रज़ी अख़्तर शौक़ के शेर
आप ही आप दिए बुझते चले जाते हैं
और आसेब दिखाई भी नहीं देता है
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टैग : सोशल डिस्टेन्सिंग शायरी
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हम इतने परेशाँ थे कि हाल-ए-दिल-ए-सोज़ाँ
उन को भी सुनाया कि जो ग़म-ख़्वार नहीं थे
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अब कैसे चराग़ क्या चराग़ाँ
जब सारा वजूद जल रहा है
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दो बादल आपस में मिले थे फिर ऐसी बरसात हुई
जिस्म ने जिस्म से सरगोशी की रूह की रूह से बात हुई
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हम रूह-ए-सफ़र हैं हमें नामों से न पहचान
कल और किसी नाम से आ जाएँगे हम लोग
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मुझ को पाना है तो फिर मुझ में उतर कर देखो
यूँ किनारे से समुंदर नहीं देखा जाता
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