उसलूबियात-ए-अनीस
अनीस के शे'री कमाल और उनकी फ़साहत की दाद किसने नहीं दी लेकिन अनीस के साथ इंसाफ़ सबसे पहले शिबली ने किया और आने वालों के लिए अनीस की शाइराना अज़मत के ए'तिराफ़ की शाहराह खोल दी। बाद में अनीस के बारे में हमारी तन्क़ीद ज़ियादा तर शिबली के दिखाए हुए रास्ते पर चलती है। अनीस के महासिन-ए-शे'री के बयान में शिबली ने जो कुछ लिखा था, पौन सदी गुज़रने के बावजूद इस पर कोई बुनियादी इज़ाफ़ा आज तक नहीं किया जा सका।
शिबली ने अनीस की फ़साहत के ज़िम्न में जो कुछ लिखा था वो दर अस्ल मशरिक़ी नज़रिया-ए-शे'र की आख़िरी शमअ के भड़क उठने का मंज़र था। शिबली ने शे'रुल अजम और मुवाज़ना-ए-अनीस-ओ-दबीर लिख कर मशरिक़ी शे'रियात और जमालियात की जो ख़िदमत की थी, वैसी और उस पाए की फिर किसी से न हो सकी। हाली का मुआमला दूसरा है। वो शायरी में नशातुस-सानिया के नक़ीब थे, जिसका मन्तिक़ी नतीजा आगे चल कर अक़्लियत-परस्ती और इफ़ादीयत-पसंदी पर इसरार की शक्ल में ज़ाहिर हुआ। शिबली शे'र में हिज़्ज़-ओ-लुत्फ़ और फ़साहत-ओ-अदा-बंदी के दिल-दादा थे। यूँ दोनों की शख़्सियतें मुताख़्ख़रीन शो'राए उर्दू के ग़ालिब रुजहान यानी नासिख़ीयत से इन्हिराफ़ के तौर पर उभरी थीं। लेकिन दोनों का रद्द-ए-अमल उनकी अपनी-अपनी इन्फ़िरादी उफ़्ताद-ए-तबअ का अंदाज़ लिए हुए थे।
अनीस के ज़माने में शे'र-गोई के दो अंदाज़ आम थे। एक तो वही क़दीमी था जिसकी रू से मीर तक़ी मीर को ख़ुदाए सुख़न तस्लीम किया गया था और जो अपने वसीअ मा'नों में देहलवी शो'रा से मंसूब किया जाता था, या'नी तग़ज़्ज़ुल, दर्द-मंदी, सोज़-ओ-गुदाज़, जज़्बात-निगारी, लुत्फ़-ए-बयान, जिद्दत-ए-अदा, सलासत, रवानी और अदाए मा'नी में हुस्न-ओ-सलीक़ा जिसे उर्फ़-ए-आम में फ़साहत कहते थे। और दूसरा वो जिसे नासिख़ और उनके शागिर्दों, पैरौओं और हम-अस्रों ने शोहरत के बाम-ए-उरूज तक पहुँचाया था और जिसे अपनी-अपनी शे'र-गोई के ज़रिए इस्तिहकाम बख़्शा था। यानी जिसमें बिज़्ज़ात क़ुदरत-ए-बयान, मश्शाक़ी, लफ़्ज़ी शो'बदा-गिरी, सनाए लफ़्ज़ी-ओ-मा'नवी (महदूद मा'नों में), मज़्मून-आफ़रीनी, नाज़ुक-ख़्याली और इल्मीयत का इज़हार शाइरी का मक़सद और मुन्तहा समझा जाता था।
अनीस के फ़न को पूरी तरह समझने के लिए ये जानना निहायत ज़रूरी है कि अनीस की शे'री शख़्सियत उस पुर-तसन्नो रुजहान के ख़िलाफ़ रद्द-ए-अमल की हैसियत रखती है। उस ज़माने के लखनऊ में नासिख़ीयत का डंका बजता था, नासिख़ीयत ही सिक्का-ए-राइज-उल-वक़्त थी। उर्दू की शे'री रिवायत में क़ादिर-उल-कलामी और मश्शाक़ी का बेहतरीन इज़हार क़सीदे की फ़िज़ा में मुमकिन था। नासिख़ और उनके पैरुओं ने अपनी सन्नाई और बे रूह क़ाफ़िया-पैमाई के लिए तक़वियत उसी रिवायत से हासिल की होगी क्योंकि ग़ज़ल की साबिक़ा रिवायत में सिवाए शाह नसीर के ऐसी कोई नज़ीर नहीं थी और ख़ुद शाह नसीर की साइकी ने जिस सरपरस्ताना माहौल के ज़ेर-ए-असर उन अनासिर को क़सीदे की रिवायत से जज़्ब किया था, वो कई गुना मुकब्बर सूरत में लखनऊ के नवाबाना माहौल में मौजूद थे और नासिख़ और उनके मुतबईन ने ग़ज़ल में उस रिवायत को न सिर्फ़ एक ग़ालिब रुजहान की शक्ल दी बल्कि उसे इस हद तक पुर शिकोह और बा-वक़ार बनाया कि दूसरे तमाम रंग उसके सामने फीके पड़ गए।
अनीस ने मर्सिए में शऊरी तौर पर अपने अहद के उस ग़ालिब रुजहान से इन्हिराफ़ किया, लेकिन नासिख़ीयत से बाज़ी ले जाना बग़ैर उसके हर्बे इस्तेमाल किए मुमकिन न था। यूँ तो फ़साहत का तसव्वुर हर दौर में ख़ासा मुब्हम और विज्दानी रहा है, नीज़ हर जमालियाती तसव्वुर की तरह जितना उसे ज़ौक़ की सतह पर महसूस किया जा सकता है, उतना उसे मा'रुज़ी तौर पर मुशर्रह नहीं किया जा सकता। ताहम अनीस के ज़िम्न में ये सवाल उठाया जा सकता है कि क्या अनीस की फ़साहत वैसी फ़साहत थी जिसका तसव्वुर क़ुदमा या मुतवस्सितीन के यहाँ मिलता है या उन्होंने मर्सिए की फ़िज़ा में क़सीदे की रिवायत से (ग़ैर-शऊरी तौर ही पर सही) इस्तिफ़ादा कर के फ़साहत के मुरव्वजा मफ़्हूम में नई जिहात का इज़ाफ़ा किया? इस तरह गोया नासिख़ीयत के बा'ज़ अज्ज़ा की तक़लीब कर के उन्होंने नासिख़ीयत से टक्कर ली, मर्सिए को नया जमालियाती ज़ाइक़ा दिया और बिल-वास्ता तौर पर नासिख़ीयत की शिकस्त में एक तारीख़ी किरदार अदा किया।
ये बात भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि क्या उर्दू को उनकी सबसे बड़ी देन यही तो नहीं। शिबली अनीस के सुख़न-फ़हम हैं लेकिन याद रहे कि वो उनके तरफ़-दार भी हैं और उस तरफ़-दारी में उन्होंने अनीस की फ़साहत का जो तसव्वुर पेश किया है वो ग़ैर-मशरूत है और शायद इस लिहाज़ से इस पर नज़र-ए-सानी की ज़रूरत है, जैसा कि आगे चल कर वज़ाहत की जाएगी। शिबली को उस फ़साहत का सुराग़ ख़ुद अनीस के बार-बार के दोहराए हुए बयानात में मिला। शिबली का क़ुसूर सिर्फ़ इतना है कि तारीफ़ के जोश में उन्होंने अनीस के बयानात को जूँ का तूँ तस्लीम कर लिया, अगरचे अनीस के मशहूर मर्सिए, नमक ख़्वान-ए-तकल्लुम है। फ़साहत मेरी, के दूसरे मिसरे में बलाग़त का ज़िक्र बे वजह नहीं, नातिक़े बंद हैं सुन-सुन के बलाग़त मेरी। यहाँ बलाग़त महज़ बराए बैत नहीं अगरचे ख़ुद अनीस को गहरा एहसास अपनी फ़साहत ही का था,
एक क़तरे को जो दूँ बस्त तो क़ुल्ज़ुम कर दूँ
बहर-ए-मव्वाज, फ़साहत का तलातुम कर दूँ
उसी मशहूर मर्सिए में पूरे शाइराना शिकोह से फ़रमाया है,
ये फ़साहत ये बलाग़त ये सलासत ये कमाल
मो'जिज़ा गर न इसे कहिए तो है सह्र-ए-हलाल
एक और बंद में कहते हैं,
है कजी ऐब मगर हुस्न है अब्रू के लिए
तीरगी बद है मगर नेक है गेसू के लिए
सुरमा ज़ेब है फ़क़त नर्गिस-ए-जादू के लिए
ज़ेब है ख़ाल सियह चेहरा-ए-गुल रू के लिए
दानद आँ कस कि फ़साहत ब-कलामे दारद
हर सुख़न मौक़ा-ओ-हर नुक़्ता मक़ामे दारद
अनीस के मर्सिए के बारे में इस पहलू को पूरी तरह परखने की ज़रूरत है कि अनीस जिस फ़साहत का दावा करते हैं और शिबली और उनके बाद आने वाले नक़्क़ाद अनीस की जिस फ़साहत की दाद देते हैं, कहीं उसका गहरा तअल्लुक़ मुसद्दस के फ़ार्म को इंतिहाई फ़नकारी के साथ बरतने में तो नहीं? और अगर ऐसा है तो अनीस ने मुसद्दस को उस मुक़ाम तक पहुँचाने में उर्दू की शे'री रिवायत के किन अज्ज़ा की तक़्लीब की और किन वसाइल को बरता? मुसद्दस अनीस की ईजाद नहीं। मर्सिए के लिए मुसद्दस का फ़ार्म अनीस से मुद्दतों पहले राइज हो चुका था। अनीस ने उसे जिला दी और ऐसी फ़न्नी बुलंदी तक पहुँचा दिया कि ये हैअत उर्दू में ला-ज़वाल हो गई और उसके असरात बाद में आने वाले नज़्म-गो शायर भी क़ुबूल करते रहे।
ये मालूम है कि हैअत के ए'तिबार से मर्सिए की साख़्त उसके तदरीजी इर्तिक़ा के साथ-साथ बदलती रही। अज़हर अली फ़ारूक़ी ने लिखा है कि शुरू-शुरू में मरसिया, ग़ज़ल और मसनवी की हैअत में नज़्म होता था। इसलिए कि सोज़-ख़्वानी और लहन के तर्ज़ में पढ़ने के लिए ये फ़ार्म निहायत मौजूँ थे (उर्दू मरसिया, तबअ इलाहाबाद 1958 स 8) इसी तरह मुरब्बा और दो हैअती मर्सिए भी लिखे गए। मीर और सौदा के ज़माने तक नज़्म की हर शक्ल में मर्सिया कहा गया (सिफ़ारिश हुसैन रिज़वी, उर्दू मर्सिया, तारीख़-ए-मर्सिया, तबअ दिल्ली 1965 स 193), उस ज़माने में मर्सिए ने दर-अस्ल अदबी मन्सब हासिल नहीं किया था। मर्सिया सिर्फ़ रोने-रुलाने और सवाब कमाने की चीज़ था। बिगड़ा शायर मर्सिया-गो की कहावत उसी ज़माने से चली होगी। लेकिन मीर-ओ-सौदा के ज़माने तक पहुँचे पहुँचते मर्सिया से अदबी तक़ाज़े शुरू हो गए। मसीह उज़ ज़माँ का ये बयान सही है कि सौदा की तबियत हमा-गीर थी (उर्दू मर्सिए का इर्तिक़ा, तबअ लखनऊ 1968 स 115) उन्होंने अपनी ज़हानत और जिद्दत-ए-फ़िक्र से नए-नए पहलू निकाले और मर्सिए को अदबी हैसियत देने के लिए मुख़्तलिफ़ रास्तों से चल कर मुसद्दस तक पहुँचे। अगरचे सौदा ने मुख़म्मस, मुस्तज़ाद, दोहरा बंद कई सूरतों में मर्सिए लिखे, लेकिन पहला मुसद्दस मर्सिया कहने का सेहरा आम तौर पर सौदा ही के सर है।
सौदा ने अपने रिसाले सबील-ए-हिदायत में मोहम्मद तक़ी तक़ी की जो ख़बर ली है और उसकी तुक-बंदी का जो मज़ाक़ उड़ाया है, उससे मालूम होता है कि उस ज़माने में मर्सिए की अदबी हैसियत तस्लीम की जाने लगी थी और शो'रा मर्सिए का मक़सद महज़ रसाइयत नहीं समझते थे बल्कि शे'रियत को ज़रूरी तसव्वुर करते थे। उस वक़्त तक मर्सिए के लिए क़सीदा, मुरब्बा, तरजीअ-बंद, तरकीब-बंद, मुख़म्मस, मुस्तज़ाद सब आज़माए जा चुके थे, लेकिन जिस फ़न्नी वसीले से मुसद्दस की मख़सूस सौती कैफ़ियत और हैअती ड्रामाइयत की तरफ़ पहला क़दम उठाया गया, वो उन मर्सियों का रिवाज था जिनमें फ़ारसी या बृज भाषा की बैत या आख़िरी मिसरा बतौर टेप इस्तेमाल होता था और कभी हर बंद को मुख़्तलिफ़ मिसरों से पाबंद किया जाता था।
बा'ज़ मरसियों में ये सूरत भी नज़र आती है कि चार मिसरे एक बहर में हैं और बैत दूसरी बहर में। मुसद्दस में चार मिसरों के हम-क़ाफ़िया होने और फिर बैत में क़ाफ़िया के बदल जाने या'नी अस्वात और आहंग की इस बराबर जारी रहने वाली तब्दीली के ज़ेर-ओ-बम में जो ज़बरदस्त जमालियाती और ड्रामाई इम्कानात थे, उनकी कशिश शायद सबसे पहले उन्हीं तजुर्बों में महसूस कर ली गई थी। बहर-हाल इतना मालूम है कि मुसद्दस मीर और सौदा के ज़माने में राइज हो चुका था। अगरचे मीर के ज़्यादा तर मर्सिए मुरब्बा हैं और सौदा के बेहतर मर्सियों में निस्फ़ से ज़्यादा मुरब्बा हैं और मुसद्दस की हैअत में सिर्फ़ छः मर्सिए हैं। ताहम सौदा की तबाई और उनके मुतनव्वेअ हैअती तजुर्बों से अंदाज़ा किया जा सकता है कि मर्सिए को मुसद्दस तक पहुँचाने में उनका बड़ा हाथ रहा होगा।
ये बात लायक़-ए-तवज्जो है कि उर्दू शायरी ने अपनी तमाम अस्नाफ़ या'नी ग़ज़ल, क़सीदा, मसनवी, रूबाई वग़ैरा सबकी सब फ़ारसी से लीं। लेकिन मर्सिए की हैअत मुसद्दस की शक्ल में हिंदुस्तान ही में सूरत-पज़ीर हुई। फ़ारसी में मर्सिए की इब्तिदा मुहतशिम काशानी (वफ़ात 996ह) से हुई लेकिन उनके तमाम मर्सिए और उनका मशहूर मर्सिया दवाज़दा बंद क़सीदे की हैअत में है। (तारीख़ नज़्म-ओ-नस्र दर ईरान-ओ-दर ज़बान फ़ारसी, सईद नफ़ीसी, तबअ ईरान 1344ह शम्सी स 443) डॉक्टर रज़ा ज़ादा शफ़क़ ने तारीख़-ए-अदबीयातएईरान में लिखा है कि शहीदान-ए-कर्बला के मर्सिए में मुहतशिम काशानी का तरजीअ बंद भी मशहूर है (तबअ 1955 स 464), ग़रज़ उर्दू मर्सिए का उरुज़ी ढाँचा वही सही, लेकिन उसकी मा'नवी और शे'री इकाई जैसी वो मुसद्दस की हैअत में उर्दू में ज़ुहूर-पज़ीर हुई, उसका कोई नक़्श न अरब में मिलता है न ईरान में। ये उर्दू की अपनी चीज़ है और ये उर्दू शायरी की ऐसी जिहत है जिसपर अभी तक पूरी तरह ग़ौर नहीं किया गया।
अब एक और पहलू को लीजिए या'नी ये कि तहत-ख़्वानी का क्या हाथ मुसद्दस की तश्कील में हो सकता है। देहलवी दौर तक मर्सिया-ख़्वानी में लहन और आहंग का रिवाज था। इसलिए शे'री तक़ाज़ों से ज़्यादा आवाज़, दहन, लय और मूसीक़ी पर तवज्जो थी। उस वक़्त दिल्ली में बहुत से आशूर-ख़ाने थे जिनमें मजलिसें होती थीं। दरगाह क़ुली ख़ाँ ने जो 1738 से 1741 तक दिल्ली में थे, मुरक़्क़ा दिल्ली में मुहतशिम काशानी और हसन काशी के फ़ारसी मर्सियों और रौज़तु-श्शोहदा के मजलिसों में पढ़े जाने का ज़िक्र किया है। (मुरक़्क़ा दिल्ली मुरत्तबा सैयद मुज़फ़्फ़र हुसैन, स 50 ता 54) क़यास चाहता है कि जैसे-जैसे मर्सिया रिवायत शे'र का हिस्सा बनने लगा, लहन-ओ-आहंग की जगह तहत-ख़्वानी का रिवाज होने लगा और इसके साथ-साथ मर्सिए के अदबी जौहर भी निखरने लगे। तहत-ख़्वानी के लिए ग़ज़ल या मुरब्बा से कहीं ज़्यादा मुख़म्मस या मुसद्दस की ज़रूरत थी।
सौदा के दौर में दोहरे लगाने का या तरजीअ् में टेप लाने का रिवाज था ही। दोहरे बृज भाषा के और टेप की बैत फ़ारसी की राइज थी। ये रिवाज उर्दू में बृज और फ़ारसी की रेख़्ता पैवंद-कारी के इस रिवाज से मुख़्तलिफ़ नहीं था जिसकी जड़ें तसव्वुफ़ की हमा-गीर मक़बूलियत से समाअ की महफ़िलों में पैवस्त हो चुकी थीं और जिसके बाक़ियातुस्सालिहात आज तक क़व्वालियों में देखे जा सकते हैं।
मर्सिए में मुसद्दस के रिवाज पा जाने के सिलसिले में ये बात भी अहमियत रखती है कि हमारी क्लासिकी शायरी इबारत है ग़ज़ल, क़सीदा, मसनवी, रूबाई से। जब ये बात वाज़ेह की जा चुकी है कि मर्सिया उर्दू शायरी की ख़ालिस अपनी हैअत का मज़हर है तो कहीं ऐसा तो नहीं कि मर्सिए के मुसद्दस की तश्कील में इन चारों अस्नाफ़ का जौहर तहलील हो गया हो? अनीस के बारे में मशहूर है कि ज़माने के रिवाज के तहत वो सबसे पहले ग़ज़ल की तरफ़ मुतवज्जेह हुए, बाद में मीर ख़लीक़ के मशवरे से आख़िरत के सवाब के लिए उन्होंने उसी ग़ज़ल को सलाम कर दिया। ये खुली हुई हक़ीक़त है कि सलाम वो ग़ज़ल है जिसमें अइमा से अक़ीदत का इज़हार होता है। अब कर्बला के वाक़िआत पर नज़र डालिए तो मालूम होगा कि इस ज़िम्न के सारे वाक़िआत का तअल्लुक़ उलुल-अज़मी, शुजाअत और इस्तिहकाम ख़ुदी की उस तारीख़ी रिवायत से है जो इस्लाम और सामी ज़ेहन की ख़ुसूसियत ख़ासा रही है।
वाक़िआत के मुसलसल बयान करने के लिए हमारे पास मसनवी थी, उलुल-अज़मी और शुजाअत के बयानात के लिए हमारे पास क़सीदा था और लतीफ़ जज़्बात के इज़हार के लिए ग़ज़ल थी। चुनाँचे लहन-ओ-आहंग के दौर तक इन सब फ़ार्मों ने मर्सिए का कुछ न कुछ साथ दिया लेकिन मजालिस के तमाम तक़ाज़े उनमें से किसी भी सिन्फ़ से पूरे नहीं हो सकते थे। मरासी-ए-शाह-नामा या सिकंदर-नामा नहीं हो सकते थे क्योंकि मर्सिए में तमाम वाक़िआत-ए-कर्बला का इज़हार मरबूत-ओ-मुसलसल नहीं होता। उनमें तो वाक़िआत को फ़र्दन-फ़र्दन लेना पड़ता था ताकि मर्सिया एक नशिस्त में ख़त्म हो जाए और रोने रुलाने के मक़सद को भी पूरा करे। क़सीदे में मदह ही मदह थी, जबकि मर्सिए के मम्दूह की शहादत को सदियाँ गुज़र चुकी थीं और मक़सद उसके औसाफ़ को ताज़ा करना और उसके ग़म में आँसू बहाना था।
मजलिस पढ़ते हुए ये ज़रूरी था कि शुहदाए कर्बला में से किसी एक का ज़िक्र करते हुए बयान को बंदों में तक़्सीम कर लिया जाए। हर बंद में किसी सूरत, किसी नक़्श, किसी पहलू, किसी वाक़िए, किसी मुकालमे या किसी हादसे का तअस्सुर उभारा जाए और फिर इस सबको हर बंद के साथ इस तरह समेट लिया जाए कि सुनने वाले के जज़्बा-ओ-तख़य्युल पर चोट पड़े और वो मर्सिए के इर्तिक़ा के साथ-साथ दर्जा-ब-दर्जा उस तारीख़ी फ़िज़ा में खो जाए। बंद के ख़ात्मे का मक़सद रूबाई के फ़न की याद दिलाता है। या'नी चौथे मिसरे में बात का निचोड़ पेश कर दिया जाए। यहाँ फ़र्क़ ये था कि बंद में चार मिसरे हम-क़ाफ़िया थे। रूबाई के चौथे मिसरे का काम दोहरे या टेप के बजाय अब बैत से लिया जाने लगा जिससे बंद की मा'नवी फ़िज़ा की तकमील हो जाती थी। ग़रज़ इस तरह उर्दू मर्सिए का वो STANZA वजूद में आया जिसे मुसद्दस कहते हैं, लेकिन यहाँ मुझे इतना इसरार मसनवी और रूबाई के अज्ज़ा पर नहीं। उनका मा'नियाती तअल्लुक़ हो सकता है लेकिन मुसद्दस से गहरा उस्लूबियाती और हैअती तअल्लुक़ क़सीदे और ग़ज़ल का है जिसका तज्ज़िया आगे चल कर किया जाएगा।
अनीस तक पहुँचते-पहुँचते मुसद्दस ख़ासा मंझ चुका था। दिलचस्प बात सिर्फ़ ये नहीं कि अनीस की शे'री शख़्सियत ने इस फ़ार्म को कितना मुतअस्सिर किया बल्कि ये भी कि ख़ुद उनकी फ़साहत ने उस फ़ार्म के साँचे में ढ़ल कर क्या शक्ल इख़्तियार की। इस तरह गोया उनकी शायरी में वो उस्लूब सामने आया जिसके बे-मिस्ल होने की सब क़सम खाते हैं, लेकिन जिसके उस्लूबियाती और सौती अनासिर तरकीबी पर आज तक पूरी तवज्जो सर्फ़ नहीं की गई। इस इजमाल के तज्ज़ीए के लिए सबसे पहले अनीस के उस शाहकार-ए-मर्सिए को लीजिए जिसका ज़िक्र इस मज़्मून के शुरू में किया गया था, यानी नमक ख़्वान-ए-तकल्लुम है फ़साहत मेरी। चेहरे के हिस्से से ये दो बंद मुलाहिज़ा हों,
सुब्ह-ए-सादिक़ का हुआ चर्ख़ पे जिस वक़्त ज़ुहूर
ज़मज़मे करने लगे याद इलाही में तुयूर
मिस्ल-ए-ख़ुर्शीद बरामद हुए ख़ेमे से हुज़ूर
यक-ब-यक फैल गया चार तरफ़ दश्त में नूर
शश जिहत में रुख़-ए-मौला से ज़ुहूर-ए-हक़ था
सुब्ह का ज़िक्र है क्या चाँद का चेहरा फ़क़ था
ठंडी-ठंडी वो हवाएं, वो बियाबाँ, वो सहर
दम-ब-दम झूमते थे वज्द के आलम में शजर
ओस ने फ़र्श-ए-ज़मुर्रद पे बिछाए थे गुहर
लौटी जाती थी लहकते हुए सब्ज़े पे नज़र
दश्त से झूम के जब बाद-ए-सबा आती थी
साफ़ ग़ुंचों के चटकने की सदा आती थी
पहली ही नज़र में एहसास होता है कि दोनों बंदों में पहले चार-चार मिसरे र की आवाज़ पर ख़त्म होते हैं या'नी ज़ुहूर, तुयूर, हुज़ूर, नूर और दूसरे में सहर, शजर, गुहर, नज़र। सौतियात की इस्तिलाह में ऐसे सौती रुक्न को जो किसी हर्फ़ सही मुसम्मते CONSONANT पर ख़त्म हो CLOSE SYLLABLE पाबंद रुक्न कहते हैं और जो अलिफ़, वाव, ये या'नी हर्फ़-ए-इल्लत, मुसव्वता VOWEL पर ख़त्म हो, आज़ाद या खुला हुआ रुक्न OPEN SYLLABLE कहते हैं। इस लिहाज़ से इन दोनों बंदों में पहले चार-चार मिसरों के क़वाफ़ी पाबंद हैं और इनमें रदीफ़ सिरे से है ही नहीं। इनके मुक़ाबले में अगर दोनों बंदों की बैत को देखिए तो न सिर्फ़ ये कि दोनों बैतों में रदीफ़ है बल्कि रदीफ़ भी ऐसी जिसके आख़िरी रुक्न आज़ाद या'नी खुले हुए हैं। मसलन हक़ था, फ़क़ था, और दूसरे बैत में सबा आती थी, सदा आती थी। अब ज़रा आगे बढ़िए और इन बंदों को मुलाहिज़ा फ़रमाइए,
ऐ ख़ुशा हुस्न रुख़-ए-यूसुफ़ कनआन-ए-हसन
राहत-ए-रूह-ए-हुसैन इब्न अली, जान-ए-हसन
जिस्म में ज़ोर-ए-अली तब्अ में एहसान-ए-हसन
हमा-तन ख़ल्क़-ए- हसन, हुस्न-ए-हसन, शान-ए-हसन
तन पे करती थी नज़ाकत से गिरानी पोशाक
क्या भली लगती थी बचपन में शहानी पोशाक
जब फ़रीज़े को अदा कर चुके वो ख़ुश-किरदार
किसके कमरों को ब-सद शौक़ लगाए हथियार
जल्वा फ़रमा हुए घोड़े पे शह-ए-अर्श-ए-वक़ार
अलम-ए-फ़ौज को अब्बास ने खोला इक बार
दश्त में निकहत-ए-फ़िरदौसएबरीं आने लगी
अर्श तक उसके फरहरे की हवा जाने लगी
लहर वो सब्ज़ फरहरे की वो पंजे की चमक
शर्म से अब्र में छुप जाता था ख़ुर्शीद-ए-फ़लक
कहते थे सल्ले अला चर्ख़ पे उठ-उठ के मलक
दंग थे सब वो समा से था समाँ ता-ब-समक
कहिए पस्ती उसे जो औज हमा ने देखा
वो समाँ फिर ये कभी अर्ज़-ओ-समा ने देखा
चमक, फ़लक, मलक, समक, या कनआन-ए-हसन, जान-ए-हसन, एहसान-ए-हसन, शान-ए-हसन वग़ैरा अलफ़ाज़ जो सबके सब मुसम्मतों पर ख़त्म होते हैं और पाबंद हैं क्या क़सीदे की याद नहीं दिलाते? अब ज़रा बैत को भी देखिए। पहले बंद की बैत से क़त'-ए-नज़र आख़िरी दोनों बंदों की बैतें खुली हुई रदीफ़ में हैं या'नी मुसम्मतों पर नहीं बल्कि मुसव्वतों पर ख़त्म होती हैं। ज़रा इस बैत को फिर पढ़िए,
दश्त में उसके फरहरे की हवा जाने लगी
अर्श तक उसके फरहरे की हवा जाने लगी
तो फ़ौरन महसूस होता है कि बैत के शे'रों में तग़ज़्ज़ुल की रूह बोल रही है। मर्सिए में चेहरा हो या सरापा, आमद हो या रजज़, रज़्म हो या शहादत, ये सब अज्ज़ा मअ्नन क़सीदे से मुनासिबत रखते हैं। क़सीदा एक ख़ास शिकोह, बुलंद-आहंगी, दबदबे और शौकत का इज़हार चाहता है और मर्सिए में ता'रीफ़ मक़सूद थी ऐसे जियालों और जाँ-बाज़ों की जिन्होंने बड़ी से बड़ी क़ुर्बानी से दरेग़ नहीं किया था। गोया मज़्मून की अलवियत जिस ज़ोर-ए-बयान का तक़ाज़ा करती थी वो क़सीदे की मा'नवी और हैअती फ़िज़ा के क़रीब-तर था। किसी भी कामियाब क़सीदे को सौती ए'तिबार से देखिए तो पाबंद-ए-क़वाफ़ी यानी मुसम्मतों पर ख़त्म होने वाले अरकान की बजती हुई ज़ंजीर नज़र आएगा। शुऊरी या ग़ैर-शुऊरी तौर पर अनीस की फ़साहत की इंतिख़ाबी नज़र क़सीदे के उस बुनियादी तक़ाज़े से सर्फ़-ए-नज़र नहीं कर सकती थी।
इस हक़ीक़त को समझ लेने के बाद अब इस बात का जानना आसान है कि अनीस का अस्ल कमाल ये है कि क़सीदे की रूह को अपनाते हुए भी और पाबंद क़वाफ़ी CLOSE RHYMES में बंद कहते हुए भी उन्होंने ज़बान को कहीं बोझिल नहीं होने दिया, बल्कि शौकत-ओ-बुलंद-आहंगी के साथ सलासत-ओ-रवानी को भी बनाए रखा और हैअत की ग़ज़लिया लय की नर्म-रवी से मर्सिए में क़सीदे और ग़ज़ल की आमेज़िश से एक नई जमालियाती और उस्लूबियाती सतह का इज़ाफ़ा किया। अनीस की फ़साहत उसी नई उस्लूबियाती सतह से इबारत है।
यहाँ फ़ौरी तौर पर ये सवाल उठाया जा सकता है कि अनीस के बंदों के जिन पाबंद-ए-क़वाफ़ी की तरफ़ इशारा किया गया, ये कैफ़ियत उनके तमाम मरासी में क़दरे मुश्तरक का दर्जा रखती है या सिर्फ़ चंद बंदों तक महदूद है। मसलन मशहूर मरासी के जो मिसरे ज़ेहन में आते हैं, वो पाबंद-ए-क़वाफ़ी वाले नज़रिए की तरदीद करते हैं,
जब क़ता' की मसाफ़त-ए-शब आफ़ताब ने
क्या ग़ाज़ियान-ए-फ़ौजएख़ुदा नाम कर गए
जब रन में सर-बुलंद अली का अलम हुआ
फाड़ा जो गिरेबां शब-ए आफ़त की सहर ने
दश्त-ए-दग़ा में नूर-ए-ख़ुदा का ज़ुहूर है
क्या फ़ौज-ए-हुसैनी के जवानान-ए-हसीं थे
जब ख़ात्मा ब-ख़ैर हुआ फ़ौज-ए-शाह का
इन मिसरों से ये ख़्याल होता है कि पाबंद-ए-क़वाफ़ी के जिस मुक़दमे को ऊपर पेश किया गया है वो सही नहीं, क्योंकि मुंदरजा-बाला मशहूर मरासी के मत्लों से इसकी तस्दीक़ नहीं होती। चुनाँचे मरासी-ए-अनीस की चारों नवल किशोरी जिल्दों से मदद ली गई ताकि मुंदरजा-बाला मुक़दमे की सेहत या अदम-ए-सेहत के बारे में क़तई राय क़ाइम की जा सके। उन चारों जिल्दों में मरासी की कुल तादाद और पाबंद-ओ-आज़ाद अस्वात पर ख़त्म होने वाले क़वाफ़ी की तक़सीम दर्ज-ज़ैल है,
जिल्द-ए-अव्वल में कुल मरासी 29 हैं, जिनमें 22 आज़ाद और 7 पाबंद-ए-क़वाफ़ी से शुरू होते हैं।
जिल्द-ए-दोव्वुम में कुल मरासी 26 हैं, जिनमें 19 आज़ाद और 7 पाबंद-ए-क़वाफ़ी से शुरू होते हैं।
जिल्द-ए-सेव्वुम में कुल मरासी 18 हैं, जिनमें 15 आज़ाद और 3 पाबंद-ए-क़वाफ़ी से शुरू होते हैं।
जिल्द-ए-चहारुम में कुल मरासी 33 हैं, जिनमें 26 आज़ाद और 7 पाबंद-ए-क़वाफ़ी से शुरू होते हैं।
कुल मीज़ान: 106 मरासी हैं जिनमें 82 आज़ाद और 24 पाबंद-ए-क़वाफ़ी से शुरू होते हैं।
इससे तो ये साबित होता है कि पाबंद क़वाफ़ी वाले बंदों की तादाद एक चौथाई से भी कम है और मुसद्दस के बंद की जिस पाबंद-ए-साख़्त पर हम ज़ोर दे रहे थे वो गुमराह कुन है, लेकिन हक़ीक़तन ऐसा नहीं। यहाँ हमें इस बात से धोका हुआ है कि ये औसत सिर्फ़ उन बंदों का है जिनसे मरासी का आग़ाज़ हुआ है। बाद में आने वाले बंदों का नहीं। ये जान कर हैरत होगी कि बाद में आने वाले सैकड़ों बंदों की कैफ़ियत बिल्कुल दूसरी है। इस गोश्वारे से इतनी बात तो बहर हाल साबित हो ही गई कि अनीस अपने अक्सर मरासी की उठान खुले क़वाफ़ी वाले बंदों यानी मुसव्वतों से करते हैं लेकिन जैसे-जैसे तबियत ज़ोर मारने लगती है और तख़य्युल-जौलानियों पर आता है तो वो शुऊरी या तहतुश्शुऊरी तौर पर क़सीदे की रूह से हम कनार हो जाते हैं और पाबंद-ए-क़वाफ़ी या'नी मुसम्मतों का इस्तेमाल करते हैं। इसका ये मतलब नहीं कि खुले हुए क़वाफ़ी वाले बंद आते ही नहीं। आते हैं और ज़रूर आते हैं, लेकिन अनीस का ग़ालिब रुजहान पाबंद क़वाफ़ी या'नी मुसम्मतों की तरफ़ है।
मरासी-ए-अनीस में बंदों की इन दो शक्लों के अलावा जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया यानी पाबंद और आज़ाद, एक शक्ल और भी मिलती है यानी कहने को तो ये बंद मुरद्दफ़ हैं लेकिन क़ाफ़िया उनमें भी पाबंद है या'नी मुसम्मते पर ख़त्म होता है, जैसा कि ज़ैल के बंदों में, क़ामत, सूरत, सौलत, हिम्मत, पैकर, बराबर, पर, बाहर वग़ैरह से ज़ाहिर है,
सर-ओ-शरमाए क़द इस तरह का क़ामत ऐसी
असदुल्लाह की तस्वीर थे सूरत ऐसी
शेर ना'रों से दहल जाते थे सौलत ऐसी
जाके पानी न पिया नहर पे हिम्मत ऐसी
जान जब तक थी इताअत में रहे भाई की
थे अलम-दार मगर बच्चों की सक़्क़ाई की
अब्र ढालों का उठा तेग़-ए-दो पैकर चमकी
बर्क़ छुपती है ये चमकी तो अबराबर चमकी
सूए पस्ती कभी कौंदी कभी सर पर चमकी
कभी अंबोह के अंदर कभी बाहर चमकी
जिस तरफ़ आई वो नागन उसे डसते देखा
मेंह सरों का सफ़-ए-दुश्मन में बरसते देखा
इस तरह के बंद भी दर-अस्ल पाबंद-ए-क़वाफ़ी ही की ज़ैल में आते हैं। इस नज़र से देखिए तो ज़ेर-ए-नज़र मर्सिया नमक-ख़्वानएतकल्लुम है फ़साहत मेरी में पाबंद-ओ-आज़ाद बंदों में ज़ैल का तनासुब है,
कुल बंद102
पाबंद-ए-क़वाफ़ी वाले बंद 55
खुले, आज़ाद क़वाफ़ी वाले बंद 74
या'नी ग़ालिब रुजहान पाबंद-ए-क़वाफ़ी वाले बंदों का है, लेकिन ये सिर्फ़ एक मर्सिए की कैफ़ियत है।
ये मुक़दमा उस वक़्त तक पाया-ए-सुबूत को नहीं पहुँच सकता जब तक दूसरे मरासी से भी इसकी तौसीक़ न हो जाए। मज़ीद तज्ज़िए के लिए हमने अनीस के एक और शाहकार मर्सिए जब क़ता' की मुसाफ़त-ए-शब आफ़ताब ने का इंतिख़ाब किया। इसके तजज़िए के नताइज हस्ब-ज़ैल हैं,
कुल बंद194
पाबंदी-ए-क़वाफ़ी140
खुले क़वाफ़ी 54
अब इन दोनों मरसियों से ज़ैल का औसत हासिल हुआ,
कुल बंद 102+194=296
पाबंद-ए-क़वाफ़ी 55+140=195
खुले क़वाफ़ी 47+54=101
गोया पाबंद-ए-क़वाफ़ी वाले बंद कुल बंदों का 66 फ़ीसद या'नी दो-तिहाई हुए। ये दो मशहूर मर्सियों की कैफ़ियत है। इस मुक़दमे को हत्मी तौर पर साबित करने के लिए हमने नवल किशोरी मरासी-ए-अनीस की चारों जिल्दों की मदद ली और हर जिल्द से पाँच-पाँच मर्सियों को कहीं-कहीं से बग़ैर किसी तख़्सीस के खोल के देखा। इस तरह के इत्तिफ़ाक़ी RANDOM और ग़ैर-इरादी तज्ज़िए से जो नताइज सामने आए वो हस्ब-ज़ैल हैं,
जिल्द-ए-अव्वल: स 62-63=15+3
स194-195=10+8
स 260-261=13+5
स 310-311=9+9
स 338-339=13+5
कुल बंद 90, 60 पाबंद, 30 आज़ाद
जिल्द-ए-दोव्वुम: स 46-65=12+6
स 130-131=11+7
स 200-201=7+11
स 262-263=12+6
स 298-299=7+11
कुल बंद 90, 49 पाबंद, 41 आज़ाद
जिल्द-ए-सेव्वुम: स 20-21=14+4
स 32-33=12+6
स 62-63=6+12
स146-147=13+5
स 210-211=13+5
कुल बंद 40, 58 पाबंद, 32 आज़ाद
जिल्द-ए-चहारुम: स 48-49=6+12
स 110-111=9+9
स 148-149=9+9
स 208-209=10+8
स 278-279=14+4
कुल बंद 90, 48 पाबंद, 42 आज़ाद
48 पाबंद 42 आज़ाद
58 पाबंद 32 आज़ाद
49 पाबंद 41 आज़ाद
60 पाबंद 30 आज़ाद
मीज़ान: कुल बंद 360, 215 पाबंद 145 आज़ाद
औसत=60 फ़ीसद
नवल किशोरी जिल्दों में हर सफ़्हे पर नौ बंद हैं। गोया आमने-सामने के दो सफ़्हों पर अठारह बंद हुए। हर जिल्द को पाँच जगह से खोला गया। गोया 18x5=90 बंद हर जिल्द से लिए गए। इस तरह चार जिल्दों से बंदों की कुल तादाद 360 हुई, जिनमें 215 में पाबंद-ए-क़वाफ़ी और 145 में खुले क़वाफ़ी हैं, इनका औसत 60 फ़ीसद का हुआ। गोया नमक-ख़्वानएतकल्लुम है फ़साहत मेरी और जब क़ता' की मसाफ़त-ए-शब आफ़ताब ने के दो मशहूर मर्सियों के तज्ज़िए की मदद से हमने जो मुक़दमा पेश किया था, अब गोया तमाम जिल्दों से नमूने के तौर पर लिए गए इत्तिफ़ाक़ी तज्ज़िए से भी इस मुक़दमे की तौसीक़ हो गई। या'नी मरासी-ए-अनीस के बंदों का ग़ालिब रुजहान पाबंद-ए-अस्वात या'नी मुसम्मतों की तरफ़ है या'नी अगर ये कहा जाए कि क़सीदे की रूह ने अनीस के मरासी में एक नया क़ालिब इख़्तियार किया तो बेजा न होगा।
अब मुसद्दस की बैतों या'नी आख़िर में आने वाले दो मिसरों को भी लीजिए जिनकी खुली रदीफ़ों और मुँह बोलते मुसव्वतों या ग़नीयत का सीधा सच्चा रिश्ता ग़ज़ल के हैअती फ़ैज़ान से जुड़ जाता है। ग़ज़ल का कोई दीवान उठा कर देखिए अगर शायर का मक़सद महज़ संगलाख़ ज़मीनों को पानी करना नहीं तो अश्आर की ज़ियादा तादाद खुली अस्वात या'नी मुसव्वतों वाले क़वाफ़ी-ओ-रदीफ़ में मिलेगी या'नी अलिफ़, वाव, और य/ऐ की ज़ैल में या नून (ग़ुन्ना) में जो अलिफ़, वाव और य/ ऐ के साथ आता है। बे-ऐनेही यही सौती कैफ़ियत अनीस की बैतों की है। अनीस के जिन दो मशहूर मर्सियों का ज़िक्र ऊपर किया गया है, उनकी 194+102=296 बैतों में से एक भी बैत ऐसी नहीं है जिसमें खुली या'नी मुसव्वतों पर ख़त्म होने वाली रदीफ़ न हो। उन बैतों के सिलसिले में चंद बातें ख़ुसूसियत से तवज्जो चाहती हैं,
1- बैत में रदीफ़ का इल्तिज़ाम हर जगह है।
2- रदीफ़ों में खुली अस्वात का इस्तेमाल किया गया है।
3- बैत में अफ़आ'ल लाज़िमन आते हैं।
4- रदीफ़ अक्सर-ओ- बेश्तर अगर फे़'ल पर नहीं तो हर्फ़ जार पर ख़त्म होती है।
इन नुकात की वज़ाहत के लिए ज़ैल के बंद मुलाहिज़ा हों,
कट गई तेग़ तले जब सफ़-ए-दुश्मन आई
यक-ब-यक फ़सल-ए-फ़िराक़ सर-ओ-गर्दन आई
बिगड़ी इस तरह लड़ाई कि न कुछ बन आई
तेग़ क्या आई कि उड़ती हुई नागन आई
गुल था भागो कि ये हंगाम ठहरने का नहीं
ज़हर इसका जो चढ़ेगा तो उतरने का नहीं
कह के ये बाग फिराई तरफ़ लश्कर-ए-शाम
पड़ गया ख़ेमा-ए-नामूसएनबी में कुहराम
रन में घोड़े को उड़ाते हुए आए जो इमाम
रो'ब से फ़ौज के दिल हिल गए काँपे अंदाम
सर झुके उनके जो कामिल थे ज़ुबाँ-दानी में
उड़ गए होश फ़सीहों के रजज़-ख़्वानी में
यक-ब-यक तब्ल बजा फ़ौज में गरजे बादल
कोह थर्राए ज़मीं हिल गई गूँजा जंगल
फूल ढालों के चमकने लगे तलवारों के फल
मरने वालों को नज़र आने लगी शक्ल-ए-अजल
वाँ के चाउश बढ़ाने लगे दिल लश्कर का
फ़ौज-ए-इस्लाम में ना'रा हुआ या हैदर का
ऊपर के तीनों बंदों में रदीफ़ हर बैत में है और हर जगह खुली हुई है। नहीं और में में ग़नीयत है। अब फे़'ल को देखिए, ऊपर के चार मिसरों के अफ़आ'ल की बंदिश में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है। पहले बंद में आई फे़'ल है जिसकी चारों मिसरों में तकरार हुई है। आख़िरी दो मिसरों का अंदाज़ बिल्कुल दूसरा है। ये दोनों मिसरे इम्दादी फे़'ल था पर टिके हुए हैं और दोनों मिसरों में फे़'ल मुकम्मल है। अनीस की अक्सर बैतों में ये होता है कि ऊपर के चार मिसरों में फे़'ल की जो भी सूरत रही हो, बैत में आकर वो अपनी तकमील को पहुँचती है या अपना क़ालिब बदल के मुकम्मल सूरत में सामने आती है। ऊपर की दूसरी बैत में सर झुके, उड़ गए और तीसरी बैत में बढ़ाने लगे, ना'रा हुआ न सिर्फ़ ऊपर के चार-चार मिसरों की फ़े'लिया फ़िज़ा से उस्लूबियाती तौर पर मुख़्तलिफ़ हैं बल्कि फ़े'लिया सतह पर हर लिहाज़ से मुकम्मल भी हैं और इस अंदाज़ से न सिर्फ़ बंद की मा'नियाती फ़िज़ा की बल्कि उस्लूबियाती इकाई की भी तकमील होती है। इसका कुछ अंदाज़ ज़ैल की बैतों में बंदों के साथ पढ़ने से होगा,
फूला शफ़क़ से चर्ख़ पे जब लाला-ज़ार सुब्ह
गुलज़ार शब ख़िज़ाँ हुआ आई बहार-ए-सुब्ह
करने लगा फ़लक ज़र-ए-अंजुम निसार-ए-सुब्ह
सरगर्म ज़िक्र-ए-हक़ हुए ताअ'त गुज़ार-ए-सुब्ह
था चिराग़-ए-अख़्ज़री पे ये रंग आफ़ताब का
खिलता है जैसे फूल चमन में गुलाब का
चलना वो बाद-ए-सुब्ह के झोंखों का दम-ब-दम
मुर्ग़ान-ए-बाग़ की वो ख़ुश-इलहानियाँ बहम
वो आब-ओ-ताब नहर वो मौजों का पेच-ओ-ख़म
सर्दी हवा में पर न ज़ियादा बहुत न कम
खा-खा के ओस और भी सब्ज़ा हरा हुआ
था मोतियों से दामन-ए-सहरा भरा हुआ
बा-चश्मे नम वहाँ से बढ़े आप चंद गाम
गोया ज़मीं की सैर को उतरा मह-ए-तमाम
मिस्ल-ए-नुजूम गिर्द थे हैदर के लाला-फ़ाम
शक्लें वो नूर की वो तजम्मुल वो एहतिशाम
ज़ुल्फ़ें हवा से हिलती थीं हाथों में हाथ थे
लड़के भी बंद खोले हुए साथ-साथ थे
ठंडी हवा में सब्ज़ा-ए-सहरा की वो लहक
शर्माए जिससे अतलस-ए-ज़ंगारीये फ़लक
वो झूमना दरख़्तों का फूलों की वो महक
हर बर्ग गुल पे क़तर-ए-शबनम की वो झलक
हीरे ख़जिल थे गोहरे यकता-निसार थे
पत्ते भी हर शजर के जवाहर-निगार थे
ख़ेमे में जाके शह ने ये देखा हरम का हाल
चेहरे तो फ़क़ हैं और खुले हैं सरों के बाल
ज़ैनब की ये दुआ है कि ऐ रब्ब-ए-ज़ुल-जलाल
बच जाए इस फ़साद से ख़ैरुन्निसा का लाल
बानूए नेक नाम की खेती हरी रहे
संदल से माँग बच्चों से गोदी भरी रहे
इन बैतों के मुतालेए से ये बात पूरी तरह वाज़ेह हो जाती है कि इनका ख़ात्मा या तो इमदादी फे़'ल पर होता है या फे़'ल पर या फिर हुरूफ़-ए-जार पर, ये सब अलफ़ाज़ (अफ़आल हों या हुरूफ़ जार) खुली अस्वात पर ख़त्म होते हैं। अनीस के हाँ ग़ैर-मुरद्दफ़ बैतें सिरे से हैं ही नहीं। अलबत्ता इक्का-दुक्का पाबंद-ए-रदीफ़ें आई हैं। उनका तनासुब ये है, पहले मर्सिए की कुल 102 बैतों में से पाबंद-रदीफ़ें सिर्फ़ 5 हैं। उसी तरह दूसरे मर्सिए की कुल 194 बैतों में से पाबंद-ए-रदीफ़ें सिर्फ़ 13 हैं। गोया दोनों मर्सियों की 102+194=296 बैतों में से सिर्फ़ 5+13=18 पाबंद-ए-रदीफ़ें हैं। ये कुल बैतों का 6 फ़ीसद से ज़ियादा नहीं। इस औसत की मज़ीद तस्दीक़ हमने बीस मुख़्तलिफ़ मरासी के उन 360 बंदों की बैतों से भी की, जिनका तज़्किरा पहले किया जा चुका है। उनके नताइज से भी इसी बात को तौसीक़ हुई।
पहली जिल्द 90: 6
दूसरी जिल्द 90: 5
तीसरी जिल्द 90: 7
चौथी जिल्द 90: 5
मीज़ान 360: 23: औसत 6 फ़ीसद
या'नी 360 बैतों में सिर्फ़ 23 पाबंद रदीफ़ों में हैं और औसत के पेशे नज़र अब इस वज़ाहत की ज़रूरत नहीं रहती कि बैतों का सौती रुजहान बंदों के सौती रुजहान के बिल्कुल बर-अक्स है, या'नी वहाँ पाबंद-ए-क़वाफ़ी और मुसम्मतों पर ज़ोर था तो यहाँ आज़ाद क़वाफ़ी यानी मुसव्वतों की कसरत है। गोया बिल्कुल दिन और रात की कैफ़ियत है। हर चार मिसरों के बाद जब क़ाफ़िया बदलता है तो एक ज़बरदस्त अंदुरूनी मूसीक़ियत और ड्रामाइयत पैदा होती है। बंदों में शौकत, दबदबा, बुलंद-आहंगी और जलाल है तो बैतों में जमाल, रस और लताफ़त है। बंदों में उठान और बयान है तो बैतों में तक्मिला और ख़ात्मे की कैफ़ियत है। बंदों के मुसम्मते जब बैतों की खुली आवाज़ों और मुसव्वतों में ढ़लते हैं तो अजब ख़ुश-आहंगी और जमालियाती कैफ़ का एहसास होता है। ये है क़सीदे और ग़ज़ल की रूह का वो मिलाप जिसकी तरफ़ शुरू में इशारा किया गया था कि इसने अनीस के यहाँ एक अछूता उस्लूबियाती पैकर इख़्तियार किया और फ़साहत के क़दीम तसव्वुर को एक नई शे'री जिहत से आश्ना किया।
इस सारी बहस में अब तक हमने दबीर को नज़र-अंदाज़ किया है। हमारे मुक़दमे पर अभी ये सवाल क़ाइम किया जा सकता है कि मरासी अनीस की जिस इम्तियाज़ी ख़ुसूसियत पर हम इसरार कर रहे हैं और जिसे अनीस की फ़साहत के मल्फ़ूज़ी अज्ज़ाए तरकीबी का जुज़्व लाज़िमी क़रार दे रहे हैं, वो कहीं मुसद्दस ही की ख़ुसूसियत न हो। या'नी क़सीदे और ग़ज़ल के हैअती अनासिर की आमेज़िश और मुसम्मतों और मुसव्वतों का सौती टकराव और झंकार कहीं मुसद्दस ही के फ़ार्म की बदौलत न हो, और तमाम मुसद्दस कहने वालों में ये ख़ुसूसियत जुज़्व-ए-मुश्तरक COMMON DENOMINATION ही की हैसियत न रखती हो। इस सूरत में उसका हक़ तहसीन CREDIT मुसद्दस की हैअत को मिलना चाहिए न कि अनीस के फ़न को।
चुनाँचे ज़रूरी है कि इस ज़िम्न में अनीस के मुसद्दस का मुवाज़ना-ए-दबीर के मुसद्दस से किया जाए, क्योंकि अगर ये ख़साइस मुसद्दस के हैं या'नी इनका वक़ूअ मुसद्दस में बिल-क़ुव्वा मौजूद LATENT है तो दोनों में मुश्तरक होंगे और इस बारे में अनीस का कुछ इम्तियाज़ न होगा और अगर इनका तअल्लुक़ शाइर के जौहर-ए-ज़ाती और ज़ेहन-ए-तख़्लीक़ी से होगा तो दोनों के यहाँ इस ज़िम्न में जो कुछ मा-बेहिलइम्तियाज़ होगा, वो ज़ाहिर होकर सामने आ जाएगा। अवध अख़बार की जिल्दों या नवल किशोरी जिल्दों की ग़ैर मौजूदगी में शिआर-ए-दबीर मुरत्तबा मुहज़्ज़ब लखनवी (जिसमें दबीर के छः बेहतरीन मरासी शामिल हैं) और शाइर-ए-आज़म मिर्ज़ा सलामत अली दबीर मुअल्लफ़ा डॉक्टर अकबर हैदरी काश्मीरी से मदद ली गई, जिसमें दबीर का मर्सिया ज़र्रा है आफ़ताब दर-ए-बू-तुराब का शामिल है, उनकी मदद से मरासी-ए-दबीर के तज्ज़िए की जो कैफ़ियत सामने आई दर्ज-ज़ैल है,
कुल बंद पाबंद-ए-क़वाफ़ी वाले बंद
ज़र्रा है आफ़ताब दर-ए-बू-तुराब का: 81 31
जब माह ने नवाफ़िल-ए-शब को अदा किया : 153 69
किस शेर की आमद है कि रन काँप रहा है: 132 38
366 138=38 फ़ीसद
इत्तिफ़ाक़ी तज्ज़िया शिआर-ए-दबीर
(हर दसवाँ सफ़्हा, कुल पन्द्रह बार: 15031=21 फ़ीसद, फ़ी सफ़्हा पाँच बंद)
अब इस तज्ज़िए से ये निहायत दिलचस्प और ना-क़ाबिले तरदीद हक़ीक़त सामने आती है कि पाबंद-ए-क़वाफ़ी वाले बंदों के इस्तेमाल पर दबीर को वो क़ुदरत नहीं या उनकी तबियत को पाबंद-ए-क़वाफ़ी वाले बंदों से वो निस्बत नहीं जो अनीस को है। अनीस के यहाँ पाबंद-ए-क़वाफ़ी वाले बंदों का इस्तेमाल 60 से 66 फ़ीसद या'नी तक़रीबन दो-तिहाई है जबकि दबीर का RANGE21 फ़ीसद से 38 फ़ीसद है या'नी तक़रीबन एक-तिहाई। उसी निस्बत से दोनों के फ़न में अलावा दूसरे शे'री अवामिल के, जो बुनियादी हैअती और सौती फ़र्क़ है, यानी पाबंद-ओ-आज़ाद क़वाफ़ी के टकराव, नीज़ तब्दीली अस्वात के मख़्सूस ज़ेर-ओ-बम और सौती झंकार से जो जमालियाती कैफ़ियत पैदा होती है, वो उसी ए'तिबार से दबीर के यहाँ कम है। दबीर के यहाँ ये ख़ुसूसियत अगरचे मौजूद है, लेकिन इस हमा-गीर और आ'ला पैमाने पर नहीं जैसी अनीस के यहाँ है। नीज़ इससे ये हक़ीक़त भी सामने आती है कि पाबंद-ए-क़वाफ़ी वाले बंदों का इस्तेमाल मुसद्दस के फ़ार्म की नागुज़ीर कैफ़ियत नहीं, वरना दोनों के यहाँ इनका औसत कम-ओ-बेश एक जैसा होता।
