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नून मीम राशिद

मंज़र सलीम

नून मीम राशिद

मंज़र सलीम

MORE BYमंज़र सलीम

    नून. मीम. राशिद को उर्दू पढ़ने वालों की अक्सरियत मीरा जी की तरह नए ढंग से नई और अजीब बातें कहने वाले शाइ’र की हैसियत से जानती है। ये नहीं कि राशिद और मीरा जी में बहुत ज़ियादा यक्सानियत हो। दोनों नज़्म-ए-आज़ाद के शाइ’र होते हुए भी अपने तर्ज़-ए-बयान और मौज़ू के लिहाज़ से एक दूसरे से बहुत मुख़्तलिफ़ हैं मीरा जी की शाइ’री ज़िन्दगी में औरत के बहुत कम होने का मातम है।

    राशिद की शाइ’री ज़िन्दगी में औरत के बहुत ज़ियादा होने का बे-बाक ऐलान। मीरा जी औरत के तसव्वुर से लज़्ज़त या परेशानी हासिल करते थे, राशिद औरत के जिस्म से लज़्ज़त और कभी-कभी परेशानी हासिल करते हैं। मीरा जी अपनी उन उलझनों और परेशानियों का इज़्हार पेचीदा और ग़ैर-मानूस तरीक़ों से करते थे राशिद जो कुछ कहते हैं जुर्अत और बे-बाकी से कहते हैं। मीरा जी की शाइ’री प्यार और लज़्ज़त से महरूम रहने वाले इन्सान का एहसास-ए-कमतरी हर जगह काम करता दिखाई देता है। राशिद की शाइ’री में जिस्म ख़रीदने की हैसियत रखने वाले इन्सान के ग़ुरूर और एतमाद की झलक मिलती है।

    राशिद और मीरा जी एक दूसरे से बहुत मुख़्तलिफ़ हैं लेकिन आम आदमी का रवय्या उनके मुता’ल्लिक़ यक्साँ है। उसकी ये वज्ह नहीं कि ये दोनों नज़्म-ए-आज़ाद के शाइ’र हैं और ये चीज़ उर्दू शाइ’री के लिए नई है। इसकी वज्ह सिर्फ़ ये है कि उन दोनों शो’रा का रवय्या भी आम आदमी और उसकी ज़िन्दगी के मुता’ल्लिक़ क़रीब-क़रीब यक़्साँ है। उनकी शाइ’री में आम आदमी को अपनी ज़िन्दगी के दुख दर्द, अपनी ज़िन्दगी की जद्द-ओ-जहद कि झलक नहीं मिलती और जो कुछ मिलता है उस से इस दौर में आम आदमी के लिए दिल-चस्पी बरक़रार रखना ना-मुम्किन हो गया है ये दोनों शाइ’र आम आदमी से किसी क़िस्म का रब्त रखने के क़ायल नहीं। उन्हें अपनी ज़ात और उसकी जिन्सी और ज़ेह्​नी उल्झनों से फ़ुर्सत नहीं मिलती। और नून. मीम. राशिद अगर कभी ब-दर्जा-ए-मजबूरी अवाम से दिलचस्पी लेते हैं तो जैसा कि हयातुल्लाह अंसारी ने “नून. मीम. राशिद” पर लिखा है कि “उन्हें अवाम भूतों की तरह वहशतनाक नज़र आते है”,

    जाग शम्अ-ए’-शबिस्तान-ए-विसाल

    मेरे पास दरीचे के क़रीब

    देख बाज़ार में लोगों का हुजूम

    बे-पनाह सैल के मानिन्द रवाँ

    जैसे जिन्नात बयाबानों में

    (दरीचे के क़रीब)

