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अकबर हमीदी के शेर

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रात दिन फिर रहा हूँ गलियों में

मेरा इक शख़्स खो गया है यहाँ

हू-ब-हू आप ही की मूरत है

ज़िंदगी कितनी ख़ूब-सूरत है

जल कर गिरा हूँ सूखे शजर से उड़ा नहीं

मैं ने वही किया जो तक़ाज़ा वफ़ा का था

हवा सहला रही है उस के तन को

वो शोला अब शरारे दे रहा है

कई हर्फ़ों से मिल कर बन रहा हूँ

बजाए लफ़्ज़ के अल्फ़ाज़ हूँ मैं

कोई नादीदा उँगली उठ रही है

मिरी जानिब इशारा हो रहा है

गो राहज़न का वार भी कुछ कम था मगर

जो वार कारगर हुआ वो रहनुमा का था

फ़नकार ब-ज़िद है कि लगाएगा नुमाइश

मैं हूँ कि हर इक ज़ख़्म छुपाने में लगा हूँ

कितना मान गुमान है देने वाले को

दर्द दिया है और मुदावा रोक लिया

अभी ज़मीन को हफ़्त आसमाँ बनाना है

इसी जहाँ को मुझे दो-जहाँ बनाना है

ऐसे हालात में इक रोज़ जी सकते थे

हम को ज़िंदा तिरे पैमान-ए-वफ़ा ने रक्खा

लिबास में है वो तर्ज़-ए-तपाक-ए-आराइश

जो अंग चाहे छुपाना झलक झलक जाए

कहीं तो हर्फ़-ए-आख़िर हूँ मैं 'अकबर'

किसी का नुक़्ता-ए-आग़ाज़ हूँ मैं

नफ़स नफ़स हो सबा की तरह बहार-अंगेज़

उफ़ुक़ उफ़ुक़ गुल-ए-हस्ती महक महक जाए

कभी जो वक़्त ज़माने को देता है गर्दिश

मिरे मकाँ से भी कुछ ला-मकाँ गुज़रते हैं

वो भी दिन था कि तिरे आने का पैग़ाम आया

तब मिरे घर में क़दम बाद-ए-सबा ने रक्खा

किसी को अपने सिवा कुछ नज़र नहीं आता

जो दीदा-वर है तिलिस्म-ए-नज़र से निकलेगा

ये अक्स-ए-आब है या इस का दामन-ए-रंगीं

अजीब तरह की सुर्ख़ी सी बादबान में है

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