मरासी-ए-अनीस का तहज़ीबी मुतालेआ
उर्दू मर्सिए के तमा्म वाक़िआत और किरदार अरब की इस्लामी तारीख़ से माख़ूज़ हैं। इनमें कुछ भी हिंदुस्तान का नहीं। लेकिन मर्सिया को जो फ़रोग़-ए-हिंदुस्तान में हासिल हुआ, अरब ममालिक या ईरान में नहीं हुआ। उर्दू मर्सिया दक्कन में भी लिखा गया और दिल्ली में भी लेकिन ये अपने उरूज को पहुँचा लखनऊ में।
हिंदुस्तान के अह्द-ए-वुस्ता में तारीख़ी और समाजी ज़रूरतों से जो मुश्तरक तहज़ीब वुजूद में आई थी, जो कभी सूफ़ियों और संतों के अक़्वाल में और कभी भग्तों के गीतों में या बाबा फ़रीद-ओ-नानक-ओ-कबीर के तराना-ए-तौहीद में ज़ाहिर हुई, अवध में बिल-ख़ुसूस लखनऊ में उसे एक ऐसा मुआशरती क़ालिब मिल गया था कि उसने न सिर्फ़ उर्दू ज़बान को बल्कि उर्दू शायरी और उसकी तमाम अहम अस्नाफ़ को गहरे तौर पर मुतअस्सिर किया। लखनऊ में उर्दू मर्सिए की तौसीअ-ओ-तरक़्क़ी वहाँ के सक़ाफ़ती और मुआशरती तक़ाज़ों से बे-नियाज़ नहीं।
ये बात हमारी अदबी तारीख़ के एक दिलचस्प मबहस का हुक्म रखती है कि मर्सिए के वाक़िआत का जितना गहरा तअल्लुक़ अरब तारीख़ से है, उनकी पेशकश का अंदाज़ उतना ही हिंदुस्तानी मुआशरत बिलख़सूस लखनवी मुआशरत, तर्ज़-ए-बयान और बेगमात के अंदाज़-ए-तख़ातुब की तर्जुमानी करता है। उर्दू मर्सिए में अरब किरदारों के साथ हिंदुस्तानी मुआशरत का ज़िक्र एक ऐसी खुली हुई हक़ीक़त है जिसे मर्सिए का हर हस्सास क़ारी जानता है। लेकिन ये भी हक़ीक़त है कि बा'ज़ अदबी मुअर्रिख और नक़्क़ाद उर्दू मर्सिए के इस पहलू को यानी उसकी हिंदुस्तानियत को यकसर रद्द कर देते हैं और एतिराज़ करते हैं कि इससे तसन्नोअ् पैदा होता है और किरदार-निगारी में तज़ाद लाज़िम आता है।
फिर ऐसे नाक़िदीन भी हैं जो उर्दू मर्सियों में हिंदुस्तानी अनासिर की तावीलें पेश करते हैं और उनकी गुफ़्तगू ए'तिज़ार की हद से आगे नहीं बढ़ पाती। ये बात अफ़सोस-नाक है कि जो चीज़ मर्सिए की अदबियत, उसके हुस्न-ओ-दिल-आवेज़ी, असर-आफ़रीनी और शे'री कशिश की ज़ामिन हो, उसको कमज़ोरी समझ कर रद्द किया जाए या उसे क़ुबूला जाए तो ब-अम्र-ए-मजबूरी और तरह-तरह की तावीलें कर के।
सवाल ये है कि अदबी नुक़्ता-ए-नज़र से इस बारे में रवैया क्या होना चाहिए, यानी शुहदाए कर्बला के बयान में हिंदुस्तानी मुआशरत का ज़िक्र उर्दू मर्सियों की ख़ूबी तस्लीम की जाए या ख़ामी? इसका होना मुनासिब क़रार दिया जाए या ना-मुनासिब? इससे बहस करने के लिए ज़रूरी है कि बा'ज़ ऐसे अज्ज़ा को सामने रखा जाए जिनमें ये रंग झलकता है, मैदान-ए-कर्बला में हक़-ओ-बातिल की कशमकश अपनी आख़िरी मंज़िल तक पहुँचने वाली है, हज़रत इमाम हुसैन अस्लहा ज़ेब-तन करके विदा होने को आए हैं, ज़ैनब देखती हैं कि अब भाई के बचने की कोई सूरत नहीं, घर वालों की आँखों में दुनिया अंधेर हो रही है,
ख़ैमे में जा के शह ने ये देखा हरम का हाल
चेहरे तो फ़क़ हैं और खुले हैं सरों के बाल
ज़ैनब की ये दुआ है कि अब रब्ब-ए-ज़ुल-जलाल
बच जाए इस फ़साद से ख़ैरुन्निसा का लाल
बानूए नेक-नाम की खेती हरी रहे
संदल से माँग बच्चों से गोदी भरी रहे
इन अशआर में वाज़ेह तौर पर हिंदुस्तानी ख़्वातीन के एहसासात और जज़्बात की झलक है। संदल से मांग भरना हिंदुस्तानी रस्म है, खेती हरी रहे और बच्चों से गोदी भरी रहे ये दुआएँ भी हिंदुस्तानी हैं। मातम में खुले हैं सरों के बाल का रिवाज शायद अरब मुल्कों में भी हो, लेकिन हिंदुस्तान में मातम का तसव्वुर इसके बग़ैर मुम्किन ही नहीं। लाल का तसव्वुर भी हिंदुस्तानी मुआशरे से मख़्सूस है। इसके साथ-साथ जिन आरज़ुओं और तमन्नाओं का इज़हार किया गया है, वो भी हिंदुस्तानी औरतों की हैं।
इस तरह का एक और मंज़र-नामा मुलाहिज़ा हो, ज़ैनब अपने भतीजे अली अकबर को अपने बेटों से भी ज़ियादा चाहती हैं। शहादत के बाद जब अली अकबर की लाश ख़ैमे में लाई जाती है तो ज़ैनब का कलेजा फट जाता है। वो बैन करते हुए कहती हैं,
ड्योढ़ी पे लाए लाश पिसर की जो शाह-ए-दीं
बाहर निकल के बीबियाँ सर पीटने लगीं
ज़ैनब को यूँ पुकारा वो ज़हरा का नाज़नीं
दौड़ो बहन कि क़त्ल हुआ अकबर-ए-हज़ीं
दूल्हा बने हैं ख़ून की मेंहदी लगाए हैं
सेहरा तुम्हें दिखाने को मक़्तल से आए हैं
है-है न तेरा ब्याह रचाना हुआ नसीब
है-है दुल्हन न ब्याह के लाना हुआ नसीब
पोते को गोद में न खिलाना हुआ नसीब
शादी के बदले ख़ाक उड़ाना हुआ नसीब
नदी लहू की चाँद सी छाती से बह गई
बहनों की नेग लेने की हसरत ही रह गई
और अली अकबर की माँ बानो यूँ बैन करती हैं,
हँस-हँस के अब ये माँ किसे दूल्हा बनाएगी
वारी जवाब दो दुल्हन अब किसकी आएगी
अब साली किसके हाथ में मेंहदी लगाएगी
माँ ब्याहने को धूम से अब किसको जाएगी
बस्ती मिरी उजड़ गई वीराना हो गया
बैठूँ कहाँ ये घर तो अज़ाख़ाना हो गया
रिवायत है कि इमाम हुसैन की वसीयत पूरी करने की ग़रज़ से हज़रत क़ासिम का अक़्द हज़रत इमाम हुसैन की साहब-ज़ादी फ़ातिमा कुबरा के साथ कर्बला में शहादत से एक दिन पहले कर दिया गया था। क़ासिम की शादी और शहादत के बाद कुबरा का बैन उर्दू मर्सियों का ख़ास मौज़ू है। इस मौक़े पर अक्सर-ओ-बेश्तर उन हिंदुस्तानी रुसूमात का ज़िक्र आता है जो हिंदुस्तानी मुसलमानों की मुआशरत का लाज़िमी जुज़्व बन गई है, मसलन लगन धरना, कँगना, सेहरा, बद्धी, ओढ़नी, रंड साला, तिलक, कलावा, दुल्हन के हाथों की मेहंदी, आर्सी मुस्हफ़, जहेज़ का निकालना, रुख़्सती वग़ैरा। ये वाक़िआ है कि इन मक़ामात पर साफ़-साफ़ हिंदुस्तानी मुआशरत के Motif और कलीदी निशानात दर आए हैं। फूला शफ़क़ से चर्ख़ पा... अलख़ से ये बंद मुलाहिज़ा हों,
ड्योढ़ी पे लाए लाश जो सुल्तान-ए-बह्रओबर
पर्दा उठाया ड्योढ़ी का फ़िज़्ज़ा ने दौड़ कर
लाशे के पाँव थामे कोई और कोई सर
चादर कमर की थामे थे अब्बास-ए-नामवर
लटकी थीं दोनों ख़ाक में ज़ुल्फ़ें अटी हुई
रुख़ पर पड़ी थीं सेहरे की लड़ियाँ कटी हुई
लाशा उधर से ले के चले शाह-ए-कर्बला
दौड़े उधर से पीटते नामूस-ए-मुस्तफ़ा
फ़िज़्ज़ा थी आगे-आगे खुले सर बरहना पा
आई जो सेहन में तो ये रांडों को दी सदा
छप जाए जिससे दूर का नाता है साहिबो
दूल्हा-दुल्हन के लेने को आता है साहिबो
बहनें किधर हैं डालने आँचल बने पे आएँ
अब देर क्या है हुजरे से बाहर दुल्हन को लाएँ
रुख़्सत हो जल्द ताकि बराती भी चैन पाएँ
