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चंद लम्हे बेदी की एक कहानी के साथ: एक बाप बिकाऊ है

गोपी चंद नारंग

चंद लम्हे बेदी की एक कहानी के साथ: एक बाप बिकाऊ है

गोपी चंद नारंग

MORE BYगोपी चंद नारंग

    राजिंदर सिंह बेदी के किरदार अक्सर-ओ-बेश्तर महज़ ज़मान-ओ-मकाँ के निज़ाम में मुक़य्यद नहीं रहते बल्कि अपने जिस्म की हुदूद से निकल कर हज़ारों लाखों बरसों के इंसान की ज़बान बोलने लगते हैं। इस तरह एक मामूली वाक़िआ, वाक़िआ रह कर इंसान के अज़ली और अबदी रिश्तों के भेदों का इशारिया बन जाता है।

    बेदी इससे पहले भी इम्रानियाती मुआहिदों के तहत दिए गए इंसानी रिश्तों के नामों के बारे में सवाल उठा चुके हैं और शादी के मर्कज़ी इदारे की समाजी नौईयत और मा'नवियत को मअरज़-ए-बहस में ला चुके हैं। ज़ेर-ए-नज़र कहानी में बेदी ने इससे भी आगे जाने की कोशिश की है और रिश्तों के रिश्ते या'नी आबाई रिश्ते के बारे में बा'ज़ बुनियादी सवाल उठाए हैं। औरत और मर्द का रिश्ता उरूज को पहुँच कर माँ और बाप के रिश्ते में ढ़लता है और उसी रिश्ते से दूसरे सारे रिश्ते जुड़े हुए हैं। क़दीम हिंदुस्तानी फ़िक्र की रू से बुनियादी उंसुर शक्ति या'नी औरत या'नी जिन्स है जो तख़्लीक़-ए-कायनात का रम्ज़ है। शक्ति पुर-इसरार मादरी बुनियाद की वजह से है। पिदरी बुनियाद पर इसरार आर्याई और सामी अक़्वाम से लेकर जदीद मग़रिबी अक़्वाम तक में राइज है। इसमें अस्ल उंसुर आदम या'नी मर्द है। ये आवेज़िश शायद कहानी लिखते हुए बेदी के तह्तश्शऊर में रही हो।

    लेकिन अस्ल सवाल ये है कि जब सब रिश्ते-नाते इम्रानियाती मुआहिदों के तौर पर इम्तिदाद-ए-ज़माना से बन-बना गए और इंसान ने उन्हें क़ुबूल कर लिया है या'नी उनमें से किसी का तअल्लुक़ फ़ित्री जब्रियत से नहीं और इंसान ने उन्हें समाजी समझौतों के तौर पर इख़्तियार कर रखा है तो क्या उन्हें पलटा बदला जा सकता है? अगर ऐसा मुम्किन हो सके तो इसके नताइज क्या होंगे, नीज़ क्या कोई रिश्ता ऐसा भी है जो इम्रानियाती मुआहिदों से बे-नियाज़ हो या'नी फ़ित्री जब्रियत से मुतअल्लिक़ हो और जिससे सब दूसरे रिश्तों के तक़ाज़े पूरे हो जाते हों?

    बेदी मर्द से ज़ियादा औरत के आर्कीटाइप के मुरक़्क़ा-निगार हैं, लेकिन यहाँ माँ के ज़िक्र से बात बनती, औरत ख़्वाह माँ हो, बेटी, बहन या बीवी हो, मर्द के वज़ा-कर्दा इम्रानियाती निज़ाम में वो बिकाऊ चीज़ है और उसका मोल टके पैसे से लेकर ज़िंदगी दे देने तक से चुकाया जाता है। चुनाँचे माँ को बिकाऊ कहने से कोई बात बनती, जबकि बाप बिकाऊ है कहने से बुनियादी सवाल क़ाइम हो जाता है और यक-लख़्त एक तहय्युर ज़ा सूरत-ए-हाल सामने जाती है। या'नी औरत (माँ, बेटी, बहन, बीवी) तो बिक सकती है, जैसा कि मर्द की दुनिया में आए दिन होता है, लेकिन क्या कभी कोई बाप भी बिकाऊ हो सकता है। ज़ाहिर है कि अगर समाज-ओ-रिवाज पर चोट पड़ेगी या कोई बात उसकी तवक़्क़ुआत के ख़िलाफ़ होगी तो सबसे पहले इंतिज़ामिया या'नी पुलिस वाले पूछ-ताछ करेंगे लेकिन बाप गांधर्व दास मौजूद है और पुलिस से दो टूक कहता है कि वो बिकना चाहता है।

