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नाराज़गी की नफ़्सियात

आक़िल ज़ियाद

नाराज़गी की नफ़्सियात

आक़िल ज़ियाद

MORE BYआक़िल ज़ियाद

    मंसूबे की राह में रुकावट नाराज़ी की नफ़सियात को जिला देती है। ख़्वाहिशों की तकमील में किए जानेवाले अमल के दौरान नाकामी से मायूसी और मुसलसल मायूसी से बेज़ारी पैदा होती है। बेज़ारी वो कैफ़ियत है जो बाज़ औक़ात नफ़रत और बसा औक़ात नाराज़गी या हसद की शक्ल में ज़ाहिर होती है। मुम्किन है नाराज़गी का सबब बद-गुमानी, हट-धर्मी ,मुआनदाना सुलूक, इख़्तिलाफ़-ए-राय वग़ैरा जैसे रवैय्ये हों फिर भी नाराज़गी की नफ़सियात एक हल तलब मसअला है। नाराज़ रहने वाला शख़्स हत्मी इक़दाम से गुरेज़ करता है जब्कि बेज़ार रहने वाला शख़्स किसी भी हद तक जा सकता है। ज़ाहिर है नाराज़गी दिमाग़ की एक आरिज़ी कैफ़ियत है जब्कि बेज़ारी के असरात देर-पा साबित होते हैं। हो सकता है बद-गुमानी या किसी ना-पसन्दीदा वाक़िया के सामने आने पर उसका रद्द-ए-अमल नाराज़गी या ग़ुस्से की शक्ल में ज़ाहिर हो लेकिन बेज़ारी किसी अमल के मुसलसल इआदे से पैदा होती है। मसलन कोई इन्सान किसी की बात या उसकी हरकत से चिढ़ता है और मुम्किनात की हद तक वो ज़ब्त भी करता है। कभी ऐसा भी देखा जाता है कि चिढ़ने वाला चिढ़ाने वाले से बचने के लिए कहीं और मुन्तक़िल हो जाता है। फिर कुछ अर्सा बाद वो अपनी जगह वापिस आता है और फिर उसे उसी शख़्स के पुराने रवैय्ये का सामना होता है। अन्दाज़ा किया जा सकता है कि उसकी हालत में क्या तब्दीली सकती है। हो सकता है वो शख़्स बिल्कुल शान्त हो जाए या फिर एकदम से बिफर जाए। दोनों हालतों की अलग-अलग वजहें हो सकती हैं मगर इन हालात में ख़ुद-एतिमादी एक मुश्तरक रवैय्या है जिसकी वजह से चिढ़ने वाला शख़्स हो सकता है चिढ़ाने वाले को बेवक़ूफ़ समझने लगे और ख़ामोशी इख़्तियार करले, उसी की हँसी उड़ाए या ये भी मुम्किन है कि उसकी गर्दन ही दबोच ले। इसका दार-ओ-मदार इन्सान में ख़ुद-एतिमादी की सतह पर मुन्हसिर है।

