अब्बास क़मर के शेर
इन्हें आँखों ने बेदर्दी से बे-घर कर दिया है
ये आँसू क़हक़हा बनने की कोशिश कर रहे थे
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हालत-ए-हाल से बेगाना बना रक्खा है
ख़ुद को माज़ी का निहाँ-ख़ाना बना रक्खा है
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हम हैं असीर-ए-ज़ब्त इजाज़त नहीं हमें
रो पा रहे हैं आप बधाई है रोइए
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ख़मोशी कह रही है अब ये दो-आबा रवाँ होगा
हवा चुप हो तो बारिश के शदीद आसार होते हैं
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मेरे कमरे में उदासी है क़यामत की मगर
एक तस्वीर पुरानी सी हँसा करती है
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अश्कों को आरज़ू-ए-रिहाई है रोइए
आँखों की अब इसी में भलाई है रोइए
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ख़ुश हैं तो फिर मुसाफ़िर-ए-दुनिया नहीं हैं आप
इस दश्त में बस आबला-पाई है रोइए
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