    चुनाँचे क़ानून बे-बस है। गाँधर्व दास की बीवी की मौत हो चुकी है। वो अपनी ज़ियादतियों को याद करके रातों में उठ जाता है और अपना गिरेबाँ फाड़ कर तेज़-तेज़ टहलता है। उसके बच्चे जो सब बड़े हो चुके हैं, अपने-अपने काम से लग चुके हैं, वो अपने बाप को रंडवा नहीं मर्द बिधवा कहते हैं। बेदी यहाँ भी तंज़ करते हैं कि बिधवा सिर्फ़ औरत ही नहीं मर्द भी हो सकता है क्योंकि सारा मामला इख़्तियारी सहारों का है। इश्तिहार पढ़ने वाले सोचते हैं अगर बाप ख़रीदेंगे तो उसको पालना भी पड़ेगा, लेकिन पाले बच्चे जाते हैं कि बाप? नीज़ बाप तो वो होता है जिसके नुत्फ़े से उसका बेटा हो। इम्रानियाती निज़ाम में बेटा तो हरामी हो सकता है, लेकिन क्या बाप भी हरामी हो सकता है।

    गांधर्व दास को तरह-तरह के लोग ख़रीदने आते हैं। उनमें चँद लोग ऐसे भी हैं जो इंसान से ज़ियादा उसके मज़हब को अहम जानते हैं और पहला काम ये करना चाहते हैं कि गांधर्व दास का मज़हब बदला जाए। ख़रीदने वालों में औरतें भी हैं। यहाँ दिलचस्प नुक्ता ये है कि जब मर्द औरत को ख़रीद सकता है तो क्या हमारे समाजी समझौते इस बात की इजाज़त देते हैं कि औरत मर्द को ख़रीदे। बेदी के फ़न का एक ख़ास पहलू चूँकि औरत और मर्द के अज़ली रिश्ते के भेदों की गिरह-कुशाई है, बेदी यहाँ निहायत सहूलत से इशारा करते हैं कि हमारे समाजी मुआहिदों ने औरत को उस मक़ाम पर पहुँचा दिया है जहाँ जो वो कहती है इससे उलट चाहती है। इसमें बदन को सुलाने और रूह को जगाने की सलाहियत ही नहीं रही। जिस तरह मीर अपने शे'र-ए-शोर-अंगेज़ से पहचाने जाते हैं, मेरे नज़दीक बेदी की पहचान उनके ऐसे जुमलों से होती है जहाँ वो इंसानी रूह की गहराइयों में सफ़र करते हैं। उर्दू के अफ़सानवी अदब में ज़ैल की क़िस्म के जुमले बेदी ही के क़लम से निकल सकते हैं,

    तुम पलँग के नीचे के मर्द से डरती हो और उसे चाहती हो। तुम ऐसी कुँवारियाँ हो जो अपने दिमाग़ में इफ़्फ़त की रट ही से अपनी इस्मत को बे-महार लुटवाती हो... दर अस्ल तुम्हारे हिज्जे ही ग़लत हैं!

    औरत को क्या होता है जब वो औरत नहीं रहती। वो मर्द ही से अपने औरत रह जाने का बदला लेती है। वो उसे ऐन उस वक़्त बीच चौराहे के नंगा और ज़लील करती है, जब उसे औरत की ज़रूरत हो। वो उस वक़्त उसे कोसने देती है, जब वो नाश्ता करके बाहर जाने की तैयारी कर रहा हो। गोया बाहर की बे-रहम दुनिया से लड़ पाने से पहले ही वो उसे अधमुआ कर देती है। फिर शाम को जब वो अपना मुर्दा कशाँ-कशाँ घर लाता है तो फिर उसे जली-कटी का कफ़न उढ़ा के लिटाती और ख़ुद रोने, बैन करने में तस्कीन पा लेती है।

    यूँ इम्रानियाती रिश्तों की चादर हटा देने के बाद औरत मर्द की कशिश का सारा मामला अपनी नौईयत के ए'तिबार से असातीरी है। ज़ेर-ए-नज़र कहानी पढ़ते हुए भी ज़ेहन कई मुक़द्दस और ग़ैर-मुक़द्दस रिवायतों की तरफ़ राजेअ होता है, लेकिन लगता है कि कहानी लिखते हुए बेदी के ज़ेहन पर कुछ कुछ बोझ ख़ुदा के आबाई तसव्वुर का रहा होगा क्योंकि अस्ल बाप और बड़ा बाप तो ख़ुदा ही है, और हक़ तो ये है कि ख़ुदा भी अपने वुजूद के लिए ख़रीदारों या'नी अपनाने वालों का मोहताज है, क्योंकि अगर ख़ुदा को अपनाने वाले होंगे तो उसे तस्लीम कौन करेगा। बिना बेटे के कौन बाप हो सकता है।

