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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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Aale Ahmad Suroor

1911 - 2002 | Aligarh, India

One of the founders of modern Urdu criticism.

One of the founders of modern Urdu criticism.

Quotes of Aale Ahmad Suroor

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अदब इंक़लाब नहीं लाता बल्कि इंक़लाब के लिए ज़हन को बेदार करता है।

ग़ज़ल हमारी सारी शायरी नहीं है, मगर हमारी शायरी का इत्र ज़रूर है।

शायरी में वाक़िया जब तक तजरबा बने उसकी अहमियत नहीं है। ख़्याल जब तक तख़य्युल के सहारे रंगा-रंग और पहलूदार हो, बेकार है। और एहसास जब तक आम और सत्ही एहसास से बुलंद हो कर दिल की धड़कन, लहू की तरंग, रूह की पुकार बन जाये उस वक़्त तक इसमें वो थरथराहट, गूंज, लपक, कैफ़ियत, तासीर-ओ-दिल-गुदाज़ी और दिलनवाज़ी नहीं आती, जो फ़न की पहचान है।

फ़न की वजह से फ़न्कार अज़ीज़ और मोहतरम होना चाहिए। फ़न्कार की वजह से फ़न नहीं।

ग़ज़ल इबारत, इशारत और अदा का आर्ट है।

ग़ज़ल की ज़बान सिर्फ़ महबूब से बातें करने की ज़बान नहीं, अपनी बात और अपने कारोबार-ए-शौक़ की बात की ज़बान है और यह कारोबार-ए-शौक़ बड़ी वुसअत रखता है।

शायरी में वाक़िया जब तक तजरबा बने, उसकी अहमियत नहीं है।

नस्र में अलफ़ाज़ ख़िरामां होते हैं। शायरी में रक़्स करते हैं। ख़िराम देखा जाता है। रक़्स महसूस भी किया जाता है।

ज़बान जितनी तरक़्क़ी करती जाती है मज्मूई तौर पर वह सादा और परकार होती जाती है।

हुस्न तो मौज़ूनियत का दूसरा नाम है।

अच्छा नक़्क़ाद पढ़ने वाले को शायर से शायरी की तरफ़ ले जाता है। मामूली नक़्क़ाद शायर में उलझ कर रह जाता है।

उर्दू में अफ़साना अब भी अफ़साना कम है, मज़मून या मुरक़्क़ा या वाअ्ज़ ज़्यादा। अफ़्साना निगार अब भी अफ़सानों में ज़रूरत से ज़्यादा झाँकता है।

दिल्ली की शायरी जज़्बे की शायरी है, वहाँ जज़्बा ख़ुद हुस्न रखता है। लखनऊ की शायरी जज़्बे को फ़न पर क़ुर्बान कर देती है।

तन्क़ीद के बग़ैर अदब एक ऐसा जंगल है जिसमें पैदावार की कसरत है, मौज़ूनियत और क़रीने का पता नहीं।

किसी मुल्क के रहने वालों के तख़य्युल की परवाज़ का अंदाज़ा वहाँ की शायरी से होता है, मगर उसकी तहज़ीब की रूह उसके उपन्यासों में जलवा-गर होती है।

साईंस और अदब दोनों अब हक़ीक़त की तलाश के दो रास्ते मान लिए गए हैं और दोनों के दरमियान बहुत-सी पगडंडियाँ भी हैं और पुल भी।

अच्छा आलोचक वह है जो पाठक को रचना के मुताल्लिक़ नई बसीरत दे।

नक़्क़ाद दरअसल वो मुहज़्ज़ब क़ारी है, जो मुरत्तब और मुनज़्ज़म ज़हन रखता है।

बड़ा आलोचक वह है, जिससे इख़्तिलाफ़ तो किया जाये, मगर जिस से इनकार मुम्किन हो और जिस से हर दौर में बसीरत मिलती रहे।

अच्छी इश्क़िया शायरी सिर्फ़ इश्क़िया ही नहीं, कुछ और भी होती है। इश्क़ ज़िंदगी की एक अलामत बन जाता है और बादा-ओ-साग़र के पर्दे में मुशाहिदा-ए-हक़ ही नहीं मुताला-ए-कायनात पर इस अंदाज़ से तबसरा होता है कि शेअर एक अबदी हक़ीक़त का परतौ बन जाता है और हर दौर में अपनी ताज़गी क़ायम रखता है

अदबी ज़बान मुकम्मल तौर पर बोल-चाल की ज़बान हो सकती है, और मुकम्मल तौर पर इल्मी। हाँ, दोनों से मदद ले सकती है।

मुहम्मद हुसैन आज़ाद हों या अबुल कलाम आज़द तरहदार ज़रूर हैं, मगर एक तमसील और दूसरा ख़िताबत के बग़ैर लुक़्मा नहीं तोड़ता। हमारे गद्य को अभी जज़्बातियत से और बुलंद होना है।

अदब वक़्ती और हंगामी वाक़ियात को अबदी तनाज़ुर में देखने का नाम है। हर लम्हे के साथ बदल जाने का नाम नहीं।

शायरी और अदब के लिए यह ज़रूरी नहीं कि वह वक़्ती सियासत के इशारों पर चले और सियासी तहरीकों के हर पेच-ओ-ख़म का साथ दे।

अलामती इज़हार, इज़हार का वह तरीक़ा है जो इस दौर में इसलिए मक़बूल हुआ कि यह दौर कोई सबक़ देने या किसी क़िस्से की ज़ेबाइश करने का क़ाइल नहीं, बल्कि उन नंगे लम्हों की मुसव्विरी का क़ाइल है जो कभी-कभार और बड़ी काविश के बाद या बड़े रियाज़ के बाद हाथ आते हैं।

अदीब ज़िंदगी से, इसकी सच्चाई से, इसके हुस्न से नहीं कटा बल्कि सियासी और समाजी हालात की शिकार पब्लिक इस से कट गई है।

हर अदब में तजरबे ज़रूरी हैं, मगर तजरबों के लिए यह ज़रूरी नहीं कि वह सिर्फ़ नए फ़ार्म में ज़ाहिर हों। नए मौज़ूआत, नए तसव्वुरात, नए उन्वानात में भी ज़ाहिर होने चाहिए।

सादगी, शायरी की कोई बुनियादी क़द्र नहीं है। बुनियादी क़द्र शेरियत है और ये शेरियत बड़ी पुरकर सादगी रखती है और ज़रूरत पड़ने पर मुश्किल भी हो सकती है।

तन्क़ीदी शुऊर तो तख़्लीक़ी शुऊर के साथ-साथ चलता है, मगर तन्क़ीदी कारनामे हर दौर में तख़्लीक़ी कारनामों के पीछे चले हैं।

दरबार की वजह से शायरी में शाइस्तगी और नाज़ुक-ख़्याली, सन्नाई और हमवारी आई है। ऐश-ए-इमरोज़ और जिस्म का एहसास उभरा है।

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