Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

ग़ालिब, भोपाल और अप्रैल फ़ूल

रिज़्वानुद्दीन फ़ारूक़ी

ग़ालिब, भोपाल और अप्रैल फ़ूल

रिज़्वानुद्दीन फ़ारूक़ी

MORE BYरिज़्वानुद्दीन फ़ारूक़ी

    मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू फ़ारसी ज़बान-ओ-अदब के एक ऐसे मीनारा-ए-सद-रंग हैं जिनके तमाम रंगों को अभी तक समेटा नहीं जा सका और जब भी हम उनकी शख़्सियत और फ़न की गिरहें खोलते हैं, एक नए रंग से हमारा साबिक़ा पड़ता है और हम हैरत-ज़दा रह जाते हैं कि यारब ये रंग भी ख़ाकिस्तर-ए-ग़ालिब में मौजूद है। उन्होंने अपने शे'री सरोकार से सिर्फ़ अपने अह्द को मुतअस्सिर किया बल्कि बाद के ज़मानों में भी वो पूरी अदबी बिसात पर ग़ालिब रहे। यही वज्ह है कि उनकी शख़्सियत और उनके कलाम की ख़ुशबू उनके इब्तिदाई दौर से ही दिल्ली की हदों से निकल कर दूर-दूर तक पहुँच चुकी थी चुनाँचे भोपाल में भी उनके क़द्र-दानों का एक वसी'अ हल्क़ा था।

    रियासत-ए-भोपाल अपनी तश्कील के अव्वलीन दौर से ही अहल-ए-इल्म-ओ-अदब की क़द्र-दान रही है। ख़ुसूसन नवाब सिद्दीक़ हसन ख़ाँ का दौर भोपाल की इल्मी वज़ाहत का इन्तिहाई सुनहरा दौर था। क़ालल्लाहु और क़ालर-रसूल स.अ. के अस्बाक़ के दरमियान मीर-ओ-मुसहफ़ी और ग़ालिब-ओ-मोमिन की शे'री इश्वा-तराज़ियों के रंग भी फ़िज़ा में बिखरे हुए थे ख़ुसूसन ग़ालिब के क़द्र-दानों का एक वसीअ हल्क़ा यहाँ मौजूद था। यही वज्ह है यहाँ ग़ालिब की इब्तिदाई दौर का कलाम उस वक़्त गया था जब वो जवानी की सरहदों से गुज़र रहे थे। कहा जाता है कि ग़ालिब को नवाब सिकन्दर जहाँ बेगम ने उस वक़्त भोपाल आने की दावत दी थी जब 1857ई. के बाद दिल्ली उजड़ चुकी थी और ग़ालिब इन्तिहाई ज़ह्नी और माली इन्तिशार का शिकार थे। लेकिन इसकी भी तस्दीक़ नहीं हो पाई कि आया भोपाल से सरकारी या ज़ाती तौर पर नवाबीन-ए-भोपाल ने उनको अपने यहाँ बुलाने की दावत दी हो लेकिन ये सच है कि उनके दो क़लमी दवावीन यहाँ मौजूद थे जिन में एक नवाब फ़ौजदार मुहम्मद ख़ाँ की ज़ाती लाइब्रेरी में उनकी मोहर के साथ मौजूद था जिसे पहले-पहल उन्नीसवीं सदी की पहली दहाई में अबदुर्रहमान बिजनौरी ने दरियाफ़्त किया और उसकी इशाअत का इरादा किया मगर मलिकुल-मौत ने उनको इसकी मोहलत दी कि वो इस काम को अंजाम दे सकें, उनके इंतिक़ाल के बाद मौलवी अनवारुल-हक़ ने नुस्ख़ा-ए-हमीदिया के नाम से उसे शाए किया। इस नुस्खे़ के सिलसिले में अब तक बहुत कुछ लिखा जा चुका है और अब तो ये क़लमी नुस्ख़ा अपनी अस्ल हालत में भी शाए हो चुका है। इस दीवान के अलावा प्रोफ़ेसर अब्दुल-क़वी दसनवी ने भी ग़ालिब और भोपाल के उन्वान से एक किताब तर्तीब दी है जो यक़ीनन अहम है इस किताब में ग़ालिबियात के तहत जो उन्वानात क़ायम किए गए हैं वो रियासत-ए-भोपाल से ग़ालिब के तअल्लुक़ को समझने लिए अहम माख़िज़ात हैं।

