नहीं मिला
बज़्म-ए-याराँ से फिरी बाद-ए-बहारी मायूस
एक सर भी उसे आमादा-ए-सौदा न मिला
कैसी सहूलत और ख़ामोशी के साथ सर-ख़ुशी और ज़िन्दा-दिली की फ़ज़ा में एक हर्फ़-ए-हज़ीं, या मलाल का एक लम्हा दाख़िल हो जाता है। अकबर मुस्कुराते भी हैं तो इस तरह गोया अपने आँसुओं को छुपा रहे हों। इन अशआ’र में एक इज़्तिराब-आसा तबीअ’त और एक हज़ीमतों से दो-चार क़ौम की हालत का बयान बहुत पुर-फ़रेब कैफ़ियत के साथ हुआ है। ऐसा लगता है कि गोया अकबर हँसी-हँसी में अपने इज्तिमाई ज़वाल और अपने गुम होते हुए तशख़्ख़ुस का क़िस्सा सुना रहे हैं। उनमें एक थकी हुई और अपने अन्जाम से बा-ख़बर तहज़ीब के हाँपने की आवाज़ छिपी हुई है। इन शे’रों में अकबर ने जिस तकनीक का इस्ते’माल किया है, वो तख़्लीक़ी और शाइ’राना तख़य्युल की बुनियादों से बरामद हुई है और इस हिसाब से हम अकबर के शे’री रवय्ये को जदीद-तरीन शे’री रवय्ये की ही एक शक्ल भी कह सकते हैं और कुछ देखिए,
बे-इ’ल्म भी हम लोग हैं ग़फ़लत भी है तारी
अफ़्सोस कि अंधे भी हैं और सो भी रहे हैं
सआ’दत रूह की किस बात में है आप क्या जानें
कि कॉलेज में कोई इस बात का माहिर नहीं होता
है नई रौशनी इक लोकल-ओ-ज़ाती तर्कीब
लफ़्ज़ ही लफ़्ज़ हैं जितने हैं ज़वाइद इसके
लैंप बिजली का है ये मह्र-ए-जहाँ-ताब नहीं
जब अँधेरा हो तो ज़ाहिर हों फ़वाइद इसके
ईमान बेचने पे हैं अब सब तुले हुए
लेकिन ख़रीद हो जो अ’लीगढ़ के भाव से
वज़्अ’-ए-मग़रिब से मुझे कुछ भी तसल्ली न हुई
नाज़ तो बढ़ गए दौलत की तरक़्क़ी न हुई
चीज़ वो है बने जो यूरप में
बात वो है जो पाइनियर में छपे
कहते हैं राह-ए-तरक़्क़ी में हमारे नौजवाँ
ख़िज़्र की हाजत नहीं हमको जहाँ तक रेल है
बर्क़ के लैम्प से आँखों को बचाए अल्लाह
रौशनी आती है और नूर चला जाता है
आने वाले न रहे अन्जुमन-ए-दिल की तरफ़
कोई कॉलेज की तरफ़ है कोई कौंसिल की तरफ़
उनकी बीवी ने फ़क़त इस्कूल ही की बात की
ये नहीं पूछा कहाँ रक्खी है रोटी रात की
हर्फ़ पढ़ना पड़ा है टाइप का
पानी पीना पड़ा है पाइप का
अकबर के यहाँ ऐसे अशआ’र ब-कसरत मिलते हैं जिनमें मग़रिब की माद्दा-परस्ती के नताइज का मुहासबा कई सत्हों पर किया गया है। इन्सानों के ज़ाती बाहमी तअ’ल्लुक़ात की सत्ह, इन्सान और फ़ित्रत के राब्तों की सत्ह, इन्सान और उसके गिर्द-ओ-पेश की दुनिया में बिखरी हुई चीज़ों के माबैन रिश्ते की सत्ह, ग़रज़ कि इन तमाम सत्हों पर अकबर अपने अ’हद के बदलते हुए और बिगड़ते हुए इन्सानी रिश्तों का जाइज़ा लेते हैं और ठोस पैकरों की मदद से उन्हें बयान में दाख़िल करते हैं। अकबर का ग़ैर-मा’मूली कारनामा ये है कि उन्होंने आ’म बल्कि अवामी इस्तिलाहों में इन्सान की कम होती हुई हैसियत, अक़्दार पर उसकी कमज़ोर पड़ती हुई गिरफ़्त और हक़ीक़त के तग़य्युर-पज़ीर तसव्वुर की रौशनी में इन्सानी जज़्बात की अबतरी और इन्तिशार का बयान एक वसीअ मुआ’शरती पस-ए-मन्ज़र में किया है।
मौलवी और मिस्टर और लीडर और कलैक्टर और बुद्धू और जुम्मन, अफ़्सर और नौकर, बीवी और शौहर, बेटा, तालिब-ए-इ’ल्म, मास्टर, ख़ातून-ए-ख़ाना और कॉलेज की लड़की... ये तमाम किर्दार डी-ह्यूमनाईज़ेशन के ख़त्रात से घिरे हुए एक सराब-आसा तमद्दुन की तमाशा-गाह में इस तरह सामने आते हैं कि उनका माज़ी और उनका मुस्तक़बिल भी अपने िसनैरियो Scenario के साथ सामने आ मौजूद होता है। इस तमद्दुन ने इन्सान और इन्सानी रिश्तों का जो हश्र किया है, वो चीज़ें जो हमारे निज़ाम-ए-एहसास में अपनी मुस्तक़िल जगह बना चुकी थीं, उन्हें इस तमद्दुन ने जिस हाल को पहुँचाया है, अकबर एक ज़ह्र-ए-ख़न्द के साथ उन सबकी रूदाद सुनाते हैं।
