अकबर मासूम के शेर
रह जाएगी ये सारी कहानी यहीं धरी
इक रोज़ जब मैं अपने फ़साने में जाऊँगा
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अब तेरा खेल खेल रहा हूँ मैं अपने साथ
ख़ुद को पुकारता हूँ और आता नहीं हूँ मैं
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अब तुझे मेरा नाम याद नहीं
जब कि तेरा पता रहा हूँ मैं
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वो और होंगे जो कार-ए-हवस पे ज़िंदा हैं
मैं उस की धूप से साया बदल के आया हूँ
है मुसीबत में गिरफ़्तार मुसीबत मेरी
जो भी मुश्किल है वो मेरे लिए आसानी है
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ऐसा एक मक़ाम हो जिस में दिल जैसी वीरानी हो
यादों जैसी तेज़ हवा हो दर्द से गहरा पानी हो
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मैं किसी और ही आलम का मकीं हूँ प्यारे
मेरे जंगल की तरह घर भी है सुनसान मिरा
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जिस के बग़ैर जी नहीं सकते थे जा चुका
पर दिल से दर्द आँख से आँसू कहाँ गया
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तिरे ग़ुरूर की इस्मत-दरी पे नादिम हूँ
तिरे लहू से भी दामन है दाग़दार मिरा
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उजाला है जो ये कौन-ओ-मकाँ में
हमारी ख़ाक से लाया गया है
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