जागे हैं सारी रात के अपने घरों को जाएँ
दिल पर सहे फ़िराक़ की शमशीर तेज़ को
माँ से कहो दुल्हन की निकाले जहेज़ को
नागाह लाश सेहन तक आई लहू में तर
पीटे जो सर अरूस को भी हो गई ख़बर
था सामना कि लाश पे भी जा पड़ी नज़र
घबरा के तब सकीना से बोली वो नोहा-गर
दूल्हा की लाश आई है सेहरे को तोड़ दो
मसनद उलट दो हुजरे के पर्दे को छोड़ दो
ये कह के नोचने लगी सेहरा वो सोगवार
अफ़्शाँ छुड़ा के ख़ाक मली मुँह पे चंद बार
कहने लगी लिपट के सकीना जिगर-फ़िगार
है-है बहन बढ़ाओ न सेहरे को मैं निसार
वो कहती थी कि जाग के तक़दीर सो गई
बीबी न पकड़ो हाथ कि मैं रांड हो गई
ये कह के ग़श हुई जो क़लक़ से वो नौहा-गर
हुजरे से दौड़ी बाली सकीना बरहना सर
आकर क़रीब-ए-सेहन पुकारी ब-चश्म-ए-तर
ऐ बीबियो किसी को दुल्हन की भी है ख़बर
कैसी धड़ा-धड़ी है ये अम्माँ किधर गईं
दौड़ो फूफी जहान से कुबरा गुज़र गईं
रो कर बहन से कहने लगे शाह-ए-बह्रओबर
उस बद-नसीब रांड को ले आओ लाश पर
बेटी लुटेगी यूँ हमें इसकी न थी ख़बर
अब शर्म क्या है देख ले दूल्हा को इक नज़र
ज़ख़्मी भी है शहीद भी है बे-पिदर भी है
दूल्हा भी नाम को है चचा का पिसर भी है
हज़रत ये कह के हट गए बा-चश्म-ए-अश्क-बार
पीटी ये सर कि ग़श हुई बानूए दिल-फ़िगार
चादर सफ़ेद उढ़ा के दुल्हन को ब-हाल-ए-ज़ार
गोदी में लाई ज़ैनब-ए-ग़मग़ीन-ओ-सोगवार
चिल्लाई माँ ये गिर के तन-ए-पाश-पाश पर
क़ासिम बन्ने उठो दुल्हन आई है लाश पर
सदक़े गई चची को न होवे कहीं मलाल
रखो दुल्हन की पीठ पे हाथ ऐ हसन के लाल
वारी बस अब उठो कि परेशाँ है मेरा हाल
कैसा ये ख़्वाब है कि दुल्हन का नहीं ख़्याल
करवट तो लो कि माँ के जिगर को क़रार हो
इस बचपने की नींद पे अम्माँ निसार हो
एक और मर्सिया 'जब हुए आज़िम-ए-गुल-गश्त-ए-शहादत क़ासिम' से ये इक़्तिबास मुलाहिज़ा हो। ये इक़्तिबासात क़दरे तवील हैं लेकिन इधर-उधर से अशआर पेश करने के बजाय ज़रूरी है कि उन तमाम हिस्सों की कुल्ली जमालियाती और मुआशरती फ़िज़ा पर नज़र रखी जाए क्योंकि इनकी जमालियाती तासीर मुआशरती कवाइफ़ की अदबी पेशकश से पैदा होती है,
मादर-ए-क़ासिम मक़्तूल को पुरसा दीजे
रांड बेटी को ज़रा चल के दिलासा दीजे
गए रोते हुए नाचार शह-ए-जिन्न-ओ-बशर
लाश दामाद की मसनद पे लिटा दी रो कर
देख बेटे को पछाड़ें लगी खाने मादर
ख़ाक पर बानो गिरी थाम के हाथों से जिगर
शर्म से मुँह भी न रोने को दुल्हन ढाँपती थी
बेद की तरह सर-ता-ब-क़दम काँपती थी
आके तब ज़ैनब-ए-बेकस ने कहा ये रो-रो
शर्म अब कैसी है वारी गई घूँघट उलटो
रांड हो ख़ाक तुम इस चाँद से चेहरे पे मलो
बोली वो हाय फूफी जान ये क्या कहती हो
ये मुझे छोड़ गए ख़ाक उड़ाने के लिए
क्या बनाया था दुल्हन रांड बनाने के लिए
कह के ये खोल दिए गूँधे हुए सर के बाल
ख़ाक पर माथे से सेहरे को दिया तोड़ के डाल
कहती थी रो के ये ऐ सैयद-ए-मस्मूम के लाल
तुम हुए क़त्ल मिला ख़ाक में मेरा इक़बाल
बद-तर अज़-मौत है मुझ रांड का जीना साहब
किस तरह काटूँगी बचपन का रंडापा साहब
तुमने तो क़त्ल के मैदाँ में कटाई गर्दन
समझेंगे अब मुझे बे-वारिस-ओ-बेकस दुश्मन
बाँधेंगे कँगने की जा दस्त-ए-हिनाई में रसन
कूफ़ा-ओ-शाम में सर नंगे फिरेगी ये दुल्हन
सर-ए-उर्यां पे रिदा लाके ओढ़ावेगा कौन
क़ैद से आप की बेवा को छुड़ावेगा कौन
बैन ये होते थे जो दूल्हा की मादर आई
फ़िज़्ज़ा इक कश्ती में रंड साले का जोड़ा लाई
सास ने पेट के सर बात ये तब फ़रमाई
हाय तू लुट गई ऐ मेरी बहू दुख पाई
दिल का मेरे कोई अरमान निकलने न दिया
हाय ये जोड़ा भी क़िस्मत ने बदलने न दिया
सामने ला के जो रँड-साले का जोड़ा रखा
पीट कर सीना-ओ-सर कहने लगी तब कुबरा
साहिबो इसके पहनाने से कहो फ़ायदा क्या
रो के तब मादर-ए-नाशाद ने बेटी से कहा
रस्म-ए-दुनिया की है ऐ बेकस-ओ-ग़मनाक यही
पहनो सदक़े गई रांडों की है पोशाक यही
लाश से दूल्हा की फिर कहने लगी वो रो-रो
रात के जागे थे बस सो चुके साहब उठो
ब्याह का जोड़ा तो पहने हुए देखा मुझ को
अब पहनती हूँ मैं रंड-साले का जोड़ा देखो
वारी हक़ में मिरे तुम कुछ नहीं फ़रमाते हो
सादे कपड़े नई दुल्हन को पहनवाते हो
कह के ये ओढ़नी सर पर से उतारी रो कर
और ओढ़ाया उसे दूल्हा के तन-ए-ज़ख़्मी पर
कहती थी पीट के सर, ऐ मेरे बेकस सरवर
देगा काहे को कफ़न तुमको कोई बद-अख़्तर
ये निशानी मैं तुम्हें सोख़्ता-तन देती हूँ
अपने सर की तुम्हें चादर का कफ़न देती हूँ
मदीने से रवानगी के वक़्त हज़रत फ़ातिमा सुग़रा का किरदार कई मर्सियों में बड़े दर्द के साथ पेश किया गया है। इस सिलसिले में जो बातें उनकी ज़बान से अदा की गई हैं, उनका गहरा तअल्लुक़ भी हिंदुस्तानी समाजी रवैयों से है। हज़रत अली अकबर की शादी के बारे में उनकी गुफ़्तगू सुनिए। क्या बहन के जज़्बात-ओ-एहसासात की ये तस्वीर हिंदुस्तानी मुआशरती कवाइफ़ Ethos से थरथरा नहीं रही? बहन को अपने भाई की शादी की बड़ी तमन्ना होती है। वो दहलीज़ रोकती है, नेग माँगती है, दूल्हा बने हुए भाई पर दुपट्टे का आँचल डालती है। ये सब हिंदुस्तानी लड़कियों के इम्तियाज़ी समाजी रवैये हैं। अज़हर अली फ़ारूक़ी ने ठीक लिखा है कि, फ़ातिमा सुग़रा के किरदार में वही रूह पाई जाती है जो एक हिंदुस्तानी लड़की के किरदार में मिलती है।(1) सुग़रा, अली अकबर से इस्तिदआ करती हैं कि बहन की अदम-ए-मौजूदगी में ब्याह न कर लेना और बहन को भूल न जाना,
जल्द आन के बहना की ख़बर लीजियो भाई
बे मेरे कहीं ब्याह न कर लीजियो भाई
इसी तरह हज़रत अली अकबर की शहादत पर ईरान की शहज़ादी ये कह कर नौहा-ख़्वानी करती है,
नथ चूड़ियाँ पहनने न पाई मैं नौहा-गर
जो आज ठंडी करती मैं साहब की लाश पर
(2)
मर्सिए के इस पहलू पर उमूमन ये कह कर एतिराज़ किया जाता है कि मर्सिया-गो शो'रा का मौज़ू वाक़िआत-ए-कर्बला का बयान था, लखनवी मुआशरत की तस्वीर-कशी नहीं। वो अपने ज़ोर-ए-तख़य्युल से भी लखनऊ से बाहर की दुनिया का तसव्वुर न कर सके यानी वो अपने नवाबों, उमरा और बेगमात के किरदारों की तस्वीर-कशी से आगे न बढ़ सके और बजाय इसके कि अहल-ए-बैत की अज़मत-ओ-तौक़ीर को बुलंद करते, वो उनको लखनवी रंग में पेश करने लगे। कहा जाता है कि अगर अनीस चाहते तो इन किरदारों को ख़ालिस अरब भी दिखा सकते थे।