    ख़ुद-एतिमादी और अना-पसन्दी एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ भी है और मुतवाज़ी भी। जिस शख़्स में ख़ुद-एतिमादी या क़ुव्वत-ए-इरादी की सतह जिस क़दर बुलन्द होगी अनानियत उसी क़दर कमज़ोर होगी। इसके बर-अक्स अना-पसन्दी की सतह अगर ऊँची है तो यक़ीनन वो शख़्स जज़्बातियत से मग़्लूब होगा और इससे पहले कि वो कोई फ़ैसला कर पाए जज़्बातियत उसके आसाब पर ज़ाहिर होने लगेगी। इस ज़िम्न में इन्सान की परवरिश-ओ-पर्दाख़्त, माहौल, मुआशरा, तर्बीयत, तर्ज़-ए-रिहाइश, ज़ेहनी फ़आलियत, वसाइल की फ़राहमी या अदम-ए-दस्तयाबी जैसे उमूर का मुताला-ओ-मुशाहिदा ज़रूरी है। मुतज़क्किरा उमूर शख़्सियत-साज़ी की राह में आने वाले वो संग-ए-मेल हैं जिन्हें किसी तरह नज़र-अन्दाज़ नहीं किया जा सकता। इन उमूर की बिना पर इन्सान में अना (EGO) दर्जा-ब-दर्जा प्रवान चढ़ता है और इसी के ज़रिया शख़्सियत की मुख़्तलिफ़ सतहें ज़ुहूर-पज़ीर होती हैं। इस तरह अना-पसन्दी की सतह नाराज़गी की हालत का पता दे सकती है और इसके ज़रिया इसे समझना आसान भी हो सकता है , मगर ख़याल रहे ये कोई हत्मी पैमाना नहीं बल्कि अना-पसन्दी अगर वज्ह-ए-नाराज़गी है तो ख़ुद-एतिमादी या दूसरे लफ़्ज़ों में क़ुव्वत-ए-इरादी के ज़ोर से इसे ख़त्म किया जा सकता है। गोया नाराज़गी की नफ़सियात का इन्हिसार ख़्वाहिश, उम्मीद, नाकामी, मायूसी, बेज़ारी, हसद, ग़ुस्सा, पुख़्ता ज़ेहनी और ज़ेहनी नापुख़्ता-कारी (तिफ़लाना सोच) जैसे नुकात पर मुन्हसिर है और इस लिए नाराज़गी की नफ़सियात को समझने के लिए इन नुकात को ज़ेर-ए-ग़ौर लाना लाज़्मी है।

    ख़्वाहिश: ख़्वाहिश से मक़्सद का नुमू होता है और मक़्सद ज़िन्दगी जीने की तरग़ीब देता है। अगर ज़िन्दगी किसी तौर बे-मक़्सदियत से हम-रिश्ता है तो फिर वो ज़िन्दगी तहरीक से यक्सर ख़ाली है। हैवानों और हशरात-उल-अर्ज़ की ज़िन्दगियाँ इन तमाम एहसासात से मुबर्रा हैं और इसलिए वो जीने के लिए मार सकते हैं मगर उनमें ज़िन्दा रहने के लिए मर मिटने की कोई तहरीक नहीं पाई जाती है। समाजी ज़िन्दगी का नज़रिया अपनी जगह एक हक़ीक़त है और परिन्दों से लेकर रेंगने वाले छोटे बड़े जानदार और हैवानों तक में समाजी निज़ाम का एक ढाँचा क़ायम है, ता-हम उनमें इन्सानों की तरह मंसूबा-बन्दी नहीं है। इसलिए जेहद-ए-ज़िन्दगी के तमाम आसार-ओ-इशारात मौजूद होने के बावजूद उनके दिमाग़ में ख़ुराक और जिन्सी आसूदगी से अलग कोई और मक़्सद नहीं पलता। मगर इन्सानी दिमाग़ मंसूबों की तामीर-ओ-तश्कीलात की आमाजगाह है जिसमें हर-आन तब्दीलियाँ आती रहती हैं। मक़्सद के बर-आने से ख़ुश होना फ़ितरी अमल है और इसके बर-अक्स नताइज सामने आने से इज़्तिराबी कैफ़ियत भी ऐन-ए-फ़ितरत है।

    ख़्वाहिशों के मदारिज और इसके तअय्युन-ए-क़द्र का मुहासिबा किया जा सकता है , इस तरह इसे मज़बूत, कमज़ोर और मामूली ख़्वाहिश के ख़ानों में रख कर मक़्सद की बाज़याबी की राह में की जाने वाली कोशिशों का जायज़ा लिया जा सकता है। कभी कभी नींद की हालत में भी इन्सानी दिमाग़ मंसूबे बनाता है कि आख़िर वो अपने मक़्सद को किस तरह हासिल कर सकता है। मंसूबों की बाज़याबी की राह में आने वाली मुश्किलात से उसका दिमाग़ हक़ीक़त-ओ-इब्हाम की हद तक बेदार रहता है और हस्ब-ए-ज़रूरत बिल-वास्ता या बिला-वास्ता वो इन मुश्किलात से पार पाने की कोशिश करता है, हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले। मुम्किन है इस अर्से में इन्सान ख़ल्वत-पसन्दी इख़्तियार कर ले, ता-हम डिप्रेशन (पज़मुर्दगी) के ज़ुमरे नहीं रखा जा सकता कि ये अलग नुक्ता है और इस पर एक अलग बहस दरकार होगी।

