फ़िराक़-गोरखपुरी: कहाँ का दर्द भरा था तेरे फ़साने में
फ़िराक़ गोरखपुरी हमारे अहद के उन शायरों में से थे जो कहीं सदियों में पैदा होते हैं। उनकी शायरी में हयात-ओ-कायनात के भेद भरे संगीत से हम-आहंग होने की अजीब-ओ-ग़रीब कैफ़ियत थी। उसमें एक ऐसा हुस्न, ऐसा रस और ऐसी लताफ़त थी जो हर शायर को नसीब नहीं होती। फ़िराक़ ने नज़्में भी कहीं और रूबाइयाँ भी, लेकिन वो बुनियादी तौर पर ग़ज़ल के शायर थे। हिंदुस्तानी लहजा उर्दू शायरी में पहले भी था, फ़िराक़ का कारनामा ये है कि उन्होंने ख़ुदाए सुख़न मीर तक़ी मीर की शे'री रिवायत के हवाले से इसकी बाज़याफ़्त की और सदियों की आर्याई रूह से हम-कलाम होकर उसे तख़्लीक़ी इज़हार की नई सतह दी और आज के इंसान के दिल की धड़कनों को उसमें समो दिया।
रघुपती सहाय 1896 में गोरखपुर में पैदा हुए। तालीम इलाहाबाद से हासिल की। बाद में इंडिया सिविल सर्विस में मुंतख़ब हो गए। चाहते तो डिप्टी कलक्टर बन जाते लेकिन उन्होंने तहरीक-ए-आज़ादी में हिस्सा लेने को तरजीह दी और काँग्रेस में शामिल हो गए। कुछ मुद्दत तक उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के साथ काम किया, जेल भी गए, अंग्रेज़ी में एम. ए. करने के बाद इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी पढ़ाने लगे और यहाँ से 1959 में रिटायर हुए। उनके कलाम के कई मज्मुए शाएअ् हुए जिनमें रूह-ए-कायनात, रम्ज़-ओ-कनायात, ग़ज़लिस्तान, शबनमिस्तान, गुल-ए-नग़्मा और रूप ब-तौर-ए-ख़ास लाइक़-ए-ज़िक्र हैं।
हिंदुस्तान का कौन सा एवार्ड और एज़ाज़ है जो फ़िराक़ को हासिल नहीं हुआ। साहित्य अकादमी एवार्ड उन्हें 1962 में दिया गया था। हुकूमत-ए-हिंद की तरफ़ से उन्हें पद्म भूषण का एज़ाज़ भी अता हुआ। बाद में हिंदुस्तानी अदबीयात का सबसे बड़ा एज़ाज़ ज्ञान पीठ एवार्ड भी उनको पेश किया गया। इंतिक़ाल से चंद महीने पहले ग़ालिब एवार्ड लेने के लिए वो दिल्ली तशरीफ़ लाए थे, उसके बाद इलाज-मुआलिजे के लिए दिल्ली ही में रुक गए और यहीं 3 मार्च 1982 को उनका इंतिक़ाल हुआ।
फ़िराक़ ने उर्दू की इश्क़िया शायरी को एक आफ़ाक़ी गूँज दी। उनकी शायरी में इंसानी तहज़ीब की सदियाँ बोलती हैं। वो अंग्रेज़ी के रूमानी शायरों वर्ड्स वर्थ, शैली, कीट्स से मुतअस्सिर थे तो दूसरी तरफ़ संस्कृत काव्य की रिवायत का भी उनके एहसास-ए-जमाल पर गहरा असर था। उनका कहना था कि शायर के नग़्मे वो हाथ हैं जो रह-रह कर आफ़ाक़ के मंदिर की घंटियाँ बजाते हैं। फ़िराक़ के बुनियादी मौज़ूआत हुस्न-ओ-इश्क़, इंसानी तअल्लुक़ात की धूप छाँव, फ़ित्रत और जमालियात हैं। वो जज़्बात की थरथराहटों, जिस्म-ओ-जमाल की लताफ़तों और निशात-ओ-दर्द की हल्की गहरी कैफ़ियतों के शायर हैं। उनकी आवाज़ में एक ऐसा लोच, नर्मी और धीमा-पन है जो पूरी उर्दू शायरी में कहीं और नहीं मिलता।
किस लिए कम नहीं है दर्द-ए-फ़िराक़
अब तो वो ध्यान से उतर भी गए
तुम मुख़ातिब भी हो, क़रीब भी हो
तुमको देखें कि तुमसे बात करें
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
