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हयात लखनवी

1931 - 2006 | लखनऊ, भारत

हयात लखनवी के शेर

ये इल्तिजा दुआ ये तमन्ना फ़ुज़ूल है

सूखी नदी के पास समुंदर जाएगा

ख़ुदा के वास्ते मोहर-ए-सुकूत तोड़ भी दे

तमाम शहर तिरी गुफ़्तुगू का प्यासा है

अब दिलों में कोई गुंजाइश नहीं मिलती 'हयात'

बस किताबों में लिक्खा हर्फ़-ए-वफ़ा रह जाएगा

सिलसिला ख़्वाबों का सब यूँही धरा रह जाएगा

एक दिन बिस्तर पे कोई जागता रह जाएगा

चेहरे को तेरे देख के ख़ामोश हो गया

ऐसा नहीं सवाल तिरा ला-जवाब था

ये जज़्बा-ए-तलब तो मिरा मर जाएगा

तुम भी अगर मिलोगे तो जी भर जाएगा

मुद्दआ हम अपना काग़ज़ पर रक़म कर जाएँगे

वक़्त के हाथों में अपना फ़ैस्ला रह जाएगा

हर सदा से बच के वो एहसास-ए-तन्हाई में है

अपने ही दीवार-ओ-दर में गूँजता रह जाएगा

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