    उम्मीद: ज़िन्दगी उम्मीद के साथ इस तरह वाबस्ता है जैसे जान जिस्म से। उम्मीद है तो मंसूबा है, मक़्सद है, जोश है और अगर ये नहीं तो ज़िन्दा होते हुए भी जज़्बात से आरी इन्सान का तसव्वुर किसी क़दर परेशानकुन ही हो सकता है। उम्मीद-ओ-नाउम्मीदी के दरमियान दिमाग़ की हालत कुछ ऐसी रह सकती है कि झुँझलाहट उसकी आदत बन जाये। इस मुसलसल झुँझलाहट के सबब क़ता-कलामी और सुलूक-ओ- बर्ताव के मुआमले में उसूल-ओ-ज़वाबित की अन-देखी हो सकती है। बावजूद इसके उम्मीद एक तवानाई है जिससे ज़िन्दगी की राहें रौशन रहती हैं।

    कोई वादा, कोई यक़ीं कोई उम्मीद/ मगर हमें तो तिरा इन्तिज़ार करना था।

    यहाँ ज़िन्दा रहने की चाहत ( Will to live) मेरा मौज़ू नहीं है, ता-हम ज़िन्दा रहने के लिए जो शैय सबसे ज़्यादा तहरीक देती है वही उम्मीद है। ईलाज के दौरान डाक्टर अगर ज़िन्दगी से मायूस इन्सान को यक़ीन दिलाने में कामयाब हो जाए कि उसका ज़िन्दा रहना निहायत ज़रूरी है और ये उम्मीद जब उस में जाग जाती है तो ईलाज आसान हो जाता है। दुनिया के अजायब-उल-वाक़िआत (Adventures) पर नज़र डालें तो ऐसी बेशुमार मिसालें मिल जाती हैं कि आदमी दरियाओं, पहाड़ों, जंगलों, सहराओं की तमाम-तर सुऊबतों के साथ हर लम्हा मौत से मुतसादिम रहा और बिलआख़िर उसने मौत को शिकस्त दे दी। और ये इसलिए मुम्किन हुआ कि उसमें उम्मीद की मौजें मोजज़न थीं।

    नाकामी: मक़ासिद के हुसूल के लिए की जाने वाली कोशिशों में कामयाबी और नाकामी दो मुक़ाम आते हैं। कामयाबी का मज़ा एक ऐसी कैफ़ियत है जिसमें सर-शारी होती है मगर नाकामी की कैफ़ियत बहुत कसीफ़ और तनाव से भरी होती है। पुरानी रिवायत है इन्सान अपनी नाकामियों से सीखता है। इसमें कोई शक नहीं, कामयाबी की राह में नाकामियाँ बेहतरीन राहनुमा साबित होती हैं। समाज-ओ-सियासत ही नहीं तारीख़ में भी ऐसे वाक़ियात भरे पड़े हैं जिससे इस बात की तसदीक़ होती है। मगर इन्सान का दिमाग़ शायद रद्द-ओ-क़ुबूल की हद से वाक़िफ़ है और इसलिए मुसलसल नाकामी से उसका दिमाग़ सुस्त-रवी का शिकार हो सकता है या फिर बहुत ज़्यादा इन्फ़िआलियत का मुर्तक़िब। सुस्त-रवी की हालत हो या इन्फ़िआलियत की दोनों ही हालतें में दिमाग़ को कम या ज़्यादा मुतास्सिर कर सकती हैं और इसके नताइज बुरे हो सकते हैं। हाँ अगर ख़ुद-एतिमादी का मायार बुलन्द हो तो फिर इसकी नौईयत कुछ और ही हो सकती है। अक्सर देखा गया है कि अच्छा ख़ासा एक बिज़नेसमैन सब कुछ छोड़-छाड़ कर राह-ए-हक़ का मुसाफ़िर बन जाता है। ग़म-ए-रम कर सम-ए-गम खा कि यही है शान-ए-क़लन्दरी। इस से अलग कभी इस तजुर्बे से भी रू-बरू होने का मौक़ा मिलता है कि सब कुछ लुट जाने के बाद इन्सान फिर से उठ खड़ा होता है और तरक़्क़ियाती ज़िन्दगी में दुबारा क़दम रख कर एहसास-ए-महरूमी से नजात पाने की कोशिश करता है। यक़ीनन इन्सान के पास जब खोने के लिए कुछ नहीं रह जाता, उसका एहसास-ए- हम्मीयत उसे क़ुव्वत देती है।