    राशिद की शाइ’री का गहरा तजज़िया करने से पता चलता है कि अवाम से राशिद का ये ख़ौफ़ ख़ालिस तबक़ाती क़िस्म का है, राशिद मुतवस्सुत तबक़े के उन शाइ’रों में से हैं जो ऊपरी तबक़े के अक़्दार पर जान देते हैं जो ज़ेह्​नी तौर पर अपना रिश्ता ऊपरी तबक़े से जोड़ने की ज़िन्दगी भर कोशिश करते रहते हैं और ऊपरी तबक़े के ज़वाल को अपना ज़वाल समझते हैं। राशिद का ये ख़ौफ़ वैसा ही ख़ौफ़ है जैसा की किसी मिल मालिक को मज़दूरों के मुश्तइल गिरोह को मिल की तरफ़ बढ़ते देख कर महसूस होता है। अवाम के मुता’ल्लिक़ यही वो रवय्या है जिस ने राशिद की शाइ’री को अवाम में मक़बूल होने से रोक दिया है।

    राशिद की मक़बूलियत का ज़माना दूसरी जंग-ए-अज़ीम उसके चन्द बरस पहले से लेकर उसके ख़ात्मे तक समझा जाता है, उस ज़माने में भी वो सिर्फ़ ख़ास पढ़े लिखे, इन्टेलेक्चुअल लोगों में मक़्बूल हुए और उसके कई अस्बाब हैं। पहली वज्ह तो ये है कि उस ज़माने में नई अदबी तहरीक में कई अनासिर बुरी तरह घुल मिल गए थे “अदब बराए ज़िन्दगी” का नारा तो हर तरफ़ गूँजने लगा था लेकिन उसके वाज़ेह तसव्वुर से अच्छे-अच्छों के ज़ह्न ख़ाली थे। सेहतमंद और बा-शऊर तन्क़ीद के फ़ुक़दान के बाइस अच्छे बुरे अदब में तमीज़ करना क़रीब-क़रीब नामुम्किन हो गया था। “मावरा” के तआ’रुफ़ में कृष्ण चन्द्र ने लिखा था,

    “ब-ज़ाहिर ये इन्क़लाब का ज़माना है। इस दौर में एशिया के अक्सर हिस्सों में सनअती, मआशी और सियासी बेदारी पैदा हो गई है, फ़रसूदा, गन्दे निज़ाम को तबाह कर देने की आरज़ूओं और इरादों के चर्चे हैं... हिन्दोस्तान में जहाँ मुल्क के शानदार मुस्तक़बिल के ख़ाके ख़ींचे जा रहे हैं वहाँ एक नए अदब की बुनियाद भी रखी जा रही है।”

    नए अदब की बुनियाद रखी जा रही थी लेकिन किन उसूलों और नज़रियों पर और किन मक़ासिद के पेशे नज़र ये बुनियाद रखी जा रही थी। ये चीज़ ज़ेह्​नी और अमली दोनों हैसियतों से मुबहम थी। नए अदब की तहरीक ने ज़ोर पकड़ा जिद्दत-तराज़ी, उरियाँ-निगारी, ग़लत क़िस्म की हक़ीक़त निगारी और तरक़्क़ी पसन्दी ये सब चीज़ें एक दूसरे से कुछ इस तरह उलझ कर रह गईं कि उनका अलग करना मुश्किल हो गया। एक तरफ़ से नए अदब कि मुख़ालफ़त शुरू’ हुई दूसरी तरफ़ से हिमायत, मुख़ालफ़त करने वाले निस्बतन कमज़ोर थे उन्हें शिकस्त हुई, हिमायत करने वालों में सरफिरे नौजवानों के अलावा यूनिवर्सिटियों और कालेजों के असातिज़ा, मुतवस्सित और ऊपरी तबक़ों के इन्टेलेक्चुअल और बड़ी-बड़ी तनख़्वाह पाने वाले सरकारी मुलाज़मीन शामिल थे, उनकी फ़त्ह हुई और जो कुछ उनके क़लम से निकला अदब कहलाया, बे-राह-रवी की एक आँधी आई और सारे अदबी माहौल पर छा गई शाइ’री पर उस आँधी का ग़ुबार निस्बतन ज़ियादा पड़ा। औरत के बारे में कुछ खुल्लम-खुल्ला लिखने पर बरसों से जो पाबन्दी आयद थी वो दूसरी अदबी रिवायात के साथ टूटी और कुछ इस तरह कि उस वक़्त के तमाम जदीद-शोअरा ने औरत को मौज़ू-ए-सुख़न बनाया, ग़म-ए-दौराँ और इन्क़लाब तक की बातें औरतों को मुख़ातिब कर के कही गईं मीरा जी और मख़्मूर जालंधरी ने गन्दी नज़्में लिखीं और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जैसे बा-शऊर शाइ’र ने कहा,