बेगम सालिहा आबिद हुसैन का मौक़िफ़ इस बारे में अदबी है। वो लिखती हैं, अरबी आदाब, अरबी रहन-सहन से मुसलमानों के दिलों में ज़्यादा अक़ीदत के जज़्बात पैदा होते हैं लेकिन महज़ अदबी अक़ीदत इतनी मोहब्बत और एहतिराम पैदा नहीं कर सकती, जब तक कि वो हस्तियाँ जिनसे आपको अक़ीदत है, ऐसे जीते जागते किरदार बनाकर पेश न की जाएँ कि ज़मान-ओ-मकाँ का बाद गोया मिट जाए। अनीस के कलाम का ये कमाल है कि उसको पढ़ते और सुनते वक़्त ज़रा देर को तेरह सौ साल का फ़ासला जैसे दरमियान से ग़ायब हो जाता है।(2)
बात दर-अस्ल ये है कि अगर अनीस ने अरब किरदारों को हिंदुस्तानी लब-ओ-लहजा न दिया होता और हिंदुस्तानी रस्म-ओ-रिवाज का पाबंद न बनाया होता, जब भी दिल से उनका एहतिराम किया जाता, लेकिन उनके साथ अपनाईयत का एहसास इस क़दर शिद्दत से महसूस न होता। गोया अनीस ने अम्दन अपने किरदारों को हिंदुस्तानी रंग दिया। क्योंकि उन्हें एहसास था कि हिंदुस्तानी रंग में पेश किए गए अब्बास और ज़ैनब हिंदुस्तानियों के दिल से ज़ियादा क़रीब होंगे।(3)
ज़मान-ओ-मकान का बोअ्द मिटाना और अपनाईयत का एहसास पैदा करना शे'री एतिबार से ज़रूरी है, लेकिन इसके साथ-साथ ये सवाल पैदा होता है कि क्या अनीस और दूसरे मर्सिया-गो इस मामले में कुल्लियतन आज़ाद थे कि वो अपने किरदारों को किस रंग में पेश करें? जो हज़रात उर्दू मर्सिए की हिंदुस्तानियत को इख़्तियारी चीज़ समझते हैं, वो क़ौमों की मुल्की रूह, उफ़्ताद-ज़ेहनी और उनके ला-शऊरी और नस्ली तक़ाज़ों को नीज़ शायरी के तख़्लीक़ी अमल को शायद पूरी अहमियत नहीं देते। क्या ये वाक़िआ नहीं कि जब भी कोई मज़हब या अक़ीदा किसी दूसरे मुल्क में पहुँचता है तो उसकी बुनियादी रूह तो बरक़रार रहती है, लेकिन उसका तर्ज़-ए-इज़हार और पैराया-ए-बयान वहाँ के मिज़ाज-ए-आम्मा और जज़्बाती तक़ाज़ों का साथ देने के लिए कुछ न कुछ ज़रूर मुतअस्सिर होता है। दुनिया के तमाम मज़ाहिब या अक़ीदे जो एक से ज़्यादा नस्ली आबादियों या मुल्कों में फैले हुए हैं, मुआशरती और रुसूमाती तौसीआत और इम्तियाज़ी नस्ली रवैयों से बे-नियाज़ नहीं।
अक़ाइद की पाकीज़गी और तारीख़ी वाक़िआत की सेहत की अहमियत तस्लीम, बिला-शुबहा सेहत वाक़िआत का तक़ाज़ा मज़्हबियात की सतह पर या तारीख़ की सतह पर ज़रूरी है, लेकिन शे'र के लिए ये ज़रूरी नहीं। शे'र में जब तारीख़ आएगी तो शायरी बन कर आएगी यानी ये जज़्बे व तख़य्युल की रंग-आमेज़ियों के साथ आएगी और इमरानियाती तब्दीलियों से बे-नियाज़ नहीं हो सकती। शायर वाक़िआत या तारीख़ से मुतअस्सिर होता है, लेकिन तख़य्युली सतह पर मुहावरा-ओ-ज़बान के ज़रिए एक नई हक़ीक़त ख़ल्क़ करता है। ये तख़्लीक़ी अमल का तक़ाज़ा है। ऐसा न हो तो ये इज़हार शायरी का दर्जा पा ही नहीं सकता। दूसरी बात ये है कि जब क़दीम तारीख़ी वाक़िआत में तफ़सीलात का रंग भरा जाएगा, तो तफ़सीलात उसी मुआशरत और माहौल से आएँगी जिसमें उन्हें पेश करना मक़सूद है और मर्सिए के मामले में ये माहौल और मुआशरत हिंदुस्तान ही की हो सकती थी।
वाक़िआ ये है कि शायर अपनी मालूमात तारीख़ी वाक़िआत से अख़्ज़ करता है। लेकिन वहाँ से उसे महज़ हक़ाइक़ का एक चौखटा मिलता है। महज़ चंद ख़्याली लकीरें या सिर्फ़ एक बुनियाद। अब इस बुनियाद पर तख़्लीक़ का ऐवान ता'मीर करते हुए शायर एक दूसरी ही दुनिया में आ जाता है, तख़य्युली दुनिया में। तख़य्युल की सतह पर उसे एक गुमशुदा दुनिया की, एक नई दुनिया की बाज़याफ़्त करनी पड़ती है। इस काम में बहुत सा मसाला बिल-ख़ुसूस इमरानियाती रवैये और मुआशरती Motifs और दूसरे कवाइफ़, गिर्द-ओ-पेश की दुनिया से लेने पड़ते हैं। शऊर तो सिर्फ़ तारीख़ी वाक़िआत की मंतिक़ को जानता है, जबकि ला-शुऊर के पुर-असरार ख़ज़ानों से वो अन-गिनत चीज़ें आती हैं जो किसी भी समाज के जज़्बाती रवैयों, उफ़्ताद-ए-तब्अ और मिज़ाज की तशकील करती हैं, नीज़ जहाँ तक किरदारों के नफ़सियाती रद्द-ए-अमल Psychological Reflexes का तअल्लुक़ है तो उसे भी शायर को अपने माहौल से लेना ही पड़ेगा। चुनाँचे Genuine तख़्लीक़ी अमल के तक़ाज़ों की रू से हिंदुस्तानी मुआशरती कवाइफ़ Motifs और जज़्बात-ओ-एहसासात से बचने का अनीस को ज़ियादा इख़्तियार था भी नहीं।
शायरी में अहमियत सिर्फ़ इस बात की नहीं कि शायर अपने मौज़ू पर कितना हावी है बल्कि इस बात की भी है कि ख़ुद मौज़ू शायर पर कितना हावी है। अनीस के कमाल का एक पहलू ये भी है कि उनका शुऊर-ओ-मिज़ाज तो मौज़ू को अपनी गिरफ़्त में ले लेता है, इसके साथ-साथ मौज़ू भी उनके ज़ेहन-ओ-शुऊर को जकड़ लेता है, तब कहीं जाकर वो बे-मिसाल किरदार तख़्लीक़ हुए हैं जिन्हें उन लोगों ने भी जीते जागते किरदार कहा है जो उनकी हिंदुस्तानियत पर एतिराज़ करते हैं। उन किरदारों की शे'री अहमियत इसी में है कि जिन इक़दार की तर्जुमानी के लिए ये किरदार पेश किए गए हैं यानी आला नस्ब-उल-ऐन की पासदारी के लिए बड़ी से बड़ी क़ुर्बानी यानी जान दे देने से दरेग़ न करना, इसकी जमालियाती तर्सील ये इंतिहाई असर-अंगेज़ी से करते हैं और उसकी एक वजह यही है कि उनके बयान में शायर ने जमालियाती हक़ीक़त को ख़ल्क़ किया है और इमरानियाती सच्चाइयों से गुरेज़ नहीं किया। अगर किया होता तो शायद अनीस इतने बड़े फ़नकार न होते।
ये वाक़िआ है कि अनीस का ज़ेहन उन्नीसवीं सदी के लखनवी मुआशरे का ज़ेहन था। बारह सौ बरस पहले की तहज़ीब-ओ-मुआशरत जो उन्होंने नहीं देखी थी, उसका पुर-तासीर और दिल हिला देने वाला बयान वो कर भी कैसे सकते थे? उनसे ऐसी तवक़्क़ो वही हज़रात रख सकते हैं जो शायरी और तारीख़ का फ़र्क़ नहीं जानते या जो शे'री शाहकार और तारीख़ के बे-रूह मंज़ूम चर्बे में कोई फ़र्क़ नहीं कर सकते। अनीस ने वो किया जो किसी भी क़ौम या किसी भी मुल्क या किसी भी अहद में कोई भी आला शायर करता है। उनके लिए दूसरा रास्ता था ही नहीं। यही वजह है कि उनके कलाम में अक़ीदे की असलियत के साथ-साथ अवध की ज़िंदगी और अवध के मुआशरे की नब्ज़ भी चलती हुई मालूम होती है।
अदब में फ़नकार ख़ारिजी हक़ीक़त के मुक़ाबले में एक लिसानी हक़ीक़त ख़ल्क़ करता है, अनीस ने भी तारीख़ी हक़ीक़त की पैरवी के लिए बुनियादी मालूमात अरब तारीख़ से लीं लेकिन तासीर पैदा करने के लिए उन्हें गोश्त-पोस्त किसी हद तक अवध मुआशरत की मदद से पहनाया। इस तरह वो नई तख़्लीक़ी हक़ीक़त वुजूद में आई जो मरासी में मिलती है। तख़्लीक़ के तक़ाज़ों की उसी पासदारी से अनीस के कलाम में वो शिद्दत-ए-तासीर पैदा हुई जिसकी मक़बूलियत के चमन पर हमेशा बहार रहेगी।