    मायूसी: बसा-औक़ात नाकामी या शिकस्त तस्लीम कर लेने के बाद शख़्सियत पर अफ़्सुर्दगी का रंग उतर आता है। ये रंग क़लील मुद्दती हो सकती है और तवील मुद्दती भी। ज़ाहिर है इसका दार-ओ-मदार इंसान की अना यानी ईगो पर मुन्हसिर है। इस पर क़ाबू पाना आसान है अगर साहिर लुधयानवी के इस शेर पर तवज्जो की जाए… ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ महसूस हो जहाँ/ मैं दिल को इस मुक़ाम पे लाता चला गया। मेरा बस चलता तो आख़िरी मिसरे को इस तरह कहता, मैं ज़ेह्न-ओ-दिल को साथ मिलाता चलाता गया। वाज़ेह है कि हर क़िस्म के एहसासात का ज़िम्मेदार दिमाग़ है, ज़ाहिर है फ़ैसले का हक़ भी दिमाग़ ही का है। लेकिन बेशतर अक़्वाम की लिसानी तहज़ीबों में दिल को जज़्बात से जोड़ कर बरतने की रिवायत है। इस लिए यहाँ माफ़ी-उज़-ज़मीर के इज़हार के लिए उसकी रिआयत का लिहाज़ रखा जा रहा है। इस से इख़्तिलाफ़ नहीं कि मायूसी का रंग ना-उम्मीदी से पैदा होता है। जब तक उम्मीद बाक़ी है हौसले का साथ रहता है मगर जब ना-उम्मीदी दिमाग़ में घर करने लगती है तो नफ़रत जगह पाने लगती है, बद-दिली में इज़ाफ़ा होने लगता है और इसकी शिद्दत कभी-कभी इतनी तेज़ होती है कि उम्मीद बर आने पर भी नफ़रत में कमी नहीं आती। ब-हरहाल, मायूसी एक बहुत बुरी कैफ़ियत है जिससे ख़ुदा-ए-बुज़ुर्ग भी अपने बन्दों को दूर रहने की तलक़ीन करता है। इससे शख़्सियत तो मुज़्महिल होती ही है शक्ल-ओ-शबाहत पर भी पज़मुर्दगी सी छाने लगती है।