    इस में एक उन्वान भोपाल में ग़ालिब के आने की दावत के सिलसिले में भी है। इसी मज़्मून में प्रोफ़ैसर अब्दुल-क़वी दसनवी ने अपनी तहक़ीक़ के मुताबिक़ ये इन्किशाफ़ भी किया है कि नवाब सिकन्दर जहाँ बेगम वक़्तन-फ़वक़्तन अपने मामूँ मियाँ फ़ौजदार मुहम्मद ख़ाँ के ज़रिए ग़ालिब की माली इम्दाद करती रहती थीं। अब्दुल-क़वी दसनवी ने ग़ालिब के भोपाली शागिर्दों की एक फ़ेहरिस्त भी दी है जिसमें 11 हज़रात के नाम इस तरह दर्ज हैं :

    मौलाना मोहम्मद अब्बास रिफ़'अत शेरवानी

    नवाब यार मुहम्मद ख़ाँ शौकत

    हाफ़िज़ मोहम्मद ख़ाँ शहीर रामपूरी

    मुंशी इरशाद अहमद मयकश देहलवी

    हकीम मुहम्मद मा’शूक़ अली ख़ाँ जौहर शाहजहाँपूरी

    हकीम अशफ़ाक़ हुसैन ज़की मारहरवी

    मिर्ज़ा यूसुफ़ अली ख़ाँ अज़ीज़ बनारसी

    सय्यद अहमद हसन अर्शी कन्नौजी

    मोहम्मद हुसैन तमन्ना मुरादाबादी

    विलायत अली ख़ाँ अज़ीज़ सफ़ीपूरी

    शरीफ़ हसन देहलवी

    इस फ़ेहरिस्त में चन्द नाम मुहक़्क़िक़ीन ने चंद और नामों का इज़ाफ़ा भी किया है।

    इस सिलसिले में हतमी तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता कि ग़ालिब के वाक़ई कितने शागिर्द भोपाल में थे लेकिन इसमें कोई कलाम नहीं कि शागिर्दों के अलावा भी उनके मद्दाहों का एक हल्क़ा यहाँ मौजूद था। जिसने अपने बाद वाली नस्लों को भी मुतअस्सिर किया जिसकी एक मिसाल सुहा मुजद्ददी भी हैं जिन्होंने सिर्फ़ ये कि ग़ालिब की ज़मीनों में ग़ज़लें कहीं बल्कि उनके कलाम की शरह मतालिब-उल-ग़ालिब भी लिखी जो आज भी क़द्र की निगाह से देखी जाती है।

    यहाँ उस ग़ज़ल का ज़िक्र ख़ास तौर पर करना चाहूँगा जो मौलवी मोहम्मद इब्राहीम ख़लील के ज़ोर-ए-क़लम का नतीजा थी और जिसे वाक़ई मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल समझ कर अच्छे-अच्छे धोका खा गए हुआ यूँ कि एक बार अप्रैल 1938ई. में मॉडल स्कूल भोपाल के हेड मौलवी मोहम्मद इब्राहीम ख़लील ने ग़ालिब के नाम से एक बड़ी मुरस्सा ग़ज़ल कह कर अपने स्कूल के मैग्ज़ीन गौहर-ए-तालीम में शाए कर दी थी। जिसमें अप्रैल-फ़ूल की सुर्ख़ी के साथ नीचे ये नोट दर्ज था।

    माख़ूज़ अज़ कुतुब-ख़ाना-ए-नव्वाब फ़ौजदार मोहम्मद ख़ाँ, बोसीदा औराक़ में ग़ालिब की ये ग़ैर-मत्बूआ ग़ज़ल मिली है जिसे आख़िरी तबर्रुकात के तौर पेश किया जा रहा है।