यहाँ इस बात की वज़ाहत ज़रूरी है कि अगर इस बहस से ये तास्सुर पैदा हो कि अनीस के किरदारों की मुआशरत यकसर हिंदुस्तानी है तो ये भी सही नहीं। बात बनाने वालों ने कुछ मुबालग़े से भी काम लिया है। क्या तमाम मर्द किरदार अमामों, अबाओं और क़बाओं के साथ सामने नहीं आते? और क्या मुआशरत और रहन-सहन में बहुत सी अरब चीज़ों का ज़िक्र नहीं आता? इस तरह तख़्लीक़ी अमल की बाज़याफ़्त के इस घाल मेल ने एक नई मिली-जुली हक़ीक़त को जन्म दिया है। ये हक़ीक़त ब-यक-वक़्त सातवीं सदी की भी है और उन्नीसवीं सदी की भी, पुरानी भी है और नई भी। हक़-ओ-ईमान और अज़्म-ओ-इस्तिक़ामत की क़दीम-तरीन क़दरों के जोश से मामूर भी है और शायर के चारों तरफ़ फैली हुई मुआशरती ज़िंदगी की सच्चाइयों की तर्जुमान भी है।
जैसा कि पहले कहा गया कि तख़्लीक़ी अमल की ये बुनियादी शर्त है कि शायर आम हक़ीक़त से शे'री हक़ीक़त की तख़्लीक़ करता है ख़्वाह वो अदबी शायर हो या अवामी शायर। मरासी का ये पहलू दिलचस्पी से ख़ाली नहीं कि अदबी शायरी की सतह पर रूनुमा होने से बहुत पहले ये शे'री हक़ीक़त अज़ादारी की मजलिसों और अवामी मर्सियों में जलवा-गर हो चुकी थी। ये अमल सिर्फ़ अनीस ही के यहाँ नहीं हुआ। ये रिवायत गुजरात और दक्कन से चली आती है। मर्सिया जब ख़ालिस अवामी चीज़ था, उसमें ये रंग और भी गहरा था। ब-क़ौल शैख़ चाँद, गुजरात और दक्कन के मर्सिया-गोयों ने बिला-लिहाज़-ए-ज़मानओमकाँ अरब शख़्सियतों को अपने ज़माने और मक़ाम के माहौल में ढ़ाल कर पेश किया है। शैख़ चाँद ने सौदा के मरासी के इस पहलू पर बड़ी तफ़सील से लिखा है।(4) लगन भरना, मंडप छाना, मेंहदी, बरात, जलवा, शरबत-पिलाई, नेग वग़ैरा का बयान अवामी मरासी की रिवायत में शहादत के पहलू-ब-पहलू मौजूद है।
डॉक्टर मसीह-उज़ज़माँ ने उर्दू मर्सिए का इर्तिक़ा में लिखा है कि मीर के हाँ भी क़ासिम की शादी उस दिन रचाई पूरा मर्सिया ऐसा है, जिसमें हिंदुस्तानी रस्मों का बयान किया गया है।(5) अज़हर अली फ़ारूक़ी ने देही यानी अवामी मर्सियों का ज़िक्र करते हुए लिखा है, आज भी देहात ऐसी नज़ीरें पेश कर सकते हैं कि अगर होली और दीवाली में हिन्दू और मुसलमान बराबर के शरीक हैं तो ताज़ियों और मोहर्रम को भी दोनों अपना समझते हैं। ताज़ियों की क़तारों में अगर मुसलमान मर्सिया-ख़्वां मर्सिया पढ़ कर अरबाब-ए-जुलूस पर रिक़्क़त तारी करने की कोशिश करता है तो अक़ीदत-मंद भगतन और भीलनी की ज़बान से दोहे भी सुनाई देते हैं जिनकी उम्र दर-अस्ल उर्दू मर्सियों की उम्र से भी ज़ियादा है।(6) गोया ये रिवायत उर्दू में अनीस से बहुत पहले चले आती थी, बल्कि शायद उस ज़माने से जब से मर्सिया कहा और पढ़ा जाने लगा।
हिंदुस्तानी मुआशरत की तर्जुमानी सिर्फ़ शादी-ब्याह की रस्मों तक महदूद नहीं बल्कि बचपन में पालने की मासूम मुस्कुराहटों से लेकर मौत तक तमाम मराहिल की मुआशरती तर्जुमानी का हक़ अदा किया गया है। ये वाक़िआ है कि मर्सिया के किरदारों के ज़रिए आज से दो सौ साल पहले की हिंदुस्तानी मुआशरत की जैसी तस्वीरें महफ़ूज़ हो गई हैं, शायद मस्नवियों के अलावा उनकी दूसरी नज़ीर कहीं नहीं मिलती। गहवारे में अली असग़र का हुमकना, काजल लगाना, नज़र-ए-बद का टीका, काला दाना उतारना, बलाएँ लेना, घूँघट का रिवाज, हाथ जोड़कर बात करना, क़ब्रों पर जाना, चिराग़ रौशन करना वग़ैरा सभी समाजी तसव्वुरात और रुसूमात की तस्वीरें मर्सियों में जा-ब-जा दिखाई देती हैं,
बेवा का लाल बच गया सदक़े हुसैन पर
इस्पंद कोई कर दे मिरे नूर-ए-ऐन पर
रोई जो सकीना क़दम-ए-शह से लिपट कर
कुबरा भी लगी पीटने घूँघट को उलट कर
मसनद को शह-ए-दीन ने मुनव्वर किया जाकर
लेने लगी भाई की बलाएँ बहन आकर
कंघी किसी के हाथ की भाती न थी कभी
बे मेरे लेटे नींद उन्हें आती न थी कभी
बे-उनके माँ की क़ब्र पे जाती न थी कभी
रोएँ पिसर ये उनको रुलाती न थी कभी
मिट्टी से बचाते हैं सदा जिसका तन-ए-पाक
उस गिल पे गिरा देते हैं ख़ुद सैकड़ों मन ख़ाक
तुर्बत में कोई पूछने वाला नहीं होता
शम्एँ भी जलाओ तो उजाला नहीं होता
नन्हे से हाथ जोड़ के बोले वो नौनिहाल
हम बा-वफ़ा ग़ुलाम हैं क्या ताब क्या मजाल
बोले ये हाथ जोड़ के अब्बास-ए-नामवर
ख़ैमे कहाँ बपा करें या शाह बह्र-ओ-बर
बैन के मामले में भी सर बरहना करना, सीना-ओ-सर पीटना, बाल खसोटना, ज़ार-ओ-क़तार रोना, आह-ओ-वावैला करना, ड्योढ़ी पर मातमी सफ़ बिछाना, बेवगी की तमाम रस्में, रंड-साला, औरतों का बैन वग़ैरा मज़ामीन भी हिंदुस्तानी समाज से गहरा तअल्लुक़ रखते हैं। अगरचे बाल खोलने का ज़िक्र दूसरे मुआशरों ख़ुसूसन ईरान में भी मिलता है लेकिन सर पीटने या रंड-साला पहनने की रस्में हिंदुस्तानी हैं और इनमें लखनवी बेगमात के जज़्बाती मैलानात की झलक देखी जा सकती है। बेगम सालिहा आबिद हुसैन का ये ख़्याल सही है कि अनीस के हाँ कर्बला के मर्द मुजाहिदों में ये रंग हल्का और ख़्वातीन में ज़ियादा शोख़ है।(7)
इसकी वजह ये है कि मर्दों के बयान में तो शुजाअत, दिलेरी, जवाँ-मर्दी और अज़्म के तसव्वुरात से तख़य्युल को ग़िज़ा मिल सकती थी और ज़ियादा तवज्जो उन अक़्दार पर थी, लेकिन अहल-ए-हरम की ज़िंदगी को बयान करते हुए तख़य्युल की जौलानियों का मौक़ा तभी निकल सकता था, जब उनके गहरे दर्द-ओ-ग़म और ईसार-ओ-मुहब्बत के जज़्बात को बयान किया जाए और ये उन ख़्वातीन के बर्ताव, उनके बैन, उनकी रुसूम, रहन-सहन और तर्ज़-ए-गुफ़्तार ही के ज़रिए मुम्किन था।
निकली हरम से एक ज़न-ए-फ़ातिमा जमाल
गोया जनाब-ए-सय्यदा खोले हुए थीं बाल
गुल हुआ ख़ैमा-ए-अक़्दस में कि सरवर आए
पीछे पर्दे के हरम खोले हुए सर आए
दौड़े उधर से छातियों को पीटते हरम
ड्योढ़ी से पहले आया लचकता हुआ अलम
हिलता था ख़ैमा रांडों में थी ये धड़ा-धड़ी
आहों की बिज्लियाँ थीं तो अश्कों की थी झड़ी
कोई इधर को ग़श थी कोई थी उधर पड़ी
आफ़त का वक़्त था तो क़यामत की थी घड़ी
दुश्मन को भी न बेटे का लाशा ख़ुदा दिखाए
हज़रत ज़मीं पे गिर के पुकारे कि हाय-हाय
साबित है जो मरना मुझे रँड-साला पहनाओ
ड्योढ़ी पे चलो मातमी सफ़ घर में बिछाओ
ख़ुद कह के गए थे वो सलामत न फिरेंगे
अब्बास बस अब ता-ब-क़यामत न फिरेंगे