    बेज़ारी: अहबाब, अक़्रिबा, समाज या ख़ुद अपने ही आदात-ओ-अतवार से कबीदा-ख़ातिर रहना बेज़ारी की वजह बन सकती है। यक़ीनन अना-परस्ती दिमाग़ की वो कैफ़ियत है जो ज़िन्दगी का सिम्त मुतय्यन करती है और ख़ुद-एतिमादी के ज़रिए उसे क़ाबू में लाया जाता है। अनानियत की बुलन्द सतह अगर इंसान को बेज़ारी की तरफ़ माइल करती है तो ख़ुद-एतिमादी के ज़ोर पर उसे एतिदाल पर लाया जा सकता है। अनानियत में कोई बुराई नहीं है और ही उसे मनफ़ी तौर लिया जाता है, बल्कि हस्सासियत और अनानियत दोनों मुतवाज़ी कैफ़ियात हैं। एक धुँदली सी कैफ़ियत, बाज़-औक़ात इसका इज़हार बहुत ख़फ़ीफ़ होता है मगर ये अण्डर करंट की तरह चलता रहता है। तोहफ़े या एज़ाज़ क़ुबूल करते हुए रस्मी तौर पर तकल्लुफ़ के इज़हार को अनानियत से ताबीर किया जाए या हस्सासियत से, क्या फ़र्क़ पड़ता है। मगर उसी रस्म के अदम-ए-इज़हार से जो तकद्दुर पैदा होता है उसे बेज़ारी कहा जा सकता है। बेज़ारी को मुख़्तसरन इज़हार में लाना ज़रा मुश्किल है, ता-हम ज़िन्दगी की यक-रंगी, अहबाब का बेजा तकल्लुफ़, बुख़्ल-ओ-बेजा-तसर्रुफ़ात , शख़्सियत के इज़हार में तजाउज़ , किसी का मुसलसल इश्तियाक़ और इसके बदले बे-एतिनाई वग़ैरह ऐसी बहुत सी मिसालें हैं जिनसे बेज़ारी पैदा होती हैं। एक मुद्दत तक ऐसे हालात से गुज़रते रहने से इंसान के अन्दर बे-ज़ारी या बद-दिली पैदा होना फ़ितरी अमल है। इस पर बज़ात-ए-ख़ुद क़ाबू पाना क़द्रे दुश्वार है क्यों कि जिन आदात-ओ-अतवार के सबब उसका नुमू होता है उस पर ख़ुद उसका कंट्रोल नहीं होता। लिहाज़ा ये समझा जा सकता है कि जिस सबब से बद-दिली पैदा हुई उसके वजह -ए-इर्तिकाब से मुख़ालिफ़ अमल की तवक़्क़ो की जाए।

    हसद: रक़ाबत और हसद दोनों को एक दूसरे के मुतरादिफ़ के ब-तौर इस्तिमाल किया जाए तो कोई क़बाहत नहीं। दीगर तमाम दाख़िली कैफ़ियात के मुक़ाबले हसद ज़्यादा मुतहर्रिक-ओ-मुस्तमल है। शायद इसकी वजह ये है कि माद्दी और मुक़ाबला-जाती दौर में हसद भी इंसान के शाना-ब-शाना सरगिर्दां रहने वाला एहसास है। बहुत मशहूर फ़िक़रा है… बना है शाह का मुसाहिब चले है इतराता, दिमाग़ की इस कैफ़ियत की हिद्दत को तब भी महसूस किया जाता था जब एक तहज़ीब तश्कील के मरहले में थी। आज तरक़्क़ी-याफ़्ता दौर में भी इसकी गरमाहट और शिद्दत में वही तेज़ी है। इसकी दूसरी मिसाल, संग-संग गाय चराए कृष्णा हुआ भगवान, दर-अस्ल हसद एहसास की वो सतह है जहाँ कीना-परवरी का तुख़्म नुमू पाने लगता है। मुम्किन है इसका वुजूद बहुत मुख़्तसर मुद्दत के लिए हो, ता-हम एक ही शोबा में साथ चलने वाले जब आगे निकल जाते हैं तो ऐसी सूरत पैदा होने के इम्कानात बढ़ जाते हैं। इसमें हार-जीत का मसला नहीं बल्कि हक़-ब-हक़दार रसीद से बिल्कुल उलट मसला है, ज़ाहिर है किसी ना-अह्ल का इन्तिख़ाब इस एहसास को परवान चढ़ाता है। इस से मुम्किनात की हद तक गुरेज़ करना ही दानिश-मन्दी है क्योंकि ये वो एहसास है जो इंसान को अन्दर ही अन्दर खोखला और बे-ज़र्फ़ बना देता है।