हमसे क्या हो सका मोहब्बत में
ख़ैर तुमने तो बे-वफ़ाई की
ग़रज़ कि काट दिए ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त
वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में
फ़िज़ा तबस्सुम-ए-सुब्हए-बहार थी लेकिन
पहुँच के मंज़िल-ए-जानाँ पे आँख भर आई
बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मालूम
जो तेरे हिज्र में गुज़री वो रात-रात हुई
शाम भी थी धुआँ-धुआँ हुस्न भी था उदास-उदास
दिल को कई कहानियाँ याद सी आके रह गईं
अब दूर आसमान न दौर-ए-हयात है
ऐ दर्द-ए-हिज्र तू ही बता कितनी रात है
हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है
नई-नई सी है कुछ तिरी रह-गुज़र फिर भी
किसका यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्न-ओ-इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी
फ़िराक़ सियासी शायर नहीं थे। उन्हें एक ऐसा आज़ाद-ख़्याल, लिबरल शायर कहा जा सकता है जो इंसान दोस्ती का गहरा एहसास रखता है। उनका कहना था, मेरी कोशिश रही है कि एक बुलंद-तरीन, पाकीज़ा-तरीन और ख़ैर-ओ-बरकत से मामूर कायनात की तख़्लीक़ करूँ और अपनी शायरी के ज़रिए इंसानियत को गहरा और बुलंद बनाऊँ। उनका दिल एक चोट खाए हुए इंसान का दिल था। जमालियाती कैफ़ियतों के साथ दुख की एक धीमी लहर उनकी पूरी शायरी में रवाँ-दवाँ है जो आज की ज़िंदगी की पेचीदगी और आज के इंसान के दर्द-ओ-कर्ब से हम-आहंग है। ये टीस उनके हाँ दब-दब कर उभरती है।
फ़िराक़ दौड़ गई रूह सी ज़माने में
कहाँ का दर्द भरा था मिरे फ़साने में
ये ज़िंदगी के कड़े कोस याद आता है
तिरी निगाह-ए-करम का घना-घना साया
ज़िंदगी क्या है, आज उसे ऐ दोस्त
सोच लें और उदास हो जाएँ
इस दौर में ज़िंदगी बशर की
बीमार की रात हो गई है
देख रफ़्तार-ए-इंक़लाब-ए-फ़िराक़
कितनी आहिस्ता और कितनी तेज़
ये निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ भी क्या जादू है
देखने वाले तिरे जी न सकें मर न सकें
जीने वालो ये भी जीने में है कोई जीना
कुछ भी कर धर न सकें मिट न सकें मर न सकें
ऐ मा'नी-ए-कायनात मुझमें आ जा
ऐ राज़-ए-सिफ़ातओ-ज़ात मुझमें आ जा
सोता संसार झिलमिलाते तारे
अब भीग चली है रात मुझमें आ जा
किसी की बज़्म-ए-तरब में हयात बटती थी
उम्मीदवारों में कल मौत भी नज़र आई
ग़ज़लों और नज़्मों के अलावा फ़िराक़ ने रूबाइयों में भी इम्तियाज़ हासिल किया। रूप के नाम से उनकी रूबाइयों का एक मज्मूआ अलग से शाएअ् हुआ था जो बेहद मक़बूल हुआ। उन रूबाइयों में संस्कृत के श्रृंगार रस और हिन्दी के रीति काल की शायरी का असर है। घरेलू मोहब्बत के ऐसे मुरक़्क़ेए इससे पहले उर्दू शायरी में न थे। इनमें हिंदुस्तानी औरत जिस्म-ओ-जमाल की तमाम रा'नाइयों के साथ और घर परिवार तमाम लताफ़तों के साथ सामने आता है। औरत का कुँवार-पन, ब्याहता बीवी का सुघड़ापा, माँ का प्यार दुलार इन रूबाइयों में तरह-तरह से बयान हुआ है। उनमें ममता की कसक भी है और जिस्म-ओ-जमाल की रंगीनियों से आबाद आनंद और रस भरी कैफ़ियतें भी,
