अफ़ज़ल परवेज़ के शेर
अलख जमाए धूनी रमाए ध्यान लगाए रहते हैं
प्यार हमारा मस्लक है हम प्रेम-गुरु के चेले हैं
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अपना घर शहर-ए-ख़मोशाँ सा है
कौन आएगा यहाँ शाम ढले
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तुम उन को सज़ा क्यूँ नहीं देते कि जिन्हों ने
मुजरिम का ज़मीर और सुकूँ लूट लिया है
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हर मुसाफ़िर तिरे कूचे को चला
उस तरफ़ छाँव घनी हो जैसे
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मैं तो अपनी जान पे खेल के प्यार की बाज़ी जीत गया
क़ातिल हार गए जो अब तक ख़ून के छींटे धोते हैं
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हुस्न की दौलत उस की है और वस्ल की इशरत भी उस की
जिस ने पल पल हिज्र में काटा जौर सहे दुख झेले हैं
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कारज़ार-ए-इश्क़-ओ-सर-मस्ती में नुसरत-याब हों
वो जुनूनी दार तक जाने को जो बेताब हूँ
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दर-ओ-दीवार भी होते हैं जासूस
कोई सुनता न हो आहिस्ता बोलो
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बाज़ीगाह-ए-दार-ओ-रसन में मय-कदा-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न में
हम रिंदों से रौनक़ है हम दरवेशों से मेले हैं
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