अख़्तर अंसारी
ग़ज़ल 45
अशआर 27
हाँ कभी ख़्वाब-ए-इश्क़ देखा था
अब तक आँखों से ख़ूँ टपकता है
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उस से पूछे कोई चाहत के मज़े
जिस ने चाहा और जो चाहा गया
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रोए बग़ैर चारा न रोने की ताब है
क्या चीज़ उफ़ ये कैफ़ियत-ए-इज़्तिराब है
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जब से मुँह को लग गई 'अख़्तर' मोहब्बत की शराब
बे-पिए आठों पहर मदहोश रहना आ गया
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क़ितआ 74
रुबाई 24
पुस्तकें 44
चित्र शायरी 3
अब कहाँ हूँ कहाँ नहीं हूँ मैं जिस जगह हूँ वहाँ नहीं हूँ मैं कौन आवाज़ दे रहा है मुझे? कोई कह दो यहाँ नहीं हूँ मैं