    ख़ुदा के आबाई तसव्वुर पर इसरार यूँ तो तमाम सामी मज़हबों में मिलता है, लेकिन सबसे वाज़ेह इसरार मसीही रिवायत का हिस्सा है। ख़ुदा और ख़ुदा का बेटा और तीसरा उंसुर रूह-उल-क़ुदुस। लेकिन ये सब मुक़द्दस ही मुक़द्दस है जबकि ख़ुदा के बेटे तो गुनाह की सआदत से भी बहरा-अंदोज़ हैं। सामी और हिंदुस्तानी रिवायतों के इस लतीफ़ फ़र्क़ से बेदी अपने तख़्लीक़ी अमल के दौरान ज़रूर सरशार रहे होंगे। इब्न-ए-मरियम को तो ख़ुदा का बेटा तस्लीम कर लिया गया लेकिन ख़ुद मरियम... अज़ली माँ। बेदी जिसके तह्तश्शऊर के निहाँ-ख़ानों में शक्ति बसी हुई है, अज़ली माँ को कैसे भूल सकता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बेदी अज़ली माँ और अज़ली बाप के आईने में किसी वहदत की तलाश कर रहे हूँ या'नी ये कि दूसरे तमाम रिश्ते एक ही रिश्ते की मुख़्तलिफ़ परतें हैं।

    औरत ख़्वाह वो किसी भी रूप में आए, औरत है और मर्द या'नी बाप के वुजूद को मुकम्मल करती है और बाप का तसव्वुर ज़िल है ख़ुदा के तसव्वुर का। लेकिन ये ज़िल ख़ुदा का बेटा नहीं बल्कि गुनाह-आलूदा इंसान है। दूसरे ये कि ख़ुदा या'नी अस्ल बाप भी ब-ज़ातेही कुछ नहीं जब तक इंसान उसे दिल में बिठाए नहीं और ये कि सुख शांति बाप/ ख़ुदा की ज़ात में है बेटे / ख़रीदार की ज़ात में बल्कि क़ुबूलियत या'नी अपनाने के अमल में है।

    गांधर्व दास अपनी पत्नी के बारे में आख़िरी ख़्वाब में देखता है कि वो दूसरी औरत को देखते ही वावैला शुरू कर देती है और घर से बाहर रोती-चिल्लाती हुई भागती जाती है। फिर वो लकड़ी की सीढ़ी के नीचे ख़ुद को दफ़न कर लेती है। मगर मिट्टी हिल रही है और वो साँस ले रही है। गांधर्व दास अपनी पत्नी को मिट्टी के नीचे से निकालता है। ये मिट्टी शायद मौत की नहीं, औरत मर्द के रिश्ते के सर्द हो जाने की भी हो सकती है। इसकी तस्दीक़ यूँ होती है कि पत्नी के दोनों बाज़ू ग़ायब हैं और नाफ़ के नीचे धड़ भी नहीं। या'नी वो जिस्मानी अलाइम ही नहीं जिनसे रिश्ता उस्तुवार होता है। गांधर्व दास उस पुतले से प्यार करता हुआ उसे ज़िंदगी की सीढ़ियों से ऊपर तो ले आता है लेकिन गांधर्व दास जो बहुत बड़ा गायक है, उसका गायन इस वाक़िए के बाद बंद हो जाता है और यह गायन बरसों बाद शुरू होता है उस वक़्त जब दुरवे, गांधर्व दास को, बाप की हैसियत से ख़रीद लेता है और आम के पेड़ों पर बौर पड़ता है और कोयल कूकती है।

    बेदी के हाँ मौसम का बयान मुजर्रद हैसियत से ही नहीं सकता। वो उसे हमेशा मा'नियाती फ़िज़ा की तौसीअ के लिए इस्तिआरती रंग में पेश करते हैं। इससे पहले रिश्तों के ज़वाल और सर्द मुहरी का ज़िक्र पतझड़ के तनाज़ुर में था। सूखे सड़े पत्ते इतनी तेज़ी से गिर रहे थे कि झाड़ू देने वाले उठाते-उठाते थक जाते और उन्हें घर ले जाकर जलाने की भी इजाज़त नहीं थी। क्योंकि रिश्तों के ज़वाल की सर्दी में गर्मी का सवाल ही नहीं उठता। पतझड़ में छींटा पड़ता भी है तो उस दिन जब पुजारी मुस्कुराकर मेहतरानी छब्बू को देखता है और उसे फूल पत्ते ले जाने की इजाज़त देता है।