    हाए उस जिस्म के कमबख़्त दिल-आवेज़ ख़ुतूत

    अपना मौज़ू-ए-सुख़न उसके सिवा कुछ भी नहीं

    मीरा जी ने सिम्बोलिज़्म (SYMBOLISM) की तहरीक की आड़ लेकर महमिल-निगारी शुरू’ की, हल्क़ा-ए-अरबाब-ए-ज़ौक़ का संग-ए-बुनियाद रखा गया। लाहौर जदीद अदबी तहरीकों का मरकज़ बना और नून. मीम. राशिद को डॉक्टर ‘तासीर’ और ‘फ़ैज़’ वग़ैरह ने एशिया का सबसे बड़ा शाइ’र तस्लीम कर लिया।

    राशिद को मीरा जी और दूसरे जदीद शोअरा से ज़ियादा मक़बूलियत हासिल हुई उसके कई अस्बाब हैं अव्वल तो ये कि राशिद ने उर्दू शाइ’री को नज़्म-ए-आज़ाद दी। यहाँ इससे बहस नहीं कि उर्दू कि सबसे पहली नज़्म-ए-आज़ाद कौन-सी है और किस ने लिखी है। राशिद का सबसे बड़ा कारनामा तो ये है कि उन्होंने कई बरस की मेहनत और जाँ-फ़िशानी से नज़्म-ए-आज़ाद में इतनी नग़्मगी और रवानी पैदा की कि उसको सुनने के बा’द सब से पहले जो ख़्याल ज़ह्न में आए वो ये हो कि उसके मिसरे छोटे बड़े हैं।

    राशिद वो पहले शाइ’र हैं जिन्होंने उर्दू नज़्म को ग़ज़ल से अलाहिदा किया, उनकी नज़्मों के मिसरे ग़ज़ल के मिसरे नहीं नज़्म के मिसरे मा’लूम होते हैं। जोश की नज़्म में क़ाफ़ियों की बड़ी अहमियत होती है और अक्सर अश्आ’र-ओ-ख़्यालात क़ाफ़ियों की उँगली पकड़ कर आगे बढ़ते हैं। बर-ख़िलाफ़ उसके राशिद की नज़्म में ख़्याल सब से ज़ियादा अहमियत रखता है। ख़्याल कभी आहिस्ता और कभी तेज़ अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता है और अपने पीछे क़दमों के निशान की तरह मिसरे छोड़ता जाता है। जोश कि तकनीक ये है कि वो बातें बयान करके (अगर चाहते हैं तो) नतीजा अख़्ज़ करते हैं लेकिन राशिद कि नज़्मों की इब्तेदा इस नतीजे से होती है जो बातों पर ग़ौर-ओ-ख़ौज़ करने के बा’द अख़्ज़ किया जाता है। राशिद की नज़्मों में भर्ती के मिसरे बहुत कम मिलते हैं। राशिद अपनी नज़्मों में कम से कम मिसरों में ज़ियादा से ज़ियादा बात कहने के आदी हैं हर चीज़ बड़े अदबी ज़ब्त के बा’द हासिल होती है, क्योंकि नज़्म-ए-आज़ाद में ख़ूबसूरत मिसरे आसानी से कहे जा सकते हैं, और उन ख़ूबसूरत (भर्ती के) मिसरों को नज़्म में शामिल करना हर एक के बस की बात नहीं। इस सिलसिले में राशिद आज भी जबकि नज़्म-ए-आज़ाद उर्दू शाइ’री का एक अहम ज़ुज़ बन चुकी है अपने फ़न में यक्ता हैं। सरदार जाफ़री तक के यहाँ जो इस वक़्त नज़्म-ए-आज़ाद के सब से बड़े कामयाब शाइ’र हैं भर्ती के मिस्‍रे’ बहुत मिलते हैं वो कम बात को ज़ियादा से ज़ियादा मिसरों में कहने के आदी हैं जो फ़न्नी एतबार से ठीक नहीं।

