इंतिज़ार हुसैन का फ़न: मुतहर्रिक ज़हन का सय्याल सफ़र
इंतिज़ार हुसैन उस अह्द के अहम तरीन अफ़साना-निगारों में से हैं। अपने पुर-तासीर तम्सीली उस्लूब के ज़रिए उन्होंने उर्दू अफ़साने को नए फ़न्नी और मा'नियाती इम्कानात से आशना कराया है और उर्दू अफ़साने का रिश्ता ब-यक-वक़्त दास्तान, हिकायत, मज़हबी रिवायतों, क़दीम असातीर और देवमाला से मिला दिया है। उनका कहना है कि नॉवेल और अफ़साने की मग़रिबी हैअतों की ब-निस्बत दास्तानी अंदाज़ हमारे इज्तिमाई ला-शुऊर और मिज़ाज का कहीं ज़्यादा साथ देता है।
दास्तानों की फ़िज़ा को उन्होंने नए एहसास और नई आगही के साथ कुछ इस तरह बरता है कि अफ़साने में एक नया फ़लसफ़ियाना मिज़ाज और एक नई असातीर-ओ-दास्तानी जिहत सामने आ गई है। वो फ़र्द-ओ-समाज, हयात-ओ-कायनात और वुजूद की नौईयत-ओ-माहियत के मसाइल को रूमानी नज़र से नहीं देखते, न ही उनका रवैया महज़ अक़्ली होता है, बल्कि उनके फ़न में शुऊर-ओ-ला-शुऊर दोनों की कार फ़रमाई मिलती है और उनका नुक़्ता-ए-नज़र बुनियादी तौर पर रूहानी और ज़ेहनी है। वो इंसान के बातिन में सफ़र करते हैं, निहाँ ख़ाना-ए-रूह में नक़ब लगाते हैं और मौजूदा दौर की अफ़्सुर्दगी, बे-दिली और कश्मकश को तख़्लीक़ी लगन के साथ पेश करते हैं। अहद-नामा-ए-क़दीमओअसातीरओजातक और देवमाला की मदद से उनको इस्तिआरों, अलामतों और हिकायतों का ऐसा ख़ज़ाना हाथ आ गया है जिससे वो पेचीदा से पेचीदा ख़्याल और बारीक से बारीक एहसास को सहूलत के साथ पेश कर सकते हैं।
उनके उस्लूब में ऐसी सादगी और ताज़गी है जिसकी कोई नज़ीर इससे पहले उर्दू अफ़साने में नहीं। बर्रे सग़ीर में कहानी की रिवायत कथा की रिवायत है। दास्तान ने भी इस लिहाज़ से उसी रिवायत को आगे बढ़ाया था कि वो सुनने-सुनाने की चीज़ है। इसके बर-ख़िलाफ़ बीसवीं सदी में अफ़साने का सारा इर्तिक़ा एक तहरीरी सिन्फ़ का इर्तिक़ा है। ये लिखे और पढ़े जाने की चीज़ होकर रह गया था। इंतिज़ार हुसैन ने बासिरा के साथ सामेआ को फिर से बेदार किया है और कहानी की रिवायत में सुनने और सुनाए जाने वाली सिन्फ़ के लुत्फ़ का अज़-सर-ए-नौ इज़ाफ़ा किया है। ये सिर्फ़ दास्तान के उस्लूब ही की तज्दीद नहीं बल्कि कथा की हज़ारों साल पुरानी रिवायत की तज्दीद भी है। इंतिज़ार हुसैन की बेश्तर कहानियों में कथा का लुत्फ़ है और इस लिहाज़ से वो इस दौर के क़ाबिल-ए-तवज्जो कथा-कार हैं।
इंतिज़ार हुसैन डिबाई ज़िला बुलंद शहर में पैदा हुए। तालीम मेरठ में हासिल की और तक़सीम के वक़्त पाकिस्तान चले गए, अब तक उनके नॉवल चाँद गहन और बस्ती (1980) एक नावलेट दिन और दास्तान (1959) और अफ़सानों के चार मज्मुए गली कूचे (1951) कंकरी (1957) आख़िरी आदमी (1967) और शहर-ए-अफ़सोस (1972) शाएअ् हो चुके हैं और पाँचवाँ मज्मूआ कछुए अन-क़रीब शाया होने वाला है। शुरू में वो माज़ी की यादों के सीधे-सादे अफ़साने लिखते थे जो पहले दो मज्मूओं गली-कूचे और कंकरी में मिलते हैं। उनका जदीद दौर 1960 से एक-दो बरस पहले शुरू होता है। इस दौर की कहानियाँ उन्होंने आख़िरी आदमी में जमा कर दी हैं। इसका एहसास कम लोगों को है कि इंतिज़ार हुसैन समाजी-सियासी नौईयत की कहानियाँ भी लिखते रहे हैं और ये वाक़िआ है कि शहर-ए-अफ़सोस की ज़ियादा-तर कहानियाँ उसी नौईयत की हैं। इस लिहाज़ से देखा जाए तो ये मज्मुए तीन अलग-अलग अदवार की नुमाइंदगी करते हैं।
पहला गली-कूचे और कंकरी के अफ़सानों का है जो माज़ी की यादों और तहज़ीबी मुआशरती रिश्तों के एहसास पर मब्नी है। दूसरा दौर आख़िरी आदमी के अफ़सानों का है, जिसमें उनका बुनियादी साबिक़ा concern इंसानी वुजूदी human existential नौईयत का है। उसी तरह तीसरा दौर शहर-ए-अफ़सोस के अफ़सानों का है जो ज़्यादा तर समाजी सियासी नौईयत के हैं और जिनमें गहरा समाजी तंज़ है। पहले और दूसरे दौर के दरमियान तो ज़मानी हद्द-ए-फ़ासिल मौजूद है, अलबत्ता दूसरे और तीसरे दौर में ऐसा कोई फ़र्क़ मालूम नहीं होता। ये मुम्किन है कि समाजी-सियासी नौईयत के अफ़साने सरइली अफ़सानों के पहलू-ब-पहलू लिखे गए हों और उन्हें अंदरूनी मौज़ूआती वहदत की वजह से बाद में शाए किया गया हो, ताहम दोनों की नौईयत में इतना वाज़ेह फ़र्क़ मौजूद है कि उन्हें अलग-अलग रुजहान क़रार दिया जा सकता है।
इन तीन बुनियादी रुजहानात के अलावा इंतिज़ार हुसैन के यहाँ चौथा रुजहान उन अफ़सानों में उभरता दिखाई देता है जो शहर-ए-अफ़सोस के बाद इधर-उधर रसाइल-ओ-जराइद में शाएअ् हुए हैं और अभी यक्जा तौर पर किताबी सूरत में मंज़र-ए-आम पर नहीं आए। उन ताज़ा अफ़सानों के मौज़ूआत या तो नफ़सियाती हैं या हिंदुस्तानी देवमाला और मुख़्तलिफ़ुन्नौअ् असातीरी रिवायतों को बाहम आमेज़ करके कोई बुनियादी बात कहने की कोशिश की गई है, इस ताज़ा रुजहान को भी नज़र में रखें तो चार अलग-अलग रुजहान या इंतिज़ार हुसैन के फ़न की चार अलग-अलग जिहात क़रार दी जा सकती हैं। ज़ैल के मज़्मून में जो इंतिज़ार हुसैन की अफ़साना-निगारी के बारे में है, इन चारों अदवार या जिहात को फ़र्दन-फ़र्दन लिया जाएगा। अव्वलीन अफ़सानों पर ब-वुजूह ज़ोर नहीं दिया गया, अलबत्ता बाद के रुजहान पर चूँकि अभी वो तवज्जो नहीं की गई जो इंतिज़ार हुसैन के फ़न का हक़ है, इसलिए इनसे बहस करते हुए कोशिश की गई है कि तमाम ज़रूरी फ़न्नी और मा'नियाती उमूर नज़र में आ जाएँ और इंतिज़ार हुसैन के फ़न्नी-ओ-फ़िक्री सफ़र की मुकम्मल तस्वीर सामने आ जाए।
(1)
इंतिज़ार हुसैन का बुनियादी तजुर्बा हिजरत का तजुर्बा है। तख़्लीक़ी एतिबार से हिजरत के एहसास ने इंतिज़ार हुसैन के यहाँ एक यास-अंगेज़ दाख़िली फ़िज़ा की तश्कील की है। हिजरत का एहसास अगरचे इंतिज़ार हुसैन के फ़न का अहम-तरीन मुहर्रिक है और उसकी मिसालें गली-कूचे और कंकरी के बाद के मज्मूओं में हत्ता कि ताज़ा-तरीन नॉवेल बस्ती और अफ़साना किश्ती तक में मिल जाती हैं और हिजरत का ज़ाइक़ा जगह-जगह महसूस होता है, लेकिन जिस तरह का इज़हार नॉवेल चाँद-गहन और अव्वलीन मज्मूओं गली-कूचे और कंकरी की कहानियों में हुआ है, बाद में इसकी नौईयत बदल गई है। यानी वही बात जो दर्द की टीस बन कर उभरी थी, अब एक धीमी आग बन कर पूरे वुजूद में गुदाज़ पैदा कर देती है।
इंतिज़ार हुसैन का फ़िक्शन उन लोगों की ज़िद है जिन्होंने अदब के इस तसव्वुर के साये में परवरिश पाई थी कि इंसानी ज़िंदगी ख़ारिजी रिश्तों से इबारत है। इंतिज़ार हुसैन का बुनियादी तसव्वुर ये है कि आदमी सिर्फ़ इतना कुछ नहीं जितना वो नज़र आता है। उसके रिश्ते ख़ारिज से ज़ियादा उसके बातिन में फैले हुए हैं, नीज़ ये कि मुआशरती हक़ीक़त ख़ुद-मुख़्तार हक़ीक़त नहीं है। वो बहुत सी ग़ायब और हाज़िर हक़ीक़तों के गुम-शुदा और नौ-आमदा अवामिल के घाल-मेल से जन्म लेती है। उन्हें शिद्दत से इसका एहसास है कि उनकी ज़ात का कोई हिस्सा कट कर माज़ी में रह गया है और मौजूदा मुआशरे की कोई तस्वीर उस वक़्त तक मुकम्मल नहीं हो सकती जब तक माज़ी के कटे हुए हिस्से को तख़य्युल के रास्ते वापस लाकर ज़ात में न समोया जाए।
वो बार-बार इसरार करते हैं कि ज़माने दो नहीं, यानी हाज़िर और मुस्तक़बिल बल्कि तीन हैं, ये तीन ज़माने जुदा-जुदा हक़ीक़तें नहीं, बल्कि आपस में इस तरह गुथे हुए हैं कि उनकी हद-बंदी नहीं की जा सकती। आदमी ज़ाहिर में साँस लेता है मगर उसकी जड़ें माज़ी में फैली होती हैं। इंतिज़ार हुसैन के फ़िक्शन में माज़ी से मुराद तारीख़, मज़हब, नस्ली असरात, देवमाला, हिकायतें, दास्तानें और अक़ाइद-ओ-तवह्हुमात सब कुछ है। माज़ी की बाज़याफ़्त और जड़ों की तलाश का पेचीदा सवाल इंतिज़ार हुसैन के फ़िक्शन का मर्कज़ी सवाल है।
इंतिज़ार हुसैन मुस्लिम कल्चर के तर्जुमान हैं लेकिन उनका कल्चर का तसव्वुर महदूद नहीं। मज़हब को वो एक दीनी क़दर के साथ-साथ एक तहज़ीबी और मुआशरती क़दर की हैसियत से लेते हैं। उनके अलफ़ाज़ हैं, जिस मज़हब से मेरा तअल्लुक़ है, इससे मुतअल्लिक़ मैंने बहुत सुन रखा है कि वो मिट्टी से बुलंद एक ताक़त है मगर मैं उसे क्या करूँ कि मैं अपने मज़हबी एहसास का तज्ज़िया करता हूँ तो उसकी तह में भी मिट्टी जमी हुई है। ज़ाहिर है कि तहज़ीबी क़दर से कहीं ज़्यादा वो इसके मुआशरती रूप को अहमियत देते हैं। उनका बयान है कि कल्चर ज़मीनी रिश्तों से बे-नियाज़ नहीं होता। एक जगह अपने तम्सीली अंदाज़ में उन्होंने वज़ाहत की है कि वो जीलानी कामरान की तरह नहीं कि तहज़ीबी जड़ों की तलाश के लिए इधर-उधर देखे बग़ैर फ़ौरन मदीने की तरफ़ चल दें। उनके बर-अक्स इस सवाल का जवाब देने के लिए मुम्किन है कि वो पहले राम लीला देखने जाएँ, फिर वहाँ से कर्बला की तरफ़ जाएँ और फिर मक्का जाने की तैयारी करें।
एक और जगह अपने तहज़ीबी मौक़िफ़ की वज़ाहत करते हुए उन्होंने लिखा है, मुझे तो अब कुछ यूँ लगता है कि इस बर्रे सग़ीर में जो सानिहे गुज़रे हैं और जिस तकलीफ़-ओ-अज़ियत में ये सारा इलाक़ा मुब्तिला है, उसकी बुनियादी वजह यही है कि इस बर्रे सग़ीर की तारीख़ जिस तरह बन रही थी और जो तहज़ीब नश्व-ओ-नुमा पा रही थी, इसमें कुछ ताक़तों ने खंडित डाल दी और उस अमल को रोक कर इस पूरे बर्रे सग़ीर को, इसकी पूरी खिल्क़त को एक अज़ाब में मुब्तिला कर दिया। उनके ऐसे बयानात से ज़ाहिर होता है कि वो सदियों के तारीख़ी अमल और तहज़ीब के मुआशरती रूप पर ज़ोर दे रहे हैं, मसलन जब वो ये कहते हैं, इस्लामी रिवायत हो या हिन्दू रिवायत, मैं बहर-हाल क़दामत-पसंद हूँ और तारीख़ी तहक़ीक़ और नफ़्सियात से ज़ियादा इस हक़ीक़त पर ईमान रखता हूँ जिसे जनता के ज़ेहन और तख़य्युल ने जन्म दिया है। तो वो मुआशरती इर्तिबात के अवामी और इंसानी रिश्तों की अहमियत पर ज़ोर देते हुए नज़र आते हैं।
इंतिज़ार हुसैन इस लिहाज़ से मुन्फ़रिद हैं कि उन्होंने अहद-ए-वुस्ता की हिंद इस्लामी तहज़ीब की रूह से हम-कलामी की सतह क़ाइम की है और एक हज़ार बरस से बर्रे सग़ीर के इलाक़ों में मुसलमानों के असरात से जो कल्चर उभरा है, इंतिज़ार हुसैन के यहाँ उसकी भरपूर तख़्लीक़ी तर्जुमानी मिलती है।
इंतिज़ार हुसैन के ज़ियादा-तर अफ़साने उन इंसानों और उन लम्हों को याद करने के अमल से वाबस्ता हैं जिन्हें वक़्त ने दूर कर दिया है। इंतिज़ार हुसैन की दानिस्त में हाफ़िज़ा इन्फ़िरादी और इज्तिमाई तशख़्ख़ुस की बुनियाद है। हाफ़िज़ा न हो तो माज़ी भी नहीं रहता और माज़ी न हो तो बुनियाद और जड़ें कुछ नहीं रहता। गोया ख़ुद हाल की हैसियत एक ग़ैर-मौहूम ग़ुबार से ज़ियादा नहीं। यादों के मानी हैं अपनी ज़ात के अज्ज़ाए तरकीबी की शीराज़ा-बंदी करना, उसे तहज़ीबी इन्फ़िरादियत का वक़ार बख़्शना। इंतिज़ार हुसैन के अफ़साने इस यक़ीन को पेश करते हैं कि इज्तिमाई हाफ़िज़ा इन्फ़िरादी शख़्सियत की बुनियाद है। हाफ़िज़ा ही के ज़रिए हमारी तहज़ीबी ज़िंदगी अपने माज़ी को उम्मीद में बदलती है और ज़िंदा रहने का अमल जारी रहता है।
इंतिज़ार हुसैन का फ़न अपनी क़ुव्वत उन तमाम सर-चश्मों से हासिल करता है जो तहज़ीबी रिवायात का मम्बा हैं यानी यादें, ख़्वाब-ओ-औलिया के क़िस्से, देवमाला, तवह्हुमात, एक पूरी क़ौम का इज्तिमाई मिज़ाज, उसका किरदार और उसकी शख़्सियत। इंतिज़ार हुसैन के शुऊर-ओ-एहसास के ज़रिए एक गुम-शुदा दुनिया अचानक फिर से अपने ख़द-ओ-ख़ाल के साथ निखर कर सामने आ जाती है और अज़-सर-ए-नौ बा-मानी बन जाती है। पहले दो मज्मूओं गली कूचे और कंकरी के बेशतर अफ़साने एक गुम-शुदा दुनिया को यादों के सहारे एक बार फिर से पा लेने की कोशिश हैं। आम का पेड़, बिन-लिखी रज़्मिया, ख़रीदो हल्वा बेसन का, रूप नगर की सवारियाँ और चौक में क़स्बात की फ़िज़ा है। इंतिज़ार हुसैन को बात से बात पैदा करने, कहानी को बुनने और फ़िज़ा ख़ल्क़ करने के फ़न पर माहिराना दस्तरस हासिल है।
इंतिज़ार हुसैन के एक पाकिस्तानी मुबस्सिर ने सही लिखा है कि पहले दौर की कहानियों में मज्मा लगाने वालों, पतंग-बाज़ों और कबूतर-बाज़ों की मंडलियाँ, पनवाड़ियों की दुकानें, उस्तादों के अखाड़े, यास-अंगेज़ मातमी लम्हों में झाड़ फ़ानूस से जगमगाते हुए अलम-नाक इमामबाड़े, मर्सिया-ख़्वानी और क़व्वाली की महफ़िलें और इसी तरह के मुआशरती कवाइफ़ ज़िंदा होकर सामने आ जाते हैं और ख़ामोशी से हमारे वुजूद में शामिल होकर याददाश्तों की गुज़श्ता जिहात को रौशन कर देते हैं। मुआशरती फ़िज़ा आफ़रीनी में इंतिज़ार हुसैन को कमाल हासिल है। उन अफ़सानों में तहज़ीबी साँचों के टूटने और मुआशरों के मिटने का दबा-दबा दुख तो है ही, तक़सीम से पैदा होने वाली उलझनों का एहसास भी है।
शौक़-ए-मंज़िल-ए-मक़सूद में मेरठ के एक ख़ानदान की हिजरत की कैफ़ियत बयान की है। एक बच्चा अपने बाप अफ्फ़ू मियाँ की बातें सुन कर कहता है, बावा पाकिस्तान में चल कर क़ुतुब साहब की लाठ देखेंगे। अफ्फ़ू मियाँ कहते हैं, बेटा क़ुतुब साहब की लाठ पाकिस्तान में नहीं है, वो तो दिल्ली में है। बच्चा कहता है, अच्छा बावा! ताज बीबी का रौज़ा देखेंगे। लेकिन अफ्फ़ू मियाँ फिर वैसा ही जवाब देते हैं, ताज बीबी का रौज़ा आगरा में है। बच्चा अब परेशान होकर पूछता है, तो बावा पाकिस्तान में क्या है? और अफ्फ़ू मियाँ जवाब देते हैं, बेटा पाकिस्तान में क़ाइद-ए-आज़म हैं। ये कहानी तहज़ीबी जड़ों के ज़मीन में पैवस्त होने की तरफ़ बहुत अच्छा इशारा करती है। हिजरत के मसाइल अव्वलीन नॉवेल चाँद-गहन और अफ़सानों के मज्मूओं कंकरी और गली-कूचे में तरह-तरह से सामने आते हैं।
चाँद गहन के तीन हिस्से हैं। तक़्सीम से पहले की ग़ैर-यक़ीनी सूरत-ए-हाल, फ़सादात, और आज़ादी के बाद की फ़िज़ा। उसका बुनियादी मौज़ू उन मसाइल का बयान है जिनका सामना पाकिस्तान में बसने वालों को करना पड़ा। ख़ानदान के अफ़राद की जड़ें जब तक एक थीं, उनमें वहदत थी, पाकिस्तान जाने के बाद मफ़ादात के बाहमी तसादुम ने भाई को भाई का और दोस्त को दोस्त का दुश्मन बना दिया। उसकी मोअस्सर तस्वीर महल वाले में मिलती है। महल वाले जब तक हिंदुस्तान में थे, एक ही हवेली में रहते थे और उनमें बाहमी मोहब्बत और यगानगत थी, लेकिन पाकिस्तान पहुँच कर जब तिजारती दौड़ में शरीक हो गए तो हवस-ए-ज़र ने उनकी ख़ानदानी सालमियत और शख़्सियत को पारा-पारा कर दिया। साँझ भई चूँदेस भी मुहाजिरीन के पिछड़ कर रह जाने की दिल-गुदाज़ दास्तान है। उस दौर की तमाम मोअस्सिर कहानियों में हिजरत के तजुर्बे ने किसी न किसी तरह ज़रूर राह पाई है।
ज़मीनी, तहज़ीबी और मुआशरती रिश्तों के मादूम हो जाने का ये यास-अंगेज़ एहसास शुरू के दोनों मज्मूओं यानी गली-कूचे और कंकरी के अफ़सानों पर छाया हुआ है। इन मज्मूओं के बाद इंतिज़ार हुसैन के फ़न में तब्दीली आना शुरू होती है। अब नज़र ख़ारिज से बातिन की तरफ़ और वक़्त के ज़ेहन-ओ-रूह को जकड़ लेने वाले तसव्वुर की तरफ़ राजे होती है। पहले फ़र्द पर मुआशरे को या किरदार पर माहौल को तरजीह हासिल थी, अब पूरा वुजूद और उसके मसाइल मरकज़-ए-निगाह बनते हैं। अब महज़ ख़ारिजी मुशाहिदा ही काफ़ी नहीं, बातिन की आँख भी खुलती है। बाद में कहानियों में ज़ियादा तवज्जोह ज़ात के बातिनी मंज़र-नामे, वुजूद की नौईयत-ओ-माहियत, अख़्लाक़ी-ओ-रूहानी ज़वाल और दाख़िली रिश्तों के भेदों और राज़ों पर मर्कूज़ होने लगती है। यूँ मालूम होता है कि मुशाहिदे की मंज़िल से निकल कर इंतिज़ार हुसैन का फ़न अब मुराक़बे की तरफ़ राजेअ् है। ये तसव्वुफ़ की मंज़िल है जिसकी कोई परछाईं इससे पहले उर्दू अफ़साने पर नहीं पड़ी थी।
आख़िरी आदमी से इंतिज़ार हुसैन का तम्सीली दौर शुरू होता है। अब इंतिज़ार हुसैन अलामतों, तम्सीलों, हिकायतों और असातीरी हवालों से अपने किरदारों की तामीर-ओ-तश्कील में मदद लेने लगते हैं और अब जितनी अहमियत फ़िज़ा-साज़ी की है, उतनी ही अहमियत बातिनी कैफ़ियत और किरदार-निगारी की भी। इस मंज़िल पर पहुँच कर इंतिज़ार हुसैन के फ़न में कश्फ़ का एहसास होने लगता है, जैसे हक़ीक़त अपने आप को अज़-ख़ुद ज़ाहिर कर रही हो, या वुजूद के इसरार एक के बाद एक बे-नक़ाब हो रहे हों, इस नौअ की मावराई और मुतसौव्विफ़ाना फ़िज़ा इंतिज़ार हुसैन के फ़न की एक नई जिहत की निशान-देही करती है। तकनीक के एतिबार से वो अब सरइली दुनिया में दाख़िल होते हैं।
(2)
इंतिज़ार हुसैन के फ़न में इस बुनियादी तब्दीली के आसार छटी दहाई के लगभग पैदा हुए। वो अफ़साना-निगार जो अब तक फ़ौरी माज़ी की परछाइयों, भूली बिसरी यादों या तक़सीम से पैदा होने वाले मुआशरती अलमिए के बारे में सीधी-सादी कहानियाँ लिख रहा था, अब वुजूदी मसाइल पर सोचने पर मजबूर हुआ। सीधी-सादी बयानिया कहानी अब तम्सीली कहानी और उसकी मानियाती तह्दारी को राह देने लगी। यूँ भी मुआशरती अलमिए का एहसास अख़्लाक़ी और रूहानी ज़वाल के एहसास तक ले आया था। अब ये एहसास पूरे बनी नौअ्-ए-इंसान के अख़्लाक़ी-ओ-रूहानी ज़वाल में ढ़ल गया और उसकी हदें वुजूदी मसाइल से मिल गईं जिनसे जदीद अहद का इंसान किसी भी मुल्क और किसी भी मुआशरे में दो-चार है। अख़्लाक़ी इक़दार की शिकस्त और इज्तिमाई इत्मीनान के फ़ुक़्दान का नतीजा ऐसा नफ़्सी इंतिशार है कि इंसान ब-हैसियत-ए-इंसान अपनी जून को भी बरक़रार नहीं रख पा रहा। इंतिज़ार हुसैन के मज्मुए आख़िरी आदमी की, जो 1976 में शाएअ् हुआ, ज़ियादा-तर कहानियाँ इसी एहसास की तर्जुमान हैं।