    बेदी ने इस कहानी में इंसानी रिश्तों को एक ऐसी प्रिज़्म से गुज़ारने की कोशिश की है जिसके बाद अगरचे सबकी शक्ल बदल जाती है लेकिन रंग सबके निखर कर सामने जाते हैं। बाप तो बिका ही बिका और जब बिका या'नी दुरवे ने रज़ा-काराना तौर पर गांधर्व दास को बाप इख़्तियार कर लिया तो दुरवे को गांधर्व दास ने भी रज़ा-काराना तौर पर बेटा इख़्तियार कर लिया। इंसानी रिश्तों का ये इख़्तियारी मुरक़्क़ा मुकम्मल होता है एक ऐसी औरत के तसव्वुर से जो तो गांधर्व दास की समाजी बीवी है दुरवे की समाजी माँ या'नी जो नुत्फ़े के रिश्ते की समाजी बेटी है समाजी बहन है। लेकिन बाप और बेटा उसे बित्तर्तीब इन हैसियतों में क़ुबूलते और बरतते हैं। ये औरत देवयानी है।

    बेदी के असातीरी तख़य्युल की परवाज़ देवयानी के नाम ही से ज़ाहिर है। देवयानी से मअन अज़ली औरत का तसव्वुर उभरता है। देवयानी और यायाती के क़िस्से के यूँ तो कई इस्तिआराती पहलू हैं लेकिन यहाँ उसकी मा'नियाती रम्ज़ियत यही है कि देवयानी जो शंकर की बेटी है, उसे बृहस्पति के बेटे कच का, जिसकी मोहब्बत में वो गिरफ़्तार हो गई थी, श्राप है कि उसका इज़दिवाज़ी /जिन्सी तअल्लुक़ ब्रह्मण से नहीं, खत्री से होगा या'नी उसका जिन्सी सफ़र समाजी मुआहिदों की डगर पर नहीं होगा। ज़ेर-ए-नज़र कहानी में गांधर्व दास भी शायद महज़ इत्तिफ़ाक़ी नाम नहीं। गांधर्वों का गहरा रिश्ता मर्द की अज़ली और जिबिल्ली ख़्वाहिशात से है। वो सूर्य की आग की तज्सीम हैं और legendary तौर पर संगीत, नृत्य और राग रंग के रसिया बताए गए हैं। इंद्र की महफ़िलें गांधर्व सजाते हैं और तमाम अप्सराएं उनकी महबूबाएँ हैं।

    गांधर्वों के ब्रह्मा की नाक या'नी ख़ालिक़ की साँस से या अरिष्ठा के बत्न से पैदा होने के बारे में मुख़्तलिफ़ रिवायतें हैं, लेकिन इतनी बात तमाम रिवायतों में मुश्तरक है कि गांधर्व जिन्सी-ओ-माद्दी लज़्ज़तों के पैकर हैं, सोम रस या'नी ज़िंदगी और सेहत-ओ-क़ुव्वत का रस उन्हीं ने बनाया और उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी औरत है। गांधर्व दास और देवयानी का तअल्लुक़ ज़ेहन को औरत-मर्द के अज़ली रिश्ते की तरफ़ मोड़ देता है। देवयानी अपनी सहेली सृष्ठा से अपनी बे-इज़्ज़ती का बदला लेने के लिए उसे अपनी मुलाज़िमा तो बना लेती है लेकिन यायाती को उसी सृष्ठा से मोहब्बत हो जाती है और उसकी हवस इतनी बढ़ती है कि वो अपने बेटों से जवानी उधार ले लेकर हज़ार बरस तक जवान रहता है और जिस्मानी और माद्दी लज़्ज़तों से लुत्फ़-अंदोज़ होता है। देवयानी अगरचे उम्र में गांधर्व दास की बेटी से भी छोटी है, लेकिन गांधर्व दास उम्र के ज़वाल की मंज़िल में भी उससे तमाम रिश्तों की लज़्ज़तों का कस्ब-ए-फ़ैज़ करता है।