दोशीज़ा फ़िज़ा में लहलहाया हुआ रूप
आईना-ए-सुब्ह में छलकता हुआ रूप
ये नर्म निखार, ये सजल धज, ये सुगंध
रस में कुँवारे-पन के डूबा हुआ रूप
हर जलवे से इक दर्स-ए-नमू लेता हूँ
छलके हुए सद-जाम-ओ-सुबू लेता हूँ
ऐ जान-ए-बहार तुझ पे पड़ती है जब आँख
संगीत की सरहदों को छू लेता हूँ
आँसू भरे-भरे वो नैना रस के
साजन कब ऐ सुखी थे अपने बस के
ये चाँदनी रात ये बिरह की पीड़ा
जिस तरह उलट गई हो नागन डस के
मोती की कान रस का सागर है बदन
दर्पन आकास का सरासर है बदन
अंगड़ाई में राज हँस तोले हुए पर
या दूध भरा मानसरोवर है बदन
ढ़लकता आँचल दमकते सीने पे अलक
पलकों की ओट मुस्कुराहट की झलक
वो माथे की कहकशाँ वो मोती भरी माँग
वो गोद में नन्हा सा हुमकता बालक
है ब्याहता पर रूप अभी कुंवारा है
माँ है पर अदा जो भी है दोशीज़ा है
वो मोह भरी, मांग भरी, गोद भरी
कन्या है, सुहागन है, जगत माता है
फ़िराक़ ने तन्क़ीद में भी ऐसे नुक़ूश छोड़े जो बराबर उनकी याद दिलाते रहेंगे। अंदाज़े के मज़ामीन में उन्होंने कई क्लासिकी शायरों की बाज़याफ़्त की और अपनी तअस्सुराती तन्क़ीद के ज़रिए उनकी क़दर-संजी में अहम किरदार अदा किया। उर्दू की इश्क़िया शायरी पर फ़िराक़ की किताब क्लासिक का दर्जा रखती है। उनके ख़ुतूत का मज्मूआ मन आनम पाकिस्तान से शाएअ् हुआ था। पाकिस्तान में उनके शैदाइयों का बहुत बड़ा हलक़ा है। नासिर काज़मी की ज़बरदस्त मक़बूलियत से जिस नई ग़ज़ल को फ़रोग़ हासिल हुआ, उसका सीधा सच्चा रिश्ता मीर तक़ी मीर की रिवायत के वास्ते फ़िराक़ से है।
ज़बान के बारे में फ़िराक़ का एक ख़ास नज़रिया था। उनकी शायरी ने अपना रस जिस खड़ी बोली के वास्ते से प्राकृतों की सदियों पुरानी रिवायत से लिया था। वो फ़ारसी जानते थे और उनके यहाँ फ़ारसी तरकीबों का ख़ासा इस्तेमाल मिलता है। लेकिन वो खड़ी के ठेठ ठाट और उर्दू के उस उर्दू-पन पर जान देते थे जो सदियों के तहज़ीबी लेन-देन और लिसानी और तारीख़ी अमल से वुजूद में आया है। वो मस्नूई ज़बान के इसलिए ख़िलाफ़ थे ताकि हिन्दी वाले उर्दू के लिसानी तमव्वुल और जमालियाती हुस्न को पहचानें, एक ख़ूबसूरत हिंदुस्तानी ज़बान के तौर पर उसकी क़दर करें और क़ौमी ज़बान हिन्दी की तश्कील में इससे मदद लें।
उनका कहना था कि उर्दू ने सात सौ आठ सौ बरस के समाजी, तारीख़ी अमल में खड़ी को निखारा, बनाया और सँवारा है और उसे शाइस्ता-ओ-शुस्ता रूप दिया है। इसलिए उर्दू के रोज़-मर्रा और लिसानी उसूलों की ख़िलाफ़-वर्ज़ी ख़ुश-मज़ाक़ी के ख़िलाफ़ है। फ़िराक़ की उर्दू ऐसी हिंदुस्तानी है जो आसानी से हिन्दी भी कही जा सकती है। उनके लहजे में एक ऐसी खनक और घुलावट है कि बात फ़ौरन दिल में उतर जाती है। फ़िराक़ के पाए के शायर कहीं सदियों में पैदा होते हैं। बेशक ऐसे मुन्फ़रिद और बा-कमाल शायर के उठ जाने से उर्दू शायरी का एक दौर ख़त्म हो गया। फ़िराक़ अब हममें नहीं लेकिन उनकी आवाज़ फ़िज़ाओं में हमेशा गूँजती रहेगी।
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