किर्दारों और चीज़ों को अ’लामात के तौर पर इस्ते’माल करने की वज्ह से अकबर के बयानात में कभी उकताहट का रंग पैदा नहीं होता। अकबर की तवज्जोह का अस्ल मर्कज़ हमारी दुनिया में एक तरह की मर्कज़ी हैसियत रखने वाले मुआ’शरती और सक़ाफ़ती मस्अले थे। उनमें मग़रिब के हाथों मशरिक़ के माद्दी और तहज़ीबी इस्तिहसाल का मसअला भी शामिल है और शायद ये कहना ग़लत न होगा कि शह्र-आशोब लिखने वालों से ज़ियादा कहीं गहराई के साथ अकबर ने अपने अ’हद के आशोब को समझा है।
इसमें शक नहीं कि उन्नीसवीं सदी में क़ौमी ता’मीर की तमाम कोशिशों का रुख़ तारीख़ के उन मुतालिबात की तरफ़ था, जो उस ज़माने की ज़रूरतों ने पैदा किए थे। सर सय्यद ने भी, उस अ’हद के दूसरे मुस्लिहों की तरह हाल की ता’मीर पर नज़र रखी और इस सिलसिले में वो अपने माज़ी से जो तवानाईयाँ अख़्ज़ कर सकते थे, उन्हें भी उसी मक़्सद के लिए वक़्फ़ कर दिया। वो अपने अ’हद की तारीख़ी तजद्दुद-परस्ती के सबसे बड़े नुमाइन्दे थे और आईना-ए-रोज़गार के हर रम्ज़ से बा-ख़बर भी। लेकिन फ़ौरी मक़ासिद के जब्र ने उन्हें शायद इतनी मोहलत नहीं दी कि वो इस्लाह और ता’मीर, माद्दियत और अ’क़्लियत के इस पूरे सिलसिले में छुपे हुए अन्देशों पर ध्यान दे सकें। अपनी रिवायत की तअ’य्युन-ए-क़द्र में हाली और आज़ाद के यहाँ जिस इन्तिहा-पसन्दी और अ’दम-तवाज़ुन को राह मिली उसका सबब हाल में हद से बढ़ी हुई यही आलूदगी थी।
वो सब के सब एक तारीख़ी फ़रीज़ा अन्जाम देना चाहते थे। उन हालात का क़र्ज़ अदा करना चाहते थे जिनमें उस ज़माने की ज़िन्दगी घिर कर रह गई थी। अकबर की शाइ’री ने भी वही तारीख़ी फ़रीज़ा अन्जाम देने की कोशिश की मगर अपने तशख़्ख़ुस, अपने इम्तियाज़ और अपनी इन्फ़िरादियत को महफ़ूज़ रखते हुए। वो साइन्स और टेक्नालौजी की पैदा-कर्दा तरक़्की-ए-मा’कूस को भी देख रहे थे। ये भी देख रहे थे कि रवायात और अक़्दार के इन्हिदाम ने पूरे माहौल में कितनी गर्द पैदा कर दी है और हमारी बसारत इससे किस हद तक मुतअस्सिर हुई है। इसीलिए अकबर को तहज़ीब-ए-हाज़िर के वो मुज़ाहिरे भी परेशान किए हुए थे जिनका ज़ुहूर अभी नहीं हुआ था। ओरिजिन का तअ’ल्लुक़ माद्दी तहज़ीब के हाल से ज़ियादा उसके मुस्तक़बिल से था। अ’सकरी ने कहा था कि अकबर ने अपने निज़ाम-ए-अक़्दार की हिफ़ाज़त उस तरह की, जिस तरह ईमान की हिफ़ाज़त की जाती है। ये मुज़ाहमती रवय्या एक बसीत तहज़ीबी तनाज़ुर के साथ हमें अकबर के यहाँ जितना वाज़ेह और रौशन दिखाई देता है, इसकी कोई मिसाल इक़बाल से पहले की उर्दू शाइ’री में कहीं नहीं मिलती।