    मेरे पिता दर-अस्ल औरत की जात ही से प्यार करते हैं। मालूम होता है, जैसे उन्होंने प्रकृति के चितवन देख लिए हैं, जिनके जवाब में वो मुस्कुराते हैं और कभी-कभी बीच में आँख भी मार देते हैं। उन्हें शब्द बेटी, बहू, भाबी, चाची, लल्ली, मुनिया सब अच्छे लगते हैं। वो बहू की कमर में हाथ डाल कर उसके गाल भी चूम लेते हैं और यूँ क़ैद में आज़ादी पा लेते हैं और आज़ादी में क़ैद।

    देवयानी की एक सतह ये है कि वो प्रकृति है और गांधर्व दास पुरुष। देवयानी या'नी प्रकृति पुरुष के मुक़ाबले में हमेशा नौ-ख़ेज़ रहती है। बेदी कहते हैं देवयानी बचपन ही से आवारा हो गई थी। जब से उसका बाप मरा था तब से वो घबरा कर एक मर्द से दूसरे, दूसरे से तीसरे के पास जाती है। उसका बदन टूट-टूट जाता था, लेकिन रूह थी कि थकती ही थी... देवयानी को दर अस्ल बाप की तलाश थी।

    बेदी की कहानी उसी चौंका देने वाले एहसास के साथ मुकम्मल होती है कि अस्ल रिश्ता एक ही है, ख़ल्क़ करने के process का, जिसका दूसरा रुख़ अपनाना और क़ुबूलना है। यही रिश्ता पुरुष और प्रकृति का है। ख़ुदा और ख़ुदा के रिश्ते का जो मसीही इस्तिआरा कहानी के शुरू में उभरा था, इख़्तिताम तक पहुँचते-पहुँचते अपने फैलाव और अटकाव के साथ पूरी तरह सामने जाता है, क्योंकि दुरवे का वर्कस मैनेजर फ़िलिप कैथोलिक है। ख़ुदा और ख़ुदा के बेटे का मुक़द्दस आबाई रिश्ता तो उसकी समझ में आता है, लेकिन उसका ज़ेहन ऐसे किसी आबाई तसव्वुर को क़ुबूल नहीं कर सकता जिसकी तकमील के लिए जिन्स या'नी देवयानी के वुजूद की इतनी ही ज़रूरत हो जितनी ख़ुदा की। गुनाह-आलूद जिन्स को तक़द्दुस का दर्जा सिर्फ़ हिंदुस्तानी रिवायत में हासिल है और तक़द्दुस भी ऐसा जो ख़ुदा या'नी आबाई बाप का हिस्सा है।

    चुनाँचे गांधर्व दास पुरुष है और देवयानी प्रकृति, अज़ली औरत, अज़ली माँ, मरियम या'नी वो मरियम जो पुरुष और प्रकृति के रिश्ते में प्रकृति है और तख़्लीक़ का सर-चश्मा है। रिश्ता सिर्फ़ एक है। उसके तमाम दूसरे रूप हमारे इम्रानियाती निज़ाम और फ़लसफ़ों की बनाई हुई क़ैदें हैं। मेरा बेटा वो भी बाप है। तभी तो बेदी कहते हैं, तुम इंसान को समझने की कोशिश करो, सिर्फ़ महसूस करो। दुरवे समझने-सोचने के फेर में नहीं पड़ता। वो महसूस करता है। उसको आँख मिलाने की हिम्मत ही नहीं पड़ती। वो बस अपना लेता है। अपनाने और क़ुबूलने का ये अमल ही ए'तिक़ाद है और उसी दौलत से सरशार होकर दुरवे कहता है कि जब से उसने गांधर्व दास को बाप किया है या'नी क़ुबूला है तब से गांधर्व दास की निगाहों के मर्म से उसे कितनी शांति कितनी ठंडक मिलती है। वो जो हर वक़्त एक बे-नाम डर से काँपता रहता था, अब नहीं काँपता। उसे हर वक़्त इस बात से तसल्ली रहती है... वो तो है...

    गोया रिश्तों के नाम इंसान के बनाए हुए ढ़कोसले हैं, रिश्ता सिर्फ़ एक या'नी अपनाने या क़ुबूलने का है। इसी से ज़िंदगी में सुख शांति के दरीचे खुलते हैं और ठंडक मिलती है। बेदी का ये इम्तियाज़ यहाँ भी क़ाइम है कि आम क़ारी के लिए कहानी की वाक़िआती सतह पर दिलचस्पी का ख़ासा सामान मौजूद है लेकिन कहानी का फ़िक्री और इस्तिआराती निज़ाम भी अपनी जगह पर है। अगरचे इससे लुत्फ़-अंदोज़ होने के लिए ज़ौक़-ओ-ज़र्फ़ की और ज़ेहन से काम लेने की ज़रूरत है।

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