आख़िरी आदमी, ज़र्द कुत्ता, परछाईं, हड्डियों का ढाँच और टाँगें की मौज़ूई फ़िज़ा अगरचे अलग-अलग है, लेकिन दर्द का रिश्ता एक ही है। आख़िरी आदमी में अहद नामा-ए-अतीक़ की फ़िज़ा है, ज़र्द कुत्ता में अहद-ए-वुस्ता के सोफ़िया और उनके मलफ़ूज़ात की और हड्डियों का ढाँच, टाँगें और परछाईं में इंसान के अख़्लाक़ी ज़वाल और बातिनी खोखले-पन की दास्तान-ए-अस्र की सतह पर कही गई है। आख़िरी आदमी के बारे में ये सोचना कि इसका मौज़ू लालच और मकर है, इस कहानी को महदूद करना है। आख़िरी आदमी और ज़र्द कुत्ता दोनों कहानियाँ इस एतिबार से उर्दू अफ़साने की एक बिल्कुल अनोखी और नई जिहत से रू-शनास कराती हैं कि इनमें इंसान की रूहानी और अख़्लाक़ी कश्मकश और उस पर जिबिल्ली क़ुव्वतों के दबाव को कुछ ऐसे अछूते पैराए में बयान किया गया है कि बयानिया की दिलचस्पी भी बरक़रार रहती है और इन्किशाफ़ हक़ीक़त की परतें भी खुलती हैं।
आख़िरी आदमी इन इंसानों के बंदर बन जाने की कहानी है जो सब्बत के दिन मछलियाँ पकड़ते थे और अपने हिर्स और हवस के जज़्बे की तस्कीन करते थे। लालच, मकर, ख़ौफ़ और ग़ुस्से के मंफ़ी जज़्बात के बाइस वो आला इंसानी सतह से हैवानी सतह पर उतर आए। आख़िरी आदमी अलयासफ़ है जो उनमें सबसे अक़्ल-मंद है और आख़िर तक आदमी बने रहने की कोशिश करता है। मंफ़ी जज़्बात से ख़ुद को बचाने की शदीद जिद्द-ओ-जहद करता है। इंसान और उसकी जिबिल्ली क़ुव्वतों की ये बाहमी कश्मकश कहानी में वो तनाव पैदा करती है जो क़िस्से की जान है। इंतिज़ार हुसैन अपने तम्सीली पैराए में बताते हैं कि इंसान लाख लालच, मकर, ख़ौफ़, ग़ुस्सा, जिंस से बचने की कोशिश करे, अपनी सरिश्त से नहीं बच सकता। ये जिबिल्ली दबाव इंसानी सरिश्त में गुँधे हुए हैं। इस कहानी से बहस करने वालों ने जिस पहलू को नज़र-अंदाज़ किया है, वो अलयासफ़ और बिन्त-उल-अख़्ज़र का मामला है,
और उसे बिन्त-उल-अख़्ज़र की याद आई कि फ़िरऔन के रथ की दूधिया घोड़ियों में से एक घोड़ी के मानिंद थी और उसके बड़े घर के दर, सरो के और कड़ियाँ सनोबर की थीं। इस याद के साथ अलयासफ़ को बीते दिन याद आए कि वो सरो के दरों और सनोबर की कड़ियों वाले मकान में अक़ब से गया था और छप्पर खट पर उसे टटोला जिसके लिए उसका जी चाहता था और उसने देखा कि लम्बे बाल उसके रात की बूंदों से भीगे हैं और छातियाँ हिरन के बच्चों के मुवाफ़िक़ तड़पती हैं और पेट उसका गंदुम की ढ़ेरी की मानिंद है कि पास उसके संदल का गोल प्याला है और अलयासफ़ ने बिन्त-उल-अख़्ज़र को याद किया और हिरन के बच्चों और गंदुम की ढ़ेरी और संदल के गोल प्याले के तसव्वुर में सरो के दरों और सनोबर की कड़ियों वाले घर तक गया।
उसने ख़ाली मकान को देखा और छप्पर खट पर उसे टटोला जिसके लिए उसका जी चाहता था और पुकारा कि ऐ बिन्त-उल-अख़्ज़र तू कहाँ है? ऐ वो कि जिसके लिए मेरा जी चाहता है, देख मौसम का भारी महीना गुज़र गया और फूलों की क्यारियाँ हरी-भरी हो गईं और क़ुमरियाँ और ऊँची शाख़ों पर फड़फड़ाती हैं तू कहाँ है ऐ अख़्ज़र की बेटी। ऐ ऊँची छत पर बिछे हुए छप्पर खट पर आराम करने वाली! तुझे दश्त में दौड़ती हुई हिरनियों और चट्टानों की दराड़ों में छिपे हुए कबूतरों की क़सम! तोतू नीचे उतर और मुझ से आन मिल कि तेरे लिए मेरा जी चाहता है। अलयासफ़ ने बार-बार पुकारा ता आनकि उसका जी भर आया और वो बिन्त-उल-अख़्ज़र को याद करके रोया।
अलयासफ़, बिन्त-उल-अख़्ज़र को याद करके रोता है मगर अचानक अल-यअ्ज़र की जोरू की याद आती है, जिसके ख़ूबसूरत नक़्श बिगड़ते चले गए थे और उसकी जून बदल गई थी। अलयासफ़ अपने तईं कहता है, ऐ अलयासफ़ तू इनसे मोहब्बत मत कर, मुबादा तू उनमें से हो जाए। चुनाँचे अलयासफ़ ने मोहब्बत से किनारा किया और हम-जिंसों को ना जिंस जान कर उनसे बे-तअल्लुक़ हो गया। कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, इंतिज़ार हुसैन दिखाते हैं कि हिरन के बच्चों, गंदुम की ढेरी और संदल के गोल प्याले का तसव्वुर बार-बार अलयासफ़ के दामन-ए-दिल को खींचता है लेकिन अपने हम-जिंसों को ना जिंस जान कर उनसे बे-तअल्लुक़ हो जाना शायद इंसान के लिए मुमकिन नहीं। गोया इस कहानी में मसला सिर्फ़ लालच, मकर, ख़ौफ़ या ग़ुस्से का नहीं बल्कि उन तमाम बुनियादी इश्तिहाओं का है जिनके एक सिरे पर भूक है और दूसरे पर जिंस और बाक़ी तमाम जिबिल्ली असरात इन दो इंतिहाओं के बीच में बहने वाली नदी की सतह पर बुलबुलों की तरह उभरते और मिटते रहते हैं।
अलयासफ़ एक-एक करके इन तमाम जज़्बात व एहसासात से किनारा-कशी करता है हत्ता कि वो इस शख़्स का तसव्वुर करके, जो हँसते-हँसते बंदर बन गया था, हँसी से भी किनारा करता है। इस सबका लाज़िमी नतीजा ये होता है कि लफ़्ज़ भी अलयासफ़ और उसके हम-जिंसों के दरमियान रिश्ता नहीं रहते। लफ़्ज़ ख़ाली बर्तन की मिसाल रह गए और लफ़्ज़ मर गए। अलयासफ़ अपनी ज़ात के अंदर पनाह लेता है लेकिन सबसे बे तअल्लुक़ होकर ज़ात के जज़ीरे में भी आफ़ियत कहाँ। वो फ़िक्रमंद होकर सोचता है कि वो अंदर से बदल रहा है और उसे गुमान होने लगता है कि इसके आज़ा ख़ुश्क, इसकी जल्द बद रंग और इसकी टाँगें और बाज़ू मुख़्तसर और सर छोटा होता जा रहा है। चुनाँचे वो दर्द के साथ कहता है कि ए मेरे माबूद! मेरे बाहर भी दोज़ख़ है, मेरे अंदर भी दोज़ख़ है। मारे तन्हाई के वो सोचता है, बेशक आदम अपने तईं अधूरा है। उसकी रूह अंदोह से भर जाती है और बिलआख़िर वो पुकारता है कि ऐ बिन्तुल अख़्ज़र तू कहाँ है कि मैं तुझ बिन अधूरा हूँ।
कहानी के आख़िर में जहाँ अलयासफ़ के समुंदर से फ़ासले पर गढ़ा खोदने और नाली के ज़रिए उसे समुंदर से मिलाने और सब्बत के दिन सतह आब पर आने वाली मछलियों को चालाकी से गड्ढे में गिराकर पकड़ने का ज़िक्र है, वहाँ हिरन के बच्चों, गंदुम की ढेरी और संदल के गोल प्याले की याद के सताने का ज़िक्र भी है। वो दुहाई देता है, सरपट दौड़ती हुई दूधिया घोड़ियों की और बुलंदियों में परवाज़ करने वाली कबूतरियों और रात के अँधेरे की जब वो भीग जाए, कि बिन्तुल अख़्ज़र उससे आ मिले लेकिन बिन्त-उल-अख़्ज़र कैसे आती, वो तो पहले ही हैवानी सतह पर उतर चुकी थी। चुनाँचे अलयासफ़ ही बदलता चला जाता है। उसकी हथेलियाँ चपटी और रीढ़ की हड्डी दोहरी होने लगती है। बिलआख़िर वो झुक कर हथेलियाँ ज़मीन पर टिका देता है और बिन्त-उल-अख़्ज़र को सूँघता हुआ चारों हाथ पैरों के बल तीर की तरह जंगल को चला जाता है, यानी अलयासफ़ भी बंदर की हैवानी सतह पर पहुँच जाता है।
ज़ाहिर है कि कहानी में मर्कज़ियत सिर्फ़ मकर और लालच की वजह से नहीं बल्कि आख़िरी आदमी के बिन्त-उल-अख़्ज़र से रिश्ते की वजह से भी पैदा होती है और ये सब मिल कर इंसानी सरिश्त में जिबिल्ली क़ुव्वतों के मंफ़ी दबाव का इज़हार बन जाते हैं जिससे इंसान को हमेशा नबरद आज़मा होना पड़ता है और ये वो कश्मकश है जो इंसानी वुजूद में मुज़्मर है।
ज़र्द कुत्ता इंतिज़ार हुसैन की शाहकार कहानी है, जिस तरह आख़िरी आदमी की फ़िज़ा इंजील की है और उसमें पुराने अहद नामे की ज़बान से इस्तिफ़ादा किया गया है, उसी तरह ज़र्द कुत्ता में बुज़ुर्गान-ए-दीन के मलफ़ूज़ात और दास्तानों की ज़बान का नया तख़्लीक़ी इस्तेमाल मिलता है। ज़र्द कुत्ता में बिन्त-उल-अख़्ज़र, ज़न-ए-रक़्क़ासा है जो अबू मुस्लिम बग़्दादी के दस्तर-ख़्वान पर कनीज़ों के जिलौ में जल्वा-अफ़रोज़ होती है और जिसके पैरों की थाप और घुंगरुओं की झंकार से अबू क़ासिम ख़िज़्री कानों में उंगलियाँ दे लेते हैं। उसकी आँखें मय की प्यालियाँ, कुचें सख़्त और रानें भरी हुईं, पेट संदल की तख़्ती, नाफ़ गोल प्याला ऐसी और लिबास उसने ऐसा बारीक पहना था कि संदल की तख़्ती और गोल प्याला और कूल्हे सीने साक़ें सब नुमायाँ थीं।
उसे एक नज़र देखते ही अबू क़ासिम ख़िज़्री को ये लगता है कि उसने महकते मज़े'फ़र का, जिसकी कशिश से वो बचने की कोशिश कर रहा था, एक और निवाला ले लिया है। अगरचे कहानी के शुरू में ये इशारा मौजूद है कि लोमड़ी के बच्चे जैसी चीज़ जो मुँह से निकल आई और जिसे पाँव के नीचे डाल कर जितना रौंदा गया उतना वो बड़ी होती गई। ये लोमड़ी का बच्चा इंसान का नफ़्स है, ताहम यहाँ नफ़स से मुराद महज़ नफ़स नहीं बल्कि जिबिल्लतों का वो सारा निज़ाम है जो इंसान को मुसलसल एक कश्मकश से दो चार रखता है और जब किसी फ़र्द या मुआशरे में नफ़्स का अमल दख़ल हद्द-ए-ए'तिदाल से तजावुज़ कर जाता है, तो फ़र्द या मुआशरा शदीद रूहानी और अख़्लाक़ी बोहरान से दो-चार होता है।
आख़िरी आदमी और ज़र्द कुत्ता में फ़र्क़ सिर्फ़ ज़मानी फ़िज़ा ही का नहीं बल्कि तकनीक का भी है। इंतिज़ार हुसैन की तकनीक में मुकालमे को जो अहमियत हासिल है, उसकी पहली मोअस्सर मिसाल ज़र्द कुत्ता में सामने आती है। इस कहानी की तकनीक में मुकालमों और हिकायतों को बड़े सलीक़े से एक-दूसरे के साथ समोया गया है। कहानी की पूरी फ़िज़ा अहद-ए-वुस्ता के मलफ़ूज़ात की है। मुरीद शैख़ से सवाल करता है और हज़रत शैख़ के इरशादात हिकायतों और मलफ़ूज़ात पर मब्नी हैं और यूँ तम्सीली पैराए में कहानी ज़ाहिर करती है कि बदी एक वबा की तरह फैलती है, और फ़र्द अपनी तमाम-तर कोशिशों के बावजूद उस बदी का शिकार हो जाता है। अगरचे वो उससे बच निकलने की कोशिश करता है मगर कामयाब नहीं होता।
शैख़ उस्मान कबूतर, परिंदों की तरह उड़ा करते थे और इमली के पेड़ पर बसेरा था। फ़रमाया करते थे कि एक छत के नीचे दम घुटा जाता है, दूसरी छत बर्दाश्त करने के लिए कहाँ से ताब लाएँ। आलम-ए-सिफ़ली से बुलंद हो गए थे, ज़िक्र करते-करते उड़ते, कभी इतना ऊँचा उड़ते कि फ़िज़ा में खो जाते। सैयद रज़ी, अबू मुस्लिम बग़्दादी, शैख़ हमज़ा, अबू जाफ़र शीराज़ी, हबीब बिन यहिया तिर्मिज़ी और अबू क़ासिम ख़िज़्री यानी रावी, शैख़ के मुरीदान बा-सफ़ा थे और फ़क़्र-ओ-क़लंदरी उन सबका मसलक था। ये छेओं शैख़ की तालीम से इस क़दर मुतअस्सिर थे कि छत के नीचे रहना शिर्क जानते थे और सिर्फ़ एक छत के नीचे रहते थे कि वहदहू ला शरीक ने पाटी है। सब अलाइक़-ए-दुनयवी से मुँह मोड़ कर ज़िक्र-ओ-फ़िक्र में लगे रहते थे। एक रोज़ इस्तिफ़्सार किया,
या शैख़ क़ुव्वत-ए-परवाज़ आप को कैसे हासिल हुई?
फ़रमाया, उस्मान ने तमअ-ए-दुनिया से मुँह मोड़ लिया और पस्ती से ऊपर उठ गया।
अर्ज़ किया, या शैख़ तमअ-ए-दुनिया क्या है?
फ़रमाया, तमअ-ए-दुनिया तेरा नफ़्स है। अर्ज़ किया, नफ़्स क्या है? इसपर आप ने ये क़िस्सा सुनाया,
शैख़ अबुल अब्बास इश्क़ानी एक रोज़ घर में दाख़िल हुए, देखा एक ज़र्द कुत्ता उनके घर में सो रहा था। उन्होंने ख़्याल किया कि शायद मोहल्ले का कोई कुत्ता अंदर घुस आया। उसे निकालने का इरादा किया मगर वो उनके दामन में घुस कर ग़ायब हो गया। मैं ये सुन कर अर्ज़-पर्दाज़ हुआ, या शैख़ ज़र्द कुत्ता क्या है? फ़रमाया, ज़र्द कुत्ता तेरा नफ़्स है। मैंने पूछा शैख़ नफ़्स क्या है? फ़रमाया, नफ़्स तमअ-ए-दुनिया है। मैंने सवाल किया, या शैख़ तमअ-ए-दुनिया क्या है? फ़रमाया, तमअ-ए-दुनिया पस्ती है। मैंने इस्तिफ़्सार किया, या शैख़ पस्ती क्या है? फ़रमाया, पस्ती इल्म का फ़ुक़्दान है। मैं मुल्तजी हुआ, या शैख़ इल्म का फ़ुक़्दान क्या है? फ़रमाया दानिश-मंदों की बोहतात।
इसके बाद ख़ूबसूरत तम्सील बादशाह और वज़ीर की हिकायत है जो इसपर मुंतज होती है कि गिद्धों और दानिश-मंदों की एक मिसाल है कि जहाँ सब गधे हो जाएँ वहाँ कोई गधा नहीं होता और जहाँ सब दानिश-मंद बन जाएँ, वहाँ कोई दानिश-मंद नहीं रहता। इसी तरह अक़्ल-ओ-दानिश के ये रुमूज़-ओ-नुकात ब-सूरत-ए-मुकालमाओहिकायात जारी रहते हैं हत्ता कि शैख़ का विसाल हो जाता है। उसका रावी पर ऐसा असर होता है कि यास-ज़दा दुनिया से मुँह मोड़ हुजरे में बंद हो जाता है। एक मुद्दत तक हुज्रा-नशीं रहने के बाद बाहर निकलता है तो मालूम होता है कि दुनिया बदल गई। हैरान होता है कि या रब ये आलम-ए-बेदारी है या ख़्वाब। एक ख़ुशबू कूचे में एक क़स्र खड़ा देखता है। मालूम होता है सैयद रज़ी का दौलत-कदा है। क़ाज़ी शहर की महल-सराय के सामने पहुँचता है तो पता चलता है अबू मुस्लिम बग़्दादी का मस्कन यही है। शैख़ हमज़ा का पता पूछते-पूछते ख़ुद को फिर एक हवेली के रूबरू खड़ा पाता है। इसी तरह अबू जाफ़र शीराज़ी जौहरी बिना गाव-तकिया लगाए रेश्मी लिबास में ग़र्क़ नज़र आता है।
गोया शैख़ के इंतिक़ाल के बाद सब मुरीदान बा-सफ़ा एक-एक करके हिर्स-ओ-आज़ का शिकार हुए और तमअ-ए-दुनिया और बदी ने वबा की तरह सबको आ लिया, अलबत्ता हबीब बिन यह्या तिर्मिज़ी सख़्त जान था। वो कुछ दिन गलेम-पोश और बोरिया-नशीन रहा और दूसरों को राह पर लाने की कोशिश करता रहा। अबू मुस्लिम बग़्दादी के दस्तर-ख़्वान पर अनवाअ-ओ-अक़साम के खाने देखने के बावजूद वो ठंडा पानी पीने पर क़नाअत करता था और कहता था कि, ऐ अबू मुस्लिम बग़्दादी! दुनिया दिन है और हम इसमें रोज़ा-दार हैं। ये कह कर वो रोता था, लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता उसने भी निवाले के आगे सुपर डाली और पेट भर खाना तनावुल किया। यही वो मक़ाम है जहाँ ज़न-ए-रक़्क़ासा अपना जलवा दिखाती है, कानों में उंगलियाँ डालने के बावजूद घुंगरुओं की झंकार हुजरे तक तआक़ुब करती है। वो देखता है कि दफ़्अतन लिजलिजी शय तड़प कर हलक़ से निकली और ग़ायब हो गई।
हबीब बिन यहया तिर्मिज़ी ने देखा कि उसके बोरिये पर भी एक बड़ा सा ज़र्द कुत्ता सो रहा है। यही कुत्ता सैयद रज़ी के क़स्र के फाटक पर दिखाई दिया था और यही शैख़ हमज़ा की हवेली के सामने और अबू जाफ़र शीराज़ी की मसनद पर मह्व-ए-ख़्वाब था। छटा मुरीद अबू क़ासिम ख़िज़्री यानी रावी भी बिल-आख़िर ख़ुद को बार-बार अबू मुस्लिम बग़्दादी के दस्तर-ख़्वान पर पाता है और अपने आने की तावील यूँ करता है कि वो मुस्लिम बग़्दादी को मसलक-ए-शैख़ की दावत देने के लिए आया है लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता मुज़ाअ्फ़र के एक निवाले और घुंगरुओं की झंकार की शीरीं कैफ़ियत से उसके पोरों में कुन-मुन होने लगती है और उसके हाथ उसके इख़्तियार से बाहर होने लगते हैं। चुनाँचे उसका बोरिया भी ज़र्द कुत्ते की ज़द में आ जाता है। जितना उसे मारता है, वो भागने के बजाय दामन में आकर गुम हो जाता है।
बार-बार बारगाहे रब्बुल-इज़्ज़त में फ़रियाद करता है कि ऐ पालने वाले सबने मुनाफ़िक़त की राह इख़्तियार की, आदमी घट गया और ज़र्द कुत्ता बड़ा हो गया। तब से अब तक अबू क़ासिम की और ज़र्द कुत्ते की लड़ाई चली आती है और महकते हुए मुज़ाफ़र का ख़्याल और संदल की तख़्ती और गोल प्याले वाली का तसव्वुर इंसान को सताने लगता है। इंसान रोज़े-दार है और रोज़ा दिन-ब-दिन लंबा होता जाता है। इंसान लाग़र हो गया है मगर ज़र्द कुत्ता मोटा होता जाता है ज़र्द कुत्ता बड़ा और आदमी हक़ीर हो गया है। ज़र्द कुत्ते और इंसान की ये कश्मकश ज़िंदगी के सफ़र में बराबर जारी है। वो लाख पतझड़ का बरहना दरख़्त बन जाए, तड़का होते ही उसे अपने पोरों में मीठा-मीठा रस घुलता हुआ महसूस होता है जैसे वो संदल की तख़्ती से छू गए हों।
ये दहशत भरा मंज़र सामने है कि ज़र्द कुत्ता दुम उठाए इस तौर खड़ा है कि उसकी पिछली टाँगें शहर में हैं और अगली टाँगें फ़र्द के ज़ेहन में हैं और उसके गीले गर्म नथुने दाएँ हाथ की उँगलियों को छू रहे हैं। और इंसान बे-बस-ओ-मजबूर गिड़गिड़ा-गिड़गिड़ा कर दुआ करता है, बारे इलाहा आराम दे, आराम दे, आराम दे। मर्कज़ी किरदार अपने नफ़्स के साथ कश्मकश जारी रखता है और बिल-आख़िर ख़ुदा से पनाह माँगता है। ज़र्द कुत्ता इंसानी नफ़्स की ख़ारिजी सूरत है जो ज़ात ही से बाहर आता है। ये पूरी रूहानी ज़िंदगी के लिए चैलेंज है। उसे भगाने और निकालने की कोशिश कीजिए तो दामन में छुप कर ग़ायब हो जाता है। इस तरह ज़र्द कुत्ता इंसान के उस रूहानी इन्हितात की सरगुज़श्त है जो हवस-परस्ती और तमअ-ए-दुनिया से पैदा होता है।
इस मज्मुए की दूसरी कहानियों हड्डियों का ढाँच और टाँगें में भी नफ़स की ऐसी ही कश्मकश और इंसान के अख़्लाक़ी-ओ-रूहानी ज़वाल की परछाइयाँ हैं। हड्डियों का ढाँच में इर्तिकाज़ पेट की भूक और इश्तिहा पर है जबकि टाँगें जिंसी लज़्ज़त की पोशीदा ख़्वाहिश और उसके दबाव के बारे में है। हड्डियों का ढाँच में क़हत में मर जाने वाला एक शख़्स जो हड्डियों का ढाँच है, जी उठता है और खाने पर इस तरह टूटता है जैसे सदियों से भूका था। हर रोज़ उसे पहले दिन से भी ज़ियादा भूक लगती है। होते-होते घरों में खाना कम पड़ने लगता है और लोग दस्तर-ख़्वानों से भूके उठने लगते हैं। हत्ता कि इस शहर में एक आमिल का गुज़र होता है, वो उसकी आँखों में आँखें डाल कर ना'रे तकबीर बुलंद करता है और ये हड्डियों का ढाँच जिसमें बद-रूह ने आकर बसेरा कर लिया था और जो मर कर जी उठा था, मर जाता है। इस हिकायत की रिवायत करने के बाद अफ़साना-निगार हड्डियों का ढाँच की तत्बीक़ लम्बे-तड़ंगे, काले-भुजंग, सांसिये से करता है, जिसका तसव्वुर बचपन से ज़ेहन में जड़ पकड़ गया था। सांसिये छिप्किली, साँप तक खा जाते हैं। आख़िर आदमी का पेट है क्या बला?