    ग़ुस्सा: दिमाग़ की तश्कील में मुआशरे और माहौल का बड़ा ही अहम किरदार है और इसकी सतह में यकसानियत का पाया जाना क़द्रे मुहाल है ,क्योंकि दिमाग़ दाख़िली और ख़ारिजी तमाम तरह के असरात के रद्द-ओ-क़बूल का महवर है। उन्हीं असरात के तहत दिमाग़ फ़ैसले करता है जिससे सुकूत-ओ-इन्तिशार की कैफ़ियत ज़ाहिर होती है। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि मुसबत असरात क़ुबूल करने की सूरत में आसूदगी और मनफ़ी असरात की सूरत में बे-कैफ़ी पैदा होती है। बे-कैफ़ी मर्हला-वार उकताहट और बेचैनी में इज़ाफ़ा करता है और इसकी शिद्दत में मुसलसल इज़ाफ़ा दिमाग़ी तवाज़ुन में इन्तिशार का मूजिब बन जाता है। नाकामी और मायूसी से पैदा हुई सरासीमगी इन्तिहा तक पहुँच जाये तो माहौल-ओ-मुआशरे से मौसूल होने वाले असरात से मनफ़ी तफ़क्कुरात का ज़ोर बढ़ने लगता है जो हर तरह से दिमाग़ी ख़लजान (बे-एतिदाली) का सबब बनता है। लिहाज़ा यक-रुख़ी सोच के मुर्तकिब इंसान में बे-ज़ारी इस हद तक पहुँच जाती है वो हत्मी इक़दाम करने से भी गुरेज़ नहीं करता।

    पुख़्ता ज़ेहनी: तरक़्क़ी याफ़्ता ज़ेहनों में नाराज़गी की गुंजाइश बहुत कम रहती है क्योंकि मस्लिहत या मुसालिहत-पसन्दी उसकी फ़ितरत होती है। इसकी बड़ी वजह ये है कि ज़िम्मेदारी का एहसास उसे मुसबत फ़िक्र और मुतवाज़िन रवैय्ये की राह पर गामज़न रखता है। ये वो दिमाग़ी क़ुव्वत है जिसकी वजह से किसी नाज़ेबा बर्ताव या ना-पसन्दीदा वाक़िआ से दिल-बर्दाशता होने के बजाए वो मुसालिहत-पसन्दी और मस्लिहत-कोशी को तर्जीह देने पर क़ादिर होता है। नागुज़ीर हालात में उसकी नाराज़गी का घर, दफ़्तर और समाज में भी तज़्किरा होने लगता है। पुख़्ता ज़ेहनी इंसान को बा-वक़ार क़ाइद और राह-नुमा तक बनाने में मुआविन है। इसके बरअक्स कुछ लोग शातिराना मिज़ाज के हामिल होते हैं और अपने मुफ़ादात के हुसूल में वो किसी तौर तजावुज़ से भी गुरेज़ नहीं करते। कभी जब उनके मुक़ाबिल कोई खड़ा होता है और उनकी चालबाज़ियों से पर्दा उठाता है तो सरासीमगी और ख़िजालत की वजह से उनमें इन्तिक़ाम जैसे जज़बे नुमू पाने लगते हैं। ऐसे लोग उस वक़्त तक दिमाग़ी ख़लजान के शिकार रह सकते हैं जब तक वो अपने हदफ़ को हासिल नहीं कर लेते।

    ज़ेहनी ना-पुख़्ता कारी: तक़रीबन हर मुआशरे में बच्चे और बूढ़े को एक नज़र से देखने की पुरानी रिवायत है। इसकी वजह शायद दोनों में अपने मुफ़ादात की बाज़-याबी की फ़िक्र ज़्यादा रहती है। एक बच्चे की समझ का दायरा इतना महिदूद होता है कि वो अपनी मतलूबा चीज़ों में दूसरे के दुख़ूल का मुतहम्मिल नहीं होता। इसी तरह एक बूढ़ा इंसान जो ख़ुद किसी चीज़ को हासिल करने की सकत नहीं खता, एहसास-ए-महरूमी के सबब हासिल शूदा चीज़ों में किसी की मुदाख़िलत से कबीदा-ख़ातिर (नाराज़) रहता है। ऐसी कैफ़ियत बालिग़-उल-उमरी और फ़आल-उल-उमरी में भी देखी जाती है। इस सूरत में इस मर्ज़ की जानिब वाज़ेह इशारा मिलता है जिसमें जिस्मानी-ओ-ज़ेहनी तरक़्क़ी में तवाज़ुन क़ायम नहीं रहता यानी उम्र आगे निकल जाती है और दिमाग़ पीछे रह जाता है। मेडिकल साईंस की रू से हॉरमोनल डिसआर्डर के ब-मूजिब ये एक आरिज़ा है जो पैदाइश के वक़्त ही से शुरू हो जाती है और इसका ईलाज भी शायद मुम्किन है।