फेंक दी हिंद ने ये सुनते ही सर पर से रिदा
पीट कर छाती को चिल्लाई कि है-है आक़ा
बात सिर्फ़ बैन या रुसूमात तक महदूद नहीं। उर्दू मरासी में हिंदुस्तानीयत के दूसरे पहलू भी हैं। जंग के वाक़िआत में अगरचे मुआशरती कवाइफ़ की ज़ियादा गुंजाइश नहीं थी, ताहम यहाँ भी ये झलक देखी जा सकती है।
मीख़ें ज़मीं की उसकी तगापू से हिल गईं
दोनों कनौतियाँ भी खड़ी हो के मिल गई
दुश्मन को क्या नबुर्द में बचने की आस हो
लड़ ले कटारियाँ ये फ़रस जिसके पास हो
यूँ बर्छियाँ थीं चार तरफ़ उस जनाब के
जैसे किरण निकलती है गिर्द आफ़ताब के
तन-तन के जो कँधे पे रखे बच्चों ने भाले
माँ तकती थीं हाथों से कलेजे को संभाले
इक सफ़ में बर्छियों की चमक थी कि अल-हज़र
लचका रहे थे डांड सवारान-ए-ख़ीरा सर
था इक गला तो ख़ंजर-ए-बे-पैर के लिए
वो बर्छियाँ थीं सब तन-ए-शब्बीर के लिए
हथवांस के तेग़-ओ-सिपर अकबर ये पुकारे
क्या बकते हो बेहूदा सुख़न मुँह पे हमारे
गेंडे की ढ़ाल काटती है तेग़-ए-आब-दार
लड़कों से फ़ौजें भागी हैं मुँह फेर-फेर के
हाथी को मार डाला है बच्चों ने शेर के
चलते हैं जितने साँप, वो डसते नहीं कभी
गरजे हैं जो बहुत वो बरसते नहीं कभी
जब आई सन से काट के जॉशन निकल गई
उड़ कर सफ़ों के बीच से नागन निकल गई
हमले के वक़्त घोड़े की कनौतियों के खड़े होकर मिल जाने और तेग़ के हथवांसने का तसव्वुर हिंदुस्तानी है। बरछी, बरछे और नेज़े में जो फ़र्क़ है, वो ज़ाहिर है। कटारी, डांड और भाले हिंदुस्तानी हैं। शुजाअत, दिलेरी और बहादुरी के सिलसिले में अर्जुन का ज़िक्र आता है। मर्सियों में गैंडे, हाथी, चितले साँप और नागन का तसव्वुर भी उसी सर-ज़मीन से तअल्लुक़ रखता है। अनीस का कलाम बह्र-ए-ज़ख़्ख़ार है। ये चंद मिसालें महज़ नमूने के तौर पर पेश की गईं। सिर्फ़ मैदान-ए-जंग के बयानात से ऐसी तमाम मिसालें जमा की जाएं तो इनकी तादाद बिला-शुबहा सैकड़ों तक पहुँचेगी।
ग़रज़ अनीस की शायरी में हिंदुस्तानियत के कई पहलू और कई जिहतें हैं। मुआशरती कवाइफ़, जज़्बाती रवैये, रस्म-ओ-रिवाज, रहन-सहन, बैन-ओ-बुका, मैदान-ए-जंग, इनकी कुछ झलक ऊपर पेश की गई। अनीस के यहाँ इसका असर मंज़र-निगारी, फ़ितरत, मौसम और सुबह-ओ-शाम के बयान पर भी हुआ है। बा'ज़ अशआर में कोसों तक बिछी हुई मख़मल सी वो गियाह वो गुल सब्ज़-ओ-सुर्ख़-ओ-ज़र्दऔर था मोतियों से दामन-ए-सहरा भरा हुआ के जो पैकर हैं, उनकी हिस्सी और बसरी कैफ़ियतों का हिंदुस्तानी मनाज़िर से तअल्लुक़ ज़ाहिर है। डॉक्टर मसीह-उज़ज़माँ ने लिखा है, अनीस के यहाँ मनाज़िर के बयानात ख़ुसूसन चेहरे में सुबह के मनाज़िर के साथ लहलहाते हुए सब्ज़े और चटकती हुई कलियों का ज़िक्र-ए-ख़ास कर्बला की सर-ज़मीन का नक़्शा पेश नहीं करता... इन बयानात में बहुत सी ऐसी चीज़ें नज़र आती हैं जिनके होने का इम्कान कर्बला के मैदान में नहीं था।(8) अज़हर अली फ़ारूक़ी ने भी इस बात को तस्लीम किया है कि ये मनाज़िर और कैफ़ियतें, ये सब्ज़ा-ज़ार और चमन-ज़ार कर्बला के रेतीले और तपते हुए मैदानों की तरफ़ नहीं बल्कि किसी और तरफ़ इशारा करते हैं।(9)
फूला शफ़क़ से चर्ख़ पे जब लाला-ज़ार-ए-सुब्ह
गुलज़ार-ए-शब ख़िज़ाँ हुआ आई बहार-ए-सुब्ह
करने लगा फ़लक ज़र-ए-अंजुम निसार-ए-सुब्ह
सर-गर्म-ए-ज़िक्र-ए-हक़ हुए ताअ'त गुज़ार-ए-सुब्ह
था चर्ख़-ए-अख़्ज़री पे ये रंग आफ़ताब का
खिलता है जैसे फूल चमन में गुलाब का
चलना वो बाद-ए-सुब्ह के झोंकों का दम-ब-दम
मुर्ग़ान-ए-बाग़ की वो ख़ुश-अलहानियाँ बहम
वो आब-ओ-ताब-ए-नहर वो मौजों का पेच-ओ-ख़म
सर्दी हवा में पर न ज़ियादा बहुत न कम
खा-खा के ओस और भी सब्ज़ा हरा हुआ
था मोतियों से दामन-ए-सहरा भरा हुआ
वो नूर सुब्ह और वो सहरा वो सब्ज़ा-ज़ार
थे ताइरों के ग़ोल दरख़्तों पे बेशुमार
चलना नसीम-ए-सुब्ह का रह-रह के बार-बार
कू-कू वो क़ुमरियों की वो ताऊस की पुकार
वा थे दरीचे बाग़-ए-बहिश्त-ए-नईम के
हर सू रवाँ थे दश्त में झोंके नसीम के
वो फूलना शफ़क़ का वो मीनाए लाजवर्द
मख़मल सी वो गियाह-ओ-गुल सब्ज़-ओ-सुर्ख़-ओ-ज़र्द
रखती थी फूँक कर क़दम अपना हवाए सर्द
ये ख़ौफ़ था कि दामन-ए-गुल पे पड़े न गर्द
धोता था दिल के दाग़ चमन लाला-ज़ार का
सर्दी जिगर को देता था सब्ज़ा कछार का
(3)
अब आख़िर में इस बुनियादी सवाल को लीजिए कि अनीस की शायरी का कितना हिस्सा ऐसा है जहाँ किसी हिंदुस्तानी रस्म का ज़िक्र नहीं, या किसी ख़ारिजी हिंदुस्तानी मज़हर की तरफ़ भी इशारा नहीं, यानी सहरा, नेग, संदल, लगन, मंडप, कँगना, हाथी, रंड साला, कुछ भी नहीं ताहम इन अशआर में हिंदुस्तानी फ़िज़ा है। गोया ज़रूरी नहीं कि हिंदुस्तानी फ़िज़ा मरई शक्ल में हो। इसकी ग़ैर-मरई कैफ़ियत भी हो सकती है। इस ज़िम्न में इस अम्र की वज़ाहत ज़रूरी है कि मौज़ू हो या मवाद, ये ज़ेहनी चीज़ है जबकि इसके इज़हार के लिए शायर को जिस चीज़ के मुख़्तलिफ़-उन-नौअ साँचों का मरहून-ए-मिन्नत होना पड़ता है, वो ज़बान है और वाज़ेह रहे कि ज़बान ख़ुद तहज़ीब है, ये जहाँ मुआशरत को क़ाइम करती है वहाँ मुआशरत का चेहरा भी है।
मरासी में हिंदुस्तानियत की बहस में आज तक ज़बान के इज़हारी साँचों और शायर की ला-शुऊरी मजबूरियों की तरफ़ नज़र नहीं गई कि इज़हार-ओ-बयान के मामले में सबसे बड़ा जब्र ज़बान के रोज़-मर्रे व मुहावरे यानी ख़ुद ज़बान की लफ़्ज़ियात का होता है। कोई शायर ख़्वाह कितना ही क़ादिर-उल-कलाम हो, या लफ़्ज़ों का कितना बड़ा बादशाह हो, ज़बान से उसका रिश्ता तख़्लीक़ी नादिरा-कारी का है तो ज़बान अपनी साख़्त, अपने मिज़ाज और अपने नस्ली रवैयों से मौज़ू की पेशकश को मुतअस्सिर करेगी ही करेगी और मौज़ू के इज़हार पर ला-मुहाला उस मुआशरत की छाप लगा देगी जिस मुआशरत में वो ज़बान बोली जाती है।
अनीस की ज़बान लखनऊ की उर्दू थी, जिसे खड़ी ने गोदों खिलाया था, लेकिन जिसके नाज़ अवधी ने उठाए थे।(10) इसमें बेगमात की गुफ़्तगू का एक ख़ास अंदाज़ और एक ख़ास लहजा था, हिफ़्ज़-ए-मरातिब के ख़ास साँचे थे, तख़ातुब के ख़ास तरीक़े थे। ख़ास तरकीबें, ख़ास मुहावरे और ख़ास रोज़-मर्रा था। इन सबका तख़्लीक़ी इस्तेमाल अनीस के हाँ होना ही होना था। इन तमाम लिसानी वसाइल-ओ-लवाज़िम का इस्तेमाल शाइस्तगी की दलील और फ़साहत की ज़मानत भी था, नीज़ ये बात भी नज़र में रहनी चाहिए कि अनीस रम्ज़-ओ-तजरीद के शाइर नहीं, वज़ाहत-ओ-तम्सीलओफ़िज़ा साज़ी-ओ-सूरत-कशी के शाइर हैं। इनका फ़न ईजाज़-ओ-इख़्तिसार से इबारत नहीं। उन्होंने इतनाब को औज-ए-कमाल तक पहुँचाया। ख़ुद कहते हैं, इक फूल का मज़्मूँ हो तो सौ रंग से बाँधूँ।
ये भी मालूम है कि मर्सिया, ग़ज़ल या रुबाई की तरह रम्ज़िया सिन्फ़-ए-सुख़न नहीं, ये क़सीदे या मस्नवी की तरह बयानिया चीज़ है। मर्सिए के मौज़ूआत वाक़िआती हैं और महदूद वाक़िआत को अनीस ने ला-महदूद तौर पर लिखा है। इस्तिआरा-साज़ी उन्होंने बेशक की, लेकिन जो लोग अनीस की इस्तिआरा-साज़ी को ज़ियादा अहमियत देते हैं, वो नहीं जानते कि इस्तिआरे का अमल-दख़ल उनकी शे'री उस्लूबियात का ग़ालिब उंसुर नहीं। बयानिया शाइरी इस्तिआरे का नहीं तश्बीह का खेल खेलती है। अनीस ने जिस चीज़ को मज़ामीन-ए-नौ के अंबार कहा है वो दर अस्ल बयान-ए-नौ के अंबार हैं। मीर अनीस का कमाल ये है कि उन्होंने मर्सिए में बयानिया इज़हार को जादू बना दिया और उसे एक नई शाहराह पर लगा दिया। चुनाँचे कैफ़ियत और कमिय्यत दोनों एतिबार से अनीस की शायरी ब-ज़ातेही एक ज़बरदस्त शे'री रिवायत बन गई।
ऐन मुम्किन है कि इस शायरी का कोई गहरा तहत-उश-शुऊरी रिश्ता काव्य की क़दीम हिंदुस्तानी रिवायत से हो, जिसके बेहतरीन नुमाइंदों का सिलसिला काली दास से तुलसी दास व जायसी तक फैला हुआ है। काव्य में भी मौज़ू को फैला कर, बढ़ाकर पूरी तख़्लीक़ी वुसअत के साथ पेश करना होता था। ऐसा ही फ़ारसी बयानिया शायरी में भी हुआ जिसका बे-मिस्ल शाहकार शाहनामा है। मर्सिया का मौज़ू भी बयान की किफ़ायत नहीं, उसकी वुसअत चाहता था, चुनाँचे मर्सिए की इस नौईयत के पेश-ए-नज़र अनीस उर्दू ज़बान के एक बड़े हिस्से को अपने तसर्रुफ़ में ले आए। ज़बान के बड़े हिस्से को तसर्रुफ़ में ले आने का ना-गुज़ीर नतीजा ये हुआ कि ज़बान के ख़ल्लाक़ाना सर्फ़ के ज़्यादा से ज़्यादा इम्कानात अपने साथ इस ज़बान के मुआशरती समाजी रवैयों को भी ले आए।
ज़बान पर समाज-ओ-मुआशरत की छाप होती ही होती है। इससे अगर बचने की कोशिश की जाती तो अनीस को न सिर्फ़ अपनी तख़्लीक़ी-ओ-शे'री आमद-ओ-रवानी से बल्कि ज़बान की ताज़गी-ओ-नादिराकारी के एक हिस्से से भी हाथ धोना पड़ते। ज़बान के एक हिस्से को बरतना और दूसरे से रु-गर्दानी करना ज़बान को मजरूह करना और ख़ुद अपने शे'री इज़हार की क़ुव्वतों पर पहरा बिठाना या ख़ुद को रिवायती ज़बान की दस्तरस में देना था। ये ऐसा जुर्म है जिसका इर्तिकाब छोटे शाइर तो कर सकते हैं, अनीस जैसा बड़ा शाइर नहीं कर सकता था और वो भी एक बयानिया शायर जिसको ज़बान की ज़िंदगी से धड़कती हुई लफ़्ज़ियात के ज़ियादा से ज़ियादा हिस्से की ज़रूरत होती है। ज़रा जब क़ता की मसाफ़त-ए-शब आफ़ताब ने से ये हिस्सा मुलाहिज़ा हो, जो हज़रत अब्बास को अलम दिए जाने के मौक़े पर आया है,
ये सुन के आई ज़ौजा-ए-अब्बास नामवर
शौहर की सम्त पहले कंखियों से की नज़र
लें सिब्त-ए-मुस्तफ़ा की बलाएँ ब-चश्म-ए-तर
ज़ैनब के गिर्द फिर के ये बोली वो नोहा-गर
फ़ैज़ आप का है और तसद्दुक़ इमाम का
इज़्ज़त बढ़ी कनीज़ की रुतबा ग़ुलाम का
सर को लगा के छाती से ज़ैनब ने ये कहा
तो अपनी माँग कोख से ठंडी रहे सदा
की अर्ज़ मुझ सी लाख कनीज़ें हों तो फ़िदा
बानूए नामवर को सुहागन रखे ख़ुदा
बच्चे जिएँ तरक़्क़ी-ए-इक़बाल-ओ-जाह हो
साये में आप के अली अकबर का ब्याह हो
क़िस्मत वतन में ख़ैर से फिर सबको ले के जाए
यसरिब में शोर हो कि सफ़र से हुसैन आए
उम्म-उल-बनीन जाह-ओ-हशम से पिसर को पाए
जल्दी शब-ए-अरूसीएअकबर ख़ुदा दिखाए
मेंहदी तुम्हारा लाल मिले हाथ पाँव में
लाओ दुल्हन को ब्याह के तारों की छाओं में
इस इक़्तिबास के दूसरे मिसरे में शौहर की सम्त पहले कनखियों से की नज़र में लफ़्ज़ कनखियों से किसी रस्म का इज़हार नहीं होता, न ही किसी ठोस पैकर का तसव्वुर उभरता है। शर्म-ओ-हया तो आलम-गीर सिफ़त है, लेकिन लफ़्ज़ कनखियों के इस्तेमाल से मअन उस समाज की औरत का जज़्बाती रवैया सामने आ जाता है, जिस समाज में उर्दू ज़बान बोली जाती है, और इस एक लफ़्ज़ के इस्तेमाल से पूरे बंद में बिजली सी दौड़ जाती है और अपनाईयत की फ़िज़ा पैदा हो जाती है जो शे'र की असर-आफ़रीनी में इज़ाफ़ा करती है। ये फ़िज़ा बैत के मिसरे इज़्ज़त बढ़ी कनीज़ की रुतबा ग़ुलाम का से और भी गहरी हो गई है। अगरचे ग़ुलाम अरबी का और कनीज़ फ़ारसी का लफ़्ज़ है, लेकिन एक ख़ातून किरदार की ज़बान से अपने शौहर और ननद की मौजूदगी में जिस तरह ये अलफ़ाज़ बोलने वाले के लिए अदा हुए हैं, वो अंदाज़ हिंदुस्तानी बेगमात के लहजे और तर्ज़-ए-तख़ातुब की ग़म्माज़ी करता है।
उसी तरह दूसरे बंद में तो अपनी मांग कोख से ठंडी रहे सदा या बानूए नामवर को सुहागिन रखे ख़ुदा या बच्चे जिएँ तरक़्क़ी-ए-इक़बाल-ओ-जाह हो इन मिसरों में भी किसी हिंदुस्तानी रस्म या मक़ामी चीज़ का ज़िक्र नहीं लेकिन ये जज़्बात, ये दुआएँ, ये पैराया-ए-इज़हार यकसर मक़ामी-ओ-हिंदुस्तानी है। शौहर की ज़िंदगी और घर की ख़ुशी का तसव्वुर कहाँ का नहीं, लेकिन तो अपनी माँग कोख से ठंडी रहे सदा के दुआइया इस्तेमाल से एक ऐसी जज़्बाती फ़िज़ा पैदा हो जाती है जो कुल्लियतन हिंदुस्तानी है। यही मामला लफ़्ज़ सुहागन का है, जिससे ज़ेहन में हिंदुस्तानी घर गृहस्ती और उसकी घरेलू ख़ुशियों का तसव्वुर सामने आता है। उसी तरह आख़िरी बंद की बैत मुलाहिज़ा हो जो दुआइया है,
मेंहदी तुम्हारा लाल मले हाथ पाँव में
लाओ दुल्हन को ब्याह के तारों की छाओं में
लिसानी इज़हार के नुक़्ता-ए-नज़र से ये बात साफ़ है कि लफ़्ज़ लाल हो दुल्हन या सुहागन, अनीस के हाँ कोई लफ़्ज़ ब-ज़ातेही नहीं आता बल्कि पूरे माअ्नवी वाहिदे Semantic Unit के तौर पर आता है जिसमें उस लफ़्ज़ के मुतअल्लिक़ात की ज़ेहनी तस्वीरें भी होती हैं। गोया ये माअ्नवी इकाइयाँ अपनी समाजी और मुआशरती तम्सीलों के साथ आती हैं और उनमें कई जज़्बाती और हिस्सी पैकरों के सिलसिले समोए हुए होते हैं।
मसलन ज़ैनब के मुकालमे में अनीस जब अली अकबर का ज़िक्र करते हैं तो शे'री आमद की रौ में अनीस के ज़ेहन में अली अकबर का तसव्वुर एक ऐसे लाल या दूल्हा का तसव्वुर बन कर उभरता है जिसके हाथ पाँव में मेंहदी लगी हुई है। उसी तरह जब दुल्हन का तसव्वुर उनके ज़ेहन में आता है तो उसके साथ-साथ तारों की छाओं का तसव्वुर भी दबे पाँव शे'र में दाख़िल हो जाता है। ऐसे अशआर में लाल को मेंहदी से, दुल्हन को तारों की छाओं से, बानो को सुहाग से या माँग को कोख से ठंडी रहे से या हज़रत इमाम हुसैन और ज़ैनब की मौजूदगी में ज़ौज़ा-ए-अब्बास के तसव्वुर को ख़िदमात और वफ़ा-शिआरी में कनीज़ और ग़ुलाम के तसव्वुर से अलग नहीं रखा जा सकता।