इंतिज़ार हुसैन बुनियादी नुक्ते की वज़ाहत के लिए एक के बाद एक हिकायतों को, वाक़िआत को और ख़्वाबों को बयानिया लड़ी में पिरोते हुए चले जाते हैं। ऐसे मौक़ों पर वो आज़ाद तलाज़िमा-ए-ख़्याल से ख़ूब-ख़ूब काम लेते हैं। कई बार ऐसी कहानियों को वो हैरत-ओ-इस्तिजाब से शुरू करते हैं, गोया कोई वाक़िआ बीच से रूनुमा हो रहा हो या बातिन से कोई हक़ीक़त फूट रही हो। फिर उनका ज़ेहन ला-शुऊर की नीम-तारीक गलियों में कैसे-कैसे मोड़ काटता हुआ कभी तह-ख़ानों में, कभी पाताल में और कभी आसमानों की पहनाइयों में गुम सा हो जाता है। कब-कब के क़िस्से, रिवायतें और वाक़िए और वस्वसे क़तार-अंदर-क़तार चले आते हैं और तहय्युर-ओ-इस्तिजाब की सरसराहटों के साथ कहानी का हिस्सा बनते चले जाते हैं। ध्यान का सिलसिला कहाँ-कहाँ पहुँचता है, और अन-मिट यादों को मुज्तमा करके पुर-असरार सरइली रिश्ते में पिरो देता है।
बिल-आख़िर होटल में बैठे-बैठे उसे यूँ लगता है कि रफ़्ता-रफ़्ता चेहरे लम्बे होते जा रहे हैं और जबड़े फैल रहे हैं। सामने मलगिजी दाढ़ी वाला शख़्स क़हत-ज़दों की तरह खाने पर टूटा पड़ा है। वो ख़ुद भी बे-ध्यानी में खाना शुरू करता है और खाता ही चला जाता है। उसके दिल में वस्वसा पैदा होता है कि वो बे-तहाशा खाने वाला शख़्स और हड्डियों का ढाँच कोई और था या वो ख़ुद ही है। बद-रूह आदमी के अंदर समाकर कहाँ ठिकाना करती है, पेट में या दिमाग़ में? दिमाग़ ख़ुद ही तो बद-रूह नहीं कि आदमी के अंदर समा गया है? इंतिज़ार हुसैन अक्सर ये सवाल उठाते हैं कि क्या मैं, मैं ही हूँ या वो दूसरा जिसका ज़िक्र हो रहा था, वो दूसरा कोई दूसरा नहीं है, वो ख़ुद ही है। चुनाँचे कहानी का मर्कज़ी किरदार महसूस करता है कि हड्डियों का ढाँच वो ख़ुद ही है और टाँगें लम्बी-लम्बी हो गई हैं और बे-तहाशा भूक लग आई है।
इंतिज़ार हुसैन का कमाल ये है कि वो अपने सारे वुजूद को यानी शुऊर-ओ-ला-शुऊर, हाफ़िज़े व अक़ीदे और तजुर्बे व मुशाहिदे को तख़्लीक़ी नुक़्ते पर मुर्तकिज़ कर सकते हैं। वो अपनी पूरी फ़िक्र के साथ वुजूद को महसूस करते हैं। वो उन यादों और ख़्वाबों को वापस लाने की सई करते हैं जो माज़ी में इंसान की मसर्रतों और उसकी ख़ुशियों में बसे हुए थे और अहद-ए-हाज़िर की यलग़ार में यकायक ग़ायब हो गए। वो उन यादों को खेल के मैदान से भागे हुए बच्चों की तरह पकड़-पकड़ कर लाते हैं और सब जमा होकर धमाचौकड़ी मचाते हैं। इंतिज़ार हुसैन कहते हैं कि इंसान चूँकि यादें रखता है, इसलिए है।
इंतिज़ार हुसैन का ये हौसला मामूली नहीं कि वो अजनबी जज़ीरों में क़दम रखते हैं और आदम-ज़ाद को ढूँढ़ते हैं। इंसान ख़ुद को बंदरों, बकरों और कुत्तों के दरमियान पाकर आँसू बहाता है। जानवर उसे ख़मोशी की ज़बान-ए-गोया में तंबीह करते हैं कि ऐ बद-बख़्त तू जिस जज़ीरे में है वहाँ एक साहिरा हुकूमत करती है। जो उसकी महल-सरा में जाता है, जानवर बन जाता है। ये जज़ीरा आक़िबत सराय दुनिया है और साहिरा अहद-ए-हाज़िर की तरक़्क़ीयाँ, और ये सब पहले आदमी थे फिर बंदर, कुत्ते और बकरे बनते चले गए।
उस साहिरा की महल सरा में इंसान का सबसे बड़ा मस्अला ये है कि बंदरों, कुत्तों और बकरों के दरमियान चलते हुए वो अज़ियत से सोचता है कि कब तक अपने तईं बरक़रार रख सकेगा। कभी वो देखता है कि मक्खी बन गया है। सुबह जागता है तो सख़्त हैरान होता है कि क्या वो सचमुच मक्खी बन गया है और उम्र भर ये तै नहीं कर सकता कि आया वो आदमी है या मक्खी। घर पहुँच कर वो कमरा खोलता है तो कपड़े बदलते हुए अचानक उसकी नज़र अपनी बरहना टाँगों में पड़ती है। कुछ शक के साथ वो अपनी बरहना टाँगों को देखता है और शक ही शक में ये तै नहीं कर सकता कि ये बरहना टाँगें उसकी अपनी टाँगें हैं या बकरे की टाँगें हैं।
उस दौर की कहानियों में इस लिहाज़ से एक मानवी रब्त और वहदत है कि उनमें से ज़ियादा-तर इंसान के रूहानी ज़वाल को किसी न किसी नहज से पेश करती हैं और वुजूद की ग़रज़-ओ-ग़ायत और नौईयत-ओ-माहियत के बारे में तरह-तरह के सवाल उठाती हैं। काया कल्प और सुईयाँ अगरचे तकनीक के एतिबार से आख़िरी आदमी और ज़र्द कुत्ता से मुख़्तलिफ़ हैं कि उनमें पैराया देवों और शहज़ादियों की तम्सीलों का है और अगरचे बुनियादी मौज़ू उनका भी इंसान का ज़वाल है, लेकिन यहाँ मर्कज़ियत तमअ-ए-दुनिया, जिंसी कशिश या हवस-नाकी को नहीं, बल्कि ख़ौफ़ और दहशत को हासिल है जिससे शख़्सियत अपने में अंदर ही अंदर सिकुड़ने लगती है और बिल-आख़िर मा'दूम हो जाती है।
ब-ज़ाहिर काया कल्प का नाम ही काफ़्का की Metarmorphosis की याद दिलाने के लिए काफ़ी है और इतनी बात मालूम है कि इंतिज़ार हुसैन काफ़्का से मुतअस्सिर हैं और जिस तरह वो इंसान के निहाँ ख़ाना-ए-बातिन में सफ़र करते हैं और ख़ौफ़-ओ-हिरास की फैलती बढ़ती परछाइयों से बातिनी और ज़ाहिरी दोनों दुनियाओं के इसरार खोलते हैं और इन्किशाफ़-ए-हक़ीक़त करते हैं, उससे इतना अंदाज़ा तो किया ही जा सकता है कि ख़ुद इंतिज़ार हुसैन की ज़ेहनी साख़्त और इनकी तख़य्युली उफ़्ताद उनके इज़हार को काफ़्काई राह पर डाल देती है। ताहम हर जगह मौज़ू को बरतने का पैराया इंतिज़ार हुसैन का अपना है। इंतिज़ार हुसैन का तम्सीली उस्लूब, मुकालिमाती बुनत और मुआशरती फ़िज़ा-साज़ी ऐसी ज़बरदस्त इन्फ़िरादायित लिए हुए है कि उन्हें न किसी का मुक़ल्लिद कहा जा सकता है न किसी से मुतअस्सिर।
ज़र्द कुत्ता और आख़िरी आदमी के मुक़ाबले में काया कल्प ख़ासी मुख़्तसर कहानी है, लेकिन तअस्सुर के एतिबार से उनसे कम नहीं। कहानी की फ़िज़ा दास्तानों की सी है। शहज़ादा आज़ाद-बख़्त और सफ़ेद देव के नाम तक दास्तानों की याद दिलाते हैं। शहज़ादी सफ़ेद देव की क़ैद में है। शहज़ादा उसे रिहाई दिलाने आया था लेकिन ख़ुद सह्र में गिरफ़्तार हो गया। हर रात जब देव की धमक से क़िले के दर-ओ-दीवार लरज़ने लगते तो वो सिकुड़ने लगता और सिकुड़ते-सिकुड़ते एक चौड़ा सियाह नुक़्ता रह जाता और फिर एक बड़ी सी मक्खी बन जाता। होते-होते उसे मक्खी की जून में रात गुज़ारने की इतनी आदत पड़ गई कि सुबह होने पर सख़्त कश्मकश के बाद वो मक्खी से आदमी बनता और निढ़ाल पड़ा रहता। ये अमल रोज़-ब-रोज़ और अज़ियत-नाक होता गया और बिल-आख़िर उसे महसूस होने लगा जैसे वो मक्खी की जून से तो निकल आता है लेकिन आदमी की जून में देर तक नहीं आता। तब शहज़ादी पछताती है और फ़ैसला करती है कि वो शहज़ादे को मक्खी नहीं बनाएगी।
चुनाँचे दिन ढ़ले उसे तहख़ाने में बंद कर देती है। पर जब दिन ढ़लता है तो वो रोज़ की तरह सहम जाता है और आप ही आप सिमटता जाता है। सुबह होने पर देव के जाने के बाद शहज़ादी तहख़ाना खोलती है तो ये देख कर हैरान रह जाती है कि वहाँ शहज़ादा नहीं है और एक बड़ी मक्खी बैठी है। वो अपना मंत्र पढ़ कर फूँकती है कि शहज़ादा मक्खी से आदमी बन जाए, पर उसका मंत्र कुछ असर नहीं करता और शहज़ादा हमेशा के लिए मक्खी बन जाता है।
ये कहानी ख़ौफ़ की नफ़्सियात को पेश करती है और ख़ौफ़-ओ-दहशत के फ़िशार से इंसानी शख़्सियत किस तरह पिचक जाती है, इस कैफ़ियत को तम्सीली सतह पर पेश करती है। कहानी के आग़ाज़ में शहज़ादी के सह्र से शख़्सियत के मा'दूम होने का जो दायरा शुरू हुआ था, कहानी के आख़िर में शहज़ादा आज़ाद बख़्त के मुस्तक़िल तौर पर मक्खी के जून में मुंतक़िल हो जाने से वो मुकम्मल हो जाता है। नफ़्सियाती अमल के इस दायरे का एहसास इंतिज़ार हुसैन कहानी के शुरू ही में करा देते हैं क्योंकि कहानी के अंजाम ही से उन्होंने इसका आग़ाज़ किया है, शहज़ादा आज़ाद बख़्त ने उस दिन मक्खी की सूरत में सुबह की... और वो ज़ुल्म की सुबह थी कि जो ज़ाहिर था छुप गया और जो छुपा हुआ था वो ज़ाहिर हो गया।
शुरू-शुरू में शहज़ादी जब अमल पढ़ कर शहज़ादे को मक्खी बनाती और दीवार से चिपकाती है तो उसकी मर्दाना-ग़ैरत जोश में आती है और वो सोच कर एहतिजाज करता है कि ऐ आज़ाद बख़्त! तुझे अपनी आला-नसबी, अपनी हिम्मत-ओ-शुजाअत पर बहुत घमंड था। आज तेरा घमंड ख़ाक में मिला कि एक ग़ैर-जिंस तेरी जिंस पर हुकूमत करता है और सितम तोड़ता है और तू हक़ीर जान की ख़ातिर दुनिया की हक़ीर मख़्लूक़ बन गया है। लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता इज़्ज़त-ए-नफ़्स का एहसास मा'दूम हो जाता है और आफ़ियत की ख़्वाहिश ग़ैरत और मर्दांगी के जोश को ख़ाक में मिला देती है। इस कहानी में इंतिज़ार हुसैन का कमाल उन बातिनी कैफ़ियात का बयान है जो दहशत के बाइस या मक्खी की जून में आ जाने के बाद शहज़ादा महसूस करता है। सुबह को जब वो जागता तो इस ख़्याल में ग़लताँ रहता कि क्या वो सचमुच मक्खी बन गया था? क्या आदमी भी मक्खी बन सकता है? इस ख़्याल से उसकी रूह अंदोह से भर जाती, लेकिन शाम होते-होते वो फिर सिमटने लगता।
दिन उसके लिए अगरचे शब-ए-वस्ल से कम न था, लेकिन कभी-कभी दिन में उसे ऐसा लगता कि वो मक्खी बन गया है। शहज़ादी उसकी बाँहों के हल्क़े में होती, उसे शक आ घेरता कि क्या वो आदमी की जून में है? वो अंदेशों और शकों के घेरे को तोड़ने की बार-बार सई करता और देव से निमटने का इरादा करता लेकिन उसका ज़ो'फ़ और अज़ियत बढ़ती जाती और उसे ये सवाल आ घेरता कि वो पहले आदमी है, बाद में मक्खी, या पहले मक्खी है और बाद में आदमी? उसका दिन एक धोका है और रात अस्ल है या रात धोका है और दिन अस्ल है? आप ही आप उसे इस ख़्याल पर शक होने लगा, शायद मेरी रात ही मेरी अस्ल ज़िंदगी हो और मेरा दिन मेरा बहुरूप हो। वो इस उधेड़ बुन में लग जाता है कि उसकी अस्ल क्या है। हर चीज़ अपनी अस्ल की तरफ़ लौटती है। मैं कि मक्खी था फिर मक्खी बन गया हूँ।
ये इंसानी-ओ-हैवानी या अक़्ली-ओ-जिबिल्ली क़ुव्वतों के दरमियान तसादुम और कशाकश की वो मंज़िल है जब शहज़ादा आज़ाद बख़्त आदमी भी था और मक्खी भी। यहाँ बिल-वास्ता तौर पर इंतिज़ार हुसैन ये बुनियादी सवाल भी उठाते हैं कि क्या इंसान की अस्ल उसकी जिबिल्लत है और अक़्ल-ओ-शुऊर का इर्तिक़ा-ए-सानवी है या ख़ारिजी क़ुव्वतों का दबाव जब हद से बढ़ता है तो इंसान अपनी हैवानी अस्ल की तरफ़ पलटता है,
शहज़ादे को ख़्याल सा हुआ कि शायद उसके अंदर बहुत गहराई में एक नन्ही मक्खी भिनभिना रही है। उसने उसे वहम जाना और रद्द कर दिया। फिर रफ़्ता-रफ़्ता उसे ख़्याल हुआ कि कहीं सचमुच वो मक्खी ही न हो... तो मक्खी मेरे अंदर भी पल रही है? इस ख़्याल से उसे बहुत घिन आई जैसे वो अपनी ज़ात में नजासत की पोट लिए फिर रहा हो, जैसे उसकी ज़ात दूध-घी थी और अब उसमें मक्खी पड़ गई है।
ख़ौफ़ का दबाव बढ़ता है तो होते-होते शहज़ादा अपना नाम भी भूल जाता है। तब वो बहुत परेशान होता है कि उसका नाम क्या है। नाम! उसने कहा हक़ीक़त की कुंजी है। मेरी हक़ीक़त की कुंजी कहाँ। शहज़ादा आज़ाद बख़्त ने अपना नाम बहुत याद किया पर उसे अपना नाम याद न आया और वो बे-हक़ीक़त बन गया। जैसे वो सब कुछ अपने पिछले जन्म में था और जैसे ये उसका नया जन्म था और उसमें वो महज़ मख़्लूक़ था यानी हैवानी मख़्लूक़। चुनाँचे मक्खी उसकी बड़ी और क़वी होती चली गई और उसका आदमी माज़ी बनता चला गया। मक्खी की जून से वापस आता तो उसे अपना आपा मैला नज़र आता, तबियत गिरी-गिरी सी, बदन टूटा हुआ, जैसे रात बंद-बंद अलग हो गया और अभी पूरे तौर पर जुड़ नहीं पाया। उसे लगता कि उसके अक़ब में कोई चीज़ भिनभिना रही है और वो फिर नहाता और अपने तईं मैला पाता, उसे मतली होने लगती और अपने आप से घिन आती। उसे हर चीज़ मैली और ग़लीज़ नज़र आती। क़िले की दीवारें, दरख़्तों के पत्ते, नहर का पानी हत्ता कि शहज़ादी भी। उसे वहम होने लगता है कि इसके अंदर भिनभिनाती हुई मक्खी उसकी रूह के अंदर उतर रही है।
बिल-आख़िर आदमी की जून में वापस आना उसके लिए क़यामत बन गया। शहज़ादे से मक्खी या इंसान से हैवान तक तो ख़ैर ठीक था लेकिन इंतिज़ार हुसैन इसी पर बस नहीं करते। वुजूद की माहियत की बहस को भी छेड़ते हैं। शहज़ादा बार-बार सोचता है कि शायद वो मक्खी भी नहीं है और आदमी भी नहीं है तो फिर वो क्या है? शायद वो कुछ भी नहीं। इस ख़्याल से उसे पसीना आने लगता और नब्ज़ डूबने लगती। शुरू-शुरू में ये होता था कि जब शहज़ादी अमल पढ़ कर शहज़ादे को मक्खी बनाती और छुपा देती, तब भी देव रात भर मानुस गंद मानुस गंद चिल्लाता रहता था गोया उसे इंसान के वजूद का ख़तरा हो। लेकिन कहानी के आख़िर में जब शहज़ादी आज़ाद बख़्त को मक्खी नहीं बनाती तो उस रात अगरचे शहज़ादा यानी आदमी तहख़ाने में मौजूद है लेकिन देव मानुस गंद मानुस गंद नहीं चिल्लाता, इस लिए कि उसकी आदमियत ख़त्म हो चुकी है और वो मारे ख़ौफ़ के ख़ुद बख़ुद आदमी से मक्खी बन चुका है।
शहज़ादी हैरान होती है कि जब वो शहज़ादे को मक्खी बना देती थी तब भी उसकी आदमी वाली बू ही बाक़ी रहती थी। लेकिन आज क्या हुआ कि मैंने उसे मक्खी नहीं बनाया मगर देव फिर भी मानुस गंद मानुस गंद नहीं चिल्लाया। इंसानी शख़्सियत के ज़वाल की इंतिहा यही है कि उसकी आदमी वाली बू ही जाती रहे। माहौल के मंफ़ी असरात से वो अपनी ज़ात में इतना पसपा हो गया है कि मंत्र पढ़ने पर भी आदमी की जून में नहीं आता और ये ज़ुल्म की सुबह है कि जिसके पास जो था छिन चुका है और जो जैसा था वैसा निकल आया है यानी आज का इंसान जिस अदम-ए-तहफ़्फ़ुज़ और ख़ौफ़ की फ़िज़ा में साँस ले रहा है और जिस बे-यक़ीनी का शिकार है, उसकी वजह से वो अपने वुजूद में सिकुड़ कर मक्खी बन जाने पर मजबूर है।
इंतिज़ार हुसैन के ऐसे अफ़साने आज के ख़ौफ़-ज़दा इंसान की नफ़्सियात का अक्स पेश करते हैं। इंतिज़ार हुसैन का कमाल ये है कि उन्होंने आज के इंसान के अख़्लाक़ी और रूहानी ज़वाल के सिलसिले की एक-एक कड़ी को इस तरह बयान किया है कि क़ारी को अपने अंदर की मक्खी, ज़र्द कुत्ता, बंदर या बकरे की टाँगें साफ़ दिखाई देने लगती हैं। इंतिज़ार हुसैन इसरार करते हैं कि इंसान बने रहने के लिए ज़रूरी है कि हम अपनी तशख़ीस करें, अपनी शिनाख़्त करें और ज़ात से आरी न हो जाएँ। अपने किरदारों के बारे में इंतिज़ार हुसैन लिखते हैं,
अपनी एक कहानी में मैंने उस मक्खी की कहानी लिखी थी जो अपना घर लीपते-लीपते अपना नाम भूल गई थी। उसने भैंस से जाकर पूछा कि भैंस-भैंस मेरा नाम क्या है? भैंस ने जवाब दिए बग़ैर दुम हिलाकर उसे उड़ा दिया। फिर उसने घोड़े से जाकर ये सवाल किया। घोड़े ने भी अपनी कनौतियाँ हिलाकर उसे उड़ा दिया। वो बहुत सी मख़्लूक़ात के पास ये सवाल लेकर गई और किसी ने उसका जवाब न दिया। आख़िर वो एक बुढ़िया के पैर पर जा बैठी। बुढ़िया ने हश्त मक्खी कह उसे उड़ा दिया और मक्खी को इस ज़िल्लत के तुफ़ैल अपना नाम मालूम हुआ। क्या अजब है कि मैंने जो बा'ज़ नहूसत मारे किरदार सोचे हैं, वो उसी चक्कर में हों।
ये शख़्स जो अपनी परछाईं से डरा-डरा फिरता था, वो शख़्स जिसका सारा बदन सुइयों में बींधा हुआ था, वो शख़्स जिसे अपनी टाँगें बकरे की नज़र आईं, वो शख़्स जो हज़ार रियाज़त के बावजूद ज़र्द कुत्ते की ज़द से न बच सका, वो शख़्स जो शहज़ादे से मक्खी बन गया, वो शख़्स जो आख़िरकार बंदर बन कर रहा, मैंने उन सबके पास जा जाकर अपना नाम पूछा और बारी-बारी हर एक पर शक हुआ कि ये मैं हूँ। लेकिन शायद मैं ज़िल्लत के उस आख़िरी मक़ाम तक नहीं पहुँचा हूँ, जहाँ पहुँच कर में अपने आप को पा सकूँ। ज़िल्लत की इस इंतिहा तक पहुँचना मेरी अफ़साना-निगारी का मुन्तहा है।
देव और शहज़ादी की तम्सील सुईयाँ में भी मिलती है। काया कल्प में शहज़ादा, शहज़ादी को देव की क़ैद से रिहा कराने के लिए क़िले में आया था मगर ख़ौफ़ और दहशत से सिकुड़ते-सिकुड़ते अपनी पहचान खो बैठा। सुईयाँ में भी देव, शहज़ादी और शहज़ादे का मुसल्लस है। लेकिन काया कल्प में कहानी की माअनवियत शहज़ादे की ज़ेहनी कैफ़ियत और बातिनी करब के हवाले से खुलती है, यहाँ ख़ात्मे पर नफ़सियाती मोड़ है जो अनजानी हक़ीक़त के ख़ौफ़ का परवरदा है। इसमें शहज़ादा मरा हुआ तह-ख़ाने में पड़ा है, उसका जिस्म सुइयों से बँधा हुआ है और कहानी अंजाम पर पहुँच कर अपने ग़ैर-मुतवक़्क़ेअ् मोड़ की वजह से अपनी मा'नवियत खोलती है। एक अंजानी हक़ीक़त का ख़ौफ़, वस्वसा और शक अचानक शहज़ादी को आ घेरता है और वो उससे मग़्लूब हो जाती है। ख़ौफ़ का ग़लबा दोनों कहानियों में मुश्तरक है, लेकिन वहाँ जानी पहचानी हक़ीक़त का ख़ौफ़ है और यहाँ अनजानी हक़ीक़त का ख़ौफ़ है जिसकी दहशत से अमल की रू यक-लख़्त बदल जाती है।
काया कल्प के मुक़ाबले में सुईयाँ कमज़ोर और कम मोअस्सर कहानी है, वो इसलिए कि उसमें ख़ौफ़ की लम्हा-ब-लम्हा बढ़ने वाली परछाइयों के ज़ेहनी सफ़र की वो दास्तान रक़म नहीं हुई जो काया कल्प में मिलती है और जो इंसान की असली फ़ितरत को आईना दिखाती है या जिबिल्लतों को आश्कार करती है, या वजूद की माहियत पर सवालिया निशान लगाती है। वहाँ मा'नी की तहें एक के बाद एक खुलती हैं। यहाँ एक ही परत है जो आख़िर में एक हल्के से धचके के साथ सामने आती है। ताहम इतना वाज़ेह है कि ऐसी तम्सीलें, हिकायतें और क़िस्से कहानियाँ इंतिज़ार हुसैन के तहत-उश-शुऊर का हिस्सा हैं। वो जब और जहाँ चाहते हैं उनका चक़माक़ रगड़ते हैं और उनसे माअ्नवी शरार झड़ने लगते हैं।
यहाँ इंतिज़ार हुसैन के उस फ़न की तरफ़ भी इशारा ज़रूरी है कि उनका बुनियादी तजुर्बा चूँकि हिजरत का तजुर्बा है और हिजरत और सफ़र लाज़िम-ओ-मलज़ूम हैं, इसलिए उनके अफ़सानों बिल-ख़ुसूस वुजूदी अफ़सानों में सफ़र या अपनी ज़ात की तलाश एक इंतिहाई मा'नी ख़ेज़ Motif का दर्जा रखती है। वो जो खोये गए और शहर-ए-अफ़सोस की बुनियाद ही सफ़र पर है। ये बात दिलचस्पी से ख़ाली नहीं कि परछाईं, हड्डियों का ढाँच, हम-सफ़र, टाँगें और कटा हुआ डिब्बा में भी सफ़र कलीदी Motif का दर्जा रखता है। परछाईं का मर्कज़ी किरदार एक-दूसरे शख़्स की तलाश में जगह-जगह जाता है लेकिन ये तलाश दर-अस्ल ख़ुद अपनी तलाश है। एक नाम के दो क्या होते नहीं? बल्कि एक नाम के कई-कई होते हैं। चलते-चलते उसे वहम सा होता है और आन की आन में एक तसव्वुर सा बँध जाता है जैसे वो नहीं बल्कि कोई दूसरा उसे ढ़ूंढ़ रहा है और वो ख़ुद जगह-जगह छुपता फिर रहा है।
इंतिज़ार हुसैन ने यहाँ उस हिकायत की तरफ़ भी इशारा किया है जो कई सोफ़िया से मंसूब है यानी हज़रत बायज़ीद ने किसी से पूछा तू कौन है और किसको पूछता है? साइल ने जवाब दिया मुझे बायज़ीद की तलाश है और हज़रत बायज़ीद ने पूछा, कौन बायज़ीद? मैं भी बायज़ीद को ढ़ूंढ़ता हूँ, मगर मुझे वो मिला नहीं। सारा दिन अपनी ज़ात की परछाईं की ढ़ूंडिया में गुज़र जाता, वो सोचता है हम किस जिस्म की परछाईं हैं। क़ाफ़िला जो गुज़र गया और परछाईं जो भटक रही है, हम किस गुज़रे क़ाफ़िले की परछाइयाँ हैं। मैं भटकती परछाइयों के क़ाफ़िले में से एक भटकती परछाईं हूँ, मैं किसी वहम की मौज हूँ! मैं हूँ, हरचंद कि हूँ नहीं हूँ। वो उसे जगह-जगह ढूंढ़ता है। होटल में, साइकिल स्टैंड पर, बरामदे में, घर में, फिर वो एडवर्ड होस्टल का रुख़ करता है और बस में सवार होता है।
बस का सफ़र इंतिज़ार हुसैन की मुतअद्दिद कहानियों में रूहानी सफ़र या ज़ात की खोज के इस्तिआरे के तौर पर उभरता है। परछाईं में भी जब वो दिन भर भटकने के बाद घर वापस आ रहा है तो फिर एक ख़ाली अंधेरी बस बराबर से गुज़र जाती है मगर इतनी चुपचाप कि पता भी नहीं चलता। थोड़ी देर में फिर सामने से आती हुई बस को देख कर वो खम्बों के साये-साये में चलने लगा। बस जो एक आँख से अंधी थी, उसमें सबसे पीछे की सीट पर खिड़की के क़रीब कोई बैठा था, सोचा कोई कंडक्टर होगा मगर बस ख़ाली हो तो फिर कोई पिछली नशिस्त पर क्यों बैठेगा।
उसी बस से हमारी मुलाक़ात हड्डियों का ढांच में भी होती है जहाँ वो पिछली सीट पर सबसे अलग जा बैठता है मगर अगले स्टॉप पर इतने मुसाफ़िर आ जाते हैं कि वो जो सबसे अलग बैठा था वो भी इनका हिस्सा बन जाता है और बराबर में एक शख़्स चने की फंकियाँ लगा रहा था। बैठे-बैठे तरह-तरह के ख़्यालात उसके दिमाग़ में आते हैं और निकल जाते हैं। वो सोचता है ये बस आख़िर कब तक चलती रहेगी। बस का टर्मिनल अभी दूर था लेकिन उसे ख़फ़क़ान होने लगता है और वो अगले ही स्टॉप पर उतर जाता है। इंतिज़ार हुसैन की अक्सर कहानियों में अंदरूनी सफ़र की जिहात मुख़्तलिफ़ वसीलों से रौशन होती हैं। ज़ेहन में यक-ब-यक कोई सवाल पैदा हो जाता है, कोई वहम सर उठाता है या शक या वस्वसा आ घेरता है या परछाइयाँ तैरती हैं या ज़ेहन धुंद से उठ जाता है या फिर एक के बाद एक यादें, तस्वीरें, वाक़िआत की कड़ियाँ या कैफ़ियतों के नुक़ूश ज़ेहन में बुलबुलों की तरह उभरते और तहलील होते हैं। ये सब सोचने और मुसलसल सोचने के अमल का लाज़िमा है।
इंतिज़ार हुसैन के ज़ेहन की उस आसेबी कैफ़ियत या पुर-असरारियत की तरह-तरह से तौज़ीह की गई है और बा'ज़ जगह तो लोगों ने दिलचस्प नताइज निकाले हैं। ख़ुद इंतिज़ार हुसैन के नज़दीक सोचना एक डरावना अमल है जिसमें वो काफ़्का के हम-सफ़र हैं। बात ये नहीं कि उनका ज़ेहन छलावों और परछाइयों में घिरा हुआ है या उसमें किसी डर या ख़ौफ़ का बसेरा है, बल्कि अस्ल ये है कि वहमों और वस्वसों या मो'तक़िदात और तवह्हुमात या देव माला और मज़हबी रिवायात के ज़रिए वो अनदेखे जज़ीरों की सैर करते हैं और ब-ज़ाहिर नज़र आने वाली चीज़ों के पीछे न नज़र आने वाली हक़ीक़तों के निहाँ-ख़ाने में नक़ब लगाते हैं और सदियों के रिश्तों की बाज़-याफ़्त करते हैं। वो ख़ारिजी ज़वाहिर के बुतून में उतर कर ज़िंदगी के भेद पूछना चाहते हैं।
बस के सफ़र का Motif अफ़साना हम-सफ़र में भी मिलता है। जहाँ कहानी का वो ग़लत बस में सवार हो जाता है। उसे बस का इंतिज़ार खींचने का बहुत तल्ख़ तजुर्बा था। अक्सर यही हुआ कि जाने किस-किस रास्ते की बस आई और गुज़र गई, न आई तो एक उसकी बस न आई। ज़िंदगी में बारहा ऐसा होता है कि इंसान ग़लत रास्ते पर पड़ जाए या ग़लत बस में सवार हो जाए तो फिर लाख उतरने की कोशिश करे मगर बस चलती रहती है। बस में सफ़र करना भी एक क़यामत है।
हम-सफ़र सारी की सारी सफ़र ही से इबारत है। मुख़्तलिफ़ चेहरे, मुख़्तलिफ़ लोग, तरह-तरह की बातें, तरह-तरह की मंज़िलें। उसका जी चाहा कि वो सब सवारियों से कहे कि हम ग़लत बस में सवार हो गए मगर फिर उसे ख़्याल आया कि ग़लत बस में तो वो सवार हुआ था। बाक़ी सब सवारियाँ सही सवार हुई थीं, तो एक ही बस एक वक़्त सही भी होती है और ग़लत भी होती है? एक ही बस ग़लत रास्ते पर भी चलती है और सही रास्ते पर भी चलती है? फिर वो इस गुत्थी को यूँ सुलझाता है कि बस कोई ग़लत नहीं होती। बसों के तो रास्ते, स्टॉप और टर्मिनस मुक़र्रर हैं। ग़लत और सही मुसाफ़िर होते हैं। वो अपने कँधे पर सर रख कर सोने वाले हम सफ़र को देखता है और सोचता है कि कैसा हम-सफ़र है क्योंकि वो तो ग़लत बस में है और सोने वाला सही बस में है। फिर वो दोनों हम-सफ़र कहाँ हुए तो मेरा कोई हम सफ़र नहीं है। मगर वो कहाँ जा रहा है, वो पूछता है क्यों भई वापस जाने वाली बस मिलेगी?
मिले न मिले ऐसा ही है, वक़्त तो ख़त्म हो गया। ये सोच कर उसका दिल बैठने लगता है कि वक़्त ख़त्म हो गया। जो मौक़ा मिला था, वो हमने खो दिया था, अब भटकना शर्त है। उसका ध्यान उन गुज़रे हुए स्टापों पर जाता है जहाँ मुसाफ़िर क़ाफ़िलों की सूरत में उतरे और गलियों की मिसाल बिखर गए। लेकिन जब स्टॉप सुनसान हो जाएँ और मुसाफ़िर को अकेला उतरना पड़े और उसकी छोड़ी हुई नशिस्त कोई नया मुसाफ़िर आ कर न सँभाले तो बसों का अख़ीर होता है। मअन ज़ेहन ज़िंदगी के आख़िर या इंसानी रिश्तों के आख़िर या ग़लत फ़ैसलों के लाज़िमी नताइज के आख़िर की तरफ़ जाता है। बस का सफ़र दूसरा रिश्ता में भी मिलता है, लेकिन ये बस डबल-डेकर है, दो मंज़िला मुआशरा या एक मुल्क के दो रुख़। इसमें मा'नवी हवाला इतना नफ़्सियाती नहीं जितना सियासी और समाजी हो सकता है, इसलिए उसका ज़िक्र आगे आएगा, अलबत्ता बस की तरह सफ़र के दूसरे वसीले ताँगा और रेल भी इंतिज़ार हुसैन की कहानियों में सफ़र के Motif के तौर पर इस्तेमाल हुए हैं।
अफ़साना टाँगें में साख़्तियाती रू से ज़ाहिर ढाँचा वही है जो हम-सफ़र में है, फ़र्क़ सिर्फ़ ये है कि वहाँ सारी कहानी बस के सफ़र के सहारे-सहारे चलती है और यहाँ तांगे के सफ़र के ज़रिए। कटा हुआ डिब्बा अलबत्ता इस लिहाज़ से मुन्फ़रिद है कि इसका मर्कज़ी सफ़र रेल का सफ़र है। इस कहानी का जो तज्ज़िया इंतिज़ार हुसैन ने कहानी की कहानी में किया है, इससे इस बात की तौसीक़ होती है कि ख़ुद इंतिज़ार हुसैन को इस बात का एहसास है कि सफ़र उनके फ़न में एक बुनियादी Motif की हैसियत रखता है। इंतिज़ार हुसैन कहते हैं,
पुरानी कहानी और दास्तानों में क्या हमारे यहाँ और क्या दूसरों के यहाँ सारा क़िस्सा सफ़र ही से चलता है। पुराने ज़माने में सफ़र इंसानी ज़िंदगी का बहुत अहम मा'र्का था। ख़तरों की पोट और तजुर्बे की कुंजी। सफ़र वसीला-ए-ज़फ़र भी रहा है और बर्बादी का बहाना भी और वसाइल-ए-सफ़र की तब्दीली के साथ क़ौमों की हालत और तहज़ीबों की सूरत भी बदली। अगले वक़्तों के लोगों को नए ज़माने से शिकायत ही ये है कि वसाइल सफ़र बदल गए जिससे सफ़र की दिक़्क़त भी कम हुई और इंसानी तजुर्बे की रंगा रंगी और ज़र-ख़ेज़ी भी ज़ाइल हुई।
कहानी में चार आदमी हैं और सफ़र के क़िस्से सुनाए जा रहे हैं। मंज़ूर हुसैन को अपनी एक भूली कहानी याद आती है, हर बार सुनाने की नियत बाँधता है और हर बार कोई दूसरा अपना क़िस्सा छेड़ देता है। रेल इस गुफ़्तगू में एक नई और अजनबी तहज़ीब की यूरिश की अलामत बन कर आती है। रेलगाड़ी की सीटी अहद-ए-वुस्ता के ख़त्म की मुनादी थी। नए दौर की सवारी आई, फ़िरंगी ग़ुलामी का दौर, मशीन की महकूमी का दौर। उसी रेलगाड़ी के बंजर सफ़र से मंज़ूर हुसैन के सीने में जो किरण उतरी है, उसने जो हीरा पाया है, उसे वो दूसरों से छुपाता भी है और उन्हें दिखाना भी चाहता है। इतने में गली से एक मय्यत गुज़रती है और मंज़ूर हुसैन की कहानी अनकही रहती है, जैसे चलते-चलते उसका डिब्बा गाड़ी से बिछड़ कर अकेला खड़ा रह गया और गाड़ी सीटी देती, शोर मचाती दूर निकल गई।
यहाँ सफ़र के हवाले से इंतिज़ार हुसैन ने ब-क़ौल ख़ुद इस इत्मीनान और बे-इत्मीनानी की मिली-जुली कैफ़ियत, नीज़ उसकी तह में हल्की-हल्की सी उदासी और तन्हाई को भी उभारा है जो मौजूदा दौर में मेकानिकियत की यूरिश से इबारत है। इस वज़ाहत के सिलसिले में इंतिज़ार हुसैन ने अपने माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल के तसव्वुर को भी बयान किया है कि माज़ी हाल में नुफ़ूज़ करता है और हाल वो घड़ी है जब दोनों वक़्त मिलते हैं यानी माज़ी और मुस्तक़बिल का जंक्शन और सामने से गुज़रने वाली मय्यत मुस्तक़बिल है। सब कथाओं से लंबी कथा, सवारियाँ बदल गईं, सफ़र की ख़तरनाकी ख़त्म हुई मगर एक सफ़र उसी तरह अंधेरा और गुंग है। लालटेन लेकर निकलिए, मश्अलें जलाइए, बिजली रौशन कीजिए, ये अंधेरा अटल है। माज़ी भी अंधेरा, मुस्तक़बिल भी अंधेरा है। मुनव्वर नुक़्ता-ए-हाल है।
बसीरत के साथ सफ़र करते हुए इंसान उस मुनव्वर किरन को पा लेता है, जिसे जावेदाँ कहते हैं और जो ज़िंदगी और कायनात की कथा बनती है। यही वजह है कि इंसान डरता भी है और चलता भी है, इंसान सफ़र से बाज़ नहीं रहा, क्योंकि सफ़र वसीला-ए-ज़फ़र है। इंसान ने अब तक उसी अंदाज़ से सफ़र किया है और कर रहा है और ग़ालिबन यही सफ़र इंतिज़ार हुसैन के फ़न का मुन्तहा भी है।
इंतिज़ार हुसैन का ये बातिनी तम्सीली सफ़र जो आख़िरी आदमी के अफ़सानों में अपने उरूज पर मिलता है, उसका नुक़्ता-ए-आग़ाज़ दर-अस्ल दिन और दास्तान में शामिल जल गरजे है जिसे उस मज्मुए में एक दास्तान कहा गया है। इसमें पहली बार इंतिज़ार हुसैन ने दास्तान के उस्लूब में क़दीम-ओ-जदीद के इम्तिज़ाज की कोशिश की थी। जल गरजे में हकीम जी अपने दोस्तों, ग़नी, सिद्दीक़, नसीर और अदालत अली को गुज़रे ज़मानों के क़िस्से सुनाते हैं। अपना दर्द-ए-दिल बयान करते हुए वो कहते हैं कि मियाँ दास्तानें हिंदुस्तान में रह गईं और वहाँ भी कहाँ, अपना सारा दास्तान-ख़ाना लुट गया, वरक़-वरक़ बिखर गया, ऐसे लुटे जैसे ग़दर में घर लुटते थे। फिर वो आँखें बंद किए हुक़्क़े की नय मुँह से लगाए दो दास्तानें सुनाते हैं।
पहली जो उन्हें समंद ख़ाँ, इब्नेअर्जुमंद ख़ाँ, इब्न देमावंद ख़ाँ ने सुनाई थी जो सालार आज़म बख़्त ख़ाँ के लश्कर तूफ़ान असर का अदना सिपाही था। उसमें पहली जंग आज़ादी यानी ग़दर और उसमें जनरल बख़्त ख़ाँ की सर-कर्दगी और शुजाअत-ओ-पामर्दी का ज़िक्र है। उसमें मौज़ूअ् की समाँ-बंदी आल्हा ऊदल के मिसरे: नदी नर्बदा का जल गरजे-गरजे गंगा की धार... से हुई है। दूसरी दास्तान जो इसी दास्तान का दूसरा हिस्सा है और जो घोड़े की निदा के नाम से जल गरजे में नहीं है, उसको भी हकीम जी सुनाते हैं। उसका मौज़ू भी हुब्ब-उल-वतनी और जज़्बा-ए-आज़ादी के वही जज़्बात हैं जो बख़्त ख़ाँ की दास्तान के ज़िम्न में उभरे थे। उस हिस्से में हैदर अली और टीपू सुल्तान की शुजाअत और बहादुरी की रिवायत बयान हुई है। उसमें सब्ज़ पोश सवार-ओ-शमशीर-ए-आब-दार का भी ज़िक्र है, जिससे टीपू सुल्तान के ज़माने में कई गुज़री हुई सदियों की गूँज और शहादत-ए-इमाम हुसैन की रिवायत का इज़ाफ़ा हो जाता है।
ग़ालिबन दास्तानी-उस्लूब को तारीख़ या हक़ाइक़ के बयान करने के लिए इख़्तियार करने का ये इंतिज़ार हुसैन का पहला तजुर्बा था। दोनों दास्तानें अपनी जगह मुकम्मल हैं और निहायत पुर-कशिश और पुर-तासीर। लेकिन ये रहती दास्तानें ही हैं। क़दीम-ओ-जदीद का वो इम्तिज़ाज जो इंतिज़ार हुसैन के फ़न में ज़बान की साख़्त और किरदारों की ता'मीर में कहानी की तकनीक और दास्तान के पैराए को बाहम मम्ज़ूज-ओ-मरबूत करने से इबारत है, उसकी गिरहें ब-तदरीज आख़िरी आदमी की कहानियों ही में खुलती हैं। गोया जल गरजे में दास्तानी अंदाज़ को अपनाने की जो बशारत मिलती है, आख़िरी आदमी की कहानियों में वो ज़ेहन-ओ-रूह को सरशार करने वाली सदाक़त बन कर सामने आता है और रफ़्ता-रफ़्ता ये तम्सीली अंदाज़ मुस्तक़िल तौर पर इंतिज़ार हुसैन के फ़न की ख़ुसूसियत-ए-ख़ास्सा का दर्जा हासिल कर लेता है। कहानी के रिवायती ढाँचे को तो अलामतियत और इस्तिआरियत ने तोड़ ही दिया था, इंतिज़ार हुसैन ने दास्तानी उस्लूब-ओ-अनासिर की मदद से एक ताज़ा सरइली ज़ाइक़े से आशना कराया जिसकी कोई नज़ीर इस पैमाने पर उर्दू अफ़साने में नहीं मिलती।
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इंतिज़ार हुसैन के फ़न का तीसरा पड़ाव उन कहानियों से इबारत है जिनके बुनियादी मुहर्रिक इतने नफ़्सियाती, इंसानी मसाइल नहीं, जितने समाजी सियासी मसाइल हैं। इनका मज्मूआ शहर-ए-अफ़सोस की उस मंज़िल की साफ़ निशान-देही करता है। ये तो नहीं कहा जा सकता कि शहर-ए-अफ़सोस की कहानियाँ सबकी सब 1967 और 1972 के दरमियान लिखी गईं, लेकिन इस मज्मुए की कहानियों को एक साथ पढ़ने से इतना ज़रूर महसूस होता है कि उन्हें किसी मंसूबे के तहत ही एक मज्मुए में यक्जा किया गया है। इंतिज़ार हुसैन पर लिखने वालों ने उन कहानियों की सियासी, समाजी जिहत पर वो तवज्जो नहीं की जो इनका हक़ है, या फिर कुछ लोगों को इंतिज़ार हुसैन के उस इख़्तितामिये ने भटकाया है जो शहर-ए-अफ़सोस के आख़िर में शामिल है। उसमें माज़ी के अँधेरे में पीछे की तरफ़ सफ़र का जो इशारा है, उसके बाइस भी शायद आम पढ़ने वालों को इंतिज़ार हुसैन के ज़ेहनी सफ़र में किसी बड़ी तब्दीली का एहसास न रहा हो, हालांकि इंतिज़ार हुसैन के तख़्लीक़ी सफ़र में ये तब्दीली इतनी ही अहमियत रखती है, जितनी कि इससे पहले की वुजूदी इंसानी-जिहत वाली तब्दीली।
कहने का मतलब ये है कि गली-कूचे और कंकरी के अफ़सानों और आख़िरी आदमी के अफ़सानों में जो फ़र्क़ है, कुछ वैसा ही बुनियादी फ़र्क़ आख़िरी आदमी और शहर-ए-अफ़सोस के अफ़सानों में भी है। पहले दौर के बाद चूँकि मौज़ूआत की तब्दीली के साथ-साथ पैरायए बयान और उस्लूब भी बदला था, यानी इंतिज़ार हुसैन ने हिकायात, मलफ़ूज़ात, असातीर और मज़हबी रिवायात की मदद से तम्सीली अंदाज़ इख़्तियार किया था, इसलिए वो तब्दीली आम तौर पर महसूस कर ली गई थी, जबकि दूसरे दौर के बाद चूँकि सिर्फ़ मुहर्रिकात की नौईयत बदली और रवैया वही बातिनी और पैराया-ए-बयान वही तम्सीली, हिकायती रहा, इसलिए इस अहम तब्दीली को पूरी तरह महसूस नहीं किया गया। मुम्किन है इसमें कुछ हाथ उस एतिराज़-ओ-इल्ज़ाम का भी रहा हो कि इंतिज़ार हुसैन माज़ी-परस्त हैं, पीछे की तरफ़ देखते रहते हैं, अंधेरों या आसेबों में मुब्तिला रहते हैं या दूसरे लफ़्ज़ों में वो रजअत-पसंद या ज़ुल्मत-पसंद हैं।
ये ए'तिराज़ इतनी शिद्दत से किया गया कि इंतिज़ार हुसैन को जो बेहतरीन तन्क़ीदी सलाहियत के भी मालिक हैं, अपनी माज़ी से दिलचस्पी के बारे में तरह-तरह की तावीलें करनी पड़ीं। अगरचे उनकी नस्र का हाल महबूब की ज़ुल्फ़ का सा है जो पेच दे कर दिल को उड़ा ले जाती है, ताहम चूँकि मो'तरिज़ीन को कोई सरोकार अदब या उसके जमालियाती तक़ाज़ों से नहीं और चूँकि हवाले, दलाइल या सबूत ऐसे लोगों के लिए कोई मानी नहीं रखते, जहाँ बात उनके मतलब की न हो, आसानी से आँखें बंद कर लेते हैं और रोज़-ए-रौशन को भी ज़ुल्मत से ता'बीर कर सकते हैं, इसलिए किसी जवाब की ज़रूरत ही न थी।
हमारे मुआशरे की एक ख़राबी ये भी है कि हम अस्ल को नहीं, लेबल को देखते हैं। ग़लत या सही, उर्दू में ऐसे लेबल नज़रियाती या शख़्सी कमीं-गाहों में बैठ कर तैयार किए जाते हैं और फिर साज़िश के तहत चिपकाए जाते हैं। फ़नकार की हौसला-शिकनी तो होती है, लेकिन अगर वो सच्चा और खरा है तो उनकी हरकतों को झेल जाता है, अलबत्ता क़ारी बेचारा गुमराही का शिकार होता है और ग़ैर-अदबी इफ़्तिरा-पर्दाज़ियों को शह मिलती है। लोग चूँकि सुनी-सुनाई में यक़ीन रखते हैं, पढ़ते भी हैं तो दूसरों की ऐनक से और सोचना बहर-हाल एक तकलीफ़-देह अमल है, इसलिए लेबल-ख़्वाह वो कितना ही ग़लत हो, चल निकलता है।
मतऊन करने वाले चूँकि सब कुछ अपनी लीक की हिफ़ाज़त और अपने ज़ेहनी तअस्सुब की बिना पर करते हैं, इसलिए उनके ग़ैर-जानिबदारी से अदब पढ़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता। शायद इसी वजह से उन लोगों का मुक़द्दर यही है कि संजीदा अदबी गुफ़्तगू में उन्हें नज़र-अंदाज़ कर दिया जाए। हक़ीक़त ये है कि वो सारा अदब, जो वुजूदी, इंसानी जिहत का अदब है, भी एक तरह से समाजियत रखता है और इंतिज़ार हुसैन के यहाँ तो इससे बढ़ कर और भी बहुत कुछ है जो सियासी और समाजी मसाइल से उनके गहरे तख़लीक़ी रिश्ते का ज़ामिन है। इस नज़र से देखा जाए तो शहर-ए-अफ़सोस की बेशतर कहानियों का मुताला इंतिज़ार हुसैन के फ़न की एक निहायत मा'नी-ख़ेज़ और फ़िक्र-अंगेज़ जिहत को सामने लाता है। ये अमर क़ाबिल-ए-तवज्जोह है कि इंतिज़ार हुसैन ने अपने उस मज्मुए का नाम अपनी कहानी शहर-ए-अफ़सोस की बिना पर शहर-ए-अफ़सोस बिला वजह नहीं रखा। ये शहर-ए-अफ़सोस कहाँ है और क्यों है, इसका ज़िक्र आगे आएगा।
शहर-ए-अफ़सोस में भी दो तरह की कहानियाँ हैं। एक वो जिनमें मुआशरे का दर्द तम्सीली पैराए में रम्ज़िया अंदाज़ से बयान हुआ है और जब तक उस तरफ़ तवज्जो न की जाए, उसकी तफ़्हीम आसान नहीं। दूसरी कहानियाँ वो हैं जहाँ तम्सीली पैराए का लिबादा कहीं-कहीं से चाक हो गया है और ये दर्द उभर कर सामने आ गया है। पहली क़िस्म की कहानियों में वो जो खोये गए, शहर-ए- अफ़सोस, दूसरा गुनाह और वो जो दीवार को न चाट सके ख़ास तौर पर क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं। वो जो खोये गए दास्तानी अंदाज़ की मुकालमाती कहानी है। तहय्युर-ओ-इस्तेजाब की कैफ़ियत शुरू ही से क़ारी को गिरफ़्त में ले लेती है और ज़ात के गुमशुदा हिस्से की खोज की सई-ओ-जुस्तजू आख़िर तक क़ाइम रहती है। उसमें चार बे-नाम आदमी हैं: ज़ख़्मी सर वाला, बा-रीश आदमी, नौजवान आदमी और वो जिसके गले में थैला पड़ा हुआ है। चारों इस शक में मुब्तिला हैं कि उनमें एक कम हो गया है। चारों उंगली उठाकर एक-एक को गिनते हैं, बार-बार गिनते हैं और हैरान होते हैं कि एक आदमी कहाँ है?
कहानी में एक अहम नुक्ता ये है कि शुरू ही से महसूस हो जाता है कि ये चारों क़त्ल व ख़ून और मार-धाड़ से बच कर आए हैं। एक आदमी का सर ज़ख़्मी है, इससे ख़ून अभी थोड़ा-थोड़ा रिस रहा है, वो दरख़्त के तने से सर टिकाए हुए आँखें खोल कर पूछता है, हम निकल आए हैं? बा-रीश आदमी इत्मीनान भरे लहजे में कहता है, ख़ुदा का शुक्र है हम सलामत निकल आए। यानी जहाँ से आए हैं, वहाँ तबाही थी और सलामत निकल आना इत्मीनान की बात है। ये सब जानें बचा कर भागे हैं। बा-रीश आदमी ज़ख़्मी सर वाले से कहता है, अज़ीज़ फ़िक्र मत कर, ख़ून रुक जाएगा और ज़ख़्म अल्लाह चाहेगा तो जल्द भर जाएगा।
ख़ून तबाही व बरबादी, क़त्ल व ग़ारत और हरब व ज़रब का इस्तिआरा है। उसी तरह ज़ख़्म जुदाई या हिजरत का या ज़मीनों और तहज़ीबों से बिछड़ने का इशारा हो सकता है। चारों का बच कर उधर आ जाना, अपनी सलामती पर इतमीनान का इज़हार करना और गुम शुदा शख़्स के लिए ज़ख़्मी सर वाले का लाठी लेकर उस तरफ़ चलना जिस तरफ़ से कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आरही है, अपने वजूद के पीछे छोड़े हुए या गुम शुदा हिस्से की तलाश का मज़हर हो सकता है। पूरी कहानी में दहशत, ख़ौफ़, खोज और गुम शुदा हिस्से को दोबारा पाने की फ़िज़ा है। कुत्ते के भौंकने की आवाज़ दूर अँधेरे से आती है। ज़ख़्मी सर वाला एक जानिब जाता है तो कुत्ते की आवाज़ दूसरी जानिब से आती है। थैले वाला लाठी उठा लेता है, बा-रीश आदमी भी उठ खड़ा होता है, चारों मिल कर इस तरह जाते हैं, दूर तक जाते हैं, कुछ नज़र नहीं आता। यहाँ तो कोई भी नहीं है।
बा-रीश आदमी हिम्मत बँधाता है, पुकार कर देखो, उसे यहीं कहीं होना चाहिए। ज़ख़्मी सर वाले ने पुकारने का इरादा किया। लेकिन उसके ज़ेहन से उसका नाम ही उतर गया। नाम तो नाम, उन्हें उसकी सूरत भी याद नहीं रही। सब सोच में पड़ गए कि अब हमें न उसका नाम याद है, न सूरत याद है, क्या ख़बर कौन मिल जाए। चारों पलटते हैं, वहीं आते हैं जहाँ से चले थे और उन्हें याद करके आब-दीदा होते हैं जिन्हें वो छोड़ आए थे। कहानी उन चारों दहशत-ज़दा और बिछड़े हुए इंसानों के मुकालमों के ज़रिए आगे चलती है। वीराना, तन्हाई, रात का सन्नाटा और ख़ौफ़-ओ-हिरास का आलम। बा-रीश आदमी समझता है कि वो बेशक हम ही में से था, मगर जिस क़यामत में हम घरों से निकले हैं इसमें कौन किसको पहचान सकता था।
बातों ही बातों में इंतिज़ार हुसैन उनकी गुम-शुदगी का रिश्ता सदियों के उन क़ाफ़िलों से मिला देते हैं जिनका एक नाम ग़रनाता है, एक जहाँ आबाद, एक बैत-उल-मुक़द्दस और यूँ कहानियों की मा'नियाती फ़िज़ा तारीख़ के क़दीम ज़मानों पर मुहीत हो जाती है। बा-रीश आदमी को इस बात का दुख है कि वो अपना सब कुछ तो छोड़ आए हैं मगर क्या अपनी यादें भी छोड़ आए हैं। थैले वाला आदमी कहता है कि उसे तो सिर्फ़ इस क़दर याद है कि घर धड़-धड़ जल रहे थे और हम भाग रहे थे। बा-रीश आदमी आह सर्द भरता है और कहता है, क्या बस्ती थी कि जल गई, क्या ख़िल्क़त थी कि बिखर गई, क्या सूरतें थीं कि नज़रों से ओझल हो गईं।
ज़ख़्मी सर वाला आँखें मूँदे-मूँदे कहता है, मुझे कुछ याद नहीं। बा-रीश आदमी, चोट ज़्यादा शदीद हो तो दिमाग़ सुन हो जाता है और हाफ़िज़ा थोड़ी देर के लिए मुअत्तल हो जाता है। थैले वाला, मेरे सर में कोई चोट नहीं लगी, फिर भी मुझे ख़ासी देर तक यूँ लगा जैसे मेरा दिमाग़ सुन हो गया है। इस से इशारा उस जज़्बाती और रूहानी चोट की तरफ़ है जिससे हवास सुन हो गए हैं। चारों याद करने की कोशिश करते हैं, कुछ भी याद नहीं आता। वो एक बार, दो बार, ग़रज़ बार-बार ख़ुद को गिनते हैं। पहले ज़ख़्मी सर वाला, फिर बा-रीश आदमी, फिर थैले वाला और फिर नौजवान गिनने का अमल दोहराता है और गिनती के दौरान गिनने वाला ख़ुद को भूल जाता है। उन्हें सिर्फ़ यही ख़लिश है कि उनमें से एक आदमी कम हो गया है। ये आदमी कौन है।
फिर नौजवान दफ़्अतन चौंका। उसे याद आया कि गिनते हुए उसने भी अपने आप को नहीं गिना था और उसने कहा कि जो आदमी कम है वो मैं हूँ। ये कलाम सुनते-सुनते थैले वाले आदमी ने याद किया कि गिनते हुए तो उसने भी ख़ुद को नहीं गिना था। उसने सोचा कि कम हो जाने वाला आदमी वो है... तब सब चक्कर में पड़ गए और ये सवाल उठ खड़ा हुआ कि आख़िर वो कौन है जो कम हो गया है। इस आन ज़ख़्मी सर वाले को लगा कि वो आदमी तो यहीं कहीं है मगर मैं नहीं हूँ।
बा-रीश आदमी ने उसे समझाते हुए कहा, अज़ीज़ तू है। एक-एक साथी ने उसे यक़ीन दिलाया कि वो है। तब उसने ठंडा साँस भरा और कहा कि चूँकि तुमने मेरी गवाही दी इसलिए मैं हूँ। अफ़सोस कि अब मैं दूसरों की गवाही पर ज़िंदा हूँ। इस पर बा-रीश आदमी ने कहा, ऐ अज़ीज़ शुक्र कर कि तेरे लिए तीन गवाही देने वाले मौजूद हैं। उन लोगों को याद कर जो थे, मगर कोई उनका गवाह न बना। सो वो नहीं रहे। ज़ख़्मी सर वाला बोला, सो अगर तुम अपनी गवाही से फिर जाओ तो मैं भी नहीं रहूँगा।
ये कलाम सुन कर फिर सब चकरा गए और हर एक दिल ही दिल में ये सोच कर डरा कि कहीं वो तो वो आदमी नहीं है जो कम हो गया है और हर एक इस मख़मसे में पड़ गया कि अगर वो कम हो गया है तो वो है या नहीं है। ज़ख़्मी सर वाला हँसा। रफ़ीक़ों ने पूछा कि ऐ यार तू क्यों हँसा। उसने कहा कि मैं ये सोच कर हँसा कि मैं दूसरों पर तो गवाह बन सकता हूँ मगर अपना गवाह नहीं बन सकता। इस कलाम ने फिर सबको चकरा दिया। एक वस्वसे ने उन सबको घेरा और उन सब ने नए सिरे से अपने आप को गिनना शुरू कर दिया। इस बार हर गिनने वाले ने गिनने का आग़ाज़ अपने आप से किया मगर जब गिन चुका तो गड़बड़ा गया और बाक़ियों से पूछा कि क्या मैंने अपने आप को गिना था...?
बा-रीश आदमी ने सबकी सुनी। फिर यूँ गोया हुआ कि अज़ीज़ो मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि जब हम चले थे तो हममें कोई गुम नहीं था। फिर हम कम होते चले गए। इतने कम हुए इतने कम हुए कि उँगलियों पर गिने जा सकते थे। फिर हमारा अपनी उँगलियों पर से एतिबार उठ गया। हमने एक-एक करके सबको गिना और एक को कम पाया। फिर हम में से हर एक ने अपनी-अपनी चौक को याद किया और अपने आप को कम पाया।
पूरी कहानी में तहय्युर-ओ-तजस्सुस की यही फ़िज़ा है। कहानी बर्रे सग़ीर की हिजरत के हवाले से तक़्वियत हासिल करती है जो बुनियादी तौर पर सियासी है। एक गहरे अलमिए का एहसास रूह को जकड़े रहता है, गोया कायनात के इस ख़राबे में इंसान अपनी आगही से आरी हो चुका है या अपनी अस्ल से कट के खो सा गया है, लेकिन कम-बख़्त दिल है कि धड़के जाता है और रात के सन्नाटे में जो आज का समाज है, खोज जारी है।
शहर-ए-अफ़सोस में भी इस अलमिए का एहसास है और हिजरत के बाद की कैफ़ियत है। ये कहानी उस ज़बरदस्त इज्तिमाई तजुर्बे से तअल्लुक़ रखती है जिससे पूरा बर्रे सग़ीर गुज़रा है। शहर-ए-अफ़सोस पाकिस्तान भी है और हिंदुस्तान और ये पूरा बर्रे सग़ीर भी शहर-ए-अफ़सोस हो सकता है। इसमें तीन आदमी हैं और बहनों, बेटियों और बीबियों की इस्मत-दरी करने और मासूमों की इज़्ज़त लूटने के बाद वो ढ़ह चुके हैं और ये समझते हैं कि गोया मर चुके हैं। उनके अंदर ख़ून जम चुका है। क़रिया-क़रिया भागते फिरे, कभी इस कूचे में कभी उस गली में मगर उनके लिए हर गली बंद गली थी और हर कूचा बंद कूचा था।
शहर-ए-ख़राबी से निकलने का कोई रास्ता नहीं था। फिर एक मैदान आया जहाँ ख़िल्क़त डेरा डाले पड़ी है। बच्चे भूक से बिलकते हैं, बड़ों के होंटों पर पपड़ियाँ जमी हैं, माओं की छातियाँ सूख गई हैं, गोरी औरतें सँवला गई हैं। ये कैसी बस्ती है? जवाब मिला कि ऐ बद-नसीब! तू शहर-ए-अफ़सोस में है और हम सियह-बख़्त याँ दम साधे मौत का इंतिज़ार करते हैं। इन सतरों में जो गहरा तंज़ है, क्या इसकी सियासी, समाजी मा'नवियत से किसी को इंकार हो सकता है?
ऐ लोगो सच बताओ, तुम वही नहीं हो जो इस बस्ती को दारुल इम्कान जान कर दूर से चल कर आए और यहाँ पसर गए। उन्होंने कहा कि ऐ शख़्स तू ने ख़ूब पहचाना। हम उन्हीं ख़ाना-बर्बादों के क़बीले से हैं। मैंने पूछा कि ख़ाना-बर्बादो, तुमने दार-उल-अमान को कैसा पाया। बोले ख़ुदा की क़सम, हमने अपनों के ज़ुल्म में सुबह की। ये सुन कर मैं हँसा। वो मेरे हँसने पर हैरान हुए। मैं और ज़ोर से हँसा। वो और हैरान हुए।
कहानी का मर्कज़ी एहसास ये है कि जो लोग अपनी ज़मीन से बिछड़ जाते हैं फिर कोई ज़मीन उन्हें क़ुबूल नहीं करती, जो ज़मीन जन्म देती है वो भी और जो दार-उल-अमान बनती है वो भी। गया का भिक्शु कहता है कि मैंने गया नगरी में जन्म लिया और ये जाना कि दुनिया में दुख ही दुख है और निर्वान किसी सूरत नहीं और हर ज़मीन ज़ालिम है। ये मुकालमा इससे आगे बढ़ता है और फ़िक्र-ए-मुतलक़ की कुछ ऐसी कैफ़ियत से दो-चार करता है जो उपनिषदों की याद दिलाती है,
और आसमान?
आसमान तले हर चीज़ बातिल है।
मैंने तअम्मुल किया और कहा कि ये सोचने की बात है।
सोच भी बातिल है।
बुज़ुर्ग सोच ही तो इंसानियत की अस्ल मताअ है।
वो दो टूक बोला, इंसानियत भी बातिल है।
फिर हक़ क्या है? मैंने ज़च हो कर पूछा।
हक़? वो क्या चीज़ होती है?
हक़ मैंने पूरे ज़ोर और ए'तिमाद के साथ कहा। और उसने सादगी से कहा कि जिसे हक़ कहते हैं वो भी बातिल है।
इंतिज़ार हुसैन पूछते हैं कि ये कौन सी घड़ी है और ये क्या मक़ाम है, जवाब मिलता है ये ज़वाल की घड़ी है और मक़ाम-ए-इबरत है और जिस शख़्स ने बहनों और माओं की इस्मत-दरी की है, वो-वो ख़ुद है। उसने अपने आपको पहचाना और मर गया, क्योंकि अपने आप को पहचानने के बाद ज़िंदा रहना मुश्किल है। सब लोग अपने-अपने गुनाहों को याद करते हैं और अपने चेहरों को मस्ख़ पाते हैं। सोचते हैं, आगे जब हम निकले थे तो अपने अज्दाद की क़ब्रें छोड़ आए थे और अब निकले हैं तो अपनी लाशें छोड़ आए।
एक शख़्स उस औरत का क़िस्सा सुनाता है जो फ़िरंगी से बहुत लड़ी, फिर उजड़ कर अपने ख़ुशबू शहर से निकली और नेपाल के जंगलों में मिस्ल बूए आवारा के खो गई। आफ़त-ज़दा शहर में लापता होने से ये बेहतर है कि आदमी घने मुहीब जंगलों में खो जाए।
वो जो खोए गए में हिजरत के मस्अले को ग़रनाता, जहाँ आबाद और बैत-उल-मुक़द्दस के तनाज़ुर में देखा गया था। यहाँ दो और हिजरतों का ज़िक्र किया गया है। पहली गौतम बुद्ध की हिजरत जो फ़लसफ़ियाना थी और दूसरी हज़रत महल की हिजरत जो क़ौमी और सियासी थी। इन दोनों के हवाले से इंतिज़ार हुसैन ने कहानी में सदियों के दुख-दर्द का एहसास पैदा कर दिया है। कहानी का अंजाम उसी एहसास के साथ होता है कि हर शख़्स शहर-ए-अफ़सोस में है और गया के भिक्षु की बात याद आती है कि हर ज़मीन ज़ालिम है और आसमान तले हर चीज़ बातिल है और उखड़े हुओं के लिए कहीं अमान नहीं है।
वो जो दीवार को न चाट सके में याजूज-माजूज की तम्सील है जो दिन भर दीवार को चाटते हैं। हत्ता कि दीवार अंडे के छिलके के मानिंद हो जाती है और वो ये कह कर सो जाते हैं कि बाक़ी दीवार सुबह को चाटेंगे मगर जब सुबह उठते तो सद्द-ए- सिकंदरी फिर मोटी और ऊँची हो जाती है। याजूज-माजूज भाई हैं। ये कोई दो हमसाया मुल्क या मुआशरे भी हो सकते हैं। सद्द-ए-सिकंदरी दोनों की मुश्तरक दुश्मन है जो पहाड़ की मिसाल दोनों के सरों पर खड़ी है। क्या ग़ुर्बत, अफ़्लास, जिहालत, मग़रिबी ताक़तों का इस्तिहसाल और इस्ते'मारियत उभरते हुए मुआशरों के लिए सद्द-ए-सिकंदरी नहीं, जिसे वो चाट कर ख़त्म कर देना चाहते हैं, लेकिन ख़त्म नहीं कर पाते।
तब्रिस्तान के ठंडे, मीठे चश्मे के पानी तक पहुँचने के लिए आल-ए-याजूज और आल-ए-माजूज एक दूसरे से लड़ने लगे और उन्होंने एक दूसरे के ख़ून में हाथ रंगे। नौबत यहाँ तक पहुँची कि याजूज-माजूज सद्द-ए-सिकंदरी को चाटने के बजाय रात भर एक दूसरे को चाटते रहे। हत्ता कि याजूज माजूज के चाटने से और माजूज याजूज के चाटने से अंडे की मिसाल रह गया। बूढ़े दानिश मंद ने उन्हें गुत्थम-गुथा देख कर ब-सद-अफ़सोस कहा कि याफ़ित की औलाद दो मुंहवाँ साँप बन गई कि ख़ुद ही को डस रही है। किसी भी तम्सीली कहानी की तरह इस कहानी की भी कई ता'बीरें हो सकती हैं। बा-हम-दिगर बर-सर-ए-पैकार दो भाई, या दो क़ौमें या दो मुआशरे या दो पड़ोसी मुल्क कहाँ नहीं हैं। बर्रे सग़ीर में भी, ख़लीज-ए-फ़ारस में भी, मशरिक़-ए-वुस्ता में भी, वियतनाम और कंबोडिया कम्पूचिया में भी और दुनिया के किस हिस्से में नहीं, लेकिन ख़ैरात तो घर ही से शुरू होती है।
दूसरा गुनाह में अल-यमलक, हिशाम और ज़मरान की तम्सील है, जिसके ज़रिए इंतिज़ार हुसैन ने निहायत फ़न-काराना तौर पर समाजी तबक़ात की तक़सीम और ना-बराबरियों के वुजूद पर इज़हार-ए-ख़याल किया है। ये कहानी उस मज़े की है कि अगर मार्क्सी अहबाब इसको खुले दिल से पढ़ें तो इस तम्सील को अपने मआशी फ़लसफ़े की तम्सील जानें और बईद नहीं कि दावा करें कि ये कहानी शदीद तौर पर तरक़्क़ी-पसंद नज़रियात की हामिल है। उन लोगों ने जो दूर-दूर की ज़मीन से चल कर यहाँ पहुँचे थे, हिशाम को अपने में बड़ा जान कर बीच में बिठाया कि मुंसिफ़ी करे। उसने सारी ज़िंदगी टाट पहना, और सबके साथ एक दस्तरख़्वान पर बैठ कर मोटी रोटी खाई और मिट्टी के प्याले में पानी पिया। जब वो मरा तो उसके बेटे ज़मरान को अपने बीच बिठाया। ज़मरान ने भी ख़ूब मुंसिफ़ी की। फिर हुआ ये कि ज़मरान के दस्तरख़्वान के लिए आटा बारीक पीसा जाता था और एक बड़ी सी छलनी में छाना जाता था और भूसी लोगों में तक़सीम कर दी जाती थी ताकि जिन्हें आटा कम मिले उन्हें भूसी ज़ियादा मिले।
यूँ ज़मरान के दस्तरख़्वान की रोटी की रंगत और हो गई और ख़िल्क़त के दस्तरख़्वान की रंगत और हो गई। अलयमलक दस्तरख़्वान पर बैठे हुए ज़मरान की रोटी के उजले-पन को देख कर हैरान हुआ कि गोश्त नाख़ुन से जुदा हो गया है और गेहूँ थोड़ा और भूक ज़्यादा हो गई। चुनाँचे वो उठ खड़ा हुआ। अलयमलक अपनी ज़ौजा को लेकर बस्ती से निकल गया और दूर जंगल में जाकर डेरा डाला। फिर यूँ हुआ कि एक क़ाफ़िला ख़स्ता-ओ-ख़राब वहाँ पहुँचा, फिर दूसरा, फिर तीसरा। क़ाफ़िले आते चले गए और डेरे डालते चले गए। सबसे आख़िर में वो क़ाफ़िला आया जिसका बुज़ुर्ग सबके बीच बैठ कर सबका बुज़ुर्ग बना और मुंसिफ़ ठहरा। उसके पास कुछ साज़-ओ-सामान न था। सिवाय एक आटे की छलनी के और ये आटे की पहली छलनी थी जो उस बस्ती में पहुँची। गोया इस तरह ऊँच-नीच और तबक़ाती ना-बराबरी का चक्कर फिर से शुरू हो गया।
अब तक तीसरे दौर की जिन कहानियों का ज़िक्र किया गया है उनमें समाजी सियासी मा'नवियत गहरे तम्सीली पैराए में मिलती है। अगर इन अफ़सानों की समाजी सियासी मा'नवियत पर इसरार न किया जाए तब भी फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि इनकी दूसरी ता'बीरें भी मुम्किन हैं और बयानिया का लुत्फ़-ओ-असर बिज़्ज़ात तौर पर भी क़ाइम रहता है। लेकिन शहर-ए-अफ़सोस में इन कहानियों के मुक़ाबले में कहीं ज़्यादा तादाद ऐसी कहानियों की है जिनकी कोई ता'बीर सियासी, समाजी और मुआशरती हवाले के बग़ैर मुम्किन ही नहीं, यानी समाजियत से इंकार ही नहीं किया जा सकता। अगरचे पहली नौअ की कहानियाँ कहीं ज़ियादा मूअस्सिर, मानियाती तौर पर कहीं ज़ियादा भरपूर और जमालियाती तौर पर कहीं ज़ियादा पुर-लुत्फ़ हैं। बहर-हाल मश्कूक लोग, शर्म-उल-हराम, काना दज्जाल, दूसरा रास्ता, अपनी आग की तरफ़ और अंधी गली को बराह-ए-रास्त सियासी और समाजी कहानियों की ज़ैल में रखा जा सकता है।
इन कहानियों में वो फ़न्नी हुस्न और तहदारी नहीं जो तम्सीली कहानियों की ख़ुसूसियत है, इसलिए इनके तफ़्सीली तज्ज़िये की ज़रूरत नहीं, सिर्फ़ मौज़ू की तरफ़ इशारा कर देना काफ़ी होगा। मशकूक लोग में चार दोस्त हैं, किसी का तअल्लुक़ किसी पेशे से है, किसी का किसी पेशे से, लेकिन चारों एक दूसरे पर शक करते हैं कि उनमें से हर शख़्स ये समझता है कि दूसरा सियासी तौर पर बिका हुआ है और वो ख़ुद सर से पैर तक ईमानदार है। शर्म-उल-हराम में मस्अला बैत-उल-मुक़द्दस पर ना-जाइज़ क़ब्ज़े और अरब इसराईल तनाज़े का है। यही मौज़ू काना दज्जाल का भी है जिसमें मूसो दायाँ की तत्बीक़ रिवायत के काने दज्जाल से की है, यानी वो जर्नेल जिसकी एक आँख नहीं है और हरा पर्दा डाले रखता है, अमेरिका जिस तरह इसराईल की पुश्त-पनाही कर रहा है और जिस तरह ग़रीब मुल्कों की तरफ़ इम्दाद के तौर पर चंद टुकड़े फेंक देता है, जो दर-अस्ल उसके कानों का मैल भी नहीं, इस सियासी सूरत-ए-हाल पर इंतिज़ार हुसैन ने पुर-ज़ोर तंज़ किया है।
दूसरा रास्ता इस लिहाज़ से अहम कहानी है कि इसमें मुआशरे की उस समाजी सियासी हालत की तरफ़ इशारा किया गया है जिसे इंतिज़ार हुसैन के नॉवेल बस्ती के दूसरे हिस्से का पेश-ख़ेमा कहा जा सकता है। ज़फ़र और इम्तियाज़ डबल डेकर में खिड़की के बराबर बैठे कहीं जा रहे हैं। डबल डेकर में दो मंज़िलें हैं। कहीं ये ऐसे मुल्क या मुआशरे की तरफ़ तो इशारा नहीं जिसके दो हिस्से हों? बस में एक शख़्स के हाथ में लंबी सी छड़ी है। छड़ी से टंगी हुई गत्ते की तख़्ती पर लिखा हुआ है, मेरा नस्ब-उल-ऐन, मुसलमान हुकूमत के पीछे जुमा अदा करना। कुत्बे वाला आदमी बार-बार तक़रीर करता है और ईमान वालों को इंसाफ़-ओ-एहतिसाब की दावत देता है। गोया ये बस पूरा मुआशरा है जिसमें तरह-तरह के लोग सवार हैं। रास्ते में मुश्तइल हुजूम बसों पर पत्थर बरसा रहा है। चुनाँचे डबल डेकर बस दूसरा रास्ता इख़्तियार करती है। बस अपने रूट ही पर न चल रही हो तो स्टॉप पर रुकने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
कई बार दोनों को ये भी महसूस होता है कि जब ये बस चली थी तो उसका नंबर एक था, अब पता नहीं इसका क्या नंबर है और ये कहीं पहुँचेगी भी या नहीं, या इसका ड्राइवर निहायत ग़लत क़िस्म का आदमी है जो कई हादसे कर चुका है। सवारियों की हड्डियाँ पसलियाँ तुड़वा डालता है और ख़ुद साफ़ बच निकलता है। सवारियाँ ये भी सोचती हैं कि शायद बस बग़ैर ड्राइवर के चल रही है। ज़फ़र और इम्तियाज़ बराबर सवालिया निशान बने हुए हैं कि वो स्टेशन ही की तरफ़ जा रहे हैं या कहीं और। दोनों के सामने मेरा नस्ब-उल-ऐन वाला कुत्बा है और दोनों को यक़ीन नहीं कि वो सलामती से निकल जाएंगे। कुछ उसी नौईयत की बे-यक़ीनी और समाजी तंज़ की कैफ़ियत सेकंड राउंड में भी मिलती है जो आख़िरी आदमी की वाहिद सियासी कहानी है जिसमें हिंदुस्तान-पाकिस्तान की जंग को मौज़ू बनाया गया है।
अपनी आग की तरफ़ की मा'नवियत भी समाजी सतह पर खुलती है। यूँ तो इस कहानी की दूसरी ता'बीर भी की गई है, लेकिन कहानी इतनी वाज़ेह है कि किसी दूसरी ता'बीर की गुंजाइश ही नहीं। एक इमारत में आग लग गई और वो शख़्स जो बरसों से उस इमारत में एक कमरे में रहता था, बाहर खड़ा है। लोग उससे कहते हैं अपना सामान निकालो लेकिन वो ऐसा नहीं करता। घर की चीज़ें घर के अंदर रखे-रखे जड़ पकड़ लेती हैं। फिर उन्हें उनकी जगह से उठाना बहुत मुश्किल होता है, लगता है कि दरख़्त उखाड़ रहे हों। शहर में गड़बड़ है। रोज़ आग, रोज़ आग। हद हो गई। क्यों जी कुछ छोड़ेंगे भी या सब ही जला डालेंगे। जब हम एक दूसरे पर रहम नहीं करते तो अल्लाह हम पर क्यों रहम करेगा। बा'ज़-बा'ज़ इमारत इस तरह जलती है कि साथ में लगी बस्ती राख का ढ़ेर बन जाती है। अल्लाह अपना रहम करे। पूरी कहानी में ख़ाना-जंगी, बद-अमनी और आतिश-ज़नी की फ़िज़ा है।
शैख़ अली हजवीरी की रिवायत कहानी में मर्कज़ियत पैदा करती है कि एक पहाड़ में आग लगी हुई है, आग के अंदर एक चूहा है कि अंधा-धुंद चक्कर काट रहा है मगर जैसे ही वो पहाड़ की आग से बाहर निकलता है, मर जाता है। मर्कज़ी किरदार का घर जल चुका है, लेकिन वो अपने घर की तरफ़ जाता है, अपनी आग की तरफ़, क्योंकि वो मरना नहीं चाहता। मौत अंदर भी है और मौत बाहर भी है। लेकिन घर की मौत बाहर की मौत से बेहतर है। ख़ाना-जंगी और बद-अमनी की हालत में ये कैसा मा'नी-ख़ेज़ इशारा है।
इन कहानियों में जगह-जगह मुकालमों और सूरत-ए-हाल के ज़रिए, किरदारों के एहसासात और ज़ेहनी कैफ़ियात के ज़रिए और हिकायतों और तम्सीलों के ज़रिए इंतिज़ार हुसैन ने मुआशरे पर भरपूर तन्क़ीद की है। इनका लहजा कहीं भी मायूसी, अलमनाकी या दुरुश्ती का नहीं बल्कि हमदर्दाना है। ये अंदाज़-ए-नज़र वाज़ेह सियासी शुऊर और गहरी समाजी ज़िम्मेदारी की देन है। अलबत्ता जिस तरह से ये मज्मूआ वो जो खोये गए से शुरू होकर शहर-ए-अफ़सोस पर ख़त्म होता है, इससे इंतिज़ार हुसैन के बा'ज़ नाक़िदीन को हर तरफ़ क़यामत ही क़यामत के आसार नज़र आने लगे और इंतिज़ार हुसैन के फ़िक्शन को Doomsday Fiction से ता'बीर किया जाने लगा। घुटन सी घुटन है। कहीं रौज़न है न दरीचा। ख़्वाबों और ख़ुश-फ़हमियों को पनाह-गाह बनाने वाले पुराने दरख़्तों की तरह काट दिए जाते हैं, जला कर ढ़ेर कर दिए जाते हैं। (मोहम्मद सलीमुर्रहमान)
लेकिन वो इस बात को भी तस्लीम करते हैं कि इस मज्मुए में इंतिज़ार हुसैन का बुनियादी Concern अपने अहद के सियासी अल्मियों की फ़िक्र और वक़्त के लगाए हुए ज़ख़्मों का एहसास है। इससे मेरे मुंदरजा-बाला मुक़दमे की तौसीक़ होती है। उनका बयान है, सातवीं दहाई और आठवीं दहाई के आग़ाज़ से इंतिज़ार हुसैन को बहुत कुछ मिलता है जो ईंधन का काम करता है और उनके ज़ेहनी आतिश दान को रौशन रखता है। अय्यूब राज के ख़िलाफ़ बे-इत्मीनानी का उबाल, 1965 की जंग का दिल-ख़राश अंजाम, मशरिक़ी पाकिस्तान की भयानक ख़ूँ-रेज़ी और इन सब पर तुर्रा... दिसंबर 1971 की फ़ौजी ताराजी, ये सब ज़हर में बुझे हुए तीर हैं जो इंतिज़ार हुसैन के अलम अंगेज़ और ख़ूँ-फ़िशाँ फ़न के जिस्म में पैवस्त हैं। ये अगर सही तो फिर ये शिकायत क्यों ये जीना भी कोई जीना है, मगर लगता है जैसे जीने का यही अंदाज़ अपनाया जा रहा है।
गोया सियासी अल्मियों या समाजी ज़वाल पर दर्द का इज़हार मुसबत तख़्लीक़ी अमल नहीं है? क्या समाजी सूरत-ए-हाल पर तन्क़ीद या तंज़ एहतिजाज की शक्ल नहीं है? शायद ये लोग फ़नकार से किसी हल की तवक़्क़ो रखते हैं या राह-ए-निजात जानने के ख़्वाहिश-मंद हैं। ये रवैया बहुत कुछ उस तन्क़ीद से मिलता-जुलता है जो अदब से सिर्फ़ मसीहाई या पैग़म्बरी की तवक़्क़ो रखती है या फिर उससे फ़ार्मूला-ज़दा समाजी ख़िदमत का काम लेना चाहती है। नेक ख़्वाहिशात का एहतिराम ज़रूरी है, लेकिन क्या किया जाए कि सदियों से मंतक़ी उलूम, समाजी उलूम और साइंस-ओ-तकनोलाजी इंसान की फ़लाह-ओ-बहबूद ही के नेक काम में लगे हुए हैं। ले-दे के एक कम-बख़्त अदब है जो इंसानी फ़ितरत की नैरंगियों और बुल-अजबियों, ज़ेहनी उलझनों और कश्मकशों और निहाँ ख़ाना-ए-रूह की परछाइयों की आमाज-गाह है, यही उसकी समाजी ख़िदमत है।
इंतिज़ार हुसैन के फ़न के बारे में इससे मिलता-जुलता नतीजा मोहम्मद उमर मेमन ने भी अख़्ज़ किया है। लगता है इंतिज़ार हुसैन के फ़न को मन्फ़ी क़रार देने में वो ग़ालिबन मोहम्मद सलीमुर्रहमान से मुतअस्सिर हैं। उनका कहना है कि इंतिज़ार हुसैन की ये कहानियाँ याद-दाश्त के एक शुऊरी अमल के ज़रिए माज़ी की बाज़-याफ़्त की कोशिशें (हैं जिनका नतीजा) नाकामी और ज़वाल (है) और आख़िरन ख़ुद-तख़्लीक़ी शख़्सियत की मौत। मोहम्मद उमर मेमन ने वो जो खोये गए से शहर-ए-अफ़सोस तक अपना तन्क़ीदी सफ़र सीढ़ियाँ के ज़रिए तय किया है। उनको तीन कहानियाँ ऐसी मिल गईं जिनके मफ़ाहीम की खींच-तान से वो अपने मफ़रुज़े की ताईद कर सकते थे। चुनाँचे फ़नकार के पूरे ज़ेहनी सफ़र से इलाक़ा रखने की खकेड़ उठाने की ज़रूरत ही क्या थी।
तन्क़ीद की नज़र भी कैसे-कैसे तअस्सुबात को राह देती है। एक-बार जब हम कोई मफ़रूज़ा गढ़ लेते हैं तो फिर उसके हिसार में ख़ुद ही क़ैद हो जाते हैं और सोचते ये हैं कि क़िले की फ़सीलें और अबवाब महफ़ूज़ हैं और आफ़ियत इसी में है कि खुली फ़िज़ा को न देखें और चढ़ते-उतरते सूरज की रौशन क़बा और डूबते-निकलते चाँद सितारों के जाल के चक्कर में न पड़ें। ये तन्क़ीद भी उस तन्क़ीद से ज़्यादा दूर नहीं जो फ़नकार के लिए हिदायत-नामा तहरीर फ़रमाती है, हुक्म लगाती है, पेशिन-गोइयाँ करती है और फ़नकार को उस राह पर चलने की तर्ग़ीब देती है जिसमें फ़ार्मूलाई रिफ़ाह-ए-आम और ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ का ज़ियादा सामान हो।
मोहम्मद सलीमुर्रहमान की तरह मोहम्मद उमर मेमन ने भी सीढ़ियाँ की अहमियत पर इसरार किया है, लेकिन मेमन ने नतीजा अख़्ज़ करते हुए जहाँ रज़ी को याद रखा, सैयद को फ़रामोश कर दिया। रज़ी को नींद नहीं आती और ख़्वाब दिखाई नहीं देते, ये अगर इशारा है हाफ़िज़े के ज़वाल का तो सैयद को तरह-तरह के ख़्वाब दिखाई देते हैं जिन्हें वो बयान करता है, चुनाँचे वो मज़हर हुआ हाफ़िज़े की बाज़-याफ़्त का। रज़ी को भले ही नींद न आए या ख़्वाब दिखाई न दे। (ब-क़ौल मेमन शख़्सियत की मौत हाफ़िज़े का ज़वाल) लेकिन कहानी के आख़िर में सैयद की आँखें नींद से बोझिल हो रही हैं और वो कहता है कि आज कोई ख़्वाब ज़रूर दिखेगा। ये अंजाम मन्फ़ी है या मुसबत? इसका जवाब जानने की ज़रूरत नहीं। रहा मामला तख़्लीक़ी शख़्सियत की मौत का, तो इस पेशिन-गोई के बाद बहुत सा पानी हिंदुस्तान-पाकिस्तान के दरियाओं में बह चुका है और तख़्लीक़ी शख़्सियत ज़िंदा है या नहीं, इसका इल्म मोहम्मद उमर मेमन को होगा ही। उसके बाद इंतिज़ार हुसैन के ताज़ा-ज़ेहनी सफ़र का कुछ हाल और नई मुहिम-जोइयों का कुछ ज़िक्र आगे आता है।
शहर-ए-अफ़सोस की कहानियों के चंद बरस के अंदर-अंदर ही इंतिज़ार हुसैन ने अपना अहम नॉवेल बस्ती लिखना शुरू कर दिया होगा, उसका डोल डाल दिया गया होगा। ये नॉवेल मंज़र-ए-आम पर 1980 में आया। इस नॉवेल का तफ़्सीली ज़िक्र यहाँ मौज़ू से ख़ारिज है, लेकिन मुख़्तसिरन उसकी तरफ़ इशारा करना इस लिए ज़रूरी है कि मैं इस नॉवेल को इंतिज़ार हुसैन के फ़न की समाजी सियासी जिहत ही का एक कारनामा समझता हूँ। बस्ती एक मुआशरा या आबादी या शहर भी है और पूरा मुल्क या पूरा बर्रे सग़ीर भी। नॉवेल में जिन मक़ामी तारीख़ी हवालों की ज़बान में बात की गई है, उनके पेश-ए-नज़र इस वज़ाहत की ज़रूरत नहीं कि ये बस्ती कौन सी बस्ती है, और ये मुआशरा कौन सा मुआशरा है, लेकिन ये महदूद नौईयत का फ़न पारा नहीं क्योंकि इसमें असातीरी और दास्तानी अनासिर के इम्तिज़ाज से और बातिनी ख़ुद-कलामी के असर से आफ़ाक़ी फ़िज़ा पैदा हो जाती है। नॉवेल तक़सीम से पहले से शुरू होकर वाक़िआत-ए-बँगला देश के कुछ बाद के दौर पर मुहीत है। इसमें दोनों जंगों का ज़िक्र जिस तरह से आया है और उनकी मुआशरती, इंसानी जिहत से जो बहस की गई है, उसकी कोई मिसाल उससे पहले के उर्दू फ़िक्शन में नहीं मिलती।
इंतिज़ार हुसैन ने अपने तम्सीली उस्लूब से जा-ब-जा काम लिया है, जिससे नॉवेल में तहदारी, वुसअत और आफ़ाक़ियत पैदा हो गई है। नॉवेल का बुनियादी मौज़ू न सिर्फ़ इंसान का बल्कि पूरे-पूरे मुआशरों का ज़वाल है। हाबील-क़ाबील की रिवायत मर्कज़ी इस्तिआरे के तौर पर बार-बार उभरती है, यानी ख़ून सफ़ेद हो गया है, लालच और दूसरे का हिस्सा मारने की वजह से झगड़े बढ़ गए हैं, और भाई-भाई का ख़ून करता है। नॉवेल के शुरू के अबवाब जो रूप नगर और व्यासपुर की मुआशरती फ़िज़ा की बाज़-याफ़्त से मुतअल्लिक़ हैं, बेहद पुर-तासीर हैं और इनमें इंतिज़ार हुसैन का फ़न अपने उरूज पर देखा जा सकता है। नॉवेल के इन अबवाब को पढ़ कर इंतिज़ार हुसैन के नॉवलेट दिन और अफ़साने दहलीज़ और सीढ़ियाँ की याद ताज़ा हो जाती हैं। इनमें कुछ-कुछ इख़्तिलाफ़ात के साथ बुनियादी मुआशरती माहौल वही है, वही बचपन की लंबी रातों और खड़ी दोपहरियों के सिलसिले, वही नौजवान ख़ामोश लड़का और वही साबिर-ओ-शाकिर घुटती हुई लड़की, वही बंदर, गलियाँ, खेत और कुँएं की मुंडेर, वही यादों के धुंदले सिलसिले और ख़्वाबों की बातें।
बस्ती के बाद के अबवाब में जहाँ हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बँगला देश की आवेज़िश-ओ-पैकार और जंगों का ज़िक्र है उनमें दबी-दबी आग और गहरा दर्द है। सियासी जज़्र-ओ-मद या मुहारबात तारीख़ का हिस्सा हैं, इंतिज़ार हुसैन ने वाक़िआत बयान किए हैं, न हालात गिनवाए हैं, बल्कि आम इंसानों पर, सड़क की भीड़ पर, रेस्तरानों में बैठने वालों पर, ट्रैफ़िक की रफ़्तार पर, गली-कूचों, घरों और बाज़ारों पर, हत्ता कि चरिंदों, परिंदों, पेड़ पौदों पर उन अलमनाक तनाज़ोंओं के जो असरात मुरत्तब होते हैं, ये सारी रहने-बसने वाली दुनिया और पूरी बस्ती उन्हें जिस तरह देखती सहती और भुगतती है, इंतिज़ार हुसैन ने निहायत पुर-तासीर पैराए में उस मुआशरती और आफ़ाक़ी दर्द को बयान किया है। पूरे नॉवेल में मर्कज़ी किरदार ज़ाकिर की ज़िंदगी के वाक़िआत उसके बातिनी ज़ेहनी सफ़र के साथ गूँधे हुए सामने आते हैं।
उन तैंतीस 33 बरसों के नशेब-ओ-फ़राज़ और सियासी-ओ-मआशी ज्वार-भाटे पर उर्दू में शायद ही कोई नॉवेल इस नौईयत का हो। इसमें जिस ज़ेहनी जुर्अत और ए'तिमाद से मुआशरे का एहतिसाब किया गया है और ख़ुद-तन्क़ीदी को रवा रखा गया है, वो अपनी जगह निहायत मुसबत तख़्लीक़ी अमल है और मेरा ख़्याल है कि जैसे-जैसे वक़्त गुज़रता जाएगा, उसकी माअनवियत और अहमियत तस्लीम की जाएगी। आम इंसानी ज़वाल, इंतिशार और मुआशरती और बातिनी बे-चैनी पर ये अपनी नौईयत का पहला नॉवेल है। इसका ढाँचा हक़ीक़त-पसंदाना है लेकिन जगह-जगह असातीरी दास्तानी फ़िज़ा का हवाला उसे मक़ाम और वक़्त की रस्मी हुदूद से ऊपर उठाकर इसके मौज़ू को Universalise आफ़ाक़िया देता है।
जिस तरह इंतिज़ार हुसैन के दास्तानी पैराए, हिकायती अंदाज़ और तम्सीली उस्लूब ने उर्दू अफ़साने की फ़िज़ा बदल दी है और एक नई तख़्लीक़ी सतह का इज़ाफ़ा किया है, उसी तरह बस्ती में उन्होंने अम्दन दास्तानी पैराए और हक़ीक़त पसंदाना नॉवेल के अज्ज़ा को मर्बूत करके एक मुन्फ़रिद सिन्फ़ी ढाँचा ख़ल्क़ करने की कोशिश की है जो लायक़-ए-तवज्जोह है और मानियाती तहदारी का एजाज़ है, ताहम नॉवेल की कशिश में जिस चीज़ से कुछ कमी वाक़ेअ् होती है, वो मर्कज़ी किरदार की इन्फ़आलियत है। इंतिज़ार हुसैन ने उसका नाम ज़ाकिर बिला वजह नहीं रखा। नॉवेल में सारा ज़िक्र-ओ-अज़्कार उसी से चलता है। वो रावी की ज़बान, नाज़िर की आँख और सामेअ् की समाअत तो है ही, इसके साथ-साथ उसकी एक हैसियत इसफ़ंज की भी है जो हर चीज़ को जज़्ब करता है, लेकिन रद्द-ए-अमल की शिद्दत से किसी चीज़ को बाहर नहीं फेंकता। वो डाल से टूटा हुआ पत्ता है जो हवा के थपेड़ों के साथ उड़ा चला जा रहा हो। वो किसी Crisis में कोई फ़ैसला नहीं करता। ये इन्फ़आलियत पूरी बस्ती का मूड भी है।
इसका क़रीना है कि शायद इंतिज़ार हुसैन ने मर्कज़ी किरदार को अम्दन ऐसा ही ख़ल्क़ किया है, क्योंकि वो फ़र्द भी है, मुआशरा भी, बस्ती भी और बर्रे सग़ीर की इस्लामी, सक़ाफ़ती रिवायत भी, दूसरी वजह शीराज़ का बार-बार दर आना और चाय-ख़ाने में मुकालमों की कसरत है जिनके शुरका महदूद हैं, घूम-फिर के वही चंद दोस्त जिनकी गुफ़्तगू से कहीं-कहीं तकरार की कैफ़ियत पैदा होती है, नीज़ वाक़िआत की रफ़्तार, जो नॉवेल में यूँ भी सुस्त है, मज़ीद सुस्त पड़ जाती है। ताहम नॉवेल अहद-ए-जदीद के कर्ब और अंदोह को जिस तरह गिरफ़्त में लेता है, जिस तरह मुआशरों के घाव दिखाता है और जिस तरह उमूमी इंसानी ज़वाल पर तन्क़ीद करता है, इस लिहाज़ से उसे उर्दू नॉवेल का एक नया और मा'नी-ख़ेज़ क़दम कह सकते हैं और ये इंतिज़ार हुसैन के फ़न की समाजी सियासी जिहत, मुआशरती ख़ुद-एहतिसाबी और गहरी इंसान-दोस्ती का बय्यिन सुबूत है।
इस हिस्से को ख़त्म करने से पहले उन चंद कहानियों पर भी मुख़्तसिरन नज़र डाल लेनी चाहिए जो अगरचे शहर-ए-अफ़सोस में शामिल हैं, लेकिन जिनका मानियाती रिश्ता पिछले दौर यानी आख़िरी आदमी वाले दौर की कहानियों से है। ऐसी कहानियों में से तीन ख़ास हैं। दहलीज़, सीढ़ियाँ और मुर्दा आँख। ये मो'तक़िदात, असातीरी असरात और इंसान के नस्ली और इज्तिमाई सफ़र की दाख़िली कहानियाँ हैं। इन तीनों में दहलीज़ का शुमार इंतिज़ार हुसैन की बेहतरीन कहानियों में किया जा सकता है। काश यहाँ इतनी गुंजाइश होती कि दहलीज़ का तफ़सीली ज़िक्र किया जा सकता है। कोठरी की दहलीज़ दर-अस्ल यादों की दहलीज़ है जिसके पास अँधेरे देस की सरहद है जो माज़ी में रह गया है। नॉवेल्ट दिन में यही दहलीज़ हवेली है जो पूरे माज़ी और उसकी माअनवियत को सँभाले हुए है। वही घुटती कुढ़ती सीनों में दम तोड़ती हुई मोहब्बत जो इज़हार की राह देखते-देखते ख़त्म हो जाती है।
दहलीज़ अलबत्ता इस लिहाज़ से मुन्फ़रिद है कि इसका मर्कज़ी किरदार एक औरत है जिसका बचपन, जवानी और मोहब्बत उसी अँधेरे में डूब चुके हैं। ये इंतिज़ार हुसैन की वाहिद कहानी है जिसमें सदियों की गूँज और ज़मीन और मुआशरे से वाबस्तगी को औरत की नज़र से देखा गया है और जो कुछ भी सोचा और महसूस किया गया है, औरत के दिल-ओ-दिमाग़ से सोचा और महसूस किया गया है। औरत की नज़र से इन वाबस्तगियों का बयान इंतिज़ार हुसैन के फ़न में न होने के बराबर है। ये कहानी इस लिहाज़ से भी अहम है कि इसमें जिस तरह ज़मीनी रिश्तों और घर-ख़ानदान की बू-बास है, इससे मिलता-जुलता इज़हार नॉवेल्ट दिन के अलावा नॉवेल बस्ती के शुरू के हिस्से में भी आया है, जहाँ रूप नगर का ज़िक्र है। इस मौक़े पर रूप नगर की सवारियाँ भी ज़ेहन में उभरती हैं। लगता है कि रूप नगर की यादें ही दहलीज़ के पार करने की यादें हैं, और इसी से इस कहानी के हुस्न-ओ-तासीर का अंदाज़ किया जा सकता है।
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लगभग उसी ज़माने में इंतिज़ार हुसैन के फ़न पर एक और मा'नी-ख़ेज़ जिहत का इज़ाफ़ा होता है। उसे उनके चौथे दूर का आग़ाज़ कह लीजिए या चौथा पड़ाव। लेकिन शायद पड़ाव या मंज़िल नाम की कोई चीज़ उनके ज़ेहनी सफ़र में है ही नहीं। ये एक मुसलसल सफ़र है, एक मुतहर्रिक ज़ेहन का, जो मुख़्तलिफ़ गुज़र-गाहों से निकलता हुआ जारी है और कुछ नहीं कहा जा सकता कि इसका अगला पड़ाव या मंज़िल क्या होगी। इंतिज़ार हुसैन के फ़न की चौथी जिहत इबारत है अहद-ए-वुस्ता के दास्तानी अंदाज़ से भी ज़ियादा पीछे जाकर अहद-ए-क़दीम की मुख़्तलिफ़-उन-नौअ् असातीरी रिवायतों को बाहम आमेज़ करने और ज़िंदगी की सदाक़तों को ब-यक वक़्त बोध, इस्लामी और क़ब्ल इस्लामी असातीरी रिवायतों के तनाज़ुर में देखने और नई तख़्लीक़ी सतह पर उनका इज़हार करने से। इस नौईयत की मिसालें उन अफ़सानों में देखी जा सकती हैं जो शहर-ए-अफ़सोस की इशाअत के बाद इधर-उधर रसाइल-ओ-जराइद में सामने आए हैं और अभी तक किसी मज्मुए की शुक्ल में शाएअ् नहीं हुए।
इनमें से ज़ैल के अफ़साने पेश-ए-नज़र हैं, कछुए (शब ख़ून), वापस(मेअ्यार, 1), रात, दीवार (शुऊर, 1), कश्ती (मेहराब), नई बहुवें (माह-ए-नौ), शोर(माह-ए-नौ), पूरी औरत (अदब-ए-लतीफ़), इंतिज़ार (अलफ़ाज़)। इनके अलावा उस दौर के और भी अफ़साने होंगे लेकिन नए ज़ेहनी सफ़र की सम्त नुमाई इनसे बहर-हाल हो जाती है, और हावी रुजहान की निशान-देही भी की जा सकती है जिसकी नुमाइंदगी कश्ती, कछुए और वापस से होती है। वैसे इन कहानियों में एक और ज़ेहनी रुजहान भी मिलता है, ज़िंदगी के आम मसाइल या रोज़-मर्रा के मसाइल पर इज़हार-ए-ख़याल का या छोटी-छोटी नफ़सियाती हक़ीक़तों पर कहानी लिखने का। इंतिज़ार हुसैन ने इधर कई छोटी-छोटी कहानियाँ लिखी हैं जिनमें किसी सामने की बात को मौज़ू बना कर कहानी कही गई है। ऐसी कहानियों में ज़्यादा गहराई नहीं, लेकिन ताज़गी ज़रूर है क्योंकि अक्सर-ओ-बेशतर इनमें ऐसे मौज़ूआत को लिया गया है जिसकी तरफ़ इंतिज़ार हुसैन ने इससे पहले तवज्जोह नहीं की।
उन छोटी-छोटी कहानियों से इस अमर का ज़रूर पता चलता है कि मौज़ूआती तनव्वोअ् इख़्तियार करने की तरफ़ क़दम बढ़ाया जा रहा है। मिसाल के तौर पर नई बहुएं में औरतों की मुलाज़मत करने के मसाइल हैं और आज के निज़ाम-ए-तालीम पर तंज़ है। शोर में इस नफ़सियाती नुक्ता-चीनी का बयान है कि अगर हम किसी ऐसी कैफ़ियत का शिकार हों जो भले ही नापसंदीदा हो, लेकिन अगर हम उसके आदी हो चुके हैं तो उससे छुटकारा पाकर भी ख़ुश नहीं हो सकते। इंतिज़ार जदीद दौर के नौजवान लड़के-लड़की की चोरी छुपे की मुलाक़ात की कहानी है, इसमें लड़के-लड़की की ततबीक़ दास्तानों के शहज़ादा-शहज़ादी से करके कहानी को ज़मानी अमक़ दिया गया है, लेकिन बुनियादी नुक्ता ये है कि औरत और वक़्त जाकर वापस नहीं आते।
उसी तरह एक और छोटी सी कहानी है, पूरी औरत। इसका मर्कज़ी ख़्याल ये है कि मर्द अगर ज़िंदगी में मार खा जाये तो इसकी तकमील नहीं हो पाती, मगर लड़की कामयाब हो या नाकाम, पूरी औरत बन कर रहती है। ये सब सीधी-सादी बयानिया कहानियाँ हैं। उस दौर की बा'ज़ तम्सीली कहानियों में भी ये कैफ़ियत मिलती है और उनमें किसी न किसी नफ़्सियाती नुकते को बयान किया गया है। रात और दीवार इस लिहाज़ से पिछले दौर की कहानियों बिल-ख़ुसूस वो जो दीवार को न चाट सके की तौसीअ हैं कि इनमें याजूज-माजूज की तम्सील से मदद ली गई है, लेकिन बुनियादी तौर पर ये भी नफ़्सियाती कहानियाँ हैं और इस लिहाज़ से उस दौर की दूसरी मुख़्तलिफ़-उल-मौज़ूअ छोटी-छोटी कहानियों से अलग नहीं। उस दौर की इम्तियाज़ी तम्सीली कहानियों को लेने से पहले रात और दीवार पर एक नज़र डाल लेना इसलिए ज़रूरी है कि बुनियादी तम्सील यानी याजूज-माजूज की मर्कज़ी Kernel हिकायत एक सही, लेकिन इंतिज़ार हुसैन ने हर जगह नए मफ़ाहीम पैदा किए हैं।
रात का बुनियादी मस्अला ये सवाल है कि इंसान किसी ला यानी काम का आदी हो जाए तो क्या उसके बग़ैर वो ज़िंदा रह सकता है। याजूज और माजूज को मालूम है कि वो दीवार को अज़ल से चाट रहे हैं और अब्द तक चाटते रहेंगे और उनका हाल वही है जो किसी आमिल ने अपने हमज़ाद का किया था कि पालतू कुत्ते के घुंघरियाले बाल सीधे करते रहो। हमज़ाद बार-बार कुत्ते के बाल सीधे करता और बार-बार वो मुड़ जाते। उनको मालूम है कि ज़बान का काम बोलना है, दीवार चाटना नहीं, ताहम जब वो दीवार चाटना बंद कर देते हैं और उसे बोलने के काम में लगाते हैं तो ज़बान में खुजली होने लगती है और बिल-आख़िर वो दोनों लंबी-लंबी ज़बानें निकाल कर फिर दीवार चाटने लगते हैं। ज़बान अगरचे मोटी पड़ गई है और रोज़ उसमें नए ज़ख़्म पैदा हो जाते हैं, लेकिन वो दीवार चाटने के लायानी काम से बाज़ नहीं रह सकते।
सुबह होने से चूँकि उस लायानी काम में ख़लल पड़ता है, इसलिए वो ये दुआ करने पर मजबूर हैं, ऐ हमारे रब! तेरी बख़्शी हुई लंबी दर्द भरी रात हमारे लिए बहुत है। सुबह के शर से हमें महफ़ूज़ रख और उजाले के फ़ित्ने को दफ़ा कर। आख़िरी जुमले के तंज़ से कहानी की मा'नवियत उजागर हो जाती है। यूँ कहा जा सकता है कि अफ़राद हों या जमाअतें, जब किसी लायानी आदत में गिरफ़्तार या बुराई के आदी हो जाएं तो हवास बे-हिस हो जाते हैं और वो तारीकी को रौशनी पर तरजीह देते हैं, गोया अपनी हालत से बाहर आने को तैयार नहीं होते।
दीवार अगरचे न याजूज-माजूज हैं न दीवार चाटने का अमल, लेकिन सारी तवज्जोह भारी सख़्त दीवार पर है और फ़िज़ा बे-हासिली और तहय्युर की है यानी दीवार के दूसरी तरफ़ क्या है? ये सवाल सबको खाए जाता है कि दीवार के पार क्या है? कितने ही रफ़ीक़ दीवार पर चढ़े, मगर वापस नहीं आए। दीवार पर पहुँच कर उन्होंने क़हक़हा लगाया और दूसरी तरफ़ उतर गए। ये दीवार किसी ऐसे भेद का संगीन इशारिया तो नहीं जो महज़ इसलिए भेद है कि आँखों से ओझल है। हक़ीक़त ये है कि दीवार के दूसरी तरफ़ जानने के लिए कुछ भी नहीं है और जो आदमी दीवार पर चढ़ता है, यही देख कर कि वहाँ देखने के लिए कुछ भी नहीं है, हँसता है।
मंदरीस जो उनमें सबसे बड़ा था, रसी बाँध कर दीवार पर चढ़ा ताकि दूसरी तरफ़ न उतर जाए लेकिन वो भी ऊपर पहुँच कर क़हक़हा लगाता है। उसके साथी उसे दूसरी तरफ़ जाने से रोकने के लिए खींचते हैं तो उसका आधा धड़ दीवार के उधर आ गिरता है और आधा उधर। यानी ये कि शौक़ फ़िज़ूल का शिकार होकर इंसान न इधर का रहता है न उधर का। ये शौक़ फ़िज़ूल मग़रिब की नक़्क़ाली का भी हो सकता है जिसने मशरिक़ को कहीं का नहीं रखा और मशरिक़ की शख़्सियत को दो लख़्त कर दिया है, या ये शौक़ फ़िज़ूल उस भेद को जानने का भी हो सकता है जो महज़ इसलिए भेद है या पुर-कशिश है, क्योंकि वो आँखों से ओझल है, यानी नामालूम के लिए इंसान हमेशा एक कसक, एक कशिश महसूस करता है। इस लिहाज़ से ये दोनों कहानियाँ नफ़्सियाती हैं। रात में तारीकी का शिकार रहने की या किसी फ़िज़ूल आदत में गिरफ़्तार होने की जबरियत है और दीवार में ना मालूम की कशिश की नफ़्सियाती कैफ़ियत है।
अब तक जिन कहानियों का ज़िक्र किया गया है, उनमें सीधी-सादी बयानिया कहानियाँ भी हैं और तम्सीली भी, लेकिन ये उस दौर के जै़ली रुजहान की कहानियाँ इसलिए हैं कि उनमें किसी गहरी सच्चाई को नहीं बल्कि सामने की किसी नफ़्सियाती हक़ीक़त को बयान किया गया है। उस दौर के इम्तियाज़ी निशानात अलबत्ता जिन कहानियों में मिलते हैं, वो हैं कछुए, वापस और कश्ती। अव्वल तो इनके मौज़ूआत में ज़िंदगी के बुनियादी मसाइल यानी बक़ाए इंसानी और सरिश्त इंसानी जैसे पेचीदा सवालात को लिया गया है, लेकिन अहमियत बिज़्ज़ात मौज़ू की नहीं बल्कि उसकी फ़न्नी पेशकश की है यानी जिस पैराए में और जिन वसाइल से उसे बयान किया गया है, इस एतिबार से देखा जाए तो उस दौर की इम्तियाज़ी ख़ुसूसियत ये है कि इन कहानियों में बोध जातकों और हिंदुस्तानी देव माला को पहली बार आला तख़्लीक़ी सतह पर इस्तेमाल किया गया है और कश्ती में तो हिंदुस्तानी देवमाला, इस्लामी रिवायतों, सुमेरी और बाइबली असातीरी सबको मिलाकर एक बिल्कुल नया तकनीकी तजुर्बा करने की कोशिश की गई है।
एक ऐलान से मालूम हुआ है कि इंतिज़ार हुसैन ने अपने नए मज्मुए का नाम, जो अभी मंज़र-ए-आम पर नहीं आया, कछुए रखा है। ये अगर सही है तो बिला-वजह नहीं, क्योंकि गली-कूचे, आख़िरी आदमी, शहर-ए-अफ़सोस, इंतिज़ार हुसैन के अक्सर मज्मुए उनके उस दौर के तख़्लीक़ी सफ़र के हावी रुजहान का पता देते हैं और उन मज्मूओं की बेशतर कहानियों में बातिनी वहदत मौजूद है। ताज़ा कहानियों के मज्मुए का नाम कछुए भी ग़ालिबन उसी एहसास के तहत होगा।
बोध असर का पहला इशारा इंतिज़ार हुसैन के यहाँ शहर-ए-अफ़सोस में मिलता है जहाँ गया का भिक्शु कहता है कि दुनिया में दुख ही दुख है और निर्वाण किसी सूरत नहीं है और हर ज़मीन ज़ालिम है और आसमान तले हर चीज़ बातिल है। लेकिन ये महज़ हवाले की हद तक है। बोध जातकों का भरपूर असर चौथे दौर की ख़ुसूसियत है।
कछुए और वापस दोनों की बुनियाद बोध जातकों पर है। उनमें ज़बान भी प्राकृतों का उंसुर लिए हुए क़िदामत-आमेज़ है जिससे क़दीम अहद की फ़िज़ा-साज़ी में मदद मिली है। वापस में तथागत भिक्शुओं को बनारस के सुंदर नगर की जातक सुनाते हैं और बताते हैं कि एक ज़माना था जब तथागत बनारस के मरघट के कुत्ते थे। रथ के गद्दों का चमड़ा राज महल के कुत्तों ने खा लिया, लेकिन सज़ा मरघट के कुत्तों को दी गई। मरघट के कुत्तों ने गुरु को अपनी बिप्ता कह सुनाई। गुरु कुत्ते ने राज महल के कुत्तों को दूध में घास और घी मिलाकर पिलवाया और दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। राज महल के कुत्तों ने दूध पीने के बाद उबकाई ली और चमड़े के टुकड़े अगल दिए। मरघट के गुरु कुत्ते ने राजा को न्याय और अन्याय की शिक्षा दी और लाख बरस तक बनारस में न्याय होता रहा और सुख चैन रहा, तथागत ने भिक्शुओं से कहा कि वो कुत्ता मैं ही था।
और राज महल के कुत्ते? एक भिक्षु ने पूछा।
वो आज भी कुत्ते ही हैं।
भिक्षुओं ने सोचा कि सच की जोत जगाकर कुत्ते भी आदमी बन गए और आज का आदमी अगरचे आदमी के जन्म में है और बाहर से आदमी दिखाई देता है लेकिन अंदर से कुछ और है, शायद कुत्ते से भी बद-तर, क्योंकि लज़्ज़तों और ख़ुद-ग़र्ज़ियों का शिकार होकर वो न्याय और अन्याय में फ़र्क़ करने की सलाहियत खो चुका है।
उसी तरह कछुए भी जातकों पर मब्नी कहानी है। इसमें शांति की खोज की फ़िज़ा है। भिक्शु विद्या सागर, सुंदर समुंदर, और गोपाल मह्व-ए-गुफ़्तगू हैं। उनका जी तृष्णा के चंगुल में है और वो बोधिसत्व की हिकायतें सुनाकर अक़्ल-ओ-दानिश के रमूज़ वि निकात बयान करते हैं। इस कहानी में बोधि हिकायतें सिलसिला दर सिलसिला चलती हैं। मोह, माया, पाप और तृष्णा के सताए हुए इंसान कछुए के समान हैं। जब तलय्या का पानी सूख गया तो मुर्ग़ाबियों ने कछुए से कहा इस डंडे को बीच से पकड़ ले और हम तुझे उड़ाकर हिमालय पहाड़ पर ले जाएंगी जहाँ बहुत पानी है। वो ज़मीन पर रेंगने वाला जानवर भला इतनी ऊँचाई पर कैसे पहुँचता। मुर्ग़ाबियों ने उससे वचन लिया कि ज़बान नहीं खोलेगा तो उसे ठीक-ठाक पहुंचा देंगी। पर रास्ते में कछुए से रहा न गया जब ज़मीन के बालकों ने कछुए को आसमान में उड़ते देख कर शोर मचाया तो कछुए ने जीभ खोली और टप से नीचे आगरा। तब से अब तक कछुआ यानी आज का इंसान पानी की तलाश में या शांति की खोज में है, और हर वक़्त उसी दुबिदा में है कि डंडी उसके दाँतों में है या दाँतों से छूट गई है।
उस दौर की बेहतरीन तम्सीली कहानी बहर-हाल कश्ती है। इसमें क़दीम सामी-ओ-इस्लामी रिवायतों और हिंदुस्तानी देवमालाई हिकायतों को तख़लीक़ी तौर पर मरबूत करने की कोशिश की गई है। इस लिहाज़ से ये अफ़सानवी तकनीक का ऐसा तजुर्बा है जिसकी कोई मिसाल इससे पहले उर्दू में नहीं मिलती। कश्ती में मस्अला नस्ल-ए-इंसानी की तबाही-ओ-बर्बादी और उसकी बक़ा Survival का है। उसकी एक जिहत हंगामी मक़ामी भी हो सकती है और एक दाइमी आफ़ाक़ी भी। ये दुनिया जब ज़ुल्म-ओ-सितम से भर जाती है तो तबाही-ओ-बरबादी का दौर आता है और हर चीज़ नेस्त-ओ-नाबूद हो जाती है। इसका ज़िक्र तमाम मज़हबी रिवायतों में आया है, ख़्वाह वो क़हर इलाही की सूरत में हो, आफ़ात अर्ज़ी-ओ-समावी की सूरत में या तूफ़ान-ओ-सैलाब बला की सूरत में। मुद्दतों तक पेड़-पौदे, जिन-ओ-इंस सब तह-ए-आब ग़र्क़ हो जाते हैं, किसी आबादी का कोई निशान बाक़ी नहीं रहता, लेकिन ख़ुदा भी अपनी तख़्लीक़ से मायूस नहीं और इस तरह इंसान को एक मौक़ा और मिल जाता है।
कश्ती में न सिर्फ़ क़ुर्आन-ए-पाक बल्कि अहद-नामा-ए-क़दीम, तौरेत और वेदों, पुराणों और शास्त्रों सबकी मज़हबी और असातीरी रिवायतों से मदद ली गई है और बक़ाए इंसानी के बारे में बुनियादी नौईयत के सवालात क़ाइम किए गए हैं। कश्ती में सवार लोग कुर्रा-ए-अर्ज़ के किसी एक मक़ाम का कोई समाज भी हो सकते हैं, या कोई एक क़ौम, या पूरी नौअ-ए-इंसानी। कहानी ब-ज़ाहिर हिजरत के एहसास और मुआशरे की उस घुटन से शुरू होती है जिसका फ़ौरी हवाला बर्रे सग़ीर की हालिया तारीख़ में दस्तयाब है। बाहर मेंह है अंदर हब्स है और चारों तरफ़ पानी ही पानी। बारिश है या क़यामत, हवा चली जा रही है, आदमी आख़िर कहाँ जाए। जानवरों के दरमियान साँस लेना और भी मुश्किल होता है।
पता नहीं कब तक हम इस तौर जानवरों की तरह बसर करते रहेंगे।
इंसान चंद ही हैं बाक़ी चरिंद-परिंद। ये जुमले मुआशरे की उमूमी हालत और तारीख़ी जब्र का इशारा भी हो सकते हैं। कश्ती में किसी को अंदाज़ नहीं कि मेंह कब से बरसना शुरू हुआ था, कितने दिन से सफ़र में हैं और कब से घर छूट चुके हैं। इंतिज़ार हुसैन के फ़न में सफ़र की मर्कज़ियत की तरफ़ पहले इशारा किया जा चुका है। सफ़र का गहरा रिश्ता हिजरत से है। यूँ महसूस होता है कि जन्म-जन्म से सफ़र में हैं। वो ये सोच कर हैरान हुए कि हमारे घर भी थे, ज़ीने, ड्योढ़ियाँ, आँगन लेकिन, उन घरों को क्या याद करना जो ढ़ह गए। सबने मिल कर अपने घरों को याद किया और वो रोए क्योंकि उनके घरों की बरबादी मुक़द्दर हो चुकी थी। घरों के इस ज़िक्र में वो फ़िज़ा है जो दहलीज़, सीढ़ियाँ और बस्ती के शुरू के अबवाब में मिलती है। लगता है इंतिज़ार हुसैन की यादों का कुछ न कुछ तअल्लुक़ ज़ीनों और सीढ़ियों से है। कश्ती के शुरू में घरों के ढ़ह जाने के साथ ये ज़िक्र मिलता है,
वो हिरनी जैसी आँखों वाली कि अपने लबादे के अंदर दो पके फल लिए फिरती थी, सीढ़ियों के बीच मुझसे टकराई तो लगा कि दो गर्म धड़कते पोटे वाली कबूतरियाँ उसकी मुट्ठी में आ गईं... काश वो मेरे साथ सवार हो जाती, जाने अब किन पानियों में घिरी होगी।
एक ज़बरदस्त सैलाब का ज़िक्र दुनिया की तक़रीबन तमाम मज़हबी रिवायतों में मिलता है। ग़ालिबन उनके अव्वलीन माख़ुज़ Gilgamesh गिलगामेश की Myth (जिससे होमर की ओडीसी भी मुतअस्सिर हुई है) और इंजील की रिवायतें हैं जहाँ अहद-नामा-ए-अतीक़ Old Testament की पहली किताब Genesis (VI-IX) में तूफ़ान नूह का ज़िक्र आया है। कश्ती में भी तूफ़ान का ज़िक्र गिलगामेश की रिवायत से शुरू किया गया है जो मौत का तसव्वुर करता है और सोचता है कि जब ख़ुदा, एनलील Enlil ने नाराज़ होकर तूफ़ान अज़ीम भेजा था तो सिर्फ़ इतना पुश्तम Ut-Napishtim हिदायत के मुताबिक़ बनाई हुई कश्ती में बच रहा था और पूरी नस्ल इंसानी ग़र्क़ हो गई थी।
इंजील में इसका जो ज़िक्र आया है, वो Yahweh रिवायत से माख़ूज़ है। Yahweh रिवायत इंजील से छः सौ साल पुरानी है। इसमें है कि पूरी नस्ल-ए-इंसानी सिवाए नूह के जब बुराइयों में घिर गई तो Yahweh ने उसे नेस्त-ओ-नाबूद करने का फ़ैसला किया। उसने नूह को ख़बरदार किया और हुक्म दिया कि वो अपनी सलामती के लिए कश्ती बना ले। जब तूफ़ान आया तो वो मअ अपने घर के अफ़राद के, जानवरों के सात जोड़ों के साथ कश्ती में सवार हुआ ताकि उनकी नस्ल भी बाक़ी रहे। सात महीनों और सत्रह दिनों के बाद जब तूफ़ान रुक गया तो नूह ने एक कव्वे को उड़ने दिया लेकिन उसे कोई अमान न मिली और वो वापस आ गया। फ़ाख़्ता उड़ी वो भी उसी तरह लौट आई। सात दिन के बाद फ़ाख़्ता को दोबारा भेजा, और अबकी वो ज़ैतून की एक टहनी चोंच में लेकर आई। मज़ीद सात दिन के बाद वो फिर उड़ी और इस बार लौट कर न आई। नूह कश्ती से उतरा और नस्ल-ए-इंसानी की आबाद-कारी के नए दौर का आग़ाज़ हुआ।
लगता है कि ये रिवायत दो हज़ार साल क़ब्ल मसीह से क़ब्ल सुमेरी Sumerian और इब्रानी क़िस्सों से शुरू हुई और दुनिया की तहज़ीबों में फैल गई। Deucalion के यूनानी क़िस्से भी इसी से मुतअस्सिर हुए और संस्कृत में मनु की रिवायत भी उन्हीं क़िस्सों से चली होगी। उन सब की पुश्त पर ग़ालिबन वो ज़बरदस्त तारीख़ी सैलाब रहा होगा जिसमें पूरा Tigris-Euphrates दवाब्ब ग़र्क़ हो गया होगा और जिसके 1900 साला क़ब्ल मसीह के क़दीम आसार मेसोपोटामिया की खुदाइयों में दर्याफ़्त हो चुके हैं।
क़ुर्आन-ए-पाक की सूरह नूह में भी इस रिवायत की तरफ़ इशारा मिलता है। मिलती-जुलती रिवायतों में मज़्कूर है कि हज़रत नूह ने एक अर्से तक अपनी क़ौम को ख़ुदा का पैग़ाम दिया लेकिन लोग भलाई की तरफ़ नहीं आए सिवाए 80 आदमियों के। तब ख़ुदा ने ज़बरदस्त तूफ़ान भेजा। हज़रत नूह ने हिदायत-ए-इलाही के मुताबिक़ एक कश्ती तैयार की। उसमें 80 ईमान वालों के अलावा हर जानवर का एक-एक जोड़ा रखा ताकि तूफ़ान के बाद उन जानवरों की नस्ल चले। हज़रत नूह का बेटा कन्आन या साम बे-दीन था, वो कश्ती में न आया और तूफ़ान में ग़र्क़ हुआ। तूफ़ान नूह के बारे में ये भी रिवायत है कि आग़ाज़ तूफ़ान के वक़्त कूफ़े के मक़ाम पर एक बुढ़िया के तन्नूर से पानी उबलना शुरू हुआ और आसमान से ज़बरदस्त बारिश शुरू हुई।
मलिक के बेटे नूह ने ज़बान खोली और कहा कि ऐ मेरी ज़िंदगी की शरीक डर उस दिन से कि तेरा गर्म तंदूर ठंडा हो जाए और तू आ कर मुझे तूफ़ान की ख़बर सुनाए और भोर भए मनु जी ये देख कर भौचक रह गए कि मछली बड़ी हो गई है और बासन छोटा रह गया है।
इस मक़ाम पर इंतिज़ार हुसैन ने कहानी में मनु और प्रलय की रिवायत का ज़िक्र जोड़ दिया है। मनु, मन से है यानी ज़ेहन या सोचना। मनु के चौदह सिलसिले बयान हुए हैं। हर सिलसिला लाखों साल तक इस कायनात में विराजमान रहा है। महाप्रलय या सैलाब-ए-अज़ीम की रिवायत सातवें मनु से मुतअल्लिक़ है। इसका अव्वलीन ज़िक्र वेदों में नहीं बल्कि Shatapatha Brahmana (600 क़ म) में मिलता है और कश्ती का हवाला ग़ालिबन उसी रिवायत से माख़ूज़ है कि एक दिन जब मनु के हाथ धोने का पानी लाया गया तो उसमें से एक मछली निकली। मछली ने कहा, मुझे पनाह दो मैं तुम्हारी हिफ़ाज़त करूँगी। मनु ने मछली को घड़े में डाल दिया। मछली दिन ब दिन बड़ी होती चली गई। मनु ने उसे दरिया में डाला। मछली दरिया से भी बड़ी हो गई। मनु ने उसे समुद्र में ले जाकर छोड़ दिया। मछली ने कहा बहुत जल्द महाप्रलय आएगी जिसमें सब चीज़ नेस्त-ओ-नाबूद हो जाएगी। मुझे याद करके एक कश्ती बनाइयो, मैं तुझे बचाऊँगी।
सैलाब आया और मनु ने अपनी कश्ती मछली की मूँछ के बाल से बाँध दी। जब सैलाब में जिन्न-ओ-इंस, पेड़-पौदे, शहर आबादियाँ सब ग़र्क़ हो गए तो मछली ने कश्ती को हिमालय पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर टिका दिया। जब पानी उतरा तो मनु हैरान हुआ कि सिवाए उसके कोई जानदार सृष्टि में न बचा था। उसे औलाद की ख़्वाहिश हुई और पूजा करने से एक लड़की ख़ल्क़ हुई। मनु ने उसे पाल-पोस कर बड़ा किया फिर वही उसकी रफ़ीक़ा-ए-हयात बनी और उसी से अज़ सर-ए-नौ नस्ल-ए-इंसानी की आफ़्रीनिश हुई।
महाभारत में इस रिवायत का ज़िक्र ज़रा मुख़्तलिफ़ तौर पर आया है, यानी जब सैलाब-ए-अज़ीम आया तो मनु कश्ती में सात ऋषियों के साथ सवार हुए। मछली ने कहा मैं हक़ हूँ मुझे याद रखियो, मैं तुम्हारी हिफ़ाज़त करूँगी और इस सैलाब के बाद तुम्हीं से देवी-देवता, सुर-असुर, नर-नारी सब पैदा होंगे और उन्हीं से ये दुनिया फिर सजाई जाएगी। यही रिवायत मत्स्य पुराण, भागवान पुराण और अग्नि पुराण में भी बयान हुई है। इंतिज़ार हुसैन ने इस मौक़े पर ज़बान भी वो इख़्तियार की है जो अगिया बैताल और विक्रमादित्य की सिंघासन बत्तीसी के अठारहवीं सदी के क़दीम हिन्दी-उर्दू मुसन्निफ़ीन ने बरती थी। इस से देवमालाई फ़िज़ा की बाज़-याफ़्त में बड़ी मदद मिली है।
मनु जी मछली को तलय्या में छोड़कर ऐसे आए जैसे सर से बड़ा बोझ उतार के आए हैं। उस रात वो चैन से सोये। पर जब तड़के में आँख खुली तो आँखें खुली की खुली रह गईं। मछली की पूँछ तलय्या से निकल लंबी होते-होते उनके आँगन में आन फैली थी। वो झट पट उठ तलय्या पे गए। क्या देखा कि तलय्या छोटी रह गई है, मछली बड़ी हो गई है, इतनी बड़ी तलय्या के अंदर तो बस उसका मुँह था, बाक़ी धड़ और पूँछ सब बाहर। मछली बोली कि हे प्रभु, तुम्हारे शरण में मैं तैरने और साँस लेने को तरसती हूँ। मनु जी ये देख हक्का-बक्का रह गए।
इसी तरह जब हज़रत नूह की रिवायत बयान हुई है तो अंदाज़ दास्तानों और हिकायतों का है,
तब ज़ौजा हज़रत नूह के पास पहुँची। इस हाल से कि उसके हाथ आटे में सने हुए थे और होश उड़े हुए थे। ब-सद तश्वीश बोली कि मेरे वाली, हमारा गरम तंदूर ठंडा हो गया और पानी उसकी तह में उबल रहा है। हज़रत ने ताम्मुल किया। फिर यूँ बोले कि देखो अब ज़ुल-जलाल के जलाल का दिन आन पहुँचा है, तो यूँ कर कि अपने जनों को इकट्ठा कर और कश्ती में सवार हो जा। इस पर वो जोरू यह बोली कि मैं तंदूर पर तश्त ढ़के देती हूँ, फिर पानी नहीं उबलेगा। ये कह कर वो दौड़ी हुई अंदर गई। तश्त उल्टा करके तंदूर पर ढ़का और ऊपर से बड़ा सा पत्थर रख दिया। ये करके वो बाहर आई और अपने वाली से बोली देख मेरी तरकीब काम आई। पानी उबलना बंद हो गया है। वो ये कहती थी कि पानी अँगनाई से निकल कर बाहर उमंडने लगा। तश्त और पत्थर उसके बीच तैर रहे थे... फिर मुख़्तलिफ़ घरों से बीबियाँ निकलीं इस हाल से कि उनके होश उड़े हुए थे। हर एक के लब पे ये ख़बर थी कि तंदूर उनके घर का गरम से ठंडा हुआ, और पानी उससे उबलने लगा और सैलाब बाहर से उंमड़े तो उसे रोका जा सकता है, मगर जब घर के अंदर से फूट पड़े तो क्यों कर उस पे बंद बाँधा जाए।
कन्आन का ज़िक्र कश्ती में इस तौर आया है कि तन्हाई की मौत हुजूम के साथ ज़िंदा रहने से बेहतर है, पानी में ग़र्क़ हो जाना बेहतर है ब-मुक़ाबला अपना घर छोड़ देने या अजनबी पानियों में भाँत-भाँत के जानवरों के साथ बसर करने से। इसके बाद कव्वे, चूहों और शेर का ज़िक्र है। हज़रत नूह ने कहा, वाय ख़राबी कि मैंने कश्ती में सवार किया चूहों को जिनका शेवा ही ये है कि कतरो और सुराख़ करो। बार-बार उन्हें टोका गया मगर बाज़ न आए। तब तंग आकर हज़रत ने शेर के मुँह पर हाथ फेरा और उसके नथुनों से एक बिल्ली निकली जो चूहों पर झपटी और आन की आन में चट कर गई। तब कश्ती के सब जानदारों ने शादमानी की और बिल्ली पर आफ़रीं भेजी कि उसने आने वाली तबाही से बचा लिया। इंजील से रिवायत है कि सात दिन बाद जब फ़ाख़्ता ने दूसरी बार पर फड़फड़ाए और कश्ती से बाहर उड़ गई तो वो ज़ैतून की पत्ती चोंच में दबाए वापस आई। सब ख़ुश हुए ये सोच कर कि ख़ुश्की नुमूद करने लगी है और कश्ती कहीं तो किनारे लगेगी।
इंतिज़ार हुसैन ने आम रिवायतों से अलग यहाँ कहानी को नया मोड़ दिया है, कबूतरी (फ़ाख़्ता) यूँही ज़ैतून की पत्ती समेत कश्ती में उतरी तूँही बिल्ली उसपर झपटी और उसे चट कर गई... साथ में ज़ैतून की पत्ती को भी। उन्होंने देखा और दम-ब-ख़ुद रह गए। ज़ैतून की पत्ती सलामती का एलामिया है। ज़ैतून दुनिया का क़दीम-तरीन हमेशा सर-सब्ज़ रहने वाला पेड़ है। सामी, यूनानी, रोमन और नौरस असातीरी रिवायतों का ज़िक्र पाँच छः हज़ार साल पुराना है लेकिन कश्ती में जिस तरह बिल्ली, फ़ाख़्ता और ज़ैतून की पत्ती दोनों का क़िला-क़ुमा कर देती है, इससे ज़ाहिर है इंतिज़ार हुसैन रिवायत को बदल कर दूसरी बात कहना चाहते हैं।
रिवायत में है कि फ़ाख़्ता सात दिन बाद तीसरी बार फिर उड़ती है और अबके चूँकि उसे पैर टिकाने की जगह मिल गई, वो लौट कर नहीं आई। यानी तूफ़ान उतर गया और ख़ुश्की मिल गई। लेकिन कश्ती में ऐसा नहीं होता। इंतिज़ार हुसैन ने क़िस्से की आज के अहद पर तत्बीक़ करते हुए उसका बिल्कुल दूसरा रुख़ पेश किया है। नूह और मनु दोनों की रिवायतों में तूफ़ान-ए-अज़ीम का अंजाम नौअ-ए-इंसानी की अज़ सर-ए-नौ आबाद-कारी पर होता है और उन्हीं से फिर जिन्न-ओ-इन्स की आफ़्रीनिश होती है। आर्याई रिवायत में मछली कश्ती को हिमालय पर जाकर टिका देती है। सुमेरी, बाबली, सामी और इस्लामी रिवायतों में भी पहाड़ का ज़िक्र है, कोह-ए-जूदी M. Ararat (अहद नामा-ए-अतीक़) Mr. Nisir (क़िस्सा गिलगामेश), लेकिन इंतिज़ार हुसैन के यहाँ कश्ती किसी ठिकाने पर नहीं पहुँचती।
बिल्ली का कबूतरी और ज़ैतून की पत्ती को चट कर जाना इशारा हो सकता है सलामती की नफ़ी यानी नस्ल-ए-इंसानी के मुसलसल अज़ाब-ओ-तबाही में घिरे रहने का। मेंह बेशक थम जाता है और बादल की गरज भी रुक जाती है लेकिन पानी की धार उसी शोर से गरज रही थी और ऊँचे पहाड़ की चोटियों से गुज़र रही थी... अंदर हब्स बहुत था और बिल्ली बैठी थी। बाहर पानी गरज रहा था और ज़मीन-ओ-आसमान मिले नज़र आ रहे थे, ज़मीन-ओ-आसमान और ज़मीन-ओ-ज़माँ... क्या अंदर का हब्स और बिल्ली की मौजूदगी का एक होना मकाँ और ज़माँ की वहदत के उस जब्र की तरफ़ इशारा नहीं जिसमें इंसान मुसलसल घिरा हुआ है और जिससे छुटकारे की कोई सूरत नज़र नहीं आती। आख़िर में फिर गिलगामेश की याद दिला के इंतिज़ार हुसैन ने कहानी का दायरा मुकम्मल कर दिया है क्योंकि सैलाब शुरू हुआ था और कश्ती रवाना हुई थी तो सबके दिल हिजरत के एहसास के साथ भरे हुए थे लेकिन गिलगामेश के ज़िक्र ने ढ़ारस बँधाई थी जिसने सफ़र को वसीला ज़फ़र जाना, हिजरत इख़्तियार की, पुरशोर समुद्रों से गुज़रा, नई-नई मुहिम्मात सर कीं और नई-नई अक़लीमों को दर्याफ़त किया। लेकिन आख़िर में घरों की याद फिर सबको आ लेती है।
क्या हम कभी वापस नहीं जा सकते?
कहाँ?
अपने घरों को?
एक-बार फिर उन्हें हैरानी ने आ लिया।
अज़ीज़ो, कौन से घर, घर तो जन्नत है। और जन्नत को छोड़े हुए आदम को जाने कितनी सदियाँ गुज़र गईं.. और आदम की औलाद मुसलसल इस कोशिश में है कि जन्नत को लौट जाए, अपने असली घर को, लेकिन ये सफ़र कभी मुकम्मल नहीं होता, और आदम की औलाद ज़मीन-ओ-ज़माँ के पुरशोर पानियों में घिरी हुई मुसलसल अज़ाब में मुब्तिला है और अमान की कोई सूरत नहीं क्योंकि बिल्ली, फ़ाख़्ता और ज़ैतून की डाली दोनों को चट कर गई है और अब तो कोई इतना भी नहीं कि ख़ुश्की (आफ़ियत और शादमानी) का पता दे। मनु की रिवायत के मुसलसल सफ़र और मुसलसल सैलाब वाले हिस्से को भी इंतिज़ार हुसैन ने यहाँ फिर दोहराया है। मारकंदी (मार्कंडे) को भी यहाँ अम्दन लाया गया जो उम्र के तूल यानी मुसलसल अज़ाब में घिरे रहने का इस्तिआरा है। मार्कंडे कश्ती से सर निकाल कर देखता है, चारों ओर घोर अंधेरा और सन्नाटा और जल की गरज की धारा। परम आत्मा नींद में थी और अनंत नाग के फन फैले हुए थे। नारायण-नारायण... ख़ुदा-वंद की रूह पानियों पर जुंबिश करती थी।
सब दुआ माँगते हैं कि ऐ रब्ब-उल-इज़्ज़त हमें बरकत की जगह उतारियो और तहक़ीक़ कि तू सबसे बेहतर उतारने वाला है। सब हज़रत नूह की दुहाई देते हैं कि उसकी वजह से बच गए लेकिन कहानी में यहाँ पहुँच कर मालूम होता है कि मुख़्तलिफ़ असातीरी रिवायतों से गुँधी हुई ये एक दास्तान थी जिसे हातिम ताई बयान कर रहा था। इंतिज़ार हुसैन यहाँ हातिम ताई को इसलिए लाए हैं कि हातिम ताई ही अहद-ए-वुस्ता का गिलगामेश हो सकता था और गिलगामेश मुसलसल सफ़र का इस्तिआरा है। गिलगामेश की तरह हातिम ताई ने भी भरी नदियों के बीच ऐसी कश्तियों में सफ़र किया जिनका कोई खेवय्या नहीं था और नई-नई मुहिमात सर कीं। कोह-ए-निदा की मुहिम में उस पर क्या कुछ नहीं बीती। एक पहाड़ बुलंद, अज़ीम-उश-शान, जिस पत्थर को उठाकर देखा उसके तले ख़ून बहता पाया। एक दरिया ज़ोर-शोर से रवाँ, ओर न छोर।
मछली ने दरिया से सर निकाल कर कहा कि ऐ हातिम ये रोटियाँ और कबाब तेरा ही रिज़्क़ है शौक़ से खा, वही मछली जो मनु से गोया हुई थी। सबने बाहर झाँक कर देखा, न नूह, न मछली, न हातिम ताई। सब सहारे ख़त्म हुए। आज का इंसान सैलाब-ए-बला की ज़द में है और उसका दिल-ओ-दिमागग अक़ीदों से ख़ाली है। अहद-ए-क़दीम में तो गिलगामेश था और इतना पश्तम को बचाने वाला एनलैल, नूह था जिसने जिन-ओ-इन्स के एक-एक जोड़े को पनाह दी थी और सबकी बक़ा का एहतिमाम किया, मनु था और मछली थी, फ़ाख़्ता और ज़ैतून की शाख़ थी और मछली मनु से और हातिम ताई से गोया हुई थी, लेकिन अब क्या है, न गिलगामेश, न नूह, न मनु, न मछली, न फ़ाख़्ता, न हातिम ताई, इर्तिक़ाए इंसानी ने सब सहारे खो दिए हैं। चारों तरफ़ घोर अंधेरा है और बहते जल की धारा है और नाव डोल रही है।
लेकिन नूह या मनु का कहीं पता नहीं, फ़ाख़्ता और ज़ैतून की डाली भी नहीं जो आफ़ियत की ख़बर दे। घर सदियों पीछे रह गया है। भूसा गिरा मंड पड़ा है। मछली की मूँछ से बँधे हुए हैं लेकिन मछली कहीं दिखाई नहीं देती। सिर्फ़ ज़मीन-ओ-ज़माँ यानी वक़्त की लहराती रस्सी है जो साँप समान नव के चारों ओर लहरा रही है। आज का इंसान चिंता से घिरा है। नाव डोल रही है और चारों ओर जल की धारा गरज रही है। इंतिज़ार हुसैन का कमाल ये है कि उन्होंने बक़ाए इंसानी से मुतअल्लिक़ सुमेरी, बाबली, सामी, इस्लामी और हिंदुस्तानी तमाम मज़हबी और असातीरी रिवायतों का मा'नियाती जौहर तख़्लीक़ी तौर पर कशीद किया और अव्वल तो उससे ये दिखाया है कि आफ़रीनिश से नस्ल-ए-इंसानी हिजरत की मरहून-ए-मिन्नत है, यानी हिजरत इंतिहाई बा-माअनी नुक़्ता-ए-आग़ाज़ है और इर्तिक़ाए इंसानी का सिलसिला इसी से चला है।
दूसरे, इंतिज़ार हुसैन ने बक़ाए इंसानी की तमाम असातीरी रिवायतों को जदीद फ़िक्र से आमेज़ करके उनकी यकसर नई ता'बीर की है और ये बुनियादी सवाल उठाया कि ज़मीन-ओ-ज़माँ के जब्र का मुक़ाबला करने के तमाम रूहानी वसीले खो देने के बाद आज के पुर-आशोब दौर में नस्ल-ए-इंसानी का अंदोह क्या है और तूफ़ान-ए-बला में घिरी हुई ये कश्ती किनारे लगेगी भी कि नहीं?
वैसे ये बात ख़ाली अज़ लुत्फ़ नहीं कि बा'ज़ लोगों ने इस अफ़साने को तरक़्क़ी-पसंद तसव्वुर किया है और उसे अपने तरक़्क़ी-पसंद इंतिख़ाब में जगह दी है। लगता है या तो अब ख़ुद उन लोगों को ज़ुल्मत-पसंदों के यहाँ भी रौशनी के आसार नज़र आने लगे हैं, या तरक़्क़ी-पसंदी की तारीफ़ ही बदल गई है या फिर फ़ाख़्ता और ज़ैतून की डाली नज़र में रही है, जो अमन के बैन-उल-अक़वामी निशान का दर्जा रखती है।
ऊपर इंतिज़ार हुसैन के तख़लीक़ी सफ़र की चार मंज़िलों या चार बुनियादी रुजहानात की निशान-दही की कोशिश की गई है, यानी अव्वल मुआशरती यादों की कहानियाँ, दोव्वुम इंसान के अख़्लाक़ी-ओ-रूहानी ज़वाल और वुजूदी मसाइल की कहानियाँ, सेव्वुम समाजी, सियासी मसाइल की कहानियाँ और चहारुम नफ़्सियाती कहानियाँ और बोधि जातक और हिन्दू देवमालाई कहानियाँ। मेरी कोशिश रही है कि इंतिज़ार हुसैन की तख़्लीक़ात के ज़रिए उनके फ़न की मुख़्तलिफ़ जिहात और ज़ेहनी-ओ-फ़िक्री इर्तिक़ा की मुख़्तलिफ़ कड़ियाँ सामने आ जाएं और ये कि उनकी तख़्लीक़ीयत के सर चश्मों और माअनवियत तक रसाई हो सके, और इस तरह उनकी इन्फ़िरादियत और इम्तियाज़ी निशानात हत्तल इमकान वाज़ेह हो सकें। इन तमाम उमूर से ओहदा बर-आ होना निहायत मुश्किल है, बिल-ख़ुसूस जब फ़नकार का पैराया-ए-इज़हार रम्ज़िया, इस्तिआरती और तम्सीली हो। यूँ भी हम अस्र Synchronic सतह पर तम्सीली फ़लसफ़ियाना कहानियों की हर-हर ता'बीर मुम्किन नहीं।
इंतिज़ार हुसैन का ये कारनामा मामूली नहीं कि उन्होंने अफ़साने की मग़रिबी हैअत को जूँ का तूँ क़ुबूल नहीं किया, बल्कि कथा कहानी और दास्तान-ओ-हिकायत के जो मक़ामी साँचे Indigenous Model मशरिक़ी मिज़ाज-ए-आम्मा और उफ़्ताद-ए-ज़ेहनी के सदियों के अमल का नतीजा थे और मग़रिबी असरात की यूरिश ने जिन्हें रद्द कर दिया था, इंतिज़ार हुसैन ने उनकी दानिश-ओ-हिकमत के जौहर को गिरफ़्त में ले लिया और उनकी मदद से मुरव्वज साँचों की तक़लीब करके अफ़साने को एक नई शक्ल और नया ज़ाइक़ा दिया।
दास्तान की रिवायत से इस्तिफ़ादा करने की अव्वलीन कोशिश अगरचे अज़ीज़ अहमद की तवील कहानी जब आँखें आहन-पोश हुईं में मिलती है, जिसमें मुग़ल और तातारियों के अहद की बाज़-आफ़रिनी में नस्र के पुराने असालीब को भी बरतने की कोशिश की गई है, लेकिन ये महज़ एक तजुर्बा था, जबकि इंतिज़ार हुसैन के यहाँ मामला उर्दू फ़िक्शन को एक नए तख़्लीक़ी मिज़ाज से आशना करने या दो अस्नाफ़ के जौहर को कशीद करके दो आतिशा की कैफ़ियत पैदा करने का है। इंतिज़ार हुसैन के कमाल फ़न का एक पहलू ये है कि उन्होंने अफ़साने को मुतसौविफ़ाना, फ़लसफ़ियाना जुस्तजू और तड़प Mystical Quest से आशना कराया है। यही वजह है कि उनके यहाँ एक कश्फ़ का सा एहसास होता है और कहीं-कहीं ऐसी फ़िज़ा मिलती है जो आसमानी सहीफ़ों में पाई जाती है।
इंतिज़ार हुसैन के किरदार, उनकी अलामतें दूसरे अफ़साना-निगारों से इस लिहाज़ से मुख़्तलिफ़ हैं कि ये उनके अपने तहज़ीबी शऊर की पैदावार हैं। अफ़राद हों या मुआशरे, उनकी नज़र इंसान के रूहानी, अख़्लाक़ी ज़वाल और दाख़िली और ख़ारिजी रिश्तों के अदम-ए-तनासुब की मुख़्तलिफ़ जिहतों पर रहती है, आज का इंसान और समाज जिस तरह मुनाफ़िक़त, नफ़स-परवरी, ख़ुद-ग़र्ज़ी, रियाकारी, मुनाफ़ा-अंदोज़ी, और इस तरह की हज़ारों दूसरी ला'नतों में घिरा हुआ है, उसके लिए अपनी शख़्सियत की पहचान और अपनी ज़ात को बरक़रार रखना सबसे बड़ा मस्अला बन गया है। इंतिज़ार हुसैन के अफ़साने इंसान की उसी तग-ओ-दो और तड़प की तर्जुमानी करते हैं।
इंतिज़ार हुसैन का फ़न आज के इंसान के खोए हुए यक़ीन की तलाश का फ़न इस लिए है कि मुस्तक़बिल का इंसान अपनी आगही हासिल कर सके और अपनी ज़ात को बरक़रार रख सके। उसके लिए उन्हें पुराने अहद-नामे, इंजील, क़सस-उल-अँबिया, देवमाला, बोध जातक, पुराणों, दास्तानों और सूफ़िया के मल्फ़ूज़ात सबसे रिश्ता जोड़ना पड़ा है और नतीजतन ऐसा अंदाज़-ए-इज़हार वुजूद में आया है जो ख़ास उनका अपना है। इंतिज़ार हुसैन का फ़न ख़ासा तहदार और पुर-पेच है, जहाँ एक तरफ़ उसकी सादगी फ़रेब नज़र का सामान फ़राहम करती है, वहीं दूसरी तरफ उसकी होशियारी और पुरकारी सोचने पर मजबूर करती है। इंतिज़ार हुसैन का ज़ेहन एक मुतहर्रिक ज़ेहन है और उसका सय्याल सफ़र जारी है और कुछ नहीं कहा जा सकता कि आगे चल कर इसका रुख़ किन नई ज़मीनों और आसमानों की तरफ़ होगा।
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