    इस मैग्ज़ीन से ये ग़ज़ल ‘‘दीन-ओ-दुनिया’’, दिल्ली में इस तम्हीद के साथ शाए हुई।

    ‘‘फ़सीह-उल-मुल्क ख़ुदा-ए-सुख़न नवाब मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ाँ ग़ालिब रहमतुल्लाह अलैह की एक ग़ैर-मत्बूआ ग़ज़ल वो मुतबर्रक रुहानी तोहफ़ा जो अब तक मिर्ज़ा ग़ालिब के किसी दीवान या ज़मीमा में शाए नहीं हुआ और जो अमीर-उल-उमरा नवाब यार मोहम्मद ख़ाँ मरहूम के कुतुब-ख़ाना-ए-क़दीम से ब-ज़रीया-ए-ख़ास हासिल कर के दीन-ओ-दुनिया में शाए किया जा रहा है फिर अप्रैल 1939के हुमायूँ, लाहौर ने इस ग़ज़ल को शाए किया। और इसी पर्चे से मालिक राम ने इसे नक़्ल किया और इसके मक़्ते को ‘‘ज़िक्र-ए-ग़ालिब’’ के दूसरे ऐडीशन 1950ई. और तीसरे एडीशन 1955ई. में इस्तिमाल किया और अपने मुरत्तिबा ‘‘ दीवान-ए-ग़ालिब’’ (मत्बूआ 1957ई). में शामिल किया। लेकिन बाद में ये राज़ फ़ाश हुआ कि ये ग़ज़ल ग़ालिब की नहीं बल्कि अप्रैल फ़ूल का तोहफ़ा है। जिसने अपनी सह्र-कारियों से मुहक़्क़िक़ीन-ए- ग़ालिब के होश उड़ा दिए थे जिनमें दो बड़े नाम माहिरीन-ए-ग़ालिब मालिक राम और इम्तियाज़ अली अर्शी के हैं जिन्होंने अपने दवावीन-ए-ग़ालिब में इस ग़ज़ल को ग़ालिब की ग़ज़ल समझ कर शाए किया। इस हक़ीक़त का इन्किशाफ़ डॉक्टर ज्ञान चंद ने अपने मज़्मून ग़ालिब और भोपाल (उर्दू-ए-मुअल्ला, दिल्ली। ग़ालिब नम्बर) से किया।

    वो ग़ज़ल ये है,

    भूले से काश वो इधर आएँ तो शाम हो

    क्या लुत्फ़ हो जो अब्लक़-ए-दौराँ भी राम हो

    ता-गर्दिश-ए-फ़लक से यूँही सुब्ह-ओ-शाम हो

    साक़ी की चश्म-ए-मस्त हो और दौर-ए-जाम हो

    बे-ताब हूँ बला से, कन-अँखियों से देख लें

    ख़ुश-नसीब! काश क़ज़ा का पयाम हो

    क्या शर्म है? हरीम है, महरम है राज़दार

    मैं सर-ब-कफ़ हूँ, तेग़-ए-अदा बे-नियाम हो

    मैं छेड़ने को, काश उसे घूर लूँ कहीं

    फिर शोख़-ए-दीदा बर-सर-ए-सद-इन्तिक़ाम हो

    वो दिन कहाँ कि हर्फ़-ए-तमन्ना हो लब-शनास

    नाकाम, बद-नसीब, कभी शाद-काम हो

    घुल-मिल के चश्म-ए-शौक़ क़दम-बोस ही सही

    वो बज़्म-ए-ग़ैर ही में हों, पुर-इज़्दहाम हो

    इतनी पियूँ कि हश्र में सरशार ही उठूँ

    मुझ पर जो चश्म-ए-साक़ी-ए-बैत-उल-हराम हो

    पीरान-ए-साल ग़ालिब-ए-मैकश करेगा क्या?

    भोपाल में मज़ीद जो दो दिन क़ियाम हो

    इस ग़ज़ल के हवाले से मारूफ़ मुहक़्क़िक़-ओ-नाक़िद डॉक्टर अबू मोहम्मद सहर रक़म-तराज़ हैं कि अगर मुझसे कोई पूछे कि उर्दू तहक़ीक़ का सबसे इबरत-अंगेज़ वाक़िआ क्या है तो मैं कहूँगा कि दीवान-ए-ग़ालिब मुरत्तिबा मालिक राम में उस ग़ज़ल की शुमूलियत जिसका मक़्ता है:

    पीरान-ए-साल ग़ालिब मैकश करेगा क्या

    भोपाल में मज़ीद जो दो दिन क़याम हो

    बहर-हाल ये लतीफ़ा अपनी जगह लेकिन इस से ये बात भी सामने आई कि कभी-कभी हमारी मामूली सी शोख़ी या अदम-वाक़्फ़ियत भी तहक़ीक़ को बेहद मुतअस्सिर करती है और यही ग़लत तहक़ीक़ तारीख़ का सच बन जाती है इस हवाले से मैं कहना ये चाहता हूँ कि भोपाल से ग़ालिब की जो भी निस्बतें हैं उस में अभी मज़ीद तहक़ीक़ की गुंजाइश है कि तहक़ीक़ का दर कभी बन्द नहीं होता है।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए