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अब्दुल वहाब सुख़न

1970 | रामपुर, भारत

अब्दुल वहाब सुख़न के शेर

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नए हैं वस्ल के मौसम मोहब्बतें भी नई

नए रक़ीब हैं अब के अदावतें भी नई

किताब-ए-दिल का मिरी एक बाब हो तुम भी

तुम्हें भी पढ़ता हूँ मैं इक निसाब की सूरत

ये सानेहा भी हो गया है रस्ते में

जो रहनुमा था वही खो गया है रस्ते में

ये प्यार का जज़्बा तिरे कुछ काम तो आए

मेरा नहीं बनता है तो बन और किसी का

वो ऐसे मोड़ पर मुझ को मिला था

मैं तन्हाई का आदी हो चुका था

जला दिए हैं किसी ने पुराने ख़त वर्ना

फ़ज़ा में ऐसा तो रक़्स-ए-शरर नहीं होता

मोहब्बतों के हसीं बाब से ज़रा आगे

किताब-ए-ज़ीस्त में मिलता है गुमरही का वरक़

जल रहे हैं अभी कमज़ोर अक़ीदों के चराग़

जिस का जी चाहे ज़माने में ख़ुदा हो जाए

शायद कि ये ज़माना उन्हें पूजने लगे

कुछ लोग इस ख़याल से पत्थर के हो गए

जब भी ये सोचने लगता हूँ कि कौन अपना है

ज़ेहन में के कई नाम निकल जाते हैं

ये जो मैं तुझ को हम-आग़ोश किए रहता हूँ

जाने किस किस को फ़रामोश किए रहता हूँ

फँस ही जाते हैं किसी दाम में आख़िर हम लोग

लाख कहते हैं छलावे में नहीं आएँगे

वो ऐसे मोड़ पर मुझ को मिला था

मैं तन्हाई का आदी हो चुका था

थाम रक्खी है हम ने चाल अपनी

आज-कल हैं सितारे गर्दिश में

शायद कि ये ज़माना उन्हें पूजने लगे

कुछ लोग इस ख़याल से पत्थर के हो गए

तुम्हारी बात ही क्या तुम बड़े हुनर से मिले

ज़ख़्म-ए-दिल की तरह और चारागर की तरह

जल रहे हैं अभी कमज़ोर अक़ीदों के चराग़

जिस का जी चाहे ज़माने में ख़ुदा हो जाए

ये जो मैं तुझ को हम-आग़ोश किए रहता हूँ

जाने किस किस को फ़रामोश किए रहता हूँ

तुम्हारी बात ही क्या तुम बड़े हुनर से मिले

ज़ख़्म-ए-दिल की तरह और चारागर की तरह

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