इक़बाल की तरह, अकबर के सिलसिले में भी ये ना-गुज़ीर हो जाता है कि एक मुसलमान के नुक़्ता-ए-नज़र से भी उनके तसव्वुरात की बुनियादों तक पहुँचा जाए। अकबर के एहसासात की तश्कील में, उनकी फ़िक्र के मजमूई’ मिज़ाज में इस नुक़्ता-ए-नज़र का अ’मल दख़्ल बहुत नुमायाँ है। अकबर के यहाँ अ’सबियत और तंग-नज़री के जो अ’नासिर पैदा हो गए हैं, उनका अस्ल सबब भी यही है कि अकबर नए तजरबों की तफ़हीम के अ’मल में रिवायत की बख़्शी हुई रौशनी से दस्त-बरदार होने पर आमादा नहीं थे। ये ए’तिराफ़ उनके बस से बाहर था कि कोई भी रिवायत चाहे कितनी ही पुरानी और मज़बूत क्यों न हो, उसके अपने कुछ हुदूद भी होते हैं और हक़ीक़त का तसव्वुर तहज़ीबों के सफ़र में किसी न किसी तौर पर तब्दील भी होता है।
अकबर ये देख रहे थे कि उनका ज़माना हक़ीक़त के इदराक का बस एक ही ज़रीया’ इख़्तियार करने पर तुला हुआ है और ये ज़रीया’ है साइन्सी अ’क़्लियत। चुनाँचे अकबर के यहाँ रद्द-ए-अ’मल के तौर पर एक तरह के जज़्बाती मुबालग़े को भी राह मिली और अपने अ’हद की हक़ीक़त से वो आज़ादाना रब्त क़ाइम नहीं कर सके। लेकिन इसका मुसबत पहलू ये है कि अकबर की शाइ’री हाल-गज़ीदा होने से बच गई। अकबर के शऊ’र में ये ख़याल मज़बूती से जम्अ’ रहा कि वो तमाम अ’नासिर जिनकी मदद से हम ज़िन्दगी के मफ़्हूम तक रसाई हासिल करते हैं, सक़ाफ़ती और तहज़ीबी क़द्रों के एहसास से वजूद में आते हैं। इसीलिए अफ़्राद की शख़्सी ज़िन्दगी हो या क़ौमों की इज्तिमाई ज़िन्दगी, सक़ाफ़ती अक़्दार की अहमियत दूसरी तमाम हक़ीक़तों के मुक़ाबले में ज़ियादा होती है। इन क़द्रों के बचाव के लिए हमारी तमाम क़ुव्वतें जो वक़्फ़ हो जाती हैं, तो इसीलिए कि यहाँ से मुआ’मला अपने वजूद की हिफ़ाज़त का है।
हमारी सक़ाफ़त अक़्दार का जो निज़ाम तर्तीब देती है, उसकी हिफ़ाज़त किए बग़ैर हम अपनी हस्ती को बर-क़रार नहीं रख सकते। सर सय्यद के फ़्यूज़ को तस्लीम करने के बावजूद अकबर की बसीरत ने उन्हें ए’तिराज़ का निशाना जो बनाया, तो इसीलिए कि अकबर के नज़्दीक सर सय्यद की पूरी तहरीक अपनी सक़ाफ़ती क़द्रों को अगर तर्क नहीं कर रही थी तो कुछ सानवी क़िस्म की चीज़ ज़रूर समझने लगी थी। अकबर भी अगर सिर्फ़ मुस्लिह और मे’मार होते तो उनकी कोशिशें अपने मुआ’शरे की इस्लाह और तारीख़ के हुक़ूक़ की अदाइगी के लिए वक़्फ़ हो कर रह गई होतीं। इसी तरह अकबर को सिर्फ़ सियासी आज़ादी के मस्अले से भी दिलचस्पी नहीं थी। उनकी नज़र में ज़िन्दगी की दूसरी बुनियादी हक़ीक़तें भी थीं, इसीलिए वो अपनी तमाम क़ौम को गु़लामी के जाल से निकालना चाहते थे।
तहज़ीब और सक़ाफ़त के अहम-तरीन मुहर्रिकात का जैसा मरबूत एहसास हमें अकबर की शाइ’री में मिलता है, उनके तमाम मुआ’सिरीन में किसी और के यहाँ नज़र नहीं आया। ऐसी सूरत में अकबर को महज़ तरक़्क़ी-पसन्द और रजअ’त-पसन्द के ख़ानों में तक़्सीम करना एक ऐसी बड़ी ग़लती है जो हमें अकबर की शाइ’री के बुनियादी मसअलों और अकबर के अस्ल सरोकार तक पहुँचने नहीं देती। ब-ज़ाहिर अकबर की शाइ’री पेचीदा और पुर-अस्रार नहीं है। उनके यहाँ ज़ेह्नी और तहज़ीबी रवय्यों का इज़्हार भी दो-टूक और ग़ैर-मुब्हम अन्दाज़ में हुआ है, लेकिन तख़्लीक़ी सत्ह पर ये शाइ’री एक मुस्तक़िल मुज़ाहमत, एक मुस्तक़िल कश्मकश की शाइ’री है। तरह-तरह के अन्देशों और वसवसों से भरी हुई। इसीलिए इस पर रवादारी में कोई हुक्म लगाना भी उतना ही ना-मुनासिब है जितना कि अकबर को ख़ाली-ख़ोली मज़ाह-निगार समझ लेना। ये शाइ’री बहर-हाल एक ज़ियादा गहरे और सन्जीदा मुताला’ का तक़ाज़ा करती है।
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