गोया ये सब ऐसे जज़्बाती और ज़ेहनी सिलसिले हैं जो वसीअ-तर माअ्नवी इकाइयों का हिस्सा हैं और अपने समाजी तअल्लुक़ात के साथ जामेअ् तौर पर इस्तेमाल होते हैं। अनीस के ज़ेहन में ये अलग-अलग नहीं बल्कि एक कुल के तौर पर एक साथ आते हैं। अनीस के कमाल-ए-फ़न का ये पहलू ख़ुसूसी तवज्जो चाहता है। ये मामूली बात नहीं कि अनीस ने अल्फ़ाज़ की बड़ी से बड़ी तादाद को ज़ियादा से ज़ियादा तख़्लीक़ी सलीक़े से बरता है। अनीस के नवासे प्यारे साहब रशीद से जो रिवायत मंसूब है कि अनीस फ़रमाया करते थे, हज़रात लखनऊ इस तरह नहीं कहते। इससे भी ये ज़ाहिर होता है कि अनीस की ज़बान के जामेअ् और मुआशरती क़ालिब पर कैसी गहरी नज़र थी। अनीस कलाम बा-मौक़ा पर भी इसरार करते थे।
इस बात को आम तौर पर तस्लीम किया जाता है कि अनीस ने हिंदुस्तानी औरतों के लहजे और तर्ज़-ए-गुफ़्तार को जिस कमाल से शे'र में खपाया है, उसकी इतनी मुतनव्वेअ् और मुतहर्रिक तस्वीरें कहीं और नहीं मिलतीं। उन्होंने हिंदुस्तानी ख़्वातीन की उम्मीदों, आरज़ुओं, तमन्नाओं, दुआओं, उनके अदब-आदाब, हिफ़्ज़-ए-मरातिब, लहजे, रोज़-मर्रे, मुहावरे और ज़ेहनी और जज़्बाती रवैयों की ऐसी तस्वीर-कशी की है कि पूरी उर्दू शायरी में इसका जवाब नहीं। ज़ैल के अश्आर में तख़्लीक़ी एतिबार से ज़रा लह्जा और ख़िताब देखिए, मअन अवध के घरानों की फ़िज़ा सामने आ जाती है,
कैसी धड़ा-धड़ी है ये क्यों बैन होते हैं
लोगो न गुल मचाओ मिरे लाल सोते हैं
छप जाए जिससे दूर का नाता है साहिबो
दूल्हा-दुल्हन के लेने को आता है साहिबो
औलाद भी प्यारी है तो हज़रत ही के दम तक
कहिए तो बलाएँ भी न लूँ सर से क़दम तक
लो अपने दूध की तुम्हें देती हूँ मैं क़सम
अब कुछ कहोगे मुँह से तो होगा मुझे भी ग़म
करवट तो लो कि माँ के जिगर को क़रार हो
इस बचपने की नींद पे अम्माँ निसार हो
वो कहती थी कि जाग के तक़दीर सो गई
बीबी न पकड़ो हाथ कि मैं रांड हो गई
रखे ख़ुदा सलामत उन्हें अपनी जान से
उठ जाए ख़ैर पालने वाली जहान से
क्या जाने वो मज़ा जिसे उसका मिला नहीं
अच्छा सिधारो तुमसे हमें कुछ गिला नहीं
आबिद हों या कि ये सभी आँखों के तारे हैं
पर अब तो ये न आप के हैं ने हमारे हैं
जीते न फिरोगे ये क़सम खाती हूँ वारी
कम्सिन हो बहुत इसलिए समझाती हूँ वारी
चेहरों की बलाएँ तो मुझे लेने दो वारी
फिर काहे को शक्लें नज़र आएंगी तुम्हारी
बहनें पुकारती थीं कि बैरन तिरे निसार
अब तक तो घर में आए थे मैदाँ से चंद बार
दाँतों में वो चमक कि नज़र को नहीं है ताब
ख़ुद जिसकी बर्क़-ओ-शर्क़ से आकास को हिजाब
छेदें वही गला ये लईनों के जी में था
याँ कंठ बैठ जाने से दम धुक-धुकी में था
फ़रमाया बहन अब इन्हें आग़ोश में लो तुम
दो शेर मिरे मर गए पुर्सा मुझे दो तुम
वो बोली कि है-है ये न फ़रमाइए भाई
हज़रत कहाँ लाल कहाँ मेरी कमाई
इस ज़िम्न में ये मुसलसल हिस्से भी अपनी माअनवियत से ख़ाली नहीं। ज़ैनब अली अकबर के बारे में कहती हैं,
सी कर नए कुर्ते उन्हें किस रोज़ पिनहाए
इस्पंद क्या-क्या ये कहीं जाके जो आए
रखती थी मैं किस दिन उन्हें दूल्हा सा बनाए
नाज़ उनकी फूफी ने कभी काहे को उठाए
पूछे तो कोई घुटनियों जिस रोज़ चले थे
उन तलवों से ये दीदा-ए-तर किस ने मले थे
रातों को रहा कौन छट्टी चिल्लों में बेदार
किसने कहो सुरमा दिया इन आँखों में हर बार
पहलू में रहा दिल की तरह किसके ये दिलदार
किस बीबी ने गेसू हैं ये मन्नत के रखे चार
है मेरी इजाज़त जो ये मरने को चले हैं
पूछे तो कोई किसकी मुरादों के पले हैं
जब दूध बढ़ाने का हुआ ख़ैर से हंगाम
इस शादी का किसने किया कुंबे में सर अंजाम
क़ुर्बां रहे अठारह बरस जो सहर-ओ-शाम
पूछा भी न हाँ सच है अब इस बीबी से क्या काम
क्यों उनकी बला ले के न पहले ही मुई मैं
सब लोग तो इनके हुए कोई न हुई मैं
इस मौक़े पर शहरबानो हज़रत इमाम हुसैन से कहती हैं,
मैं आप की, घर आप का, और आप के दिलदार
लौंडी के भी मालिक हो और अकबर के भी मुख़्तार
शिकवा नहीं गर हैं तो मोहब्बत के गिले हैं
ये लाल मुझे आप के सदक़े में मिले हैं
है काम का वो इनमें जो काम आप के आए
इरशाद जिसे कीजिए वो मरने को जाए
फ़रमाओ तो लौंडी अली असग़र को भी लाए
हसरत है कि मादर उन्हें नौशाह बनाए
पर ग़म नहीं इसका भी कि ये हमसे जुदा हों
अब तो यही शादी है कि हज़रत पे फ़िदा हों
फ़ातिमा कुबरा हज़रत क़ासिम से कहती हैं,
समझी कि जीते अब नहीं फिरने के रन से तुम
प्यासा गला कटा के मिलोगे हसन से तुम
सोओगे मुँह छुपा के लहद में कफ़न से तुम
अच्छा सुलूक करते हो साहब दुल्हन से तुम
इक रात की बनी पे जफ़ा यूँ ही चाहिए
ऐ शमा-ए-बज़्म मेह्र-ओ-वफ़ा यूँ ही चाहिए
ग़ैर-मरई हिंदुस्तानियत यानी महज़ ज़बान, रोज़-मर्रा, मुहावरे और लहजे के इस्तेमाल से तशकील पाने वाली हिंदुस्तानी फ़िज़ा की हुदूद का तअय्युन ख़ासा मुश्किल काम है। इसका सिलसिला अंदाज़-ए-गुफ़्तगू और मामूली लफ़्ज़ों के इस्तेमाल से लेकर तशबीहों, तम्सीलों, तरकीबों, कहावतों और लफ़ज़ियात के दूसरे पेच दर पेच दायरों तक कुछ इस तरह फैला हुआ है कि हर-हर पहलू की निशान-दही करना तक़रीबन ना-मुम्किन है। सिर्फ़ मुहावरों से ही इसका कुछ अंदाज़ होगा। ज़ैल के अश्आर में मुहावरों का इस्तेमाल कम-ओ-बेश ग़ैर-इरादी है। ग़ौर फ़रमाइए कि एक मामूली से मुहावरे के इस्तेमाल से फ़िज़ा में मक़ामी रंग किस तरह आ जाता है।
छल-बल दिखाई फ़ौज को दौड़ा थमा अड़ा
सूरत बनाई जस्त की सिमटा जमा अड़ा
किससे कहें जो हाल-ए-दिल-ए-दर्दनाक है
तलवार चल रही है जिगर चाक-चाक है
मैं अब उन्हें बे-जान से मारे न फिरूँगा
बे-तेग़ के घाट उनको उतारे न फिरूँगा
वो नहर, वो अश्जार, वो सब्ज़ा, वो तराई
जंगल भी हवा पर था कि आज अपनी बन आई
कैसी हवा चली चमन-ए-रोज़गार में
सैयद का बाग़ लुटता है फ़स्ल-ए-बहार में
आगे हमारे दावए जुर्अत ख़ुदा की शान
गुद्दी से खींच लूँ अभी बढ़ कर तेरी ज़बान
झोंकों से हवा के जो उड़े पर्दा-ए-महमिल
सीनों में उछलने लगे सैदानियों के दिल