    मन्दर्जा बाला ख़ुसुसियात के अलावा वो चीज़ जिस ने राशिद को ख़वास में मक़बूलियत देने में सब से ज़ियादा हिस्सा लिया है वो है उनकी शाइ’री की नई फ़िज़ा, नया माहौल। राशिद की शाइ’री में जो फ़िज़ा जो माहौल मिलता है वो उर्दू शाइ’री के लिए बिल्कुल नया है और उनकी शाइ’री को पसन्द करने वालों को ज़िन्दगी के हक़ाइक़ से फ़रार करने के लिए उस से ज़ियादा ख़ूबसूरत और रंगीन माहौल किसी और शाइ’र की नज़्मों में नहीं मिलता बॉल-रूम, शराब-ख़ाने, ख़लवत-गाहें, महकते हुए शबिस्ताँ, क़ालीन, सेज और हर जगह अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ खेलते रहने के लिए जवान औरत का जिस्म, उन चीज़ों की मदद से राशिद अपनी शाइ’री में एक तिलिस्मी फ़िज़ा क़ायम करते हैं जो फ़रारियत पसन्द ज़ह्न-ए-इन्सानी को बड़ी जल्दी असीर कर लेती है। मसलन राशिद की नज़्मों के ये हिस्से,

    चाँद कि किरनों का बे-पायाँ फ़ुसूँ फैला हुआ

    और मेरे पहलू में तो

    तेरे सीने के समनज़ारों में उठीं लर्ज़ीशें

    मेरे अँगारों को लेने के लिए

    अपनी निकहत अपनी मस्ती मुझको देने के लिए

    (एक रात)

    क़हवा ख़ाने की शबिस्तानों की ख़लवत-गाह में

    आज की शब तेरा वज़दाना वुरूद

    इश्क़ का हैजान, आधी रात और तेरा शबाब

    (आँखों के जाल)

    तेरे बिस्तर पे मेरी जान कभी

    बेकराँ रात के सन्नाटे में

    ज़ज़्बा-ए-शौक़ से हो जाते हैं आज़ा मदहोश

    (बेकराँ रात के सन्नाटे में)

    इक शबिस्ताँ...

    इक बरहना जिस्म आतिशदाँ के पास

    फ़र्श पर क़ालीन, क़ालीनों पे सेज

    (इन्तेक़ाम)

    इन हिस्सों के मुतालए से राशिद और उनको पसन्द करने वालों की ज़हनियत का पता चलता है। राशिद की कामयाब नज़्में वही हैं जिन में राशिद ने औरत को सामने बिठला कर बात की है। ये उनका निहायत ही फ़ेवरेट तरीक़ा है, और वो लज़्ज़त ले लेकर एक-एक मिसरे नज़्म करते हैं।

    उनकी इस टेकनिक से भी ये बात वाज़ेह हो जाती है कि वो औरतें जिन से वो अक्सर अपनी नज़्मों में बातें करते हैं किस तरह की हैं। वो ख़ुद कभी नहीं बोलतीं, ख़ामोश रहती हैं अय्याश इन्टेलेक्चुअल के ज़ह्न से निकलता है सुनती रहती हैं।