    कभी ऐसे लोग भी राब्ते में जाते हैं जो ख़ुद आप ही से नाराज़ होते हैं और ब-ज़ाहिर ऐसा लगता है कि उन्हें अपने ज़िन्दा रहने का अफ़सोस है। ऐसे हालात का ज़िम्मेदार बहुत सारे अवामिल हो सकते हैं जिनमें हद दर्जा हस्सासियत, ना-उम्मीदी, नाकामी और मायूसी के इलावह हसद-ओ-कीना-परवरी का किरदार नुमायाँ है। ऐसे लोग इज़्मेहलाली कैफ़ियत में मुब्तिला रहते हैं और इससे उबरने की तरकीब उन्हें किसी तौर सुझाई नहीं देती, क्योंकि उनकी सोच का दायरा महदूद हो जाता है और क़ुव्वत-ए-इरादी उनके अन्दर दम तोड़ चुकी होती है। ऐसे मलामती कैफ़ियात को ओढ़ कर जीने वालों के माज़ी में झाँकने की कोशिश की जाए तो एहसास-ए-जुर्म, एहसास-ए-गुनाह या एहसास-ए-महरूमी जैसे हालात से पर्दा उठता नज़र आता है। इसकी तलाफ़ी की कोशिशों में ऐसा इंसान सौदाई, सहराई या इन्तिहाई मज़हबी भी हो सकता है। दूसरे लफ़्ज़ों में वो नफ़्सियाती मरीज़ की सूरत कभी शान्त तो कभी बावला नज़र सकता है। ऐसे इंसानों में अक्सर ये देखा गया है कि वो सब कुछ भूल सकता है लेकिन वो एक एहसास जो उसके दिमाग़ को इज़्तिराब से दो-चार रखता है उसे नफ़्सियाती मर्ज़ में मुब्तिला रखने के लिए काफ़ी है।

    अख़ीर में एक-बार फिर मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू 'नाराज़गी की नफ़्सियात’ पर तवज्जो की जाए तो लफ़्ज़ ‘राज़ी’ अगर हिमायत है तो ‘नाराज़ी’ मुख़ालिफ़त है। मगर उसके नफ़्सियाती इफ़्हाम-ओ-तफ़्हीम में सर-ए-दस्त जो भी अवामिल सामने आए इस पर मक़दूर भर रौशनी डालने की कोशिश की गई। बावजूद इसके कहा जा सकता है कि तमाम ज़ेहनी-ओ-जिस्मानी तग़ैय्युरात के लिए एक ज़िन्दा जिस्म ज़रूरी है। एक तन्दुरुस्त जिस्म में ही तमाम तरह के हारमोन्ज़ मौजूद होते हैं जिस से ज़िन्दगी का निज़ाम क़ायम है। गोया दिमाग़ अगर राजा है तो जिस्म और जिस्मानी आज़ा ऐसी रिआया है जो सिर्फ अहकामात के ताबे होती है। हाथ जलाने से पहले दिमाग़ ये फ़ैसला सादर कर चुका होता है कि ये एक तकलीफ़-दह मर्हला है। बावजूद इसके अगर वो इस अमल की जानिब हुक्म देता है तो दिमाग़ की मुख़्तलिफ़ हालतों को जानना ज़रूरी हो जाता है। तज्ज़ियाती सतह पर देखा जा सकता है कि ख़्वान्दा समाज में लड़ाई झगड़े, ख़ुद-कुशी और क़त्ल जैसे वाक़ियात निस्बतन कम पाए जाते हैं। जराइम और वारदात की बात निकली तो इस सच्चाई को भी तस्लीम करना होगा कि मुहज़्ज़ब समाज में वाक़ियात कम रूनुमा होते हैं और वारदात ज़्यादा। इस मौज़ू पर अलग से बहस की एक बड़ी गुंजाइश है, ता-हम सेहत-मन्द जिस्म से एक सेहत-मन्द दिमाग़ का तसव्वुर मुश्किल नहीं है और इस तरह एक सेहत-मन्द मुआशरा के नुमाइन्दगान की ज़िन्दगियाँ बहुत आसान हो सकती हैं।

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