इस तज्ज़िए से अनीस-ओ-दबीर के फ़न का फ़र्क़ (सौती हद तक) तो वाज़ेह तौर पर सामने आ गया लेकिन जहाँ तक मुसद्दस के फ़ार्म का तअल्लुक़ है, अभी इसको मज़ीद जाँचने की ज़रूरत है, बिल-ख़ुसूस मर्सिए से हट कर जिन शो'रा ने मुसद्दस को बरता है, उनके यहाँ भी ये देख लेना चाहिए कि मुसद्दस की क्या कैफ़ियत मिलती है और पाबंद-ओ-आज़ाद क़वाफ़ी वाले बंदों की क्या नौईयत है। इस सवाल का जवाब मालूम करने के लिए हमने ब-वुजूह हाली और चकबस्त का इंतिख़ाब किया क्योंकि अनीस के बाद इन दोनों ने मुसद्दस के फ़ार्म को जिस कामयाबी से बरता है इसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती। मुसद्दस हाली चूँकि मुसलसल नज़्म है और ख़ासी तवील, इसलिए बेहतर तरीक़ा यही था कि इसका इत्तिफ़ाक़ी तज्ज़िया किया जाए। इससे जो दिलचस्प नताइज सामने आए दर्ज-ज़ैल हैं,
(मुसद्दस-ए-हाली सदी एडीशन मुरत्तबा, सफ़्हा पाबंद-ए-क़वाफ़ी वाले बंद
डॉक्टर सैयद आबिद हुसैन, तबअ लाहौर 1957)
80 2
90 1
100 2
110 0
120 2
130 1
140 0
150 2
160 0
170 1
180 1
185 3
175 1
165 2
155 1
कुल बंद 60 पाबंद19: औसत 32 फ़ीसद
हर सफ़्हे पर चार बंद हैं। इस तरह पन्द्रह सफ़्हों पर कुल साठ बंद हैं। इनमें पाबंद-ए-क़वाफ़ी वाले बंद सिर्फ़ उन्नीस निकले, या'नी एक तिहाई से भी कम। ये अनीस के औसत से आधा हुआ। इस पर किसी तब्सिरे की ज़रूरत नहीं। (अलबत्ता इस कमी को हाली एक और तरह से पूरा करने की कोशिश करते हैं या'नी उनके यहाँ 60 बैतों में से 15 पाबंद हैं और जो बिल्कुल अलग बात है। अनीस के यहाँ बैतें बिल-उमूम आज़ाद और खुली हुई हैं। अब ज़रा चकबस्त को मुलाहिज़ा फ़रमाइए। उनके यहाँ रामायण का एक सीन से बेहतर मुसद्दस नहीं, चुनाँचे इसी को लिया गया। कुल बंद 33, पाबंद-ए-क़वाफ़ी 24 और 33 बैतों में से सिवाए एक के सब आज़ाद और खुली हुई। क्या इसके बाद ये बताने की ज़रूरत बाक़ी है कि चकबस्त का मुसद्दस अनीस से कितना क़रीब है और चकबस्त के बारे में वो बात जो तअस्सुराती या जमालियाती तौर पर कही जाती है कि चकबस्त का फ़न अनीस से शदीद तौर पर मुतअस्सिर है, इसकी कैसी वाज़ेह मा'रुज़ी बुनियाद इस तज्ज़िए से सामने आ जाती है।
नीज़ अब इस बारे में किसी शक-ओ-शुब्हे की गुंजाइश नहीं कि पाबंद-ए-क़वाफ़ी वाले बंदों का कोई मुक़र्ररा फ़ीसद मुसद्दस के फ़ार्म के लिए नागुज़ीर नहीं। मुसद्दस को बरतने वाले मुख़्तलिफ़ शो'रा के यहाँ इसका औसत मुख़्तलिफ़ है। या'नी किसी ख़ास तादाद में पाबंद-ए-क़वाफ़ी वाले पहले चार मिसरों का वुक़ूअ मुसद्दस के फ़ार्म का COMMON DENOMINATOR नहीं। दबीर और हाली के यहाँ इनका वुक़ूअ बिल-उमूम एक तिहाई है जबकि अनीस के यहाँ दो-तिहाई। ये फ़र्क़ मामूली फ़र्क़ नहीं और ये इम्तियाज़ मुसद्दस को बरतने वाले तमाम शो'रा में सिर्फ़ अनीस को हासिल है। अनीस ने एक जगह क्या अच्छा इशारा किया है,
बज़्म का रंग जुदा रज़्म का मैदाँ है जुदा
ये चमन और है ज़ख़्मों का गुलिस्ताँ है जुदा
फ़हम-ए-कामिल हो तो हर नामे का उनवाँ है जुदा
मुख़्तसर पढ़ के रुला देने का सामाँ है जुदा
दबदबा भी हो मसाइब भी हों, तौसीफ़ भी हो
दिल भी महज़ूज़ हों, रिक़्क़त भी हो, तारीफ़ भी हो
अनीस बज़्म और रज़्म के रम्ज़ आशना थे। बैन-ओ-बका को उन्होंने मुख़्तसर पढ़ के रुला देने तक महदूद रखा है। मसाइब और रिक़्क़त के साथ-साथ उन्हें इस बात का बतौर ख़ास ख़्याल था कि दिल भी महज़ूज़ हों जो ग़ज़ल का वस्फ़ है और दबदबा भी हो तौसीफ़ भी हो और तारीफ़ भी, जो क़सीदे का मन्सब है। अनीस ने ये सब काम मुसद्दस से लिया। ऊपर की बहस से ये बात पाया-ए-सुबूत को पहुँच जाती है कि अनीस जिस फ़साहत का दावा करते हैं, या शिबली और उनके बाद आने वाले नक़्क़ाद अनीस की जिस फ़साहत की दाद देते हैं, इसका गहरा तअल्लुक़ मुसद्दस के फ़ार्म को इंतहाई फ़नकारी के साथ बरतने से भी है और ग़ज़ल और क़सीदे की शे'री रूह को जज़्ब करके उसकी तक़लीब करने से भी। अनीस की फ़साहत फ़रेब-ए-नज़र का सामान ज़रूर फ़राहम करती है लेकिन दर-अस्ल ये वैसी फ़साहत नहीं जिस का तसव्वुर क़ुदमा या मुतवस्सितीन के यहाँ मिलता है।
अनीस ने मर्सिए की फ़िज़ा में क़सीदे की रिवायत से इस्तिफ़ादा करके फ़साहत के मुरव्विजा मफ़्हूम में नई वुस्अत पैदा की। मुम्किन है ऐसा ग़ैर-शुऊरी तौर पर हुआ हो, ताहम इससे ये बात भी वाज़ेह तौर पर सामने आ जाती है कि अनीस ने नासिख़ीयत ही के बा'ज़ अज्ज़ा की तक़लीब करके नासिख़ीयत से टक्कर ली और मर्सिए को एक नई ख़ुश-आहंगी और जमालियाती हुस्न अता करके बिल-वास्ता तौर पर नासिख़ीयत की शिकस्त में क़सीदे के ज़ोर-ए-बयान और दबदबे और बैतों में ग़ज़ल की लताफ़त और नर्मी को बाहम मरबूत करके मर्सिए को जो नया उसस्लूबियाती पैकर दिया, वो उनके फ़न से मख़्सूस है और ये जुज़्व-ए-ला-यनफ़क है इस फ़साहत का जिसके क़दीम मफ़्हूम को उन्होंने वुसअत दी और जिसका असर बाद की उर्दू शाइरी पर बराबर महसूस होता रहा है।
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