ज़ैल के शे'र भी मुलाहिज़ा हों। इनमें सिर्फ़ एक लफ़्ज़ या सिर्फ़ एक पैकर के इस्तेमाल से शे'र में हिंदुस्तानी कैफ़ियत पैदा हो गई है।
आफ़त थी बेकसी थी मुसीबत थी यास थी
बे-फ़ौज बादशाह था ड्योढ़ी उदास थी
दामन अलम का खोल के अब्बास रुक गए
सफ़ बाँध कर सलाम को मुजराई रुक गए
रन पर चढ़े जो सोग के कपड़े उतार के
मारे गए वो शेर हज़ारों को मार के
गर्मी ये और क़ह्त कई दिन से आब का
रुख़ तमतमा गया है मिरे आफ़ताब का
तर है क़बा पसीने में पँखा कोई हिलाओ
सौंला गए हो धूप में वारी हवा में आओ
भागड़ में खूँ से रन की ज़मीं लाल हो गई
दूल्हा की लाश घोड़ों से पामाल हो गई
अनीस के यहाँ से ऐसी मिसालें सैकड़ों नहीं, हज़ारों की तादाद में पेश की जा सकती हैं, जहाँ सिर्फ़ एक लफ़्ज़ या मुहावरे या तरकीब या पैकर के इस्तेमाल से जैसे बैरन, आकास, धुक-धुकी, वारी, बलाएं, दूध की क़सम, धूप में सौंलाना, चाँद सी दुल्हन, छल बल, जंगल का हवा पर होना, तेग़ के घाट उतारना, गुद्दी से ज़बान खींचना, बाग़ लुटना या मामूली अलफ़ाज़ जैसे सोग, सिधारो, ड्योढ़ी, तमतमाना, रन, भागड़के तख़्लीक़ी इस्तेमाल से शे'र की पूरी माअ्नवी फ़िज़ा बदल गई है। ला-मुहाला अनीस की शायरी में अक़ीदे की रौशनी चाँदनी बन कर हर जगह मौजूद है, ख़्वाह वो दिखाई दे या न दे। इसका तअल्लुक़ जैसा कि वज़ाहत की गई, ज़बान के लहजे, रोज़-मर्रे, मुहावरे और बा'ज़ औक़ात आम लफ़्ज़ों के बा-सलीक़ा इस्तेमाल से है। ये सब ज़बान की ऐसी माअ्नवी इकाइयाँ हैं जिनसे ज़बान का भरपूर तख़्लीक़ी इस्तेमाल करने वाला कोई भी शाइर सर्फ़-ए-नज़र नहीं कर सकता।
अब ये बात वाज़ेह है कि ज़बान का ताज़ा काराना तख़्लीक़ी इस्तेमाल अपने साथ एक मख़सूस तहज़ीबी-ओ-ज़ेहनी फ़िज़ा, एक मख़्सूस मुल्की मिज़ाज और मख़्सूस समाजी और मुआशरती रंग लेकर आता है और जिस शाइर की लफ़्ज़ियात और उसके तख़्लीक़ी इस्तेमाल का दायरा जितना बड़ा और पुर क़ुव्वत होगा, उसी निस्बत से ज़बान का अपना मख़्सूस मुआशरती रंग उसकी शाइरी में ज़ियादा से ज़ियादा झलकेगा। अनीस ने ज़बान और रोज़-मर्रे और उसकी माअ्नवी इकाइयों के इस इंतिहाई फ़ैज़-बख़्श जब्र को अपने लिए रवा रखा। अब इसकी मज़ीद वज़ाहत की ज़रूरत नहीं कि क्या अनीस ने हिंदुस्तानियत को अम्दन उर्दू मर्सिए में दाख़िल किया और क्या वाक़ई वो इस मामले में क़तअन आज़ाद थे? या एक बार जब उर्दू ज़बान की लताफ़तों, माअ्नवी इकाइयों और ज़ेहनी पैकरों के दरवाज़े ज़बान के भरपूर तख़्लीक़ी इस्तेमाल की बदौलत उन्हेंने ख़ुद पर वा कर लिए तो उनकी शाइरी में उर्दू के असरी मक़ामी लिसानी समाज का दर आना फ़ित्री था और उर्दू का लिसानी समाज बहर-हाल हिंदुस्तानी समाज है।
इससे ज़बरदस्त फ़ायदा ये हुआ कि अनीस को उनकी मख़्सूस शे'रियत के लिए एक वसीअ लिसानी और माअ्नवी फ़िज़ा मिल गई और मर्सिए के किरदारों को एक ऐसी तर्ज़-ए-गुफ़्तार, एक ऐसा लह्जा, एक ऐसा अंदाज़-ए-बयान मिल गया जिसकी बदौलत शे'री हक़ीक़त की तश्कील और फ़िज़ा-साज़ी के लिए Authenticity की बुनियाद फ़राहम हो गई और उर्दू वालों से बिल-उमूम और लखनऊ वालों से बिल-ख़ुसूस अपनाईयत का वो रिश्ता क़ाइम हो गया, जिसकी बदौलत किसी भी शाइर का कलाम दिल की तहों में उतरता है और जिसका अनीस की शोहरत-ए-आम और क़ुबूल-ए-दवाम में बड़ा हाथ है।
मसादिर
(1) मरासी-ए-मीर अनीस (जिल्द1, 2, 3, 4) नवल किशोर, लखनऊ 1958
(2) मरासी-ए-अनीस, मुरत्तबा नाइब हुसैन नक़वी (जिल्द, 1, 2, 3, 4) ग़ुलाम अली एंड सन्ज़, लाहौर 1959
(3) रूह-ए-अनीस मुरत्तबा प्रोफ़ेसर सैयद मसऊद हसन रिज़वी अदीब, किताब नगर, लखनऊ 1956
(4) सौदा अज़ शेख़ चाँद, अंजुमन-ए-तरक़्क़ी उर्दू, औरंगाबाद 1936
(5) उर्दू मर्सिया अज़ सिफ़ारिश हुसैन रिज़वी, मक्तबा जामिया, नई दिल्ली 1965
(6) ख़वातीन-ए-कर्बला कलाम-ए-अनीस के आईने में अज़ बेगम सालिहा आबिद हुसैन, मक्तबा जामिया, नई दिल्ली 1973
(7) उर्दू मर्सिए का इर्तिक़ा अज़ डॉक्टर मसीह-उज़-ज़माँ, किताब नगर, लखनऊ, 1968
(8) उर्दू मर्सिया अज़ अज़हर अली फ़ारूक़ी, इलाहाबाद1958
(9) कलाम-ए-अनीस में हिंदुस्तान अज़ दानिश लखनवी, माहनामा नया दौर लखनऊ, अगस्त 1992 (अनीस-शनासी, 1977)
हाशिए
(1) उर्दू मरसिया, 161
(2) ख़वातीन-ए-करबला कलाम-ए-अनीस के आईने में, स, 25
(3) ऐज़न, स, 27
(4) सौदा, स, 206-309
(5) उर्दू मर्सिए का इर्तिक़ा, स, 121
(6) उर्दू मर्सिया, स, 318-319
(7) ख़वातीन-ए-कर्बला कलाम-ए-अनीस के आईने में, स, 27
(8) उर्दू मर्सिए का इर्तिक़ा, स, 36
(9) उर्दू मर्सिया, स, 150
(10) मीर अनीस के बारे में कहा जाता है कि क़दीम फ़ारसी दास्तानें उनकी नज़र में थीं और मुम्किन है कि महाभारत और रामायन भी उनके मुतालेए में रहे हों। नैयर मसऊद का बयान है कि उन्होंने अवधी बा-क़ायदा न भी पढ़ी हो मगर वो इसके उसूलों से अच्छी वाक़फ़ियत रखते थे। हिन्दी की बा'ज़ किताबों में अनीस के नाम से एक कबित्त भी मिलता है (अनीस, इब्तिदाई दौर अज़ नैयर मसऊद रिज़वी, दो माही एकाडमी, जनवरी-फ़रवरी 1987)
नौबत राय नज़र लखनवी ने लिखा है, ग़ालिबन बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि उन्हें उस ज़बान की (यानी अवधी) शाइरी से किसी क़दर दिलचस्पी थी। मो'तबर अश्ख़ास का बयान है कि उन्हें हज़ारों दोहे याद थे और उनकी लिताफ़त का असर ख़ास तौर पर महसूस करते थे। (मीर अनीस मग़्फ़ूर अज़ नौबत राय नज़र लखनवी, रिसाला ज़माना कानपुर, जनवरी-फ़रवरी 1908)
पयम्बरान-ए-सुख़न में शाद अज़ीमाबादी लिखते हैं, मोहल्ले में एक मंदिर था, वहाँ एक साधू किसी क़दर फ़ारसी-अरबी पढ़ा हुआ था बैठा करता था। आप घड़ियों टहल-टहल कर फ़ारसी अश्आर और दोहे उसको सुनाया करते थे। वो भी दोहे पढ़ा करता था। अजोध्या में किसी दोस्त की तक़रीब में गए, वहाँ सीता जी की रसोई और बहुत से मंदिर हैं। वहाँ किसी सन्यासी से आप की मुलाक़ात हो गई। तीन दिनों तक वहाँ उससे घड़ियों बातचीत ऐसी रही कि वो भी मो'तरिफ़ हो गया और कहने लगा कि आप तो हक़ीक़त में जोगी और सन्यासी हैं।
(पयम्बरान-ए-सुख़न अज़ सैयद अली मोहम्मद शाद अज़ीमाबादी, मुरत्तबा सैयद नक़ी अहमद इरशाद फ़ातिमी, सैयद सफ़दर हुसैन, लाहौर 1974, स,184-185 ब-हवाला-ए-दानिश लखनवी, नया दौर, लखनऊ, अगस्त 1992 स, 21-24)
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.