अबुल हसनात हक़्क़ी
ग़ज़ल 22
अशआर 30
वो मेहरबान नहीं है तो फिर ख़फ़ा होगा
कोई तो राब्ता उस को बहाल रखना है
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ये सच है उस से बिछड़ कर मुझे ज़माना हुआ
मगर वो लौटना चाहे तो फिर ज़माना भी क्या
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मैं अपनी माँ के वसीले से ज़िंदा-तर ठहरूँ
कि वो लहू मिरे सब्र-ओ-रज़ा में रौशन है
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मैं क़त्ल हो के भी शर्मिंदा अपने-आप से हूँ
कि इस के बाद तो सारा ज़वाल है उस का
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वीडियो 9
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