    रुख़्सत, ख़्वाब की बस्ती, रिफ़अत, तिलस्म-ए-जावेदाँ, होंटों का लम्स, इत्तेफ़ाक़ात, एक रात, सिपाही, ज़वाल, इज़हार, आँखों के जाल, अहद-ए-वफ़ा, शाइ’र-ए-दरमान्दा, दरीचे के क़रीब, रक़्स, बेकराँ, रात के सन्नाटे में, इन्तेक़ाम और बा’द की चन्द नज़्मों को एक साथ रख कर मुतालअ करने से ये बात अच्छी तरह वाज़ेह हो जाती है कि वो औरत जो चुप-चाप उनकी ख़्वाहिशात का खिलौना बनती नज़र आती हैं तवायफ़ के अलावा और कोई नहीं।

    उस तवायफ़ के मुतअ’ल्लिक उनका रवय्या हमदर्दाना नहीं है, क्योंकि दर-अस्ल उनका मौज़ू तवायफ़ नहीं बल्कि ख़ुद उनकी ज़ात है। और चूँकि उनकी ज़ात का तवायफ़ से निहायत ही गहरा तअ’ल्लुक है इसी लिए उसकी उलझनों के तज़किरे के वक़्त वो तवायफ़ का तज़किरा करते हैं। उन सब नज़्मों के पीछे एक अय्याश इन्टेलेक्चुअल का ज़ह्न काम करता दिखाई देता है।

    राशिद की शाइ’री में हर ग़म से फ़रार का तरीक़ा अय्याशी है। उनके नज़दीक जिस्मानी लज़्ज़त हर शै से अहम है लेकिन वो कभी-कभार ज़ेह्​नी अय्याशी के भी क़ायल हैं। कभी-कभार उन्हें शबिस्तानों में पड़े-पड़े मशरिक़ के अफ़्लास और हिन्दोस्तान की ग़ुलामी का एहसास सताता है वो वतन को आज़ाद कराने के लिए महबूबा (तवायफ़) से रुख़्सत होते हैं। लेकिन जब समझ में नहीं आता तो एक अंग्रेज़ तवायफ़ के साथ रात बसर करने के बा’द मुत्मइन हो जाते हैं कि “वतन की बेबसी का इन्तेक़ाम ले लिया।” एक एेसी औरत की मजबूरी से फ़ायदा उठाने को जो ख़ुद उस निज़ाम का शिकार थी जिस ने हिन्दुस्तान को अपने आहनी पंजों में जकड़ रखा था इन्तेक़ाम लेने से ता’बीर करना राशिद के ज़ेह्​नी अफ़्लास की बहुत वाज़ेह मिसाल है।

    राशिद की तमाम नज़्मों को एक साथ पढ़ने के बा’द उनके मजमूई ता’सुर से ये बात बिल्कुल ज़ाहिर हो जाती है कि राशिद अ’ह्​द-ए-हाज़िर की मुश्किलात को समझने से कतराते हैं कहीं-कहीं उनकी शाइ’री में बोरजुआ इन्सान-दोस्ती की झलक मिलती है। लेकिन वो झलक भी निहायत धुंधली और मुबहम है, और कहीं-कहीं तो उनकी ये इन्सानियत दोस्ती जागीर-दाराना हवस-परस्ती और ख़ातिर-ख़्वाह जिस्मानी लज़्ज़त की कमी के एहसास से उभरती है। तवायफ़ के बारे में उनके दो मिसरों का इक़्तेबास मज़ामीन में अक्सर पेश किया जाता है,

    तेरी मिज़गाँ के तले गहरे ख़्याल

    बे-बसी कि नींद में उलझे हुए

    उन मिसरों से ये नतीजा निकाला गया है कि राशिद को उस तवायफ़ से बड़ी हमदर्दी है जिसको उन्होंने रात भर के लिए ख़रीदा है। लेकिन ये चीज़ ठीक नहीं। राशिद की शाइ’री से राशिद के जिस मूड का पता चलता है उसकी रौशनी में ये फ़ैसला करना मुश्किल नहीं कि राशिद को ये हमदर्दी उस तवायफ़ से नहीं बल्कि अपनी तफ़रीह से है वो सोचते हैं कि तवायफ़ की मिज़गाँ तले ये गहरे ख़्याल परेशान करने के लिए होते तो वो ज़ियादा लज़्ज़त हासिल कर सकते और बस। दर-अस्ल ये मिसरे उस उक्ताहट से पैदा हुए हैं जो हर रात औरत ख़रीदने वाले आदमी को किसी-किसी वक़्त ख़ास औरत से महसूस होती है। इस उक्ताहट के एहसास को हमदर्दी या इन्सान-दोस्ती कहना ऐसा ही है जैसे राशिद को एशिया का सबसे बड़ा शाइ’र समझना।

    “मावरा” तक राशिद की शाइ’री एक एेसे शाइ’र की शाइ’री है जो ज़िन्दगी कि हक़ीक़तों से फ़रार करने के लिए शराब पीता है, औरतें ख़रीदता है, शबिस्तान आबाद करता है और रातें एेश-ओ-मस्ती में बसर करने के बा’द दरीचे के क़रीब खड़े होकर अवाम को देखता है और ख़ाइफ़ होकर पर्दे के पीछे जाता है इस तरह की शाइ’री उस वक़्त जो कुछ भी मक़बूल हुई होगी, जब अदब की नई क़दरें वाज़ेह हुई थीं, अदब और ज़िन्दगी के गहरे तालुक़ात का कोई वाज़ेह तसव्वुर ज़ेहनों में था (वर्ना कृष्ण चन्द्र राशिद की किताब का तार्रुफ़ लिख कर ख़्वाह-म-ख़्वाह उनकी कमज़ोरियों को डिफ़ेन्ड करते)। दूसरी जंग-ए-अज़ीम के बा’द जब ये चीज़ें वाज़ेह हुईं तो राशिद की शाइ’री का बुत भी हक़ाइक़ की ज़र्ब से टूटा। तरक़्क़ी-पसन्द अदब की तहरीक ने ज़ोर पकड़ा और राशिद माज़ी की चीज़ बन कर रह गए।

    राशिद की शाइ’री इस अदबी हक़ीक़त की निहायत ही वाज़ेह मिसाल है कि कोई शाइ’र अन्दाज़-ए-बयान की दिलकशी ही के बल-बूते पर ज़ियादा दिन तक ज़िन्दा नहीं रह सकता, अज़ीम अदबी तख़्लीक़ की बुनियाद ठोस और आज़माए हुए नज़रियात पर होती है। उसके पीछे एक ऐसे सोचने समझने वाले ज़ह्न की ताक़त का ज़ाहिर होना ज़रूरी है जो वक़्त के तक़ाज़ों को अदबी हैसियत से पूरा करने की सलाहियत रखता हो, जिस अदबी तख़्लीक़ को ये मज़बूत बुनियाद नहीं मिलती उसकी मिसाल अपनी तमाम फ़न्नी दिलकशी के बावुजूद रेत पर बनाए हुए महल की सी होती है। राशिद ने रेत पर एक महल बनाया था, उसे हवाएँ ले उड़ीं।

    तवील ख़ामोशी के बा’द राशिद ने फिर लिखना शुरू’ किया है, देखें क्या लिखते हैं।

    क़तआ’त

    सजी सजाई सी ज़ुल्फ़ों को देखने वाले

    गर्दे रह से अटे बिखरे-बिखरे बाल भी देख

    सफ़ेद चाँद कि किरनों से खेलने वाले

    सियाह रात के ये घटते-बढ़ते जाल भी देख

    क़ुमक़ुमे जलते हुए देख कर ऐवानों में

    मेरी पलकों पे सितारे से बिखर जाते हैं

    जाने क्यों मेरे तख़य्युल की निगाहों में नदीम

    झोंपड़े तीरा-ओ-तारीक उभर आते हैं

    (साथी आ’ज़मी)

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