अजीत सिंह हसरत के शेर
बन सँवर कर रहा करो 'हसरत'
उस की पड़ जाए इक नज़र शायद
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बस एक ही बला है मोहब्बत कहें जिसे
वो पानियों में आग लगाती है आज भी
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हज़ार चुप सही पर उस का बोलता चेहरा
ख़मोश रह के हमें ला-जवाब कर देगा
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गुज़रे जिधर से नूर बिखेरे चले गए
वो हम-सफ़र हुए तो अँधेरे चले गए
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कभी मैं रोते रोते हँस दिया करता हूँ पागल सा
कभी मैं हँसते हँसते आँसुओं से भीग जाता हूँ
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जिस में इंसानियत नहीं रहती
हम दरिंदे हैं ऐसे जंगल के
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पहले वक़्तों में हो तो हो शायद
दोस्ती अब हसीन गाली है
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आख़िरी उम्मीद भी आँखों से छलकाए हुए
कौन सी जानिब चले हैं तेरे ठुकराए हुए
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अभी कुछ और तिरी जुस्तुजू रुलाएगी
अभी कुछ और भटकना है दर-ब-दर मुझ को
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मैं गहरे पानियों को चीर देता हूँ मगर 'हसरत'
जहाँ पानी बहुत कम हो वहाँ मैं डूब जाता हूँ
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ये गर्म गर्म से आँसू बता रहे हैं यही
ज़रूर आग कहीं दिल के आस-पास लगी
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तीरगी में नूर आएगा नज़र
डूबते सूरज को भी सज्दा करो
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वो दिन हवा हुए वो ज़माने गुज़र गए
बंदे का जब क़याम परी-ज़ादियों में था
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ख़ाक में मिलना था आख़िर बे-निशाँ होना ही था
जलने वाले के मुक़द्दर में धुआँ होना ही था
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जिन्हें था शौक़ मेला देखने का
वो सारे लोग अपने घर गए हैं
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हमारे अहद का ये अलमिया है
उजाले तीरगी से डर गए हैं
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सर्द आहों से दिल की आग बुझा
गर्म अश्कों से जाम भरता जा
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हिज्र का दिन क्यूँ चढ़ने पाए
वस्ल की शब तूलानी कर दो
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तिरे पयाम ही से सुर्ख़ हो गया है बदन
कि मेंह पड़ा नहीं है खिल